परिशिष्ट [क]

'कम्बलधारी अवधूत संत'
[एक तत्व-विवेचनात्मक अध्यन]
'कंबलधारी-मज्जूब' ; जिसके बारे में आम अवधारणा है, वह एक मुस्लिम फ़कीर थे। एक अध्ययन के स्रोत के अनुसार, वह शायद "मुस्लिम फ़कीर" होने के बजाय एक रोज़िक्रूशन था। रोज़िक्रूशन समाज के व्यक्ति 'गुह्यविद्या' में प्रवीण होते हैं, जो कि पहले-पहल 17 वीं शताब्दी की शुरुआत में इतिहासकारों की जानकारी में आये।
यह आम तौर पर रोज़ क्रॉस के प्रतीक के साथ जुड़ा हुआ है, जो कि "क्राफ्ट" या "ब्लू लॉज" फ्रीमेसोनरी से परे कुछ अनुष्ठानों में भी पाया जाता है। Rosicrucian ऑर्डर पहले और कई आधुनिक Rosicrucian को आंतरिक दुनिया के आदेश के रूप में देखा जाता है, जिसमें महान 'दक्ष' [Adepts] शामिल हैं। जब मनुष्यों की तुलना की जाती है, तो इन विशेषणों की चेतना डिमॉडोड्स की तरह होती है। इस "कॉलेज ऑफ इनविजिबल" को स्थायी रूप से रोसिक्रीकियन आंदोलन के विकास के पीछे स्रोत के रूप में माना जाता है।
Freemasonry एक विश्वव्यापी भ्रातृ संगठन है। सदस्यों को एक नैतिक और आध्यात्मिक प्रकृति दोनों के साझा आदर्शों के साथ और उसकी अधिकांश शाखाओं में, परमात्मा में विश्वास की संवैधानिक घोषणा द्वारा एक साथ शामिल किया जाता है। फ्रेमासोनरी एक गूढ़ समाज है, जिसमें इसके आंतरिक कार्यों के कुछ पहलुओं को आम तौर पर जनता के सामने प्रकट नहीं किया जाता है, लेकिन यह आम तौर पर समझ में आने वाली प्रणाली नहीं है।
ज्ञानवाद विभिन्न रहस्यमय दार्शनिक धर्मों, संप्रदायों और स्कूलों के लिए एक शब्द है जो भूमध्यसागरीय के आसपास कॉमन एरा की पहली कुछ शताब्दियों में सक्रिय थे और मध्य एशिया में फैले हुए थे। ये प्रणालियाँ विशेष रूप से जीवन के केंद्रीय लक्ष्य के रूप में विशेष ज्ञान (सूक्ति) की खोज की सलाह देती हैं। वे आमतौर पर प्रकाश और अंधेरे की प्रतिस्पर्धी ताकतों के बीच द्वंद्वात्मक संघर्ष के रूप में सृजन को चित्रित करते हैं, और भौतिक क्षेत्र के बीच एक चिह्नित विभाजन को प्रस्तुत करते हैं, जिसे आमतौर पर दुर्भावनापूर्ण ताकतों के शासन के रूप में दर्शाया जाता है, और उच्च आध्यात्मिक क्षेत्र से विभाजित किया जाता है। परिणामस्वरूप ये लक्षण, द्वैतवाद, एंटीकोस्मिज़्म और शरीर-द्वेष कभी-कभी ज्ञानवाद के भीतर मौजूद होते हैं। हालांकि, इसमें शामिल परंपराओं में विविधता, सूक्ष्मता और जटिलता है।
सिस्टर इरीना ट्वीडी, [Irina Tweedi],
महात्मा राधामोहन अधौलिया की एक अनुयायी शिष्यों में से एक, ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डॉटर ऑफ फायर' [Daughter Of Fire] में उद्धृत किया है, जो ऊपर दिए गए निष्कर्षों के समान है; “नकुशबंदिया परंपरा", इस्लाम के पैगंबर से प्रारम्भ होती है। लेकिन सूफी पैगंबर से पहले भी थे। सूफ़ीवाद हमेशा से था; यह प्राचीन ज्ञान है। पैगंबर से पहले केवल उन्हें "सूफ़ी" नहीं कहा जाता था। उनकी मृत्यु के कुछ शताब्दियों बाद ही उन्हें सूफ़ी कहा जाना प्रारम्भ हुआ था। बहुत पहले, वे "कंबल पोश" (कंबल पहनने वाले) कहे जाने वाले संप्रदाय थे, और वे हर पैगंबर के पास गए। एक परंपरा चली गई कि वे यीशु के पास भी गए। कोई उन्हें संतुष्ट नहीं कर सका। प्रत्येक पैगंबर ने उनसे कहा, यह या वह करने के लिए, और वे संतुष्ट नहीं थे। एक बार हज़रत मोहम्मद ने कहा था : कई कम्बल पॉश आदमी आ रहे हैं, और वे इतने दिनों में यहाँ पहुँचेंगे और अब वही क्षण वे यहाँ हैं ‟। वे आए जब उन्होंने कहा था, जिस दिन उन्होंने कहा था। और जब वे उसके साथ थे, तो उसने केवल उन्हें देखा, बिना कोई शब्द बोले। वे तब पूरी तरह से संतुष्ट थे ”। पुस्तक में दिए गए वृत्तान्त के अनुसार उन्होंने आगे कहा: “हां, ऐसा था ; यह सही है। हर पैगंबर ने उन्हें बताया, यह या वह। स्वाभाविक रूप से वे संतुष्ट नहीं थे। लेकिन जब प्यार पैदा होता है, तो क्या असंतोष हो सकता है? तो वे चले गए, पूरी तरह से संतुष्ट। पूरी सच्चाई नहीं। ” एक और दिन वह फिर से स्पष्ट कर रहा था: “पहले ध्वनि है, फिर प्रकाश और उसके बाद प्रेम। ध्वनि अकाश (ईथर) है। चर्चा के दौरान कुछ बार कुछ छुपाया जाता है, न कि पूरी सच्चाई बताई जाती है ”।
अब, शायद, "कम्बलधारी-मज़्ज़ूब" द्वारा अभियाचित "मछली" के रहस्य को स्पष्ट करने के लिए सहायक कारण और इसकी अनुपलब्धता की स्थिति में, वह वापस चला जाएगा। इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए अपनाया गया साधन, जानने के लिए हमें, बहुत पीछे के इतिहास को साझा करके, इना [Ina] , पश्चिम सेक्सॉन्स [जर्मनी] के राजा से संबंधित - क्वीन एलिजाबेथ के समय में पोप समर्थकों [Papists] को सम्मानित किया जाता था। इसलिए, नीतिवचन वाक्यांश, वह एक ईमानदार आदमी है, और मछली नहीं खाता है; यह स्पष्ट करने के लिए कि वह सरकार का मित्र है और प्रोटेस्टेंट है। एक धार्मिक खाते में खाये वाली मछली, फिर पॉपरी [धर्माध्यक्षता] का ऐसा बिल्ला [badge] लगाया जाता है, कि जब संसद के कार्यों के लिए एक मौसम का आनंद लिया जाता है, तो मछली शहरों के प्रोत्साहन के लिए, कारण घोषित करना आवश्यक समझा गया; इसे सेसिल व्रत [Cecil Vrat] कहा जाता था। ”- वार्बर्टऑन।
वारबटन ने जिस अधिनियम का उल्लेख किया वह एलिजाबेथ के पांचवें वर्ष, 1562, कैप में पारित एक क़ानून था। वी। "नौसेना के रखरखाव के लिए पॉलिटिक को छूना," संप्रदाय। –XIV.- XXIII। इस अधिनियम के पंद्रहवें खंड में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति सामान्य मछली-दिनों में मांस खाता है,
"हर बार जब वह या वे अपराध करेंगे, तो तीन पाउंड का त्याग करना होगा; या जमानत या मुख्य आश्चर्य के बिना तीन महीने के करीब कारावास भुगतना पड़ता है ”, यह संभावना है कि अधिनियम में सबसे बड़ी आपत्ति संप्रदाय XIV में आदेश था। : - "यह सेंट माइकल द आर्कहेल की दावत से, हमारे भगवान भगवान 1514 के वर्ष में, प्रत्येक बुधवार को पूरे वर्ष में हर हफ्ते, जो देर से कानूनों या इस क्षेत्र के रीति-रिवाजों द्वारा नहीं किया गया है, का उपयोग किया गया और मनाया गया। एक मछली-दिवस, यहाँ मनाया और रखे जाने के बाद होगा, जैसा कि हर सप्ताह में शनिवार होना चाहिए या होना चाहिए ”।
[The Act to which Warburton refers was a statute passed in the fifth year of Elizabeth, 1562, cap. V. “touching Politick constitutions for the maintenance of the Navy,” Sect. –XIV.- XXIII. The fifteenth section of this Act provides, that any person eating flesh on the usual fish-days,
“ shall forfeit three Pound for for every time he or they shall offend; or else suffer three months close imprisonment without bail or mainprise”, It is probable that the greatest objection to the Act was the order in sect XIV. :- “That from the feast of St. Michael the Archangel, in the year of our Lord god 1514, every Wednesday in every week throughout the whole year, which heretofore hath not by late laws or customs of this realm been used and observed as a Fish-day, shall be here after observed and kept, as the Saturdays in every week be or ought to be”.]
परिशिष्ट [ख]
सत्संगियों के कर्तव्य
नीचे लिखे हुए नियम ख़ालिस-सत्संगियों के वास्ते लिखे जाते हैं। ढुलमुल यक़ीन रखने वालों के लिए नहीं।
[01] इन सत्संगियों का पूरा विश्वास परमात्मा ही पर होना चाहिए। जिस तरह किसी आदमी को किसी चीज़ की तलाश है लेकिन हर जगह माँगने पर भी कोई आदमी उसको वह चीज़ न देवे तो वह निराश हो कर बैठ रहता है, इसी तरह वह हर एक भाई-बंधु, रिश्तेदार, दोस्त, अफ़सर, मातहत और राजा आदि सबसे निराश होकर रहे। यदि कोई उसकी सहायता कर देवे तो वह सहायता परमात्मा की तरफ़ से ख़्याल करे और यह समझे कि परमात्मा ने उसके दिल में, जिसके ज़रिये से मदद मिली है, यह बात दाल दी है कि वह इस तरह मदद कर रहा है। अतः उसको ईश्वर का धन्यवाद् देना चाहिए और उस आदमी का भी दिल से, और जवानी [verbally] कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि उसने ऐसे हुक्म को जो उसको ईश्वर ने दिया, मन्ज़ूर किया और आज्ञा-पालन की।
[02] हर अपने बड़े की इज़त व ताज़ीम [respect] करता रहे और अपने से छोटों के लिए प्यार और उसकी ज़रूरतों को यथाशक्ति पूरा करने की कोशिश करें और उसके क़सूर [fault (of omission or commission) error, shortcoming] से चश्मपोशी [नज़रअंदाज़]। अपने बराबर वालों के साथ मोहब्बत, हमदर्दी और जायज़ इमदाद। जो लोग मुख़ालिफ़त [विरोध] पर बिलावजह आमादा रहें उनसे बचाव और बेपरवाही, और इस तरह अपने आप को उनसे अलहदा रखने की कोशिश करनी चाहिए, जिस तरह कि दुनिंयाँदार अपने क़र्ज़ख़्वाह से घबराता है या कंजूस अपना रुपया ख़र्च होने की जगह से, लकिन अगर वे मदद चाहें तो उनका काम कर देंना चाहिए और फिर अलग भाग जाना चाहिए। नफ़रत और नुक़सान पहुँचाने और बदला लेने की कोशिश हरग़िज़ नहीं करना चाहिए।
[03] हर-एक आदमी के ऐब को हमेशा छुपाना चाहिए और किसी का भेद अगर मालूम है तो बिना उसकी इजाज़त कभी कहीं ज़ाहिर न करना चाहिए।
[04] अपने कसूर को फ़ौरन मान लेना चाहिए, हठ और ज़िद न करना चाहिए। नुक़्ताचीनी की नज़र से बचते रहना चाहिए। अपना ऐब देखना चाहिए। दूसरों के ऐब की तरफ़ अगर नज़र जाती है तो उस ऐब से खुद सबक़ लेना चाहिए।
[05] किसी के ऐब की बुराई ज़ुबान से नहीं करनी चाहिये, मुमकिन है वही ऐब किसी वक़्त तुम में भी आ जावे ; किसी को बिना जाँच-पड़ताल के दोष नहीं देना चाहिए। यदि रिश्तेदार-खास या अपना लड़का तक बद्चलन हो तो उसका बेजा साथ नहीं देना चाहिए। वर्ना उसको दुबारा करने की शह और मदद मिलेगी। अगर समझाने से न माने तो उसको छोड़ कर अलग हो जाना चाहिए।
[06] बेइज़्ज़ती और बुराई, बुरे चाल-चलन और व्यवहार से होती है। झूठा वायदा करने से बेइज़्ज़ती होती है।
[07] क़र्ज़ लेना सबसे बुरा है, मगर निहायत ज़रूरत के वक़्त लिया जा सकता है। ज़रूरत का मौका सोचने और समझने से मालुम हो सकता है। जो क़र्ज़ नुमायश की ग़र्ज़ से लिया जाता है, उसका अदा [due payment ; as of a debt etc] होना कठिन हो जाता है । अगर मुसीबत और खाने-पीने या लड़की की शादी या अकाल वग़ैरह में लिया जाता है और नियत ठीक रखता है तो ईश्वर उसकी मदद करता है और कभी-न-कभी अदा हो ही जाता है। क़र्ज़ख़्वाह [Debtor] का सामना हमेशा करना चाहिए। मुहँ-छिपाना [to hide the face from] मना है।
[08] नौकर से वह काम लेना चाहिए जिसको तुम करने से बिलकुल मजबूर हो। नौकर बतौर इम्दाद [asststance] के है, न कि ऐशपरस्ती [luxury] का साधन।
[09] मज़दूर की मज़दूरी फ़ौरन अदा कर दो। हीला-हवाला [trickery] करना बड़ी बद-अख़लाक़ी है।
[10] अपने बच्चों को धार्मिक तालीम ज़रूर देना चाहिए।
[11] अपनी बीबी [wife] को किसी तरह हम-ख़याल [like-minded] बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
[12] जहाँ शराब और नशा के साथ नाच-रंग की महफ़िल हो, वहाँ यथा-शक्ति शामिल होने से परहेज़ करना चाहिए और अगर मजबूरन शरीक़् होना पड़े तो इस तरह शरीक़् हों जिस तरह 'सण्डास' [latrine] में वक़्त-ज़रूरत जाना पड़ता है।
[13] गाने के सुनने का अवसर अगर सामने आ जावे तो ऐसा परहेज़ न करें कि लोग ताड़ [perceptive] जावें, कि भागते हैं और रगवत भी न करें और दिल उसमें न लगावें और उसमें आनन्द न लें।
[14] अग़र रिश्तेदार और सम्बन्धी ऐसे कामों को करने पर मजबूर करें जिनके करने से धर्म नष्ट हुआ जाता है तो रिश्ते को, अगर ज़रूरत हो, तोड़ दें। क्योंकि कोई रिश्तेदार, दोस्त और अज़ीज़ वक़्त मुसीबत में मदद तो करता नहीं है और मालदार भी होता है तो भी एक -कौड़ी क़र्ज़ नहीं देता, बल्कि नुक़्ता-चीनी [to carp] और ताना-जनी [ridicule] को हर वक़्त तैयार रहते हैं। नहीं मालूम की फ़िर क्यों उनसे बेज़ा उम्मीदें बाँध कर अपने आप को सत्यानाश लगाते हैं।
सारांश यह है कि 'संतमत' का तरीक़ 'सलामत-रवी' [salvation of integrity] हमददर्दी [sympathy], तस्लीम [acceptance] व रज़ा [contentment] का तरीक़ है। इसमें ईश्वर के ऊपर भरोसा और उसके क़ानून-क़ुदरत के मुताबिक़ अमल करना ही लाज़िमी है।
अनिवार्य कर्तव्य ;
[01] सूर्योदय से पहिले उठना।
[02] शौचादि से निवृत्त हो कर स्नान करना। अगर बीमारी या कमज़ोरी या किसी और ख़ास वजह से स्नान न कर सकें तो भली-प्रकार हाँथ-पैर धो कर 'धोती' [वस्त्र] बदल लें।
[03] जो अभ्यास प्रतिदिन करने को बताया गया है उसको करना। अगर किसी को मालुम न हो तो अपने गुरु से दरियाफ़्त [seek out] कर लें।
[04] यदि कहीं सत्संग होता हो तो वहाँ जाना। अगर सत्संग नहीं होता है तो बतायी हुयी पुस्तकों का पाठ करना।
[05] साँयकाल सूर्यास्त के पश्चात् हाँथ-मुँह धो कर 'संध्या' और 'प्रार्थना' करना।
[06] रात को सोने से पहिले प्रार्थना करना। यदि हो सके तो 12.00 बजे दोपहर और 04.00 बजे शाम को भी प्रर्थना करना।
[07] रात को तमाम बाल-बच्चों आदि के साथ प्रार्थना व भजन करना और किसी बतायी हुयी पुस्तक या रामायण का पाठ करना।
[08] जो अभ्यास बताया गया है उसे हर समय, जब फुर्सत हो, दिन और रात में बराबर करते रहना।
अन्य कर्तव्य
[01] अधर्म की कमाई का खाना अथवा संदिग्ध भोजन करना बहुत बुरा है।
[02] जहाँ तक हो सके सत्संगी के हाँथ का भोजन करना।
[03] भोजन करने से पूर्व उसे ईश्वरार्पण करना। इसकी विधि गुरु से पूँछ लेनी चाहिए।
[04] स्वच्छ स्थान पर भोजन करना।
[05] भोजन सादा और पवित्रता के साथ खाना, परन्तु भूँख से कुछ कम खाना।
[06] भोजन करते समय कम बोलना।
[07] मादक वस्तुओं का सर्वथा परित्याग।
[08] तामसी भोजन [मांसादि] का त्याग।
[09] दावतों में कम जाना और केवल उनके यहाँ भोजन करना जिनका विश्वास हो कि निषिद्ध धान्य [prohibited cereal] नहीं है। यदि विवश हो कर खाना ही पड़े तो उसके बाद व्रत [fast] रखना और पश्चाताप करना।
[10] सप्ताह में एक दिन व्रत [fast] रखना और दिन में किसी धार्मिक पुस्तक का पाठ करना।
[11] किसी का दिल न दुखाना।
[12] किसी की बुराई न करना और ऐसी बात जो उसके सामने न कह सकें, उसके पीछे भी न कहना।
[13] औरों के दुर्गुणों को छिपाना।
[14] यदि किसी मनुष्य को कष्ट में देखो तो उसकी सहायता करना।
[15] किसी आदमी से, चाहें वह कितना भी बुरा क्यों न हो, घृणा न करना। यदि उसके कर्मों से घृणा है तो उसके लिए प्रार्थना करना।
[16] किसी भिखारी को द्वार से न ललकारना [shout], शक्ति के अनुसार जो हो सके वह दें अथवा सहज में मना कर दें।
[17] यदि किसी से कड़ी बात भी कहनी हो तो मुलायम शब्दों में कहना।
[18] स्त्रियों और बच्चों की संगति से बचना।
[19] अपनी धर्मपत्नी के सिवाय किसी अन्य स्त्री के साथ बात-चीत करते समय, किसी अन्य को साथ रखना।
[20] किसी अन्य के माल पर अथवा किसी ग़ैर की स्त्री [पत्नी] की ओर दृष्टि न डालना।
[21] काम क़ीमत, मज़बूत और साफ़ कपड़े पहनना।
[22] पुरुषों को ज़ेबर न पहनना चाहिए। अधिक से अधिक अँगूठी का प्रयोग कर सकते हैं।
[23] अपनी आमदनी का कुछ भाग, सोलहवाँ या इससे भी कम, दान के लिए निकालना। यदि कोई निकट सम्बन्धी हो तो उसको दे देना। यदि कोई ऐसा न हो तो 'सत्संग' में जमा कर देना, जिससे आवश्यकता पड़ने पर किसी सत्संगी-भाई-बहन की सहायता की जा सके। जो रुपया वर्ष के अंत में बच रहे, उसे 'वार्षिक-भण्डारे' में भेंट कर देना, ताकि उससे किसी शुभ-कार्य में सहायता हो सके।
[24] बड़ो का सम्मान, छोटों से प्यार, 'सत्संगियों' से प्रेम व मेल-जोल रखना चाहिए। जिससे तबीयत न मिले उससे सम्बन्ध तोड़ देना चाहिए।
[25] प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक का सम्मान अपने [धर्म-प्रवर्तक] के ही समान करना चाहिए। उनकी वाणी को श्रद्धा और विश्वास के साथ सुनना चाहिए। यदि कोई बात समझ में न आवे तो किसी सत्संगी से अथवा अपने गुरु से पूंछ लें, परन्तु उसे झूँठ न समझें।
[26] यदि किसी धर्म-प्रवर्तक अथवा अपने गुरु की किसी जगह निंदा हो रही हो तो उस स्थान को छोड़ देना चाहिए और ऐसों के कल्याण के लिए प्रार्थना करना।
[27] जहाँ तक हो सके, तमाम सोसाइटियों [societies] से अलग रहना ; किसी सोसाइटी का मेम्बर न होना।
[28] बच्चों को हिंदी ज़रुर पढ़ाना, जिससे धार्मिक किताबें देखने में आसानी हो।
[29] ब्याज न लेना ; और बदर्जा मजबूरी, चार आना [01/16 रुपया] प्रति सैकड़ा माहवार लेना।
[30] जुआ किसी प्रकार का न खेलना।
[31] ताश, चौसर/चौपड़ [a game played by two players with sixteen counters each using three dice, on a cloth or cross-shaped layout] आदि से बचना उचित है।
[32] मुर्दे के साथ जाने की कोशिश करना, धीरे-धीरे चलना और उसके लिए प्रार्थना करते हुए जाना।
[33] किसी सम्बन्धी की मृत्यु पर जोर-जोर से न रोना, वरन उसके लिए प्रार्थना करना।
[34] 'दसवाँ' [prayers or offerings on the tenth day after a death] आदि की रस्में ठीक ढँग से नहीं होतीं और जानने वाले भी कोई बिरले हैं। अतएव, इनसे कुछ लाभ नहीं। जो पुरुष क्रिया-कर्म करे, उसे उचित है कि तेरह दिन तक 'पवित्र' रह कर आत्मा की शांति के लिए 'प्रार्थना' करता रहे। 'दसवाँ', 'तेरहवीं' आदि पर यथाशक्ति दीन-दुखियों को दान करें।
खर्च संबंधी नियम
[01] हर सत्संगी को लाज़िम [आवश्यक=incumbent] है कि हर वक़्त मामूली से मामूली ख़र्च करने से पहिले इन बातों को अपने दिल में ख़याल कर लिया करें - [क] यह ख़र्च किसी ख़ास ज़रूरत की बुनियाद पर है या महज़ रिवाज़ या आदत के दबाव पर ; [ख] या इसमें बेजा नुमायश का अंश तो शामिल नहीं है, या इस काम में किसी भाई/बहन का भी कोई फ़ायदा होता है या बिलकुल शेख़ी और शान [आत्मश्लाधा=boasting] ही है ; [ग] इस ख़र्च का आयन्दा नतीज़ा इस हालत को तो पैदा नहीं करेगा, कि हमारी शांति में ख़लल डाले, या रूहानी-रास्ते में रुकावट पैदा करे। [घ] किसी ख़र्च के करने में धर्म के ख़िलाफ़ या अपने समाज के उसूलों के विरुद्ध तो कोई बात तो पैदा नहीं हुयी जाती है।
[02] अगर किसी सत्संगी की आमदनी और ख़र्च के बाद दस रुपये की बचत है लेकिन क़र्ज़ पहिले से मौजूद है तो उसको ज़रूरत के अलावः किसी ज़ायदाद चीज़ ख़रीदने के वक़्त कम से कम यह ख़्याल होना चाहिए कि सत्संग के उसूलों के ख़िलाफ़ है या नहीं।
ज़रूरत की मिसाल यह है कि बिना उस चीज़ के काम न चले । अगर उसी तरह की चीज़ पहिले से घर में मौजूद है और यह नयी चीज़ कुछ दिनों तक, कतिपय इस्तेमाल में नहीं आएगी तो यह ज़रूरत की चीज़ में दाखिल नहीं है।
[03] मासिक आमदनी का कोई हिस्सा [अंश] ज़रूर अलग निकाल कर रखते रहना चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत के बिना दिक़्क़त काम आ सके।
यह रक़म भाइयों के ज़रूरी कामों की इम्दाद में सर्फ़ [खर्च=expand] होना चाहिए।
"अव्वल शेख़ बादहू दरवेश।"
सत्संगियों की दिनचर्या
[01] सुबह सूरज निकलने से पहिले प्रत्येक मनुष्य उठे।
[02] नौकर की सहायता से प्रत्येक व्यक्ति घर की सफ़ाई करने में लग जाय, कोई झाड़ू लगाए, कोई खाट उठा कर बिछौने को क्रम से तह करके एक ओर रक्खे, कोई अंगौछा ले कर चीज़ों को झाड़े इत्यादि इत्यादि।
[03] सब लोग शौचादि से निवृत्त हो कर हाँथ-मुँह धोएं। अगर स्नान करने की ज़रूरत हो तो स्नान कर लें और सन्ध्योपासना [प्रातःकालीन प्रार्थना] यथाशक्ति सूर्योदय से पूर्व समाप्त करें।
[04] घर में एक विशेष स्थान या एक विशेष कमरा, पूजा के लिए नियत कर लेना चाहिए। इसमें सुगन्धित-धूप सुलगानी चाहिए। कमरे में साफ़ चटाइयाँ बिछा दीं जायँ। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें।
[05] पूजा, प्रार्थना से प्रारम्भ की जावे। एक व्यक्ति पढ़े और सब शेष सभी उसको दोहरावें। चाहें भजन से प्रार्थना की जावे। एक व्यक्ति भजन गावे और शेष सब सुनें। दस मिनट तक तलीन रहें। अंत में फ़िर प्रार्थना की जाय। यह सब कार्य सुबह सात बजे तक समाप्त हो जाना चाहिए।
[06] इसके उपरांत पंद्रह मिनट तक व्यायाम करें।
[07] तत्पश्चात जो कुछ साधारण भोजन हो, उससे थोड़ा जलपान करें।
[08] तत्पश्चात स्त्रियाँ भोजन बनाने के कार्य में लग जावें और सब आपस में मिल कर कार्य समाप्त करें। एक कार्य को दूसरे पर न टालें [टालमटोल = prevarication]। बारी नियत करने के आवश्यकता नहीं है।
[09] पुरुष और लड़के केवल भक्ति-प्रधान धार्मिक-ग्रंथों का स्वाध्याय किया करें।
[10] भोजन बनाने और खाने से जब स्त्रियाँ निवृत हो जायँ तो एक घण्टा तक विश्राम कर लें। एक बजे तक यह कार्य समाप्त होजाय।
[11] फ़िर, स्त्रियाँ घर-गृहस्थी का काम सीना-पिरोना इत्यादि तीसरे-प्रहर, तीन बजे तक करें।
[12] तीसरे-प्रहर, तीन बजे से साढ़े-तीन बजे तक स्त्रियाँ और बच्चे किसी धार्मिक ग्रन्थ का पाठ करें।
[13] तीसरे पहर, साढ़े तीन बजे से भोजन बनाने का काम सब मिल कर आरम्भ करें। इस समय बुहारी [झाड़ू-लगाना] लगाने का काम भी शामिल है।
[14] सूर्यास्त होने के समय स्त्रियाँ और लड़के-लड़कियाँ एक नियत-स्थान पर बैठ कर संध्या-उपासना करें जो आधा-घण्टा से अधिक न हो।
[15] फ़िर, भोजन करके सभी व्यक्ति कुछ टहल कर, बाहर बैठ कर सत्संग करें। पुस्तक सम्बन्धी अथवा मौखिक-वार्तालाप के पश्चात् ध्यानादि में सत्संग करें।
[16] व्यर्थ वार्ता, पर-निंदा या चुग़ली [tale-bearing] कभी न करनी चाहिए।
[17] अधिक से अधिक साढ़े-दस बजे [रात्रि] तक अवश्य सो जाना चाहिए और पुनः, प्रातःकाल साढ़े चार बजे जाग कर उठ जाना चाहिए।
परिशिष्ट [ग]
वर्ष 1928 में फ़तेहगढ़ [उ0 प्र0] में गुडफ्राइडे के 'जलसा-सालाना' [वार्षिक भण्डारे] में दिनांक 06 अप्रैल [शुक्रवार] को परमपूज्य लालाजी साहिब द्वारा दिए गये भाषण का मूल-पाठ।
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ईश्वर का धन्यवाद
बुज़ुर्गाने तरीक़त व ब्रादरान व हमदर्दाने मिल्लत उस ज़ात वाजिबुल वुजूद का लाख-लाख़ अहसान है कि उसने अपने फज़ल अज़ीम से इतनी मुतफ़र्रिक़ हस्तियों को एक वक़्त में और एक जगह जमा कर दिया है।
अगर हम सब फ़रदन इस इकट्ठे होने की ग़रज़ दरियाफ़्त करने लग जायँ तो ग़ालिबन सब के ख़याल इज़हार का तर्ज़ जुदा होगा। मगर जब इस उसूल की जानिब निगाह डालेंगे तो एक ही उसूल उन सब मुख़्तलिफ़ ख्यालों के अंदर छुपा हुआ नज़र आएगा। यह दुनियाँ लम्हे-लम्हें तब्दील पज़ीर है और इसमें तबादिला का क़ानून लगातार सिलसिले के साथ क़ाइम है कि हर मुतनफ़्फ़िस बिल इरादः या बिला इरादः, दानिस्ता या ग़ैर-दानिस्ता इसके शिकंजों में जकड़ा हुआ है। इसमें खिचाव है - सिमटाव है, देना है - लेना है, बढ़ाव है - घटाव है, जाना है - आना है।
लेकिन इसके अलावः हमें एक तीसरी क़ैफ़ियत भी इन सब के अंदर पोशीदः नज़र आती है - हर खिचाव और सिमटाव के साथ 'ठहराव' भी है, बढ़ाव और घटाव के साथ 'सुकून' भी है, आने और जाने के अलावः 'क़याम' भी है। अगर कोई चीज़ पैदा होती है और फ़ना होती है तो थोड़े वक़्त के लीये उसमें 'क़याम' भी लगा हुआ है। मांझी और मुस्तक़बिल निस्बती अल्फ़ाज़ हैं और हाल की क़ैफ़ियत इन दोनों के शामिल और दर्मियानी क़ैफ़ियत है। यह सिफ़ात सिलासा का क़ानून [त्रिगुणात्मक] अपने मौसूफ़ के आधार पर है और उसके सहारे ही रहते हैं। हाँसिल कलाम यह है कि सिफ़ात में तब्दीली है और यह सिफ़ात जिसके आधार और सहारे पर रहती है वह ज़ात है, जिसमें तबदीली का क़ानून अलग रहता है। आप ज़रा ग़ौर करें तो कभी आप खुश और कभी दुःखी, कभी शांत और कभी अशान्त, कभी कमज़ोर कभी ताक़तवर, कभी मुफ़लिस और कभी मालदार, कभी तन्दरुस्त कभी बीमार वग़ैरह वग़ैरह नज़र आते हैं लेकिन जब हम इन दोनों मुख़्तलिफ़ क़ैफ़ियतों को अलहदः अलहदः देखने लग जाते हैं तो हर एक क़ैफ़ियत की तह में दूसरी मुतज़ात क़ैफ़ियत साथ लगी हुयी मालूम होती है। जहाँ खुशी है वहाँ दुःख का ख़ौफ़ मौजूद है। शांति में अशांति वग़ैरह का ख़याल छिपा हुआ मौजूद है और यह मसला बहुत उलझन में डाल देता है लेकिन दरअसल हमारी नज़र का क़सूर है और तलाश और तहक़ीक़ात का तरीक़ा ग़लत है, जिसकी वजह से कभी यह गुत्थी सुलझनें पर नहीं आती है। दरअसल दुःख खुशी का, अशांति शांति का, बीमारी तंदरुस्ती का कमज़ोर और नाक़िस पहलू है। अगर हद से ज़्यादः खुशी होगी तो आंसू निकल आयंगे और ज़्यादः दुःख होगा तब भी रोना आएगा।
नुक़्स और कमज़ोरी साया है अपनी असल का, जुज़वियत नाक़िस है और मुकम्मिल उससे बरी है। कुल्लियत में एतदाल है और जुज़वियत में कमी और बेशी। दरअसल एतदाल की क़ैफ़ियत सुकून की है। और घटाव-बढ़ाव सिमटाव की क़ैफ़ियतें नाक़िस हैं। अगर कोई शै अपनी ज़ाती क़ैफ़ियत से हट गयी तो उससे एतदाल क़ाइम नहीं रहता है। अगर कोई चीज़ बढ़ जाय तो भी नाक़िस और घट जाय तो भी नाक़िस। और जब दोनों क़ैफ़ियतों से हट कर एतदाली क़ैफ़ियत पैदा हो जाय तो अब यहाँ सवाल कमी और वेशी, जज़्बीयत और कुल्लियत दोनों का जाता रहता है और असली सुकून क़ल्ब पैदा हो जाता है। आप आज़मां लें। अगर खुशी हद से ज़्यादः बढ़ जावे तो यही इज़्तिराब [व्याकुलता] नहीं जाता है और आगे बढ़ने का हौंसला रहता है और कमी में भी क़ैफ़ियत इज़्तिराब [व्याकुलता] की है।
आप को मालुम है कि पैदाइश के वक़्त बच्चा फ़ितरत सलीम [शान्त] पर पैदा होता है। इसके बाद उसकी वालिदैन और इर्द-गिर्द की सोसाइटी उसको जो कुछ चाहे, बना देते हैं।
पस हज़रत इंसान की इब्तदाई फ़ितरत सलीम को सोसाइटी, आवोहवा व तालीम और अफ्ऑल [कार्यसमूह या करतूत] ने इस तरह बना दिया है कि वह अपनी असल से हज़ारों कोस दूर जा पड़ा है। तो उसी इब्तदाई फ़ितरत सलीम को फ़िर दोबारा हाँसिल करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। तदबीरें अमल में लानी होतीं हैं। स्कूल, तालीमगाहों में जाना पड़ता है। एतदाली क़ैफ़ियत को, जिसको दुसरे लफ़्ज़ों में अख़लाक़ कहते है, अज़सरे नौ पैदा करने के लिए पहले किताबों से, फ़िर अमल से और फ़िर सोहबत फुकरा [संतों का साथ] और सत्संग से मदद लेने की ज़रूरत पड़ती है।
आज हमारे अहबाब की शिरक़त की ग़र्ज़-ताबादिला ख़यालात हुसूल [प्राप्ति] फैज़ व बरक़त, इज़ाफ़ा, वाक़फ़ियत व आगाही तमन्नाय हुसूले सरूर व आनन्द की हो तो बिला मुबालगा वह ही एक उसूल जिसका ज़िक्र मैंने पिछली सतरों [पंक्तिओं] में किया है इस वक़्त चस्पा और आयद हो जाता है।
इस सोहबत में उसूलन कामिल और नाकिस दोनों ही शामिल हैं। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि हर फ़र्द बशर अगर एक ख़ासियत में नाकिस है तो दूसरी ख़ास सिफ़त [प्रशंसा] में कामिल। खालिस एतदाली क़ैफ़ियत तो ख़ास-ख़ास बन्दों में जिन पर उसका फज़ल व करम हो शामिल और आयद हो सकती है। इस का इल्म तो सिवाय उस ज़ात-पाक के और किसी को हो ही नहीं सकता है और न इसके इल्म की ज़रूरत ही है। यहाँ तो सब नाकिस और कामिल बन्दों की एक जगह जमा हो कर यह ग़र्ज़ है कि उसके फज़ल के उम्मीदवार बनें। दुआएँ करें और अपने तरीक़े से बुज़ुर्गान के वसीले से मदद चाहें ताकि फ़िर अपने खोए हुए अख़लाक़ को दोबारा हाँसिल कर सकें।
साल भर में एक मर्तबा ऐसी कोशिश करना कि जहाँ तक मुमकिन हो सके इस फ़ायदे को हाँसिल करने की ख़्वाहिश रखने वाले अहबाब ज़्यादः से ज़्यादः तादाद में एक जगह पर कोशिश करके जमा हो जायँ, ताकि जो वक़्त ज़द्दोज़हद और तदाबीर में गुज़र गया इसके अलावः ज़्यादः मुफ़ीद और सहलुलवसूल [जो सहज में वुसूल हो जाँय] तदबीरें और ऐसा एहतमाम आयन्दा साल के लिए नियत करें और प्रोग्राम की शक्ल में लायें कि बनिस्बत साल गुजिश्ता के तरक़्क़ी की शक्ल पैदा कर लें। गुजिश्ता कमी और नाकिस तर्ज़ अमल पर अफ़सोस करें। इज़्ज़ियाद [आधिक्य] मोहब्बत के वसीले अख़्तियार किये जायँ।
दुनियावी कारोबार और व्यवहार के सिलसिलों को पारलौकिक तरीक़े के साथ बावस्ता और हम-आहंग होने के तदाबीर सोचें ताकि हमारी पारलौकिक धर्म और तरीक़त की मुरादें मुमिद [सहायक] व मुआविन [मददग़ार] हों और रुकावट न पैदा करें।
आख़िर में बुज़ुर्गान तरीक़त के लिए, जिन की मदद और वसीले से हम को यह इल्म, ज्ञान और यह अवसर प्राप्त हुआ है, दुआ में शरीक हों और उनकी पाक अरबाहों को एक जमात के साथ सबाब पहुंचाने की हिम्मत बांधें।
यह सबब और अगराज हमें जिन की वजह से हम सब लोग इस वक़्त निहायत ख़ुलूस अक़ीदत और मोहब्बत के साथ दूर-दूर से अपना क़ीमती वक़्त, अपना रुपया ख़र्च करके जमा हुए हैं, आने का शुक्रिया अदा किया जाता है। आने का शुक्रिया इस बात के लिए भी अदा किया जाता है कि ज़्यादःतर साहिबान ने मेरे गढ़े हुए फॉर्मों को जैसा जिन साहिबान की समझ में आया जवाब लिख कर मरे पास भेज दिया है ताकि मुझको स्कीम के मुरत्तिब करने में काफ़ी इमदाद व वाक़फ़ियत मिल गयी है।
मुझको उन असहाब के शुक्रिया अदा करने में ग़ुरेज़ नहीं करना चाहिए कि जिन्होंने अब तक फॉर्मों को नहीं वापिस किया क्यों कि उनके उस अमल से यही मुझको काफ़ी मदद इस बात के मालूम करने में मिल गयी है कि उनका शौक़ और मोहब्बत का जज़्बा किस दर्जे की हरारत रखता है। उस फॉर्म को उन्होंने बॉक्स के अन्दर किस क़दर हिफाज़त से रख छोड़ा है या अख़बारात की टोकरी की तह में डाल दिया है या कोट की जेब में रख कर अब तक उसको निकालने का मौका नहीं मिला है या जिन्होंने अब तक उसको पढ़ा ही नहीं है और बाज़ साहिबान ने दवा-फ़रोशों के इश्तहारात समझ कर उसको अलहदा फेंक दिया है या पढ़ कर ऐसा बेहूदा और लगो [मूल शब्द = लग़ोदंग अर्थात ऐसा जंगल जिसमें कोसों न छाया हो न पानी] कार्यवाही समझा है कि मामूली मज़ाक और नोबिल [उपन्यास] और इश्तहारात और अख़बारों की सनसनीख़ेज़ ख़बरों के जहरीले असरात से भी उनको ज़्यादः ज़हरीला समझा है।
ख़ैर जो हो मैंने तो यह तरीक़ा इस लिए अख़्तियार किया है कि इसमें अहबाब की बहबूदी मद्देनज़र समझी और हर काम में नियत देखी जाती है। पस जो नियत है उसका इल्म उस अल्लामुल अयूब ही को है।
अब मैं उम्मीद करता हूँ कि अहबाब उस फॉर्म की हर 'मद' [item] के मुताल्लिक़ जो राय मैं ज़ाहिर करूँगा ग़ौर से सुनेंगे और फ़िर अपनी राय आख़िर में ज़ाहिर करेंगे। यह ख़याल है कि फॉर्म के मद्धांत के मदलूल [जिसके लिए दलील दी गयी हो] क़ाइम करने में मेरा भी ज़्यादःतर ख्याल सतही बहुत कम रहा है बल्कि ज़्यादःतर जो ऊपर से बिला सोचे और समझे इस दुनियावी अक्ल के अलावः और अलैदः बराहेरास्त आया लिखा गया है।
खानापूरी फॉर्म
इस फॉर्म की तरतीब और अल्फ़ाज़ निहायत सादा और मामूली शक्ल के नज़र आते हैं। पर मुझको यकीन है कि वह ऐसे नहीं हैं। हर मद [आइटम] में एक ख़ास रम्ज़ [रहस्य] और भेद मख्फी [मूल शब्द है, मक़्फ़ूफ़ = उर्दू छन्द में सप्त-अक्षरीयगण] है और मुझे उम्मीद है कि वह बहुत मुफ़ीद साबित होंगे क्यों कि दरअसल मेरी और मुझ से नहीं बल्कि किसी ख़ास रूहानियत और ख़ास फैज़ की रोशनी की किरणें हैं। यह दूसरी आला तबक़ा की शख़्सियत की रूहानी इम्दाद है वर्ना मैं क्या और मेरा इल्म क्या "जमाले हमनशीं दर मन असर कर्द बग़र्ना मन कुजा हाकिम कि हस्तम"।
अब मैं फॉर्म की मद - 09 [Item No. 09] को ले कर बहस शुरू करूँगा और उसके लिए मैं फ़िर अपने पिछले मज़मून पर वापिस आता हूँ। आप साहिबान अपनी याद-दाश्त को फ़िर उस तरफ़ बराहे-मेहरबानी वापिस ले जायँ। *
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* इब्तदाई फॉर्म दाख़िला - 'संतमतमत सत्संग फ़तेहगढ़' ।
[01] नाम। [02] बाप का नाम। [03] क़ौम जैसे - वैश्य, ब्राह्मण इत्यादि। [04] उपजाति जैसे - कान्यकुब्ज, सनाढ्य, अग्रवाल, श्रीवास्तव इत्यादि। [05] असली रहने की जगह मय कुल पते के। [06] जहाँ इस वक़्त रहते हैं, मय कुल पते के। [07] पेशा मिसलन नौकरी, तिजारत, दस्तकारी, काश्तकारी इत्यादि मय हर एक की तफ़्सील के। [08] उम्र वक़्त फॉर्म भरने के। [09] मजहब जैसे सनातनी, आर्यसमाजी इत्यादि। [10] मत जैसे संतमत, कबीर-पन्थी, वैष्णवी, शैव्य, रामानन्दी, रामानुजी, शक्ति वग़ैरः।
नोट : अगर आप संतमत के सत्संग में इस वक़्त सिर्फ़ जाँच-परड़ताल और फ़ैसला करने की ग़रज़ से शामिल हुए हैं और फ़ैसला करके संतमत को क़बूल बिलकुल नहीं कर लिया है और अपने पुराने मत पर क़ाइम हैं तो खाना नंबर 10 तक का ही भर कर भेज दीजिये, बाक़ी ज़रूरत नहीं।
[11] उन किताबों का नाम जिनको पढ़ने का शौक़ है। 12] संतमत और सत्संग में शामिल होने की ग़रज़ से सिर्फ़ अंदर का अभ्यास ही है या उसके बाहरी उसूलों की पाबन्दी, यह उसूल [नियम] अलहदा मिलेंगे। [13] क्या आप संतमत के क़ायदों के मुताबिक़ अपनी रहनी-सहनी अख़्तियार करने को तैयार हो सकते हैं या सामाजिक व्यवहारों को भी साथ लेकर चलते रहेंगे। [यह बातें अलग किताब में मिलेंगी]।[14] जहाँ आपका इस वक़्त रहना हो रहा है वहाँ कोई दूसरे संप्रदाय या पंथ के साधू- महात्मा मौजूद हैं और संतमत के सत्संग में दाख़िल हो कर भी उनकी सोहबत में भी पाबंदी के साथ जा कर शामिल होते हैं। तुम्हारा अक़ीदा वहाँ भी है या नहीं और सत्संग के बताये हुए अभ्यास के अलावः और किसी का बताया हुआ अभ्यास करते हो। [15] आपके माता-पिता मौजूद हैं और वे आपके ख़यालों को ठीक और मुनासिब समझते हैं। [16] आपकी शादी हो गयी है और बीबी मौजूद है ?[17] अगर बीबी मौजूद नहीं है तो आपका दूसरी शादी करने का क्या ख़याल है ? [18] क्या आपकी बीबी हमख़याल है ? अगर हमख़याल है तो वह क्या अभ्यास करती है ? अगर अभ्यास करती है तो वह पुरानी रीति-रिवाज़ों को जो फ़िज़ूल हैं, छोड़ सकती है, जैसे जखैय्या की जात, मियाँ की कंदुरी वग़ैरह। [19] क्या आप दीग़र मजहब वालों के विरोधी हैं जैसे पारसी, यहूदी, बौद्ध, सिख, मुस्लमान, ईसाई इत्यादि। [20] क्या आपको पोलिटिकल मामलात से कुछ वास्ता है ?[21] ग़ैर-शादीशुदा लड़के व लड़कियों की तादाद और उनकी हर एक की उम्र जो इस वक़्त है व जिस भाई, बहन, भतीजी की देख-भाल व अख़्तियार खुद अपने ख़र्चे से करते हो लिखना चाहिए। [22] हर-एक [आश्रित] की क़ाबलियत, ख्वांदगी [पुकारने का नाम] वग़ैरः। [23] आपके राय में शादी वग़ैरः के मुताल्लिक़ रिवाज़ में तमरीम की ज़रूरत है या नहीं ?[24] आपको अपने लड़के-लड़कियों की शादी में अपना खुद ही अख़्तियार है या वाल्दैन या दीग़र रिश्तेदारों का ?[25] क्या आप सत्संग में संत-मत के उसूलों के मुताबिक़ शादी के क़ाइदे जो लिखे जावेंगे, उनको देख कर आप शादी उन्हीं क़ाइदों की पाबन्दी से करना पसंद करेंगे या पुराने ही रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़ ?[26] अगर आपके पास माली-गुंजाइश ख़ैरात और दान करने की है तो क्या आप सत्संग के बनाये हुए क़ाइदों के मुताबिक़ तक़सीम अख़्तियार करने को राज़ी हैं या अपने पुराने मनमाने ढकोसलों के साथ ही ? [27] अगर इस वक़्त नहीं तो आइंदा किसी वक़्त आप से यह उम्मीद की जा सकती है कि आप अपनी इस वक़्त के रस्म-रिवाज़ों की बिरादरी को अलग और सत्संग की बिरादरी को अलग और तरजीह की नज़र से देखने लग जायेंगे। [28] क्या आप की राय में यह मुनासिब है कि इस सोसाइटी की माली-सहायता [इम्दाद] उसके रिवाज़ों की ज़रूरतों को पूरा करने और उसकी ज़ाहिरी हस्ती को क़ाइम रखने के वास्ते फण्ड की ज़रूरत है ?[29] अगर ज़रूरत है तो दो सूरतें इस वक़्त अख़्तियार की जा सकतीं हैं इस इब्तिदाई हैसियत की बुनियाद डालने से और दूसरी हर-दम [लगातार] जारी रखने के सूरत। पहली सूरत में फार्म दाख़िला भरते वक़्त मुबलिग़ एक रूपया और दूसरी सूरत में पाबंदी के साथ इसी चंदे की शक्ल में। [30] हिंदी शास्त्र के मुताबिक़ 01/10 यानी आमदनी का दसवां अंश होना चाहिए।[31] ज़माने की हवा के मुताबिक़ कम से कम छः पाई प्रति रूपया। [32] या हर महीना हस्ब-हैसियत [स्थिति के अनुसार] पाबंदी के साथ। [33] नम्बरान 30, 31,32 मे से जो पसंद आयें उसको क़बूल करके उस पर इक़रार लिख दीजिये। अगर आपकी किसी भी नंबर की मर्ज़ी नहीं है, बिना ख़याल के इंकार लिख दीजिये। [34] इब्तिदाई चन्दा एक रूपया दाख़िला फॉर्म सिवाय तालिबे-इल्म [विद्यार्थियों] व साधुओं वग़ैरह लोगों से जो कोई कुछ आमदनी नहीं रखते हैं, मुआफ़ होगा। [35] जहाँ बहुत से सत्संगी-भाई हों वहाँ सब मिलकर एक मेंबर को इंतिखाब [चुनाव] कर लें और आप चंदा इब्तिदाई फ़ीस को दे कर रसीद हाँसिल कर के फॉर्म के साथ दे दें और जो भाई अकेले हैं, बज़रिये मनीऑर्डर भेज देवें।
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ज़रा अपनी पिछली और मौजूदा हस्ती की ग़ौर करने की तकलीफ़ ग़वारा फ़रमायें। इस मौजूदा दुनियाँ के फ़र्श-ज़मीन पर क़दम रखने से पहिले आप को मालूम है कि आप कहाँ थे? अगर हम इल्म फ़लसफ़ा तबीयात और तबक़ात आलम के उलूम पर बहस करने लग जायँ, शास्त्रों की सिफ़ात, सिलासा और सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और लय के मसायल और बड़ी-बड़ी बातों को समझनें में अपना दिमाग़ और वक़्त लगा दें तो हम में से कोई ग़ालिबन ऐसा दिमाग़, ऐसा इल्म, इतना वक़्त और जहन रसां नहीं रखता कि समुन्दर को नाप लेने की और ब्रह्माण्डों की मार्फ़त दरयाफ़्त करने की मेहनत कर सकें। इस लिए ज़रूरी है कि अपनी मोटी-मोटी बातों को जो मामूली अक्ल और समझ और नज़र में हैं, ग़ौर करें।
एक वक़्त यह था कि बच्चा अपने शिकमे-मादर की दुनियां में अारामयाफ़्ता था, उसकी नशिस्त और आराम पाने की यह बज़आ और क़तआ थी कि उल्टा लटका रहता था। चारों तरफ़ से रगों और बन्दिशी रस्सियों की जंज़ीरों से जकड़ा हुआ झिल्ली के गिलाफ़ में लिपटा हुआ पड़ा रहता था। उसकी ग़िज़ा सिर्फ़ माँ के खून का तब्दीलशुदा हिस्सा थी। उसके लिए हवा पहुंचाने का ज़रिया महज़ चन्द नालियाँ और मनाक़िद थे। रोशनी के बजाय तारीक़ी [darkness] उसके हिस्से में थी, ग़र्ज़ेकि इस हालत का मुकाबिला जीवन की दुनियां के साथ करने के बाद हम फ़ौरन कह सकते हैं कि उसका ठिकाना महज़ एक तंग व बारीक़ और हब्स और क़ैद की जगह थी, और कुछ नहीं।
लेकिन एक वक़्त यह आया कि उसी ने शिकमे-मादर की दुनियाँ से अपना मुहँ फेर लिया और उसके लिए यह मौत का नमूना से कम नहीं। लेकिन क्या यह मौत-दायनी मौत थी, यानी ज़िन्दगी में दाख़िल होने के लिए एक पल्टा। अब इस दुनियाँ की ज़मीन में यह अपना क़दम रखता है और सिवाय इसके कि वह तंग व तारीक़ दुनियाँ में जकड़ा हुआ अपने आप को पाता है। अब एक रोशन और खुली हुयी और वसीय ताज़ी हवा के तबका में सांस लेते हुए पाता है। यहाँ उसको हाँथ-पैर हिलाने और आवाज़ निकालने की आज़ादी है। ग़िज़ा की शक्ल में भी तबदीली है। इससे पहिले उसकी तबई हालतें सिकुड़ी हुयी और दबी हुयी पड़ीं थीं। जिस तरह कि तुख्म [फ़ा0 = बीज] के अन्दर उसकी शाख़, टहनियाँ, फल, फूल मौजूद होने का गुमान रहता है। लेकिन बात इस तबई क़ैफिअतों को जुम्बिश होती है। इसमें अँखुए, कोपल, पत्तियाँ, टहनियाँ, फूल और फल अपने-अपने वक़्त पर बरामद होना शुरू होते जाते हैं। बच्चे की इस पहली क़ैफ़ियत का नाम 'नफ़्स अम्मारा' [Sura xii : 53] है। जिसको अब जुम्बिश हुयी है। इस पहली हरकत को तमोगुणी कहते हैं। यह तमोगुण इसके जन्म की पहली ज़िन्दग़ी में दबा हुआ पड़ा था। और हरकत करने के कोई असबाब नहीं थे। अब इसको ज़िन्दगी में फैलने-फूटने का मौका मिलता है। यह हालत तबई है। जिसकी पहली हरक़त में यह ख़ासियत है कि वह इन्सान को बदी की तरफ़ जो उसके कमाल के मुख़ालिफ़ और उसके अख़लाक़ी हालतों के बरअक्स है, झुकाता है। ग़र्ज़ेकि बेएतदालियों और बदियों की तरफ़ जाना इंसान की एक हालत है जो अख़्लाक़ी हालत से पहले उस पर तप अन ग़ालिब होती है। और यह हालत उस वक़्त तक तबई हालत कहलाती है जब तक कि इंसान अक्ल और मार्फ़त [intellect/spirituality] के जेरेसाया नहीं चलता। बल्कि चौपायों की तरह खाने-पीने, सोने-जागने या गुस्सा और जोश दिखलाने वग़ैरह उमूर में तबई जज़्बात का पैरों रहता है। जैसाकि हम सब बच्चों में देखते हैं कि उनके जज़्बात जिस तरफ़ उभर कर ढल जाते हैं और रोके नहीं रुकते ; जिस को 'बालहठ' कहते हैं।
यह हालत एक वक़्त मुअय्यन [निश्चित] तक रह कर पलटा खाती है। यह तबई हालत की मौत है और फिर नयी ज़िन्दग़ी की तरफ़ रुख़ करती है। यहाँ से इंसानी अक़ल और मारिफ़त [spirituality] की मशवरः से तबई हालातों में तसर्रुफ़ करता और एतदाल मतलूब की रयासत रखता है फ़िर इसका नाम तबई हालत नहीं रहता बल्कि इसको इख़लाक़ी हालत कहते हैं। जो बदी की हालत पर और बेएतदाली पर अपने आप को मालामाल करता है। यह नफ़्स लव्वामा [sura lxxv : 02] है जिसकी वजह से उसको पशेमानी, शर्मिन्दग़ी, अफ़सोस और आगे तरक़्क़ी करने की ख़्वाहिश होती है।
यह रजोगुणी है, जिसका ख़ास्सा है, आगे बढ़ना और पीछे हटना यह आगे और पीछे को अपनी हरक़त जारी रखता है। सुकून और आराम नहीं पकड़ता। इस वक़्त हैवानात की मुशाहिबत से नजात पाता है और राजी नहीं होता कि तबई लवाज़िम में शुतर बेमुहार की तरह चले और चौपायों की ज़िन्दग़ी बसर करे। बल्कि यह चाहता है कि इससे अच्छी हालत और अच्छे इख़लाक़ सादिर हों और इंसानी ज़िन्दग़ी के तमाम लवाज़िम में कोई बेइतदाली ज़हूर में न आवे और तबई जज़्बात और तबई ख़्वाहिश अक्ल के मशवरे से ज़हूर पजीर हों।
नफ़्स लव्वामा अगर तबई जज़्बात को पसंद नहीं करता और अपने आप को मालामाल करता रहता है लेकिन शुक्र के बजा लाने में पूरे तौर पर क़ादिर भी नहीं हो सकता और कभी न कभी तबई जज़्बात उस पर ग़लबा कर जाते हैं, तब गिर जाता है और ठोकर खाता है। गोया कि वह एक कमज़ोर बच्चे की तरह होता है, जो गिरना नहीं चाहता मगर कमज़ोरी की वजह से गिर जाता है, फिर अपनी कमज़ोरी पर नादिम होता है। ग़र्ज़े कि यह नफ़्स की वह इख़लाक़ी हालत है जब नफ़्स इख़लाक़ फ़ाज़ला को अपने अंदर जमा करता है और सरकशी से बेज़ार होता है। मगर पूरे तौर पर ग़ालिब नहीं आ सकता। तो फिर एक तीसरा सरचश्मा उस पर खुलता है जिसको रूहानी हालातों का मब्दा कहना चाहिए। इसको 'नफ़्स मुतमइय्यना' [Sura Fajar : 27 - The Nafs that has found rest in God. It has been addressed thus "O Nafs which hath found rest in God, turn back to thy Lord. He is pleased with thee ; and thou are pleased with him. Mingle with my servants and enter in to my paradise."] कहते हैं और इसको सतोगुणी-प्रधान अवस्था कहते हैं। इस वक़्त इंसान का नफ़्स आरामयाफ़्ता है, जो खुदा से आराम पा गया। अपने खुदा की तरफ़ वापिस चलता है। वह उससे राज़ी और वह उससे राज़ी।
यह वह मर्तबा है जिससे नफ़्स अपनी तमाम कमज़ोरियों से नजात पा कर रूहानी क़ुव्वतों से भर जाता है और खुदाताला से ऐसा पैबंद कर लेता है कि बग़ैर उसके जी ही नहीं सकता और जिस तरह से ऊपर से नीचे की तरफ़ बहता है और बसबब अपनी कसरत और नीज रोकों से दूर होने से बड़े जोर से चलता है इसी तरह वह अब उलट-धार हो कर खुदा की तरफ़ बहता चला जाता है। पस् इसी ज़िन्दगी में न कि मौत के बाद एक अजीमुलशान तबदीली पैदा करता है। और है, इसी दुनियाँ में, न कि दूसरी जगह एक बहिश्त उसको मिलता है। वह अपने रब यानि परवरिश करने वाले की तरफ़ वापिस आता है और खुदा की मोहब्बत इसकी ग़िज़ा होती है और इसी ज़िन्दगी-बख्श चश्मे से पानी पीता है और इसलिए मौत से नज़ात पाने के दरवाज़े में दाख़िल हो जाता है।
यहाँ तक इंसान की तबई, इख़लाक़ी, रूहानी पैदाइश के दर्जे और मौत के सिलसिले की कहानी पहुँचती है लेकिन पैदाइश और मौत का सिलसिला ख़त्म नहीं होता। यह सब दर्जे पैदाइश और मौत के इब्ततरारी [प्रारंभिक] है, इख़्तियारी [जो अनिवार्य न हो ] और हक़ीक़ी नहीं। इख़्तियारी और हक़ीक़ी पैदाइशों और मौतों की अवतार और दर्जों की इब्तिदा अब शुरू होने वाली है। अगर तबई और इख़लाक़ी हालतों के मुहँज़ोर जज़्बातों से नज़ात पा कर इंसान रूहानी और सतोगुणाय हालत को प्राप्त हो गया तो यह रजोगुण यानी 'नफ़्स लव्वामा' के चंगुल से छुटकारा मिला है। लेकिन हक़ीक़ी सकून क़ल्ब और ठहराव जब तक फ़ना की सिफ़त और हरक़त धक्का दे कर अपने असली भण्डार और जाये-क़याम पर ले जार न बैठा दे उस वक़्त तक खदशा [शुद्ध शब्द - खद्शः = संदेह] है। पस् वह फ़ना की सिफ़्त [महेश-शक्ति] जिसको मालिक 'यौमुद्दीन' कहेंगे [यौमुलक़ियामत = क़ियामत का दिन, जब मुर्दे क़ब्रों से निकल कर उठ-खड़े होंगे, वह सब एक बड़े मैदान में एकत्र होंगे और उनके कर्मों का हिसाब-किताब होगा और दंड अथवा पुरस्कार दिया जायेगा। अर्थात, 'यौमुद्दीन' का मतलब है क़ियामत के दिन का मालिक।], जब तक [महेश-शक्ति] अपनी गोद में न ले लेवें उस वक़्त तक असली बक़ा [अस्तित्व या जीवन] और स्थिति कहाँ नसीब है।
इस दर्जे तक पहुँचने पर इंसान की सिर्फ तीन जाहिरी हालतें तब्दील हुईं। पहिले दर्जे में इंसान बशक्ल जमादात [बेजान और जड़] और नबातात [वनस्पतियाँ] था, दुसरे दर्जे में वह इंसान बशक्ल हैवानात [जंगली जानवर] , जमादात और नबातात और किसी क़दर इंसान था। तीसरे दर्जे में वह इंसान बशक्ल इंसान है। अभी तक इंसान-कामिल नहीं बना।
हर तीन हालतों के तबादिले में उसको मौत का ज़ायक़ा चखना पड़ा है और नयी ज़िन्दग़ी के खुशग़वार मरहलों से गुज़रना पड़ा है। अभी इसी ज़िन्दग़ी में "इंसान कामिल" बनने के लिए न मालूम कितनी सीढ़ियाँ मौत और ज़िन्दग़ी की तय करना बाक़ी हैं। उस वक़्त तक यह 'इस्तरारी' [दैहिक] जिसको मामूली मौत कहते हैं न आ जावे। इंसान कामिल बनने के लिए हमको किसी चोले [देह] में मरना है और वह मौत से पहिले मरना है।
ज़रूरी है कि हमको मौत-मामूली [दैहिक मृत्यु] के बाद 'लतीफ़तर' [subtlest] और रोशनतर [most lightened] क़ुर्रए-तबक़ात [योनियों की उपास्थि] में दाख़िल करना बाक़ी है और न मालुम कितने ऐसे तबक़ात के परत-दर-परत हमको अलहदा करना है। क़ल्ब इसके कि हम इंसान कामिल बनने और उन मदारिज़ [of stages] का ज़िक्र करें और मुफ़स्सिल [स्पष्टीकरण करने वाला] बयान करें, यह बात तय कर लेना चाहिए कि यह उतार-चढ़ाव, ठहराव, आना-जाना है क्या भेद ? क्योंकि अगर हम एक वक़्त में एक ही साथ गहराई से ऊंचाई में चले जाने की हिम्मत करें तो ख़ौफ़ है कि मबादा [ऐसा न हो कि] हमारा दम इस इत्तफ़ाक़िया तबदीली से फूल जावे या घुट जावे इसलिए ठीक यह है कि हम ज़रा दम ले लेवें और सस्ता [rest] लें ताकि आगे कमर हिम्मत बाँधने का हौंसला हो जावे।
इस चलने और रुकने या आगे बढ़ने और ठहर जाने से उम्र वक़्त तक तो हम सिर्फ इस नतीज़े पर पहँच सकते हैं कि हम किसी मंज़िल पर पहँचने के लिए रास्ते में हैं। दर्मियानी मंज़िलें हमारे ठहराव और सस्ताने और आगे बढ़ने के लिए मुक़ाम और मंज़िलें हैं इसके सिवाय कुछ नहीं और फिर आगे रास्ता है और चळचळाव है।
रास्ते में अपने आप को दरिंदों और चोरों और ठगों से महफूज़ रहने, सर्दी-गर्मी और दूसरी तकलीफों से बचने के लिए ऐसी तदबीरें इख़्तियार करना होतीं हैं ताकि रास्ता खोटी [सदोष = vicious] न हो जाय और मंज़िल-मक़सूद तक कभी न कभी दाख़िला हो जावे। पस् रास्ता, दर्मियानी मंज़िलें और दुनियाँ भर की तमाम ऐसी तदबीरें और कोशिश जिसके ज़रिये से महफूज़ रह कर आख़िर मंज़िल नसीब हो जावे, मजहब और पंथ कहलाते हैं। यह है आपके ' मज़हब' के लफ्ज़ का जवाब और मद [item] नम्बर नौ [09] की तशरीह, हालाँकि कि काफ़ी नहीं नहीं है।
मद [item] नम्बर नौ [09] का सवाल मजहब का है ; जवाब में ज़्यादा तर लफ्ज़ 'सनातनी' और 'आर्यसमाजी' आमतौर पर लिख कर आये आये हैं। मालुम होना चाहिए कि परमात्मा मुजस्सिम ज्ञान-स्वरुप, सरापा-सुरूर [आनन्द की साकार मूर्ति], सरापा-रहमत [दया और कृपा की साकार मूर्ति] वग़ैरह है ; सिर्फ़ कमाल और पूर्णता उसी में है। बाक़ी सब नाकिस और कमज़ोर।
हज़रत इंसान में ज़हूर उस मुक़म्मल हस्ती, ऐन-इल्म [ज्ञान का स्रोत] और लाजबाल [अनश्वर, जिसका नाश न हो] आनन्द का मौजूद है, मगर कामिल नहीं। उसकी जुमला सिफ़त का अंश या हिस्सा या परतौ का ज़हूर भी शामिल है मगर अक्सी [प्रतिबिम्ब]। इसी को कहा गया है कि खुदा ने इंसान को अपनी शक्ल पर पैदा किया है - "पिण्डे सो ब्रह्माण्डे" यानि जो कुछ आलम-कबीर में है उसका अक्स आलम-सगीर में हस्ब-इस्तेदाद और मुनासिबत मौजूद है।
पस् उसकी रहम की सिफ़त में हमको अकेला नहीं छोड़ा है कि महज़ अपनी क़ुव्वत और कोशिश पुरुषार्थ से तरक़्क़ी करे और मुकम्मिल बने। हमारे पहिले पैदा होने से उसका यह रहम और अदल [तर्क-युक्त] है कि जुमला सिफ़ात हमारे में निहायत एतदाल के साथ पैबस्त कर दी। और साथ लगा दी। और चूँकि वह कामिल नहीं थी इसलिए क़ुव्वत तमीज़ें भी अता कर दीं कि नाक़िस से क़ामिल को तमीज़ कर सकें और बदी और नेकी का फ़र्क़ दरियाफ़्त कर लें।
और फिर दरियाफ़्त करने के बाद यह अपने इरादा-अजली [अनादि काल से सम्बद्ध] से वह हिम्मत और इरादा भी मर्हमत [दया] फ़रमाँ दिया कि फ़िर नीचे से ऊपर को चढ़ सके या ऊपर से नीचे की तरफ़ गिरने से अपने आप को बचाये रक्खे। इस रहमत की सिफ़त ने यह भी फ़र्क़ नहीं रक्खा कि काफ़िर और मूमिन के दरम्यान कोई तमीज़ का ख़त खींच दे। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हवास-जिस्म, आज़ा- तंदरुस्ती, जुमले-अस्वाब, परवरिश, ग़िज़ा, पानी, हवा वग़ैरः पहिले से मुहईय्या कर दी। और फिर पैदाइश के वक़्त बच्चे को फ़ित्रत- सलीम [सहनशीलता की प्रकृति] अता फ़रमाई, यह उसकी रहमानियत है, जिसको दयालुता कहते हैं ; जो हमारे पैदा होने से पहिले हमारी परवरिश के लिए मौजूद की गयी और चाहें किस क़दर भी हम गुमराह हो जायँ मगर यह हक़ूक़ जो आम हैं वापस नहीं लिए जाते हैं।इसके बाद जब हम अपनी दुनियाँ अपने आप बना लेते हैं, अपना दिल, अपनी अक़्ल, अपनी आदत में खुद तबदीली पैदा कर लेते हैं, फ़ित्रत-सलीम से जुदा हो कर फ़ित्रत-सानिहः [मुसीबत या दुर्घटना] पैदा कर लेते हैं, तो हम खुद अपने 'पैरों पर कुल्हाड़ी' लगा लेते हैं। और हमेशा मुसीबत के शिकार रह कर ग़ुमराह हो जाते हैं, हमेशा के लिए मौत की गहरी ख़ंदक़ में जा गिरते हैं। लेकिन उसकी सिफ़त-रहमत, जिसको हम कृपा कहते हैं, हमेशा साथ-साथ रहती है। अगर हम 'तमीज़ी-क़ुव्वत' से आगाह हो कर फ़िर अपने खोये हुए रास्ते को तलाश करते हैं, अफ़सोस करके माफ़ी चाहते हैं और तोबा करते हैं, मगर सच्ची, तो फ़िर उसकी कृपा से एक 'लहर' और 'मौज' उमड़ती है और सहीः रास्ते पर ला कर खड़ा कर देती है।
अगर हम सच्चे दिल से तौबा और प्रार्थना करते हैं तो उसकी सिफ़त-कृपा हमको शाहे रह क़ामयाबी पर दुबारा ला कर खड़ा कर देती है।
चूँकि यह सब सिफ़ात और सिफ़त-रहमानी-रहीमी, क़ुव्वत-तमीज़ी, क़ुव्वत-इरादी वग़ैरह हमारी पैदायिश से 'क़ब्ज़ः' [अधिकार या गिरिफ़्त] और उसके बाद, और मौत के बाद भी हमारे साथ लगी रहती है, और हमको क़ाबू और इख़्तियार नहीं कि इनसे हम अलग भाग कर जा सकें। इसलिए यह हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगी, और इसी वास्ते उनको "सनातन" कहते हैं और चूँकि हम उसको इख़्तियार करने के लिए निहायत दर्ज़ा मज़बूर हैं और अलग नहीं भाग सकते, इस लिए उनको धर्म कहते हैं।
यह लफ्ज़ "धारणा" से निकला है, जिसके मानी हैं इख़्तियार करने के। ऐसी शै जिसको हमेशा से इख़्तियार करने पर मजबूर हैं और हमेशा तक इख़्तियार किये रहना पड़ेगा ; "सनातन धर्म" कहलाता है। इसमें दुनियाँ के जुमला [कुल] मजाहिब, पंथ और धर्म आ सकते हैं। कोई सम्प्रदाय, मजहब, पंथ, मिल्लत, तरीक़ा इससे अलहिद: हो ही नहीं सकता।
अलबत्ता एक बात क़ाबिल ग़ौर रह गयी है वह यह है कि आप को मालूम है कि दुनियाँ आलमे-अस्वाब है। इसका जाहिर भी है, बातिन भी, मग्ज़ [बीज] भी है, पोस्त [खाल, त्वचा] भी है, जात [अस्तित्व] भी है, सिफ़ात [गुण] भी है, असल भी है और साया भी, अंदर भी, बाहर भी, रोशनी, तारीक़ी, नेकी, बदी, जलाल, जमाल, तश्बीह-नज़ीर, आलमे कबीर, आलमे सग़ीर, परा और अपरा, वशिष्टि और समिष्टि, रहिमान और शैतान।
जो आदर्श, आइडियल, मक़सद, तमन्ना, ज़िक्र व फ़िक़्र दर्स [पढ़ना] व तद्रीस [पढ़ाना], इल्म व शग़ल, जद्दोजहद, ज़ात [अस्तित्व] की तरफ़ माइल कर दे और मंज़िले मक़सूद तक पहुँचा दे और रास्ते में रुकावट न डाले, वह ही 'सनातन धर्म' है। क्यों कि ज़ात से उसका ताल्लुक़ है, और ज़ात लाजवाब और अब्दी [भक्ति-भावना से पूर्ण] और अज़ली [सृष्टिकाल के समय का] है।
और जो आदर्श वग़ैरह [मुतज़क्करः बाला] तदाबीर रस्ते में रुकावटें डाले और गुमराही के ख़ंदक़ में गिरा दे और आख़िरकार महाप्रलय या क़यामते-कुबरा में जीव की वापसी का सुझाव की असल ज़ात में स्वाभाविक दाख़िला कर दे वह सिफ़ाती [वह दोष या गुण जो किसी के स्वभाव में अस्थायी रूप से हो] है और सिफ़ात [सिफ़्त = किसी चीज़ का गुण] से उनका ताल्लुक़ हो। यह भी सनातन-धर्म के मातहत है, क्योंकि नूर और तारीक़ी [अन्धकार] दोनों हमेशा साथ-साथ हैं। सिफ़ात की दो कैफ़ियतें रजोगुण और तमोगुण यानि नफ़्स-अम्मारा और लव्वामा देर में राह-रास्ते पर लाने वाली तहरीक़ है लेकिन सिफ़ात की एक क़ैफ़ियत सतोगुण नफ़्स मुतमइय्यना से है जो जल्दतर अपने मत्लूब [जिसकी इच्छा की जाय] तक ले जाती है। यह नफ़्स मुतमइय्यना तरीक़ा 'सनातन-धर्म' ज़ाती और सिफ़ाती के दर्मियान बर्ज़ख [परस्पर विरोध रखने वाली दो चीज़ों के बीच की तीसरी चीज़ जो दोनों से संपर्क रक्खे, बन्दर जो मनुष्य और पशु के बीच 'बर्ज़ख' है।] है। पस् ज़ाती [व्यक्तिगत] सिर्फ़ 'सनातन-धर्म' को माना गया है। और सिफ़ाती [वह दोष या गुण जो किसी के स्वभाव में अस्थायी रूप से हो] को मना किया गया है। हालाँकि दूसरे तरीक़े वाले भी किसी न किसी तरह और कभी न कभी उसके दीदार से मुश्रिफ़ [ज्ञाता] होंगे। लेकिन "हर कि दाना कुनद कुनद नादाँ - लेक वाद अज हज़ार रुस्वाई।"
लफ्ज़ 'आर्यसमाजी', 'सनातन-धर्म' की मद में ख़्वामख़्वाह आ जाता है। रहा यह कि मतभेद, वह दूसरी शै है। इसकी तफ़्सील आयन्दा करेंगे। 'आर्यसमाजी' से मतलब महज़ मुल्क़ 'आर्यावर्त' के ताल्लुक़ की वजह से नाम दिया गया है।
आज-कल जिसको 'सनातन - धर्म' कहते हैं, न वह 'सनातन-धर्म' है और न आज-कल का 'आर्य-समाज' का मतलब 'आर्य-समाज' ही है।
इस्लाम के मानी हैं - ऐसा रास्ता जिस पर सलामत रब्बी [ईशरीय या खुदा की तरफ़ से] हो, एतदाल हो, और ईमान यानी विश्वास व ऐतक़ाद मुसल्लम [सर्वमान्य, समग्र] हो और मुक़म्मिल हो। अब ईमान यानी ऐतक़ादात और विश्वासों की तफ़्सील यह है कि चँद उमूर [अम्र = कार्य या विषय का बहुवचन अर्थात - कार्य-समूह, समस्याएँ] ईमाने मुज्मल [संक्षिप्त, सार-रूप] और चन्द उमूर ईमाने मुफ़स्सल [विस्तारपूर्ण, स्पष्ट] के तहत में आ गए हैं, जिसके अमल में लाने से दर्मियान के रास्ते में और एतदाल पर रह कर लोक और परलोक की मंज़िलें तय हो कर जल्दतर उस मंज़िल-मक़सूद को हाँसिल लेना है। इसकी तफ़्सील पर इस वक़्त बहस नहीं की जा सकती है आइन्दा अगर ज़रूरत होगी तो इस पर रोशनी डाली जावेगी।
इस वक़्त तो खाना [item] नंबर नौ [09] की सराहत [निर्दिष्ट] दरकार थी। मैं उम्मीद करता हूँ कि किसी हद तक हो गयी होगी।
अब खाना [item] नंबर दस [10] में मत-भेद [मत-मतान्तरों का रहस्य] और अक़ायद [विश्वास] के इख़्तिलाफ़ात [मतभेद = discord] का ज़िक्र है।
यह तो मुज्मलन [in brief] कहा जा चुका है कि पमात्मा ने आदि सृष्टि में या अव्वल इंसान में अपने सिफ़ात [virtues / qualities] कामिला [abilities] से अक्सी [pertaining to reflection] तौर पर सिफ़्त के हिस्से मरहमत [अनुग्रह पूर्वक = favoured] फ़रमाये, लेकिन वह बहुत एतदाली [abstinence] क़ैफ़ियत पर थे और तजर्रुद [act of living in solitude or celibacy] और तबरीद [a kind of cooling and refreshing drink] की हालत में थे। इसके बाद ही दूसरी नस्ल [dynasty] से पुरुष और प्रकृति के संयोग और मुरक़्क़ब [compound] रचना के ताल्लुक़ से इफ़रात [abundance] और तफ़रीक़ [वर्गीकरण = classification] की नौबत पहुँची। [तशरीह = exposition तलब = demand] और फिर इसका तसल्सुल = sequence / order] नामुतनाही [insufficient] के साथ ऐसी तरक़ीब किवाम [a kind of jelly mixed with tobacco] की बिगड़ गयी कि असलियत का उलट-फ़ेर हो गया और असल को नक़ल से तमीज़ करना मुश्क़िल हो गया। या यों ख्याल कीजिये कि हज़रत इंसान जमादात [solid inorganic substances], नबातात [vegetation], हैवानात [beasts] की क़ैफ़ीयत [विवरण = details] से गुज़रते हुए आये हैं। इसलिए उनमें सबसे ज़र्रात [particles] और क़ैफीयात [state of affairs] ख़िलअत-मिळत [nature] हो कर निज़ाम [structure] जिस्म व जान के तरक़ीबी किवाम के अजज़ा [components] का दरियाफ़्त करना उस वक़्त तक मसला लायनहल हो चुका है कि जब तक यह सब सिफ़ात और कैफ़ियात, इख़लाक़ी हालत और एतदाल की शक्ल पर न आ जायँ और उस वक़्त तक इत्मीनान की हालत और सहीः शीशे का दरियाफ़्त कर लेना मुश्क़िल है।
बच्चे के पैदा होते ही उसकी आदत और जज़्बात ज्वार-भाटे के मिस्ल हैं। चूँकि उनमें नक़ल करने की सलाहियत का माद्दा मौजूद होता है इसलिए उसका पहिला स्कूल उसके माँ-बाप का घर [परिवार] है और माँ उसकी पहली इस्लाह [improvement] करने वाली और उस्ताद, बाप, रिश्तेदार, सोसाइटी के जो अमल होंगे उसी को बच्चे नकल करते हैं और वैसा ही उनका आइन्दा दिल और दिमाग़ बनता है। दूसरा मदरसा, स्कूल और तामिलगाहें हैं, जहाँ उलूम [Arts & sciences] ऐतक़ादात - आदात और अख़लाक़ की मुख़्तलिफ़ तौर पर तालीम होती है। यहाँ नक़ल, किताब, तजुर्बा बाहिरी मुशाबहत [similarity] पर तालीम का इनहसार [इन्हिसार [encirclement] है। यहाँ उसकी क़ल्ब और अक़्ल और नफ़स [incoming and outgoing breath] की तालीम ज़ाहिरी किताबों और लेक्चरों से होती रहती है। इन मुख़्तलिफ़ ताल्लुक़ात आ असल सबब सिर्फ़ इस उसूल से ख़ाली नहीं हैं कि बच्चा क़मज़ोर है, नाक़िस [faulty] है, नामुक़म्मिल है।
उसकी कमज़ोरी उसका नुख़्स दूर करना है और कमाल हाँसिल कराना है। नुख़्स और कमज़ोरी उसमें किसी दूसरी हस्ती के मुक़ाबिले में है। और उसकी तफ़्सील यह है कि इंसानी पिण्ड [आलम सग़ीर = small world] है, जो नक़ल है अपने ब्रह्माण्ड यानि ‘आलम-कबीर’ की और ‘आलम कबीर’ नक़ल है अपनी असल ज़ात की। [तश्रीह तलब = necessity of explanation] गोया कि इन्सान आलमे कबीर के मुक़ाबिल कमज़ोर और नाक़िस है। कमज़ोरी और नुक़्स दूर करने के लिए जद्दो-जहद है। तालीम और तदरीस [तद्रीस = act of education] का सिलसिला है। ज़िक्र, [ Remembrance of God] फिक्र, [Meditation] मुराक़बः [act of uniting with the God, divine contemplation] व राब्ता [रबितः = Meditation on the figure or presence of the Spiritual Master] के समान है।
अगर यह कमज़ोरी दूर गयी तो नुक़्स [बुराई = fault, defect] जाता रहा। कमज़ोरी और नुक़्स यह है कि एतदाल [abstinence] की क़ैफ़ियत कम हो जाय। इफ़रात [abundance] और तफ़रीक़ [division] पैदा हो जाय। तश्रीह [exposition] तलब - नुक़्स और कमज़ोरी या तो [01] आनन्द में है, [02] इल्म [ज्ञान] में, [03] दवाम [नित्यता = perpetuity] बक़ा [शाश्वत या अमर होने का भाव = immortality] की ख़्वाहिश। सरूर, इल्म, बक़ाए दवाम की ख़्वाहिश हर इन्सान में है और ख़्वाहिश का सबब यह है कि कमज़ोरी है। इसको दूर करने के लिए तमाम दुनियाँ भर की तरकीबें हैं।
इंसान की बचपन की तालीम से ले कर तमाम कॉलेज की तालीम और तमाम फ़लसफ़ा और साइंस के मरहले तय करने-कराने के बाद भी कोई दावा में यह इक़रार नहीं कर सकता है कि उसकी सेरी [तसल्ली = patience] हो गयी, आनन्द व ख़ुशी की अब ज़रूरत नहीं, और इल्म [ज्ञान] के हुसूल [फ़ायदा = profit] से वाज़ाही [clarity] हो गयी, ज़ियादा ज़िंदगी की अब ख़्वाहिश नहीं। मैं कह सकता हूँ कि यह ख़्वाहिश कभी कम होने पर नहीं आती, बल्कि मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। तो इंसान आख़िरी मरहलों [मंज़िलें = storeies] को तय करके और बेबस हो कर ऐसा बेबस और मुज़्तरिब [बेचैन = nervous] हो जाता है कि क़दम टिकाने की जगह तलाश करता है और जगह नहीं मिलती, ख़्वाब में भी चैन नहीं, परेशान करने वाले ख़्वाब पीछा नहीं छोड़ते और ख़्वाब सेहत यानि ग़फ़लत का ख़्वाब तारी करना चाहते हैं। यह नशाबाज़ों की इब्तिदा और ईजाद इस हबिस में हुयी है। अब आदत बन कर दूसरा शग़ल हो गया [pastime] हो गया। मसनूई [बनावटी = artificial or fake] सरूर की क़ैफ़ियत तारी करने को और ज़रा देर के लिए बेचैनी दूर करने को शराब, भांग, धतूरा, चरस और अफ़यून [opium] का इस्तेमाल रायज [जिसका रिवाज़ हो = prevalent] हो गया मगर क्या इससे असल मक़सद निकला ? जो नतीज़ा हुआ और होता है वह ज़ाहिर है।
पस् यह ख़्वाहिश हुयी कि असली क़ैफ़ियत नींद और नयी खुशी की पैदा करना चाहिए और उसकी खोज में चल पड़ें।
इस बेचैनी को दूर करने को और क़ल्ब की इस्लाह [improvement] करने को कर्म-काण्ड का मस्ला पहिले-पहिल ऋषियों ने अख़्तियार किया। और सबसे पहिले वेदों की तालीम में सिर्फ़ कर्म करने को ही बतलाया गया और मुक़द्दम [leading] समझा। कर्मकाण्ड में भी नुक़्स साबित हुआ।
इसके बाद ऋषियों ने उपनिषदों में कर्मकाण्ड की मुखालिफ़त शुरू की और कर्म को अज्ञान और अंधकार ठहराया क्यों कि कर्म में यहाँ तक ख़राबी पैदा हो गयी कि क़ुर्बानी वग़ैरह की मज़मूम [अश्लील = obscene] रस्में बिला समझे-बुझे रायज़ [prevalent] हो गयीं।
उपनिषदों में क़ुर्बानी के मसले को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है, जो ज्ञान से ताल्लुक़ रखता है और यहाँ से ज्ञान-काण्ड की इब्तिदा हुयी। अलहिदा पर्चा - 'A' देखो।
'A'
[01] सबसे पहिले वेदों की तालीम, जिसमें सिर्फ़ कर्म करने को ही बताया गया है।
[02] इसके बाद ऋषियों ने उपनिषदों में कर्मकाण्ड की मुख़ालिफत शुरू की और 'कर्म' को अज्ञान और अंधकार ठहराया, क्यों कि कर्म में यहाँ तक ख़राबी पैदा हुयी कि सिर्फ़ 'क़ुर्बानी' वग़ैरह की रस्म आ गए। यहाँ से हिन्दुओं का 'ज्ञान-काण्ड' शुरू हुआ है । चूँकि उपनिषदों में मुख़्तलिफ़ क़िस्म की बहस की गयी थी इसलिए आपस में इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ, क्योंकि ख़यालात में इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ। इन तफ़ावुत [फ़ासला = difference] के दूर करने के लिए बादरायन ऋषि ने अपने 'वेदान्त सूत्र' में सब उपनिषदों के ख़्यालात की एकता दिखलाई। 'वेदान्त सूत्र' का दूसरा नाम 'ब्रह्म सूत्र' है, जिसके ख़ास रचनाकार श्री वेदव्यास जी हैं। इसके बाद श्री शंकराचार्य जी महाराज हुए, जिन्होंने इसको और भी फ़रोग़ [प्रकाश = light] दिया। बाद में एक शताब्दी के बाद गोपालाचार्य के सिलसिले में एक और शंकराचार्य पैदा हुए। यह वेदांत के सबसे बड़े हामी [स्वीकारोक्ति = to give assent] हुए हैं।
उपनिषदों का ज्ञान ज़्यादातर तर वैराग्य यानि तर्क के मुताल्लिक़ है। इन में वैदिक तरीक़ यानि शग़ल व अमल का ज़िक्र ही नहीं किया गया। इसके बाद बौद्ध धर्म हुआ। महाराजा ऋषभ देव जी ने क़ुर्बानी की रस्म बंद की।
बौद्ध धर्म के जवाल [उतार = fall] के बाद मुख़्तलिफ़ सम्प्रदाय चले। ब्राह्मणों ने 'कर्मकाण्ड' को मुक़द्दम [प्रधान या मुख्य = leading] क़रार दिया और मआश [जीविका = means of livelihood] का ज़रिया क़ाइम किया। इस फलसफ़ा का नाम "पूर्व मीमामांसा" यानि 'कर्म सूत्र' रक्खा है। इसकी इब्तिदा जैमिनी ऋषि से हुयी। क्षत्रियों ने ज्ञानकाण्ड को अच्छा समझ कर अपना ज़रिया मआद [परलोक = heaven] का क़ाइम किया। ज्ञान, तलाश को कहते हैं। इसका नाम यानि ज्ञान की तलाश और ज्ञान के फ़लसफ़े का नाम "उत्तर मीमांसा" रक्खा। इब्तिदा [प्रारम्भ = origin] व्यास ऋषि ने की। इसका नाम 'ब्रह्म सूत्र' रक्खा।
वेदांत, ज्ञान की तलाश का पहिला मरहला [पड़ाव = halting place] है। पहिले मरहले को "उत्तर मीमांसा" कहते हैं और पिछले मरहले को "वेदांत"। शंकराचार्य जी ने यह कहा है कि हर एक धार्मिक संप्रदाय के दो कुदरती हिस्से होते हैं। पहिला 'तत्व-ज्ञान' [इल्म हक़ीक़त] दूसरा 'आचरण' यानि अमल [आचरण = conduct] । पहिले में 'पिण्ड' [निज़ामे जिस्म] के ख़याल से परमेश्वर के स्वरुप का फ़ैसला करके 'मोक्ष' [release from rebirth in the world] का फ़ैसला किया जाता है ; दूसरे में इस अम्र [विषय = subject] पर ग़ौर किया जाता है कि मोक्ष के लिए और उसके हुसूल [फ़ायदा = profit] के लिए क्या ज़रिये और तरीके हैं। यानि इस दुनियाँ में इंसान को किस तरह बर्ताव करना चाहिए।
इनमें से पहिली बात यानि इल्म हक़ीक़त [तत्व ज्ञान की नज़र] से श्री शंकराचार्य जी का यह अक़ीदा है [मन में होने वाला दृढ़ विश्वास = firm belief] कि अव्वल [मैं और तू] यानि इंसान की आँख से नज़र आने वाला सारा जगत, या यूँ कहो कि दुनियाँ की तमाम चीज़ों की कसरत सहीह नहीं है। इन सब में एक ही शुद्ध और नित् पारब्रह्म भरपूर है, और इसी माया से इंसान की इन्द्रियों को यह कसरत मालुम हुआ करती है।
दोयम, मनुष्य की आत्मा ही दर-हक़ीक़त पारब्रह्म स्वरुप है। सोयम, आत्मा और पारब्रह्म की एकता [वहदत = oneness, unity] का पूरा इल्म यानि इल्म हक़ीक़ी होने के बग़ैर कोई भी मोक्ष नहीं पा सकता। इसी को 'अद्वैतवाद' कहते हैं। इस मसले का यह मक़सद है कि एक शुद्ध, बुद्ध, नित्य, मुक्त पारब्रह्म के सिवाय दूसरा कोई भी आज़ाद और हक़ीक़ी आज़ाद चीज़ नहीं। इसके अलावः और भी ऐमाल के नुक़्तए ख़याल से एक और ऐतक़ाद भी है। वह यह है कि अग़रचे चित्त की शुद्धि के ज़रिये ब्रह्म और अपनी आँख का ज्ञान हाँसिल करने के लिए स्मृति ग्रंथों में बयान करदा [किया हुआ = done] गृहस्थ आश्रम के फ़रायज़ की अदायगी निहायत ज़रूरी है। लेकिन इन फ़रायज़ की अदायगी हमेशा ही न करते रहना चाहिए क्योंकि इन सब को तर्क करके आख़िर में सन्यास लिए हुए बग़ैर मोक्ष नहीं मिलता। इसकी वजह यह बताते हैं कि कर्म और ज्ञान अँधरे और उजियाले के मानिन्द एक दूसरे से मुतज़ाद [परस्पर विरोधी = conflict] हैं। इसलिए जुमले क़िस्म के ख़ाहिशात और ऐमाल के तर्क के बग़ैर ब्रह्मज्ञान की तकमील [पूर्णता = completeness] नहीं हो सकती। इस मसले को निवृित्त-मार्ग या राहे-तर्क भी कहते हैं। सब कर्मों को तर्क करके ज्ञान ही में महब करने को सन्यास-निष्ठा या ज्ञान-निष्ठा कहते हैं। इस मसले का "महावाक्य-तत्वंमसि" कहते हैं।
तजर्बे से यह साबित हुआ है कि कर्म और ज्ञान के दर्मियान के मराहिल हैं और जब तक अधिकारी इनमें से न ग़ुज़रेंगे तब तक ज्ञान का अनुभव सख़्त कठिन होगा, इसी लिए और [अन्य] कई दर्शनों की इब्तिदा हुयी। मुख़्तलिफ़ दर्शनों के मानने वाले अपने-अपने दर्शन को मुक़म्मिल और उत्तम समझने लगे और आगे बढ़ने की ज़रुरूरत महसूस नहीं की। उपनिषदों ने इशारा किया। बौद्ध ने उसको अमली जामा पहिनाया। शंकराचार्य ने विचार की अहमियत जिहननशीं [made intelligible] कराई। आख़िर को ज्ञानियों की ज़ियादातर तादाद ज़बानी जमाखर्च ही में पड़ी रहती है।
मायावाद, मर्मवाद, प्रमाणवाद, मिथ्यावाद, विरतवाद [autism] वग़ैरह इसकी बेशुमार शाखाएँ हैं। और आख़िर में मज़बूर हो कर इन सब को "उत्तरोचनी ख्याति" यानि लाक़ाबिल बयान उसूल मौजूदा के पनाह लेनी पड़ी। और जिस क़दर बहस-मुवाहिशा का ज़ोर और दलील और हुज्जत का ज़ोर होता है, यहाँ आ कर ख़त्म हो जाता है।
वेदान्ती कहते हैं कि यह जगत मिथ्या है। 'मिथ्या' कहना ही खुद 'मिथ्या' है क्यों 'मिथ्या', नफ़ी [न होने का भाव = nothingness] का कल्मा है। 'नफ़ी' को 'अस्वात' [ध्वनियाँ, स्वर-समूह] में लाना सख़्त ग़लती है।दूसरे यह कि जब सिद्धान्त और उसूल यह ठहरा कि एक के सिवाय दूसरे की हस्ती नहीं है तो फ़िर कोई दूसरा कौन है जो उसको सहीह करके दिखाता है, और इसका इम्कान [हो सकने की अवस्था या भाव, सम्भावना [possibility] कैसे है। तौहीद [एकेश्वरवाद] की दलील खुद रद्दे-तौहीद है । तौहीद का साबित करना 'दो-पने' के गहरे ख़ंदक़ में गिराता है। जहाँ दो होते हैं वहाँ एक-दूसरे की सुनता, एक दूसरे को कहता और जहाँ दो नहीं वहाँ उनका कहना-सुनना, समझना-जानना कैसे मुमकिन है।
यह जगत साफ़ नज़र आ रहा है, हम इसको बरत [usage] रहे हैं इसका बुतलान [निदान =extinguishment] बातों से तो होता नहीं, और जब लोग यह सवाल करते हैं कि क्यों भासता [आभास = inkling] है तो जवाब यह दिया जाता है कि माया के मर्म की वजह से। बहुत अच्छा ! फ़िर 'माया' क्या है ? इसका जवाब है कि यह बाँझ [barren, a woman or a cow] के लड़के, आकाश के फूल और सुरख़ाब [चकवा ; सुरख़ाब का पर लगना = अनोखा पैन होना, कोई विलक्षणता होना] से मुशाबा [समान = alike] है।
यह सब सहीह लेकिन फ़िर यह सब मिथ्या ही मिथ्या है। फ़िर मिथ्या के साबित करने में मिथ्या शै [वस्तु, पदार्थ] की मुशाबहत [मिलता-जुलता होने का भाव] क्यों दी जाती है, फ़िर यह कहा जाता है कि यह जगत भासता किसको है। इसका जवाब वेदान्ती नहीं देते। अगर वह कहें कि ब्रह्म को भासता है तो ब्रह्म के अलहदा और कोई हस्ती उन्हीं की दलील से साबित हो जाती है। जब जवाब नहीं बन पड़ता "उत्तरोचनी" यानि लाक़ाबिल बयान कह देते हैं। असल वेदान्त को समझने के लिए 'अनुभव-ज्ञान' की ज़रूरत होती है जो इंसान में मौजूद है, जिसको 'अक़्ल-कुल्ली' कहते हैं। अक़्ल-जुज़वी [बहुत अल्प या सामान्य बुद्धि] से यह समझ में नहीं आता, वहम [मिथ्या धारणा = misconception, delusion] का पर्दा पड़ा हुआ है, और इस तरह अक़्ल-जुज़वी [बहुत अल्प या सामान्य बुद्धि] के उधेड़-बुन से दूर नहीं होता। जिस तरह हम को हर शै का इल्म साधन से हाँसिल होता है, वैसे ही साधन करने से जब वहम मिट जाता है, हक़ीक़त की समझ खुद ब खुद आ जाती है। इब्तिदायी मरहले [प्रारम्भिक पड़ाव] में साधन की तालीम ज़रूरी क़रार दी जावे और ब-तदरीज [क्रमशः, धीरे-धीरे] उसको अमल [आचरण] और शग़ल [कार्य] के सिलसिले में अनुभव हो जावे यानि कश्फ़ [प्रकट होना] हो जावे तो फ़िर वेदांत का मसला सहीह है। वगैरः वगैरः।
बौद्धों के फिलसफ़े में एक लफ्ज़ 'शून्य' आया है जिसको संत लोग 'शून्य' या 'महाशून्य' कहते हैं। इस शून्य का तर्जुमा ग़लती से खुलू [ख़ाली] किया गया है।
जब बौद्धों ने यह कहा कि यह जगत शून्य से पैदा हुआ है। तो शंकर स्वामी ने हक़ीक़त में उनको तंग कर दिया कि जब कोई शै खाली है तो फिर उसके ख़ाली होने का इल्म किसे और किसको हुआ, बौद्ध सोचने लगे। तब तक मज़ाक़ मज़ाक़ में उनको ला-जवाब कर दिया और अपनी फ़तह का एलान कर दिया।
इसी 'शून्य' का तर्जुमा सूफ़ियों ने 'अदम नेस्ती' किया है। लेकिन अदम नेस्ती नहीं है। अदम [हीन, बिना या अभाव] की भी हस्ती है। इसलिए उसका सहीह तर्जुमा नहीं हो सकता।
इसके बाद 'मायावाद' और 'अद्वैत' और 'सन्यास' की तल्क़ीन [दीक्षा देना, गुरु मन्त्र देना, पीर का मुरीद को अमल आदि पढ़ाना] करने वालों के बाद श्री रामानुज आचार्य पैदा हुए। श्री शंकराचार्य और श्री रामानुज आचार्य के उसूल में बरायनाम और मामूली फ़र्क़ है। सिर्फ़ बाहमी ज़िद और हठ की वजह से ख़राबी पड़ गयी है। वर्ना दोनों ही तौहीद के क़ायल हैं। शंकर स्वामी कहते कि जो है चेतन है और वह अद्वैत है। और वह्दत [एकत्व, एकता, अद्वैत-भाव] के सिवाय कुछ नहीं।
रामानुज स्वामी ने यह बतलाया कि अद्वैत और अहिदियत तो है लेकिन यह अद्वैत-पना जड़ और चेतन दोनों का पहलू लिए हुए है। अगर वह इससे खाली होता तो फ़िर जगत में जड़ [माद्दा] और चेतन का ज़हूर न होता।
पैदाइश और सृष्टि एक सी नहीं होती, और यह दोनों मिले-जुले हुए मटर के दोनों दानों और टुकड़ों की तरह एक हैं। जब वह्दत की जानिब नज़र है तब 'दो' नज़र आते हैं और जब एक की तरफ निगाह है तो फिर 'एक' के सिवाय कुछ भी नहीं। यह फ़र्क़ कुछ फ़र्क़ नहीं कहलाता। असलियत पहले मटर के टुकड़ों की तरह मिली-जुली थी और जब उनमें अलहदगी हो गयी तब एक 'पुरुष' दुसरी 'प्रकृति'। श्री रामानुज जी यह यक़ीदा कहते हैं कि - "मसला हमा ऑस्त" [अद्वैत झूठ है] और माया [माद्दा] मिथ्या है ; यह ठीक नहीं है।
जीव, जगत और ईश्वर यह तीनों अन्सुर [मूल तत्व = element] अग़रचे मुख़्तलिफ़ हैं तो भी जीव चित [जी इल्म] और जगत अचित [बेइल्म] दोनों एक ही ईश्वर के शरीर हैं। इस लिए यह भी इल्म और बेइल्म लतायफ़ ही से और फिर जी-इल्म [जानकारी रखने वाला] और बेइल्म क़साफ़त [भद्दापन = awkwardness] से दुनियां की पैदाइश हुयी है। इसलिए वह यह फ़ैसला करते हैं कि तत्व-ज्ञान यानि हक़ीक़त की नज़र से अद्वैत और अमली नुक़्ते-निग़ाह से भी हमा अज ओस्त दुरुस्त हैं। यानि भक्ति या उपासना की राह ठीक है। शग़ल और अमल कोई आज़ाद फ़ेल नहीं हैं । यह सिर्फ ज्ञान के हाँसिल करने का एक ज़रिया है। उन्होंने अद्वैत-ज्ञान के बदले विशिष्टा-द्वैत और सन्यास यानि तर्क के बदले भक्ति को क़ाइम किया है। आचार्य ने यह फ़र्क़ क़ाइम कर दिया तो अमली नुक़्ते-निगाह से उन्होंने महज़ भक्ति को ही आख़िरी फ़र्ज़ क़रार दिया और दूसरे अमल सब को तर्क बतला दिया। दोनों आचार्यों के ख़्याल का नतीजा एक ही है, वह सिर्फ़ कर्म को तर्क करके महज़ ज्ञान से ही ताल्लुक़ रखते हैं और यह महज़ भक्ति को रखते हैं। बाक़ी सब आख़िर में तर्क कर देते हैं। इस लिए दोनों ही ने तर्क-अमल किया है। एक ने महज़ ज्ञान को ले लिया और दूसरे ने महज़ भक्ति को और कर्म को आख़िर में तर्क कर दिया है।
इसकी इस्लाह [संशोधन = improvement] के लिए माधवाचार्य तशरीफ़ लाये और उन्होंने द्वैत - अद्वैत सम्रदाय चलाये। इसकी करीब-करीब वह ही हैसियत है जो मौजूदा 'आर्य-समाज' की। इनका ख़्याल है कि 'पारब्रह्म' और जीव को कुछ हिस्सों में एक और कुछ हिस्सों में मुख़्तलिफ़ मानना एक-दूसरे के ख़िलाफ़ और वे बे-ताल्लुक़ बात है। इसके दोनों हिस्सों को हमेशा मुख़्तलिफ़ ही मानना चाहिए क्योंकि इन दोनों में मुक़म्मिल या ग़ैरमुक़म्मिल तरीक़ से भी एक-सानियत नहीं हो सकती, इस तीसरे सम्प्रदाय को 'द्वैत-सम्प्रदाय' कहते हैं। यक़ीदा इसका यह है कि भक्ति की सिद्धि हो जाने पर कर्म करना या न करना एक सा ही है। 'ध्यानात-कर्म-फल-त्याग' - वह यह कहते है कि परमेश्वर के ध्यान यानि 'भक्ति' की निस्बत कर्म-फल का त्याग या निष्काम कर्म करना आला [श्रेष्ठ] है। इसका मतलब यह है कि महज़ भक्ति में भगवंत और भक्त 'दो' क़ाइम रहते हैं। यानि कर्म करते रहना चाहिए। लेकिन उसके नतीज़े की तरफ़ बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिए। निष्काम कर्म करना चाहिए।
फ़िर, इनके कई सौ वर्ष के बाद बल्लभाचार्य जी ने शुद्ध 'द्वैत' शाख की बुनियाद डाली। यह चतुर्थ संप्रदाय है, फिर 'वैष्णव' पंथ है। लेकिन जीव-जगत के मुताल्लिक़ इसका ख़्याल विशिष्ठ-अद्वैतवाद से मुख़्तलिफ़ है। यक़ीदा यह है कि 'माया' से ख़ाली-शुदा जीव और 'पारब्रह्म' एक ही चीज़ हैं। दोनों में इस लिए इनको 'शुद्ध-अद्वैत-पंथ' कहते हैं। मगर यह श्री शंकराचार्य के मानिंद यह नहीं मानते हैं कि जीव और ब्रह्म एक ही हैं। माया, परमेश्वर की इच्छा इरादा-अज़्ली [अज़्ल = पदच्युति]से तक़सीम हुयी है। यह एक ताक़त है। माया में फ़ंसे हुए जीव को ईश्वर की कृपा के बग़ैर, मोक्ष-ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए 'मोक्ष' का सबसे बड़ा ज़रिया भक्ति ही है। इस तरह यह शंकराचार्य के यक़ीदे से अलग है। इस संप्रदाय वाले ईश्वर की कृपा को "पुष्टि" [ताक़त] और पोश [परवरिश] भी कहते हैं। इस लिए यह पंथ 'पुष्टि-मार्ग' भी कहलाता है। इसका ख़्याल है कि पहले ज्ञान और फिर कर्म, और फिर भक्ति करने से काम बन सकता है। इस लिए एक तो "भगवन्त की भक्ति" और फिर खास कर तर्क फ़ेल से नियत रखने वाली 'पुष्टि-मार्ग' की भक्ति करना चाहिए। यानि 'सब धर्मों को छोड़ कर सिर्फ़ मेरी शरण में आ जा'। यानि, "राज़ी व रज़ा" और तस्लीम का तरीक़ अख़्त्यार कर। अगर कर्म करे, तो जो कर्म किया जावे, वह 'उसकी' रज़ा के वास्ते।
इसके बाद अम्बारिकाचार्य का वजूद हुआ, इसमें राधा-कृष्ण की भक्ति की अज़मत [महत्ता = dignity] रक्खी गयी है। जीव-जगत और ईश्वर के मुतअल्लिक़ अम्बारिकाचार्य का यह मत है कि अग़रचे ये तीनों मुख़्तलिफ़ हैं। फ़िर भी जीव और जगत का ब्यवहार और उनकी हस्ती ईश्वर की रक्षा पर मुनहसर [आश्रित = dependent] है और आज़ाद नहीं, और परमेश्वर ही में जीव और जगत के लतीफ़ अनासिर [तत्व = elements] रहते हैं। रामानुजाचार्य की बनिस्बत अद्वैत पंथ से इस सम्प्रदाय को तमीज़ करने के लिये इसे द्वैत-अद्वैत सम्प्रदाय कह सकते हैं।
रामानुज सम्प्रदाय के और कई पुश्त बाद स्वामी रामानन्द जी का ज़हूर हुआ, जो निस्बतन आज़ाद-तबा थे। अब यहाँ से कबीर साहिब की सम्प्रदा शुरू हुयी है। यहाँ से संत सम्प्रदा कहलाने लगी है, जिसके मुख़तलिफ़ नाम हो गए हैं। इनके यहाँ राम-नाम की महिमा गाई गयी है। इसकी महिमा की असल हक़ीक़त 'गुरु' की मदद से हाँसिल होती है। महज़ किताबी ज्ञान से असलियत समझ में नहीं आती। यहाँ तसलीसी [त्रयी = triplit] पहलू की मद्देनज़र रखने की ज़रूरत है। [01] सतनाम, [02] सत्संग और [03] सतगुरु सतनाम है। सच्चे मालिक का जो आदर्श, मैराज या इष्टपद है, यह नाम एक तरह का कानून-क़ुदरत है जो इंसान के घट यानि बातिन में गूंज रहा है। इससे 'सुरत' यानि रूह के मेल-मिलाप से रूहानियत आने लगती है और जहाँ ज़रा भी अंदरूनी लज़्ज़त मिलने लगी, खुद-ब-खुद रूहानी बन जाता है। इसी का 'संतमत' में अभ्यास कराया जाता है। रामानंद जी का "राम-नाम" का अभ्यास जो सब जगह फैला हुआ और रमा हुआ है।
उसका नाम यानि 'शब्द' का अभ्यास ज़ुबान से। आभास का इष्ट मुख़्तलिफ़ है। वह कहते हैं - जगत में चारो राम हैं। तीन राम ब्यवहार, चौरा राम निजसार है। ताका करौं विचार -
एक राम दशरथ घर डोले। एक राम घट घट में बोले।।
एक राम का सकल पसारा। एक राम त्रिगुण से न्यारा।।
साकार राम दशरथ घर डोले। निराकार घट घट में बोले।।
बुन्द राम का सकल पसरा। निरालम्ब सब ही से न्यारा।।
तशरीह करना चाहिए - रामानुज सम्प्रदाय वाले तीन राम की उलझन में पड़े हैं, उनको चौथे राम की खबर तक नहीं है।
तीन लोक को सब कोई धावै। चौथे देव का मर्म न पावै।।
चौथा छोड़ पञ्चम चित लावै। कहै कबीर हमरे ढिंग आवै।।
तीन गुनन की भक्ति में भूल रहा संसार।
कहैं कबीर सतनाम बिन कैसे उतरै पार।।
यह राम हक़ीक़त में 'सतनाम' है। वह ही पाँचवाँ पद है। इन पाँचों के अंतर्गत [शमूल] में पञ्च अग्नि विद्या का रम्ज़ [रहस्य = mystery] छिपा हुआ है। तशरीह तलन : पाँच अग्नि, पाँच नाम की तशरीह होती है। अग्नि से मुराद - प्रकाश, नूर है। नाम से मुराद - ध्वन्यात्मिक शब्द और जात हकीकत है। अमली और इल्मी दोनों तरह की ज़िन्दग़ी की ज़रूरत है। एक से काम नहीं चलता है।
पस् इन अक़ायद में तफ़सीली मद्दात [मद = विभाग का बहुबचन] में ग़ौर किया जावे तो महज़ एक लतीफ़ फ़र्क नज़र आता है। असल मुराद तो तौहीद पर आने की है क्योंकि बिला तौहीद के असली शान्ति और सुकून क़ल्ब प्राप्त नहीं होता। तौहीद के मत-भेद बहुत हैं। अहिदीयत [इकाई, एकत्व = oneness, unity], वाहदियत [वाहिद = एक या अकेला], वहदत [वाहिद या एक होने का भाव = oneness, unity], वहदत वजूद, वहदत शहुद, जाती, सिफ़ाती ग़र्ज़ेकि हज़ारों शाखें हैं। रगड़ करने और छान-बीन से पैदा हो गयीं हैं। जैसी जिसकी पहुँच है, वैसी ही उसकी समझ है। लड़ाई और झगड़ने की ज़रूरत नहीं है। अब पन्थ और सम्प्रदायों के मुख़्तलिफ़ अक़ायद और ख़यालात को आपने खूब समझ लिया होगा कि बाज़ ने अक़ायद के लिहाज़ से तौहीद की मुख़्तलिफ़ शाखें क़ाइम कर लीं हैं। किसी ने कोई, और किसी ने कोई। और अक़ाइद के साथ जद्दोजहद और अमल व शग़ल के फ़रायज़ के अंजामदेही के वास्ते किसी ने महज़ कर्म, किसी ने महज़ ज्ञान, किसी ने महज़ उपासना और किसी ने इन तीनों को एक साथ एतिदाल के साथ पाबंदी करने का एहतमाम [कोशिश = endeavour] किया है।
श्री शंकराचार्य जी से ले कर श्री रामानंद जी तक जो अक़ायद में इख़्तलाफ़ [ख़िलाफ होने की अवस्था या भाव = opposition] रहा, उसकी तफ़सील आप सुन चुके हैं। आख़िर में श्री कबीर साहिब ने तमाम सम्प्रदायों के नुख़्स और क़वायद [क़ायदा का बहुबचन यानि ब्यवस्थाएँ = rules] और उसूलों को लिहाज़ कर के छान-बीन कर के एक फैसला यह किया कि तौहीद और तस्लीम के झगड़े इब्तिदाई हालत के मरहिले हैं। इनसे गुज़रना ज़रूरी है। मगर मक़सद तमन्ना और आख़िरी इष्ट-पद वह होना चाहिए जो त्रिगुण [सिफ़ात सलासा] से मुनज़्ज़म [संगठित = organized] और मुबर्रा [पाक-साफ़ = pure, holy, sacred] हो, वह एक है, और दो भी, और तीन भी। न वह एक है, न दो, न तीन। और वह सब है। और कुछ भी नहीं। उन्होंने तौहीद वजूदी को दर्मियानी मंज़िल क़रार दिया है और बाक़ी सब ने उसको आख़िरी मंज़िल। लेकिन कबीर साहिब ने इसको तौहीद शहूदी के दर्ज़े को बालातर क़रार दिया। तफ़सील करना चाहिए :- मख़मूर [नशे में चूर = dead-drunk] और ज्ञान के साथ खुमार की तरह।
सिफ़ात का ख़याल और उसमें लय होना, सिफ़ात ही में मंज़िले-मक़सूद हो जाता है। इसके आगे चलना चाहिए। जहाँ और लोग ख़तम करते है, वहाँ से यह शुरू करते हैं। इसी तौहीद को हज़रात मुजद्दिद अलिफ़सानी रहमत0 ने निहायत खूबी और शरहवसीत के साथ हल किया है और वह जौहर अमल और शग़ल वग़ैरह के ईज़ाद किये कि तरीक़ा पेटेन्ट हो गया।
मतभेद यानि अक़ायद में इख़्तिलाफ़ नज़र आता है, लेकिन एक ही उसूल को सिद्ध और साबित करने को यह मुख़्तलिफ़ तरीक़े अमल में आ गए हैं। असली ग़र्ज़ तो बेचैनी अजतरब [खुशी की] क़ल्ब का दूर करना और सुकून की हालत पर पहुँचना है, और यह सिर्फ़ दिल अक़्ल का हेर-फेर है और कुछ नहीं। अगर मन और क़ल्ब का नश्वानुमा [उद्भव, विकास] हो जाय और तरबियत पजीर हो कर तरतीब और क़ायदे में आ जाय तो सब काम बने बनाये हैं। दरअसल आत्मा शुद्ध और अशुद्ध दोनों में से कुछ भी नहीं, और जब आत्मा की यह हालत है तो परमात्मा की निस्बत क्या सवाल किया जाय।
ज़रूरत मालूम हो जाने पर यह बात क़ाइम करना कि मतभेद और इख़्तिलाक अक़ाइद में और अक़ाइद के साथ अमल और शग़ल के सिलसिले में तमाम मजाहिब का फ़ैसला और इज़तमाअ [इज्तिमाअ = इकठ्ठा होना, जमा होना = an act of gathering] क्योंकर हो सकता है। इसी के लिए मुख़्तलिफ़ अक़ायद के पैरोकारों के उसूल और तवारीख आप सुन चुके हैं। अब अपनी-अपनी पहुँच और अक़ल के मुवाफ़िक़ आप तस्फियः कर सकते हैं। तस्फियः [निर्णय = decision] पर पहुँचने के लिए मैं फिर इस अम्र [विषय = work] की कोशिश करता हूँ कि हर एक मत के उसूलों को फिर दोहरा दूँ ताकि मुक़ाबिला किया जा सके, और यही गर्ज़ है कि जहाँ तक मुमकिन हो सके, आप साहिबान कम से कम तस्फियः न कर सकें तो तस्फियः का ख़्याल ले कर तो यहाँ से उठें।
एक साहिब यह कहते हैं कि महज़ कर्म करना चाहिए जिसमें कि इल्म को न पहिले और न पीछे कुछ ग़र्ज़ हो। मिसलन एक बढ़ई लकड़ी पर बसूला या आरी चलाना शुरू कर दे, बिला इस ख़्याल के कि इसका क्या बनेगा ? और न दर्मियान में ख्याल आये और न बाद को। एक साहिब यह कहते हैं कि किसी चीज़ को बनाये जाने का ख़याल पहिले ही सी से ख्याल कर लेना चाहिये और हालत-मशग़ूली में कुछ ख़याल न करना चाहिए। एक यह कहते हैं कि कर्म इस तरह करना चाहिए कि पहिले से यह ख़याल कर लेना चाहिए कि बनेगा और बसूला या आरी चलाते वक़्त हर लम्हे यह ख़याल करते रहना चाहिए कि क्या बनाया ज रहा है और इसका यह नतीज़ा होगा। एक साहिब का ख़याल है कि कर्म करते वक़्त उम्मेद और नतीज़े का ध्यान न बाँधना चाहिए, बल्कि नतीज़े को ईश्वर पर छोड़ना चाहिए। यह तरक़ीब तनहा कारआमद साबित न हुयी, बल्कि इल्म और एकसुई यानि भक्ति और महवियत की मुहताज़ रही।
अब महज़ इल्म और ज्ञानकाण्ड की जानिब आइये। एक गिरोह इसके क़ायल है कि कर्म करने की क़तई ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ फ़िक्र और सोंचते-विचारते रहना चाहिए, उपासना की बिलकुल ज़रूरत नहीं। दूसरा गिरोह यह कहता है कि मुक़द्दम फिक्र करना और सोचना चाहिए, लेकिन कर्म को भी थोड़ा-थोड़ा शामिल कर लेना चाहिए, लेकिन उपासना की क़तई ज़रूरत नहीं। तीसरा गिरोह यह कहता है कि मुक़द्दम फ़िक्र और सोंच-विचार है, लेकिन सोंच और विचार के सिलसिले में एकसुई क़ल्ब की ज़रूरत लाहक़ होती है, इसलिए उपासना का एक हिस्सा भी शामिल कर लेना चाहिए। लेकिन कर्म करने की हरग़िज़ ज़रूरत नहीं, बल्कि गुमराही है।
यह हिस्सा तो रहा अमल और शग़ल का, अब अक़ीदा की हक़ीक़त की निस्बत ग़ौर कीजिये। एक साहिब यह कहते हैं कि जंगल नज़र आता है, लेकिन मुख़्तलिफ़ किस्म के दरख्तों की बेशुमार तादाद भी नज़र आती है, उन सब से मिल कर जंगल की एक शकल बन जाती है। अगर जंगल को एक करार दे दिया जाय तो जंगल है, वर्ना सब दरख़्त अलहिदा-अलहिदा हैं।
एक साहिब यह मानते हैं कि दीवार ईंटों की हज़ारों की तादाद से मिल कर और चूने से बनायी गयी है, वह एक है और एक नज़र आती है, लेकिन ईंटों की तरफ़ अलग-अलग निगाह ज़माने और चूना और पानी के ख़याल को साथ-साथ लाने से दूसरी हालत पैदा हो जाती है। एक साहिब का ख्याल है कि सोना से उसके मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ज़ेबरात बनाये गए और अलहिदा-अलहिदा सूरतें उसकी हो गयीं। लेकिन दरअसल जात उसकी और हक़ीक़त सोना ही है।
फिर एक साहिब यह सिद्ध करते हैं कि समुद्र एक रूप और 'एक' नज़र आता है जो बूंदों की मज़मूआ [संग्रह = collection] है, लेकिन बूंदें आतीं ; सिर्फ़ समुद्र एक सा नज़र आता है और बूंदों का ख़याल करना पड़ता है। लेकिन बूंदों का ख़याल बूंदों की हस्ती की वजह से है। अगर उसकी हस्ती न होती तो ख़याल भी न आया होता।
अब हालत महवियत को मुलाहिज़ा फ़रमाइये। एक ने नशा किया और ऐसी मस्ती आयी कि अपनी हस्ती का ख़याल मौजूद है और नशा वाली चीज़ का यानि शराब का और अपनी बदमस्ती का भी और होश का भी। दूसरे साहिब को ऐसी मस्ती तारी है कि अपनी हस्ती का तो ख़याल है, लेकिन शराब का और मदहोशी का नहीं। तीसरे साहिब को मस्ती के बाद अपना ख्याल है, न शराब का, न मस्ती का और न होश का। यह ज्ञान काण्ड वालों की हालत और सराहत हुयी। अब अमल और उपासना की बावत सुनिए।
उपासना, भक्ति, तरीक़त इश्क़ के मुताल्लिक़ सुनिए। हालत बेदारी [जागने की अवस्था, जाग्रति = awkening] में, ज़माना हाल-माज़ी [बीता हुआ समय = past] और मुस्तक़बिल [आने वाला समय = time to come] तीनों का इल्म है। हालत नीम [आधा = half] ख़्वाब में अंदर का इल्म और ख़्वाब की ग़फ़लत में किसी का इल्म भी नहीं। उपासना की एक हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त तीनों क़ाइम हैं। दुसरी हालत में भक्ति का ख़्याल नहीं, लेकिन 'भक्त' और 'भगवन्त' मौजूद हैं। तीसरी हालत में या तो भक्त नहीं या भगवन्त का ख़्याल नहीं। चौथी हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त सब ग़ायब। पाँचवी हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त सब ग़ायब तो हैं मगर इसके साथ ही साथ एक ही वक़्त सब मौजूद भी हैं। न उसको ग़ायब होने से कुछ सरोकार और न मौजूद होने से कुछ खुशी। मौजूद भी और ग़ैर मौजूद भी, और न यह और न वह और सब कुछ।
खुलासा यह है
एक साहिब ने महज़ अमल और शग़ल से सरोकार रक्खा है। दूसरे ने महज़ ज़िक्र से, तीसरे ने महज़ फिक्र से और चौथे साहिब ने ज़िक्र, फ़िक्र और राबता = राबितः [सम्बन्ध = familiarity] से। पांचवें साहिब ने इन सबसे सरोकार रखते हुए भी कुछ सरोकार न रक्खा। एक तरीक़े ने अमल व शग़ल में सिर्फ़ यज्ञ और 'बलि' वग़ैरह, पंचदेश-कम और ज़ाहिरी पूजा-पाठ, आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, तीर्थ वर्त, नमाज़ वग़ैरह से काम रक्खा और ज़िक्र यानि 'जाप' में सिफ़ाती [सिफ़त या गुण सम्बन्धी = pertaining to the virtue] नाम और ज़िक्र-लस्सानी [उच्चारण सहित जाप] तक रक्खा और शग़ल राबता में मंदिर की मूर्ति तक के दर्शन करने कराने से वास्ता रक्खा।
दूसरे तरीक़ वालों ने अमल और शग़ल के सिलसिले को ज़रा वासीअ [विस्तृत = extensive] किया यानि धारणा और ध्यान के मरहिलों को शामिल किया और तरीक़े-ज़िक्र में 'अजपा-जाप' में 'ज़िक्र-क़ल्बी' वग़ैरह को दाख़िल कर लिया, लेकिन सिफ़ाती नामों के साथ, मिसलन कहार [क़हर, विपत्ति, आफ़त = calamity, disaster], जब्बार [जब्र या जबरदस्ती करने वाला, बलवान, ईश्वर का एक नाम = using coercion, coercive, mighty, the epithet of the God]वग़ैरह और शग़ल-राबता में बाहरी मूर्तिमान शक्लों की बजाय मानसिक शकलें अंदर की तरफ़ क़ाइम कर लीं जिनका कि रूप अंदर घट में ख़याल किया और सिफ़ाती लिहाज़ से देवताओं की शकलें क़ाइम कीं।
तीसरे तरीक़े वालों ने अमल और शग़लों सिलसिले को ज़रा और वसीअ किया यानि बजाय धारणा और ध्यान के 'समाधि' के दर्जे पर आये, बाज़ों ने 'तुख़्म' [अण्डा, बीज, औलादवीर्य = seed, an offspring, semen] वाली समाधि तक रसाई की और बाज़ों ने ग़ैर तुख़्म वाली समाधि की। बाज़ों ने सिफ़ात की तरफ़ रुज़ूअ की और बाज़ों ने जात की जानिब और ज़िक्र में क़ल्बी के साथ, सिफ़ाती नामों को जोड़ दिया और जाती नामों मद्देनज़र रक्खा। और शग़ल राबता में सिर्फ़ मुर्शिद कामिल के सत्संग को अहमियत दी, वग़ैरह वग़ैरह। अब आप ग़ौर करना शुरू करें कि मतभेद का सबब, रास्ते की बातें हैं। मंज़िल मक़सूद तक पहुँचने के सिर्फ़ असबाब और ज़रिये हैं, बज़ात खुद 'मंज़िल मक़सूद' नहीं है। जिस जिस क़दर जिसने तहक़ीक़ात कर ली, उसको आख़िरी क़रार दिया, और यह क़ुदरती बात है। और फ़िर दूसरे ने ज़ियादह तहक़ीक़ात की और ज़ियादह गहरा गया। इस तरह यह सिलसिला चला आया और चला आता है और न मालुम कब ख़त्म होगा। बहरहाल अब जो मौजूदः क़तई तरमीम शुदा तरीक़ और क़ुदरतन रायज़ है, उसकी खोज करना ज़रूरी है। हर 'मत' वाला यह दावा करने को तय्यार है कि मेरा तरीक़ आला और सह्लुलवसूल और सरीउल असर है। लेकिन यह तो अमल और शग़ल और जाँच-पड़ताल के बाद ही मालुम हो सकता है, बशर्ते कि सहीह वज़नदार [वज़नी = भारी = heavy] और बिला पक्षपात और तलब सादिक़ की मद्दों को लिहाज़ करके तहक़ीक़ात और तलाश की जाय।
क्या यह सब मानने के लिए तय्यार हैं कि इंसान माजून = मअजून [औषधि के रूप में काम आने वाला कोई मीठा अवलेह = sweetened tonic] मुरक़्क़ब [मिश्रित, मिला हुआ = combined, mixed] है और हर क़िस्म के माबाद [इसके बाद = after this] से इसका किवाम [शहद के समान गाढ़ा किया हुआ अवलेह जिसमें तम्बाकू मिला रहता है = a kind of jelly mixed with tobacao-powder] बनाया गया है। यह ज़रूरी है कि किसी न किसी बात को इस्तेदाद = इस्तिअदाद [सामर्थ्य, शक्ति, विद्या-सम्बन्धी योग्यता = cpacity, strength, ability, knowledge] ज़्यादः है और किसी में किसी की कमी, लेकिन हर हालत में सब चीज़ें मौजूद हैं। महज़ एक ही को ले लेने से बाक़ी तमाम चीज़ों से हमेशा के लिए मुहँ मोड़ लेने से काम नहीं बनता है।
इसलिए ज़रूरी है कि आप वह तरीक़ा अपना लें जो उचित है और सब बातों का विचार कर अत्यंत सद्व्यवहार और वक़्त-वक़्त की आवश्यकता को ध्यान में रख कर चुना गया हो। लेकिन क्या योग्यता और वक़्त की अनुकूलता का ख़्याल अक्खा गया है ?
जिन तरीकों में कि एक वक़्त में कहीं कर्मकाण्ड यानि शरीयत को ही क़ाइम रक्खा है और बक़िया और तरीक़ों से बिलकुल लापरवाही कर दी गयी है और कहीं सिर्फ़ ग़ौर व फिक्र को ही अकेला मद्देनज़र रक्खा है और कहीं महज़ तरीक़त इश्क़ को ही क़ाइम रक्खा। चूँकि ऐसा हो नहीं सकता इस लिए संतमत ने कर्मकाण्ड, शरीयत और उपासना-काण्ड यानि तरीक़ते-इश्क़ और ज्ञान-काण्ड यानि मारिफ़त और हक़ीक़त सब को निहायत हम-आहंगी [आहंग = विचार, इरादा, उद्देश्य] से तरतीब दे कर लाज़िम क़रार दिया है। शरीयत के वक़्त काम करने में समझ-बूझ और दिल के लगाव का एहतमाम [इहतमाम् = प्रबंध, व्यवस्था = management] कर दिया है और तरीक़त यानि भक्ति में समझ-बूझ और ज़ाहिरी अरकान [अर्कान = स्तम्भ, खम्भे, तत्व या चरण = poles, elements, feet, pioneers] की तादीब [तअदीब = दोष आदि दूर करके सुधारना, भाषा और साहित्य की शिक्षा = act of improving or correcting] का लिहाज़ रक्खा है और मारिफ़त में भी तरीक़त यानि महवियत के मदारिज़ क़ाइम किये और शरीयत का लिहाज़ नहीं छोड़ा है।
श्रवण मनन, निध्यासन की मुताबिक़त [मुताबिक़ होने की क्रिया या भाव = suitabillity] दिखलाई। कर्म, उपासना और ज्ञान की ज़रूरत एक तरतीब के साथ अमल में लाने को बतलाई। ज़िक्र, फिक्र और शग़ल-ए-राब्ता को शुद्ध करके लतीफ़ हालत में पेश कर दिया।
ज़िक्र-लस्सानी के बजाय ज़िक्र क़ल्बी क़ाइम किया। फिक्र के दर्जात को सिफ़ात के ताल्लुक़ात से उबूर कराके जाती तजल्लियात की तरफ़ माइल किया। शग़ल-ए-राब्ता में बाहिरी चीज़ों से हटा कर अंदरूनी सिफ़ाती बुतों के दर्शन कराने के बाद असली और जाती हक़ीक़त और सच्चे मालिक को मेराज़-ए-तमन्ना क़ाइम कराया। ग़र्ज़े कि सिफ़ात के दायरे से निकलवाने और जाती दायरों में दाख़िला करने का इहतमाम किया। इस पिण्ड और शरीर में मुक़ामात नासूती [नासूत = मर्त्य लोक = this mortal world] को छोड़ दिया गया और लतीफ़ और सूक्ष्म मुक़ाम से चलने की हिम्मत बंधाई। क्योंकि उमरें कम हो गयीं। हिम्मतें पस्त और क़ासिर [असमर्थ = having a shortcoming or unable] हो गयीं हैं। ताक़तें ज़ायल हो गयीं हैं। दुनियाबी मसरुफियतों का हुजूम हो गया है। इन उमूर [अम्र का बहुबचन = आवश्यक विषय = an essential subject] का लिहाज़ कर संतों को दया आयी और ऐसा नुस्खा-ज़ात ईज़ाद किये कि वक़्त कम लगे और काम बहुत हो। पिछले लोग मुक़ाम - नासूत से चल कर मुक़ाम - जबरूत तक जा कर मंज़िल ख़त्म कर देते थे। लेकिन अब यह रिफार्म किया गया कि मुक़ाम - जबरूत से शुरुवात की और आख़िर वहाँ किया जो असल मक़सद-ए-तमन्ना है। "अव्वले माँ आख़िरे हर मुन्तिही अस्त ; आख़िरे मां जेबें तमना ति ही अस्त।" लेकिन बिरादरान-तरीक़त ज़रा ग़ौर कीजिये कि जिस मंज़िल से चाहें शुरू करा दें और जो मंज़िलें चाहें छुड़वा दें, यह काम सहल है। इसकी हक़ीक़त फिर किसी वक़्त के लिए रखिये। अब आप फॉर्म के खाना [आइटम] दस [10] के मतलब को ग़ालिबन कुछ ज़रूर समझ गए होंगे और अब आप अपना मत दुरुस्त कर के जो मिजाज़ में हो लिखें। अगर आप उसूल इस तरह के मानें जो अब बतलाये गए है और नाम वह ही क़ाइम रखना चाहते हैं तो यह आपकी आज़ाद तबई [प्राकृतिक, असली = of nature, phylosophy] की दलील है।
खाना [मद] नम्बर 11 [ग्यारह]
इसमें सवाल यह किया गया है कि आप को किन-किन किताबों के पढ़ने का शौक़ है। इस मामले में बिला समझे-बूझे काम करते रहना अलग चीज़ है। सवाल तो उनसे है जो समझ-बूझ रखते हैं या समझ-बूझ के दायरे में क़दम रख चुके हैं यह क़दम रखने को तैय्यार हैं। एक शेर यह है -
"दिल का हुजरा साफ़ कर जानाँ आने के लिए। ध्यान ग़ैरों का मिटा 'उस' के बिठाने के लिए।"
पाहिले आप मालुम कर छूके हैं कि सारी तरकीबें दिल के अज़तराब दूर करने के लिए है और वह एकसूई क़ल्ब है। अगर किताब देखना दिल की एकसूई [एकाग्रता] को मदद देता है तो शौक से पढ़िए और अगर बजाय तसफ़िये के उलझन पैदा करता है तो फिर उसको अपने फ़ेल का खुद इख़्तियार है।सारी दुनियाँ अख़बार, रिसाले, मजामीन, और किताबें और अनाप-शनाप ख़बरों के मालूम करने में इस दर्जे झुक पड़े हैं जिसको नज़ारा आप को अख़बारों, लाइब्रेरी बग़ैरह के हालात से मिल सकता है। जानना और मालुम करना क़ुदरत का तक़ाज़ा ज़रूर है, मगर ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी, वक़्त और बे-वक़्त इसका लिहाज़ मुक़द्दम है। दिमाग़ एक लतीफ़ शै है और क़ुव्वत हाफ़िज़ा के भण्डार में वह अशिया जमा करना चाहिए जो कि आपको सहीह मतलूब कर ले जाने में मदद दे सके न कि कोठरी में अनाप-शनाप, अल्लम-ग़ल्लम, कूड़ा-करकट जो सामने आ जावे भर लेना सिद्ध है। क्या यह सब चीज़ें 'कोठरी' सारी हवा को मसमूअ और ज़हरीली न कर देंगीं।
फ़िर आप तो अमल व शग़ल इसका करने लगे हैं कि जहाँ तक ख्याल कम आवे, बेहतर है। अब ऐसी तरक़ीब उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हैं कि चौगुने ख्यालों का ढेर इखट्ठा हो जाय और चाहें वह आप के मतलब के हों या न हों।
अह्ले-तरीक़त की एक फ़िर्क़े के यह राय है कि मुब्तदी [नौसिखिया = an apprerntice] को इब्तिदा में किताब न देखना चाहिए और एक की क़तई यह राय है कि पहले सिद्धान्त को देख लेना चाहिए, फ़िर अमल के मैदान में क़दम मारना चाहिए। अक्सर यह देखा गया है कि आलिम और पण्डित लोग इल्म के अभिमानी हो कर अमल के तरीक़ को क़ुबूल नहीं करते और अमल के करने से पहले इस क़दर मीन-मेख़ करते हैं कि तौबा ही भली। बरख़िलाफ़त इसके कोरे लट्ठ को जो अमल बताया जावे फ़ौरन करना शुरूअ कर देते हैं और जल्द कामयाब होते हैं, लेकिन अगर सोहबत मुर्शिद की ज़्यादः न मिली तो मामूली सी बात में बहक जाते हैं या ग़लत को सहीः और सहीःको ग़लत अपनी नादानी से फ़र्ज़ कर लिया करते हैं, जिससे अंदेशा है कि कभी वह ख़ंदक़ में गिर जायँ और कहीं के न रहें। लेकिन अगर खूब पढ़े-लिखे हुए हैं, समझने के बाद मैदान-अमल में उतर आयँ और तौफ़ीक़ ईज़दी उनके शामिल-हाल हो तो उनको आयन्दा बहक जाने का और गिरने का अंदेशा नहीं होता और कामिल होते हैं। बरख़िलाफ़ इसके जाहिल अगर कामिल भी हो तो भी खदशा से खाली नहीं।
हमारे मुर्शिद "अलैह-उल-रहमत" का यह दस्तूर था कि पहिले शग़ल में इस क़दर सई [परिश्रम = endeavour] फ़रमाते कि शाग़िल [अभ्यासी] को हक़ीक़त तक पहुँचा देते और साक्षातकार करा देते। उसके बाद इस्तिलाहत [किसी शब्द का साधारण अर्थ से भिन्न और विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होना = connotation] तरीक़ा की तालीम ज़ुबानी फ़रमा देते या कोई किताब अपने सामने निकलवा देते और अमल से पहिले किताब का देखना यों मना फ़र्माते कि अगर तालिब का कोई कश्फ़ [सामने या ऊपर से पर्दा हटाना = unveiling] या मुशाहिदा [दर्शन करना, देखना, अवलोकन = act of seeing, beholding, perusal] हो और वह बयान करे तो बिला किताब देखा हुआ वाक़्या और वारदात को बयान करेगा, उसमें गुँजायश शक की न होगी और किताब देखनेके बाद वाक़्या और वारदात में शक की गुँजायश है। मुमकिन है कि क़ुव्वत हाफ़िज़ा से वक़्त एकसूई वाहिमा [वह शक्ति जिसमें सूक्ष्म बातों का ज्ञान होता है, कल्पना-शक्ति = the ability to form fine ideas, imagination] के तौर पर बरामद हो गयी हो और उसने बयान कर दिया हो। इसलिए जब तक अमल में मजबूत न हो जावे, उस वक़्त तक किताब का देखना ज़्यादः मुफ़ीद नहीं। वह मालूमात में कुछ इज़ाफ़ा नहीं कर देते बल्कि बाज़ औक़ात क़ुव्वत वाहिम को तेज़ और बर्बाद कर देते हैं जिससे कि रास्ते में रुकावटें हो जातीं हैं।
मेरा तज़र्बा है। मसल मशहूर है कि - "सूरदास की काली कामरि पर चढ़ै दूजो रंग।" हाँ, जब देखें की मेरे ऐतक़ाद की बुनियाद निहायत मज़बूत हो गयी है और अब कुछ डर नहीं रहा तो इस्तिलाहत के मालूम करने, अपने कश्फ़ और वारदात को बुज़ुर्गान सल्फ़ [सलफ़ = गुज़रा हुआ या बीता हुआ = past, by-gone] के हालात से मुताबिक़त करने और शक को दूर करने के लिए किताब देखना चाहिए। लेकिन वोह ही किताबें जो टक्साली [genuine] हैं। ऐसी किताबों को न देखना चाहिए कि आख़िर को जण्डका और इल्हाद के क़रीब पहुँच जाने का ख़ौफ़ हो और इन्तहा भी ख़राब हो।
मेरे एक दोस्त ने क़ुतुब-हदीस के देखने की इस क़दर कसरत की कि तक़लीद के दायरे से क़दम बाहर निकाल दिया और जो रिक्कत [कोमलता, रोना-धोना = tenderness, wailing] और दिल-गुदाज़ी [ह्रदय द्रावक = sympathy moving] और तरावत [आद्रता, नमी = moisture, dampness, freshness] थी, वह खुश्की में तब्दील हो गयी। अफ़सोस सद-अफ़सोस। ग़र्ज़े कि ऐसी किताबें देखना मुज़िर नहीं है कि जिनसे उसके रास्ते में रुकावट न हो जावे बल्कि इम्दाद करे।
मुफ़ीद किताबों का ज़ख़ीरा हर जगह हर जवान [language] में इस क़दर मौजूद है कि अब और ज़दीद लिखने की ज़रूरत नहीं और न आजकल के दिमाग़ ऐसी सहीह और क़ाबिल दिमाग़ वाले मौजूद हैं, जो उनसे ज़्यादा लिख सकें। सिर्फ़ उनकी नक़ल कर सकते हैं या काट-छाँट कर के अपनी जुवान [language] में लिख सकते हैं। तालीफ़ [ग्रन्थ की रचना या संकलन = compilation of a book] हर शख़्स कर सकता है, लेकिन तस्नीफ़ [ग्रन्थ आदि की रचना, लिखित या रचित ग्रन्थ = act of writing a book] लाखों लिखने वालों में से एक [ही] शख्स कर सकता है और वह भी दो-चार सफह [pages], क्योंकि तस्नीफ़ वह है कि जो नयी बात हो और नयी बात इल्हाम [मन ईश्वर की ओर से कोई बात प्रकट होना, देववाणी = Godly revelation, voice from Heaven] हो सकती है और इल्हाम हर वक़्त और हर शख़्स की नसीब नहीं।
अलबत्ता पिछला तरीक़ा, बर्ताव, इस्तिलाहें [किसी शब्द का साधारण से भिन्न और विशिष्ठ अर्थ में प्रयुक्त होना = connotation], इस्तआरे [उपमेय में उपमान के साधर्म का उपयोग करके उपमान के रूप उसका वर्णन करना = metaphor], इशारे और ज़ुबान उन किताबों की ऐसी है जिनको आज-कल के पढ़े-लिखे समझने से क़ासिर [जिसमें कोई कमी या त्रुटि हो = having a shortcoming] हैं। जिन ज़ुबानों और इल्म में वोह लिखीं हुईं हैं और जो तरतीब उनकी क़ाइम की गयी है और जो इस्तिलाहात और इशारात इस्तेमाल किये गए हैं उनके जानने वाले, शरह करने वाले अब नहीं रह गए, इस लिए वो किताबें बेकार हैं। अक्सर तर्जुमें ज़रूर किये गए हैं, लेकिन तर्जुमों की ऐसी मट्टी पलीत की गयी, कि असल चाहें समझ में भी आ जाय लेकिन तर्जुमें को हश्र [क़यामत] तक न समझ सके। जो इस्तिलाह थी उन की दूसरी ज़ुबान में तर्जुमा करने को वह मुतरादिफ़ [पर्यायवाची = synonymous] मुफ़रद [अकेला हो या किसी के साथ न हो = single, alone] लफ्ज़ न मिला, ज्यों का त्यों रख दिया, इशारे तो समझ ही क्या सकते, वह अंदर का मामला था और अंदर में दाख़िला नहीं था पस् माज़ूर [असमर्थ, विवश = uncpabale, helpless] रहें। इसलिए ज़रूरत भी है कि उन दक़ीक़ [मुश्किल, कठिन = difficult, hard] किताबों की मौजूदा ज़ुबान में शरह की जावे। मिसलन अगर एक फ़ारसीदां शख़्स है तो फ़ारसी की तसव्वुफ़ [तसौवफ़ = अध्यात्म = spiritualism] की किताब को तर्जुमा कर दें और इस्तिलाहों और इशारों को अगर मुफरद लफ्ज़ मुतरादिफ़ न बतला सकें, तो हिंदी जानने वाले को उसका भाव असली समझा देवें, ख़्वाह किसी क़दर जुमले मुरक़्क़िब-दर-मुरक़्क़िब हो जायँ और हिंदी वाला उस भाव को समझ कर हिंदी की इस्तेलाह इस्तेमाल करे मगर शर्त यह है कि हिंदी और फारसी जानने वाले दोनों शख़्स इल्म-तसव्वफ़ के ज़ाहिरी और बातिनी मामलात से बखूबी वाक़िफ़ हों, और फिर अँगरेज़ी भी जानते हों, क्योंकि आजकल अंग्रेज़ी क़ुतुब की तरतीब को ज़ेर नज़र रख कर किताब को लिखें वर्ना पुरानी तरतीब को आज-कल के लोग नज़र में नहीं लाते हैं।
ऐसा एहतमाम अगर आप लोग चाहें तो मुमकिन हो सकता है कि कोशिश करके किया जावे मगर वक़्त, इमदाद और रुपया की ज़रूरत है। इससे यह और भी फायदा होगा कि सूफ़ी लोग बाज़ तो तंग-दिली की वजह से अहल-हिन्द के असल तसव्वुफ़ को कभी हाँथ नहीं लगाते और सुनी-सुनायी बेतुकी बातों पर अहल-हिन्द के तसव्वुफ़ पर तौहीद नाक़िस का इल्ज़ाम लगा देते हैं और बाज़ उसमें से जो फ़राग़-दिली से अपना वक़्त हिन्द के तसव्वुफ़ में देना चाहते हैं तो उनको लिटरेचर नहीं मिलता और ज़्यादःतर लिट्रेचर वह मिलता है जो 'योग' से मुताल्लिक़ है, और यह लोग इल्म तौहीद में निहायत नामुकम्मिल हैं।
संतों की तहक़ीक़ात अलबत्ता सहीह नतीजे पर पहुँची है और उनका कलाम तश्वीह और इष्तआरात और इशारात में वेशतर पाया जाता है जिनको कि दीग़र मजाहिब के लोगों को खबर तक नहीं है। फ़िर हमादानी [हमादाँ = सब बातें जानने वाला = knowing every thing] की डींग मारना मेरी राय-नाक़िस में ठीक नहीं है। यही हाल हिन्दू-सूफ़ियों और साधुओं का है, जो मुसलामानों का। हाल में शिववृतलाल जी ने चन्द नुस्ख़ेज़ात तसव्वुफ़ इस्लामी के लिखे हैं और उनके यह दावे हैं कि इस्लाम की बावत जो तसव्वुफ़ हैं उनको खूब वाक़फ़ियत है। मगर मैंने ग़ौर किया तो मालुम हुआ कि मौलाना रूम साहिब और मौलवी जामी साहिब व शम्सतवरेज़ साहिब और मुहम्मद इब्न अरबी साहिब के लिट्रेचर को देख कर वाक़फ़ियत को ख़तम कर दिया गया है। हालाँकि इन सब लिट्रेचर में सिर्फ वहदत-वजूदी का राग अलापा गया है। चूँकि संतमत में जदीद तहक़ीक़ात में जो राधास्वामी साहिब और राय साहिब [सालिगराम] जी के सिलसिले में हुयी है वहदत-वजूदी के अलावा ऊँचे मुक़ामात की गयी है। इसलिए मुसलमानी तसव्वुफ़ का मुक़ाबिला करके उसको नीचे दरजे का क़रार दिया जाता है। वजह यह है कि हज़रत शेख़ अहमद साहिब मुजद्दिद अलिफ़सानी रहमत 0 ने वहदत-वजूद को दरम्यानी मुक़ाम साबित कर दिखा दिया और बड़ी-बड़ी बहसों के बाद आप के मुक़ाम को आला क़रार दिया गया। इस लिट्रेचर को हाँथ तक नहीं लगाया गया है और जो मुक़ामात वहदत-वजूदी और अह्म ब्रह्म के बाद मुशाहिदे में लाये गए उनकी पहुँच अब तक बड़े-बड़ों को नहीं हुयी।
काश अगर उनकी सब तस्नीफ़ [लिखित या रचित ग्रन्थ = a written or a composed book] को छोड़ कर सिर्फ़ मक़तूबात [लेख, पत्र, चिट्ठी = an article, letter] ही को देख लें और समझने की कोशिश करें तो आँखें खुल जायँ मगर देखे कौन। खुद मुसलमान सूफ़ी साहबान को इनकी हवा नहीं लगती है। ज़्यादः ऊँचे मुक़ामात होने की वजह से फ़हम [बुद्धि, समझ, ज्ञान, अक़्ल = intellect, wisdom] और इदराक़ [समझ, अक़्ल, बुद्धि = understanding, intellect] का घोड़ा रस्सी तुड़ा भाग निकालता है और समझ नहीं सकते।
अलावा इस्तिलाहत और भी निहायत बारीक़ और दक़ीक़ [नाज़ुक, कोमल, मुश्किल = tender, difficult, hard] मुक़ामात के हुनर किस तरह समझ में आवें। पस् हमारे तरीक़ा के बुजुर्ग़ बारान को चाहिए कि अहले इल्म इस धब्बे को अगर मिटाने की कोशिश न करें तो यही करें कि इस राज़ को तर्जुमा करके समझने-समझाने के लिए छोड़ दें फिर तहक़ीक़ात करने वाला ज़माना खुद ही तसफ़िया कर लेगा और रोज़-रोज़ की तू-तू में-में और झगड़ा दफ़ा हो जाएगा। यह किस क़दर रफ़ाह-ए-आम [सामान्य लोगों के परोपकार = benevolence of general-public] की बात है।
खाना [मद] नम्बर 12
इस खानें में यह सवाल है कि संतमत और सत्संग में शामिल होने की ग़र्ज़ सिर्फ़ अंदर का अभ्यास ही है या उसकी बाहरी उसूलों की पाबन्दी।
मेरा ख़याल है और तज़ुर्बा भी है कि संतमत के अंदर के अभ्यास को अब तक लोग नहीं समझे हैं और न बाहिरी उसूलों को समझे हैं। जो अपने को वाक़िफ़कार ख़याल करते हैं उनको टटोला गया तो मालुम हुआ कि अभ्यास ख़ालिस संतमत का उसूल उनको मालूम नहीं बल्कि 'खिचड़ी' या खिल्त-मिल्त उसूल जो मुख़्तलिफ़ सम्प्रदायों के हैं वह उनको सुने-सुनाये दिमाग़ में लिए हैं। पुराना संयोग और कुछ दर्मियानी ज़माने का तान्त्रिक ख़्याल ऐसा जकड़ गया है कि पीछा नहीं छोड़ता और ज़बानी वेदांत ने भी अपना रॉब गाँठ रक्खा है। इसके अलहिदा तहक़ीक़ात से यह भी वाजः हुआ कि शंकर-मत के सन्यासी जो वाक़ई 'शंकर-मत' के सन्यासी नहीं हैं अपने आप को ऐसा साबित कर दिखाते हैं कि वह 'योग' से बखूबी वाक़िफ़ हैं। हालाँकि वह 'बाम-मार्ग' में जो सिद्धियाँ नीचे दर्जे के योग के मुताल्लिक़ मालूम हैं उनकी निस्बत तारीफ़ के पुल बाँधते हैं। इसी तरह मुस्लमान-सूफ़ी कश्फ़ [ईश्वरीय प्रेरणा = God's inspiration] व करामात के गढ़े हुए पुराने ज़माने के किस्से ज़ात, बेपढ़े और जईफ दिलों की मण्डलियों में सुनाते रहते हैं जो महज़ शेखी-ही-शेख़ी है। फ़कीरी का घर दूर है।
लफ्ज़ 'संत' और उसके 'मत' की तशरीह के लिए हमको इस दर्जे के नीचे के मदारिज़ तय करके आना चाहिए जो ग़ालिबन मुमकिन हैं कि असल लफ्ज़ के मानी की ख़बर पढ़ सके। 'संत' लफ्ज़ की तारीफ़ गोस्वामी तुलसीदास साहिब ने निहायत साफ़ ज़ुबान में कई जगह बतायी है, उनको पढ़ने वालों ने पढ़ा होगा।
करीब-करीब हर मज़हब का यह अक़ीदा है कि दुनियाँ में जब-जब ऐसा अंधकार छा जाता है कि 'धर्म' की 'अधर्म' के मुक़ाबिले रोशनी मंद और फींकी पड़ जाती है और राजा से ले कर रंक तक ऐसी हड़बोम में पड़ जाता है कि असलियत का पता उसको नहीं मिलता और मुल्क़ की आव-हवा ऐसी ज़हरीली हो जाती है कि अच्छे लोगों की नसीहत किताबों की दफ़अत [अचानक, सहसा = suddenly], धर्मशास्त्र की पाबंदी का कोई लिहाज़ बाक़ी नहीं रहता। जो सच्ची बातें हैं वह उल्टी हो जातीं हैं और बदी को नेकी और नेकी को बदी मान लिया जाता है। सहीह रास्ता बताने वालों की राजा खाल खिंचवाते हैं और ग़रीब और रियाया उनकी हँसी उड़ाते है। तो असल भण्डार की दया की सिफ़त जोश में आती है और वक़्त के लिहाज़ से एक खास मुक़ाम से एक पाक शख़्सियत का ज़हूर होता है। उसमे वह क़ुव्वत रूहानी होती है जो उस मुल्क की सब बाशिंदगान की क़ुव्वत पर ग़ालिब आ सके। उसके एक हाँथ में किताब होती है और दूसरे हाँथ में तलवार। 'किताब' से मुराद नसीहत और समझाना-बझाना और क़ानून।
पिछला क़ानून क़तअन मन्सूख़ कर दिया जाता है और जुमला पिछली तर्मीमात और तब्दीलियात रद्द कर दी जातीं हैं या पिछला क़ानून किसी क़दर तरमीम व तनसीख़ [निरसन, रद्दगी = cancellation] के बाद अजसरेनी नाफ़िज़ [प्रचलित = prevalent] कर दिया जाता है। अगर क़ानून समझाने-बुझाने का कोई असर मुल्क पर नहीं होता है तो फिर से खबर ली जाती है। कौन ऐसा अवतार या नबी ऐसा नहीं हुआ कि जिसने हंगामा जल्लाद व क़त्ताल बरपा न किया हो। अगर लोग इसी उसूल की तरदीद करेगे तो ग़ालिबन हज़रत ईसा को और महात्मा गौतम बुद्ध को ऐसी फ़हरिस्त से निकाल देंगे। मगर गौतम बुद्ध के और हज़रत ईसा की बराहेरास्त लड़ाई में शिरक़त तो तवारीक़ में नहीं मिलती लेकिन इनके बाद की बड़े ज़ोर की घमासान मार-काट हुयी है जो उनके हवारियों [हवारी = हज़रत ईसा मसीह के मित्र और साथी = friends of the Christ] और भिक्षुओं ने की है। अलावा इसके वाजः रहे कि अवतारों की पैदाइश की फिलोसोफी में यह भेद है कि बाज़ अवतार या नबी किसी ख़ास मुक़ाम से किसी खास सिफ़त के ज़्यादः हिस्से को ले कर पैदा हुए और बाज़ किसी दुसरी किसी खास सिफ़त और खास मुक़ाम को ले कर। मिसलन परसुराम जी का अवतार खास ब्रह्मचर्य आश्रम का अवतार है और उनमें तबई हैवानी जज़बात और हठ का ग़लबा है। श्री राम चन्द्र जी का गृहस्थ्य आश्रम का। इनमें क़ुव्वत सलूकी का ग़लबा था और इश्क़ व जज़्ब का दवा हुआ और ज्ञान का खुला हुआ था। यहाँ क़ुव्वत-जमाल का दर्शन है, क्योंकि वह 'मर्यादापुरुषोत्तम' माने गए हैं। श्री कृष्णा जी महाराज वानप्रस्थ के अवतार है। इनमें क़ुव्वत जज़बाती और इश्क़ का खुला हुआ और ज्ञान का दबा हुआ बल्कि योँ कहना चाहिए कि जज़्ब व सलूक और इश्क़ साथ-साथ। निहायत सलीम हलात और कैफियत के साथ यहाँ जमाल और जलाल दोनों का रंग अपने-अपने मौके पर है और मिला-जुला हुआ है। गौतम बुद्ध का वैराग्य तक और ज्ञान का साथ है। हज़रत यूसुफ़ अलैह इस्लाम में जमाल ज़ाहिरी, हज़रत मूसा अलहस्लाम में जलाली, हज़रात ईसा में सिफ़त रहम और दरगुज़र।
हज़रत मोहम्मद सल्ले अलह अालहि व् सल्लम में जुमले सिफ़ात जो ऊपर मज़कूर हुयी सब का जलवा एक साथ और अपने-अपने वक़्त और मौके पर अलहिदा रंग में हैं। यहाँ जुमले सिफ़ात जो ग़ैर मुअतदिल [ मातदिल = जो न बहुत उग्र हो, न कोमल = moderate] हो गयी थी और अहल अरब का इख़्लाक़ हर सिफ़त की बावत ख़राब हो गया था उसकी वजह से जुमले सिफ़ात को मुअतदिल और समान अवस्था पैदा करने के लिए आप उस मुक़ाम से पैदा किये गए कि जुमले सिफ़ात पर परतौ [प्रकाश जैसे मेह का परतौ = सूर्य का प्रकाश, रश्मि, किरण, प्रतिच्छाया या अक्स = light, a ray, reflection] पड़े और वह मुल्क राहे-रास्त पर आ जावे। इसलिए श्री राम चन्द्र जी महाराज का मुक़ाम पैदायश असल ब्रह्मचारी मन के मुक़ाम से है। और भरत जी का ब्रह्माण्डी अक़्ल से और शत्रुघ्न जी का चित्त के मुक़ाम से और लक्ष्मण जी का अनानीयत यानि अहँकार के मुक़ाम से और हज़रत श्री कृष्ण जी महाराज का शुद्ध अहँकार, शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि और शुद्ध चित्त और अपरा प्रकृति और परा-प्रकृति सम्मिलित शुद्ध आत्मा के मुक़ाम से। हज़रत ईसा और महात्मा गौतम बुद्ध का 'कृपा' के मुक़ाम से और हज़रत रसूल अरबी का दयालुता के मुक़ाम से जो सतपद का मुक़ाम है। मुक़ाम, दया, कृपा, पारब्रह्म, काल, महाकाल और शून्य, महाशून्य की तारीफ़ किसी [और] मौके पर की जावेगी।
अब इसके आगे चलिए। जब कि ग़र्ज़ पूरी हो जाती है और जिस क़िस्म की बद-इख़लाक़ी या ख़राबी को दूर करने के लिए अवतार हुआ था और जब वह काम खत्म हो जाता है, तब अवतार और नबी वक़्त को पूरा करके फ़ौरन ही अपने जाए क़याम पर, जहाँ से कि उनका अवतार हुआ था, वापस चले जाते हैं और अपने पीछे क़ानून अमल दरामद आयन्दा के लिए छोड़ जाते हैं। पिछला क़ानून या तो बिलकुल मन्सूख़ करके या दूसरा जदीद तय्यार करके छोड़ जाते हैं या पिछले क़ानून में मुनासिब वक़्त व खराबी के लिहाज़ से, जैसी कि हालत हो, तरमीम तंसीख कर जाते है और उनके पीछे हमेशा और हर वक़्त फिर तबदीली का कानून, आव-हवा, रस्म-रिवाज़, तबियत और मिजाजों में हलकी-हल्की तबदीली पैदा करना शुरू कर देता है और जब इस क़दर खराबी फिर पैदा हो जाती है कि तरमीम और कांट-छांट की ज़रूरत पड़ती है, तो उस वक़्त सौ वर्ष या पाँच सौ वर्ष बाद या एक हज़ार वर्ष बाद एक ऐसा सिद्ध, वली, संत, महात्मा पैदा होता है जो पिछले गुज़रे हुए नबी और अवतार के मुरत्तिब करदा और छोड़े हुए क़ानून की तशरीह करके लोगों को जी और मोहब्बत से समझाता है और कोशिश करता है कि गुमराह लोग नेक और सहीह रास्ते पर आ जावें, लेकिन पूरा नए कानून में अपनी राय से कोई तरमीम नहीं करता, सिर्फ़ अमल और शग़ल और अंदरूनी अभ्यास में तरमीम बदल हस्ब ज़रूर कर देता है।
लेकिन जब धर्मशास्त्र के बुनियादी उसूलों पर जिन पर निज़ाम-आलम का दार-मदार है, कोई तबदीली ब-इख़्तियार खुद ख़िलाफ़ उसूल मौजूदा क़ानून के नहीं करता और तालीम और तल्क़ीन का सिलसिला सिर्फ़ मोहब्बत और तालीफ़ [ग्रन्थ की रचना या संकलन = compilation of a book] क़ल्ब ही से करता है। अवतारों की तरह उसको यह मजाज़ [जिसे नियम या क़ानून आदि के अनुसार कोई काम करने का अधिकार मिला हो = illegible] नहीं कि अगर कोई न माने तो डण्डे से उसकी ख़बर ले।अब इनमें से वली और संत दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो क़ानून इश्क़ को सिर्फ़ बरतें और भक्ति-मार्ग से लोगों को उपदेश करे और एक वह जो उसके अलावः धर्म-शास्त्र को भी साथ-साथ ले कर चले। पहिले वाले बाक़ायदा तालीम का अहतमाम नहीं करते और दूसरे बाक़ायदा। पहिले वाले सिफ़त आशिक़ी रहते हैं और दूसरे पर सिफ़त-माशूक़ी का ग़लबा रहता है। पहिले क़िस्म के वली ज़ेर-क़दम जात महज़ होते हैं और दूसरे क़िस्म के महात्मा ज़ात और सिफ़ात दोनों पहलुओं के मुक़म्मिल होते हैं।
मिसाल यह है कि एम् ए सब पास करते हैं। मगर सब में पढ़ाने और तालीम करने की वह खास क़ाबिलियत नहीं होती जो होना चाहिए। यह मुमकिन है कि पढ़ाने-लिखाने के लिए उन एम् ए में से मुक़र्रर कर दिए जावें जिनमे क़ाबिलियत तालीम और तदरीस की हरगिज़ नहीं होती। यह वक़्त को टालते और मुफ़्त की तनख़्वाह वसूल करते हैं। हज़ारों पढ़े-लिखों में से कोई एक-दो ऐसी क़ाबिलियत रखते हैं।
अब ख़याल कीजिये कि एक एम् ए क्लास-टीचर है, बाक़ी बहुत से दीग़र डिपार्टमेण्ट के मुलाज़िम। मुल्ला और पंडित लोग तालीम ही दे सकते हैं। अगर इन्तज़ामी मामलात उनके सुपुर्द कर दिए जावें तो बौखला जाते हैं। इसी तरह कोई डिप्टी कलेक्टर अगर पढ़ाने-लिखाने के लिए मुक़र्रर किया जावे तो बग़लें झाँकने लगेगा और घर पर तैयारी करके आना पड़ेगा और "सिखाये पूत" का मसला हो जावेगा।
हाँ, अगर किसी संत या वली में दोनों क़ाबलियतें एक ही साथ मौजूद हैं तो नूर-आला-नूर और यह क़ामिल मुक़म्मल बल्कि अकमल है। ऐसे महात्मा और वली ग़ालिबन वह लोग होते हैं जो उस अवतार और नबी के ज़ेर क़दम होते हैं जो शरियत और तरीक़त और मारिफ़त और हक़ीक़त को साथ-साथ ले कर निहायत हम-आहंगी के साथ बर्ताव करते हैं। साफ़ लफ़्ज़ों में यह है कि ऐसे वली जो इन्तहाई मुक़ाम जज़्ब को तय करने के बाद इन्तहाई मंज़िलें सलूक में आ गए, यह रुब [शरबत = syrup] ख़ुल्क़ [आदत = a habit] हो जाते हैं और वह रुब खुदा।
दरअसल रुब खुदा हो कर रुब ख़ुल्क़ जो होते हैं, वह नबियों के सच्चे वारिस और क़ाइम मुक़ाम होते हैं और इन्हीं की तालीम मुक़म्मिल है। यह धर्मशास्त्र यानि फ़क़्क़ह को मुक़द्दम समझते हैं। इसी को मैंने बाहरी उसूलों का लफ्ज़ क़रार दिया है।
अब इनमें से बाज़ क़स्बी होते हैं और बाज़ वहबी। क़स्बी वह होते हैं जो अधिकारी और सत्संगी, साधु, हंस, परमहंस, संत, परमसंत की अवस्था तक अपने-अपने अभ्यास और अमल शग़ल के सहारे पहुँचें और बाज़ इनमें से किसी बाहरी सिफ़ाती मुक़ाम में चढ़ाई करके अटक रहें और बाज़ किसी लतीफ़ या सूक्ष्म सिफती मुक़ाम तक पहुँचें और बाज़ अलीत यानि 'कारण' की अवस्था मुक़ाम सिफ़ाती तक उबूर कर सकें और कोई-कोई हर सिहगाना मुक़ाम सिफ़ाती मुक़ामात से उबूर पा कर ज़ात की बारगाह तक क़दम जन हुए और वह ही वह हैं जो तय्यार थे और अभ्यास और सत्संग मामूली किया, ऊपर से फज़ल व करम हुआ और एक दम किसी ने हाँथ पकड़ कर या रफ्ता-रफ्ता ऊपर को खींच लिया। ऐसे लोग जब शुरू करते हैं तो उनको 'मुराद' कहते हैं, बक़िया को 'मुरीद'। 'मुराद' वह हैं जो तैयार आये हैं और जिनको अमल व शग़ल वग़ैरह की ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है। सिर्फ़ सत्संग से उनका काम बन जाता है। 'मुरीद' वह हैं जिनके संस्कार यानि स्तेदाद क़बूल और जज़्ब और क़ाइम रखने की निहायत ज़ईफ़ होती है, जो वर्षों रगड़ते हैं, डूबते हैं, उछलते, गुमराह होते, राहेरास्त पर आते और आख़िरकार किसी सिफाती मुक़ाम पर या उससे निकल कर ज़ात तक रसाई के हक़दार हो जाते हैं। इनकी भी चन्द किस्में और दर्जे हैं जो मालुम करने के क़ाबिल हैं।
पहिले दर्जा 'सत्संगी' का है। 'सत्संगी' सिर्फ अधिकारी से मुराद है, जो 'सत' का संग करे। 'सत' कहते हैं - सच्चाई, हकीकत,असलियत को। और 'संग' नाम है - सोहबत, मिलाप और साथ रहने को। जो हक़ीक़त शनास हो, हक़ीक़त पसंद हो, हक़ीक़त-जू और हक़ीकत-बी हो, वह 'सत्संगी' कहलाने का मुस्तहक़ है। उसका दूसरा नाम 'अधिकारी' है या जिसको इस्तेदाद है, जो पात्र है, ज़र्फ़ रखता है, दरअसल जो खास सोहबत में रह कर फैज़ उठाते हैं, अधिकारी कहे जाते हैं। सत्संगी और अधिकारी में सिर्फ़ इस क़दर फर्क है कि बिला अधिकार, ज़र्फ़, पात्र, इस्तेदाद की मौजूदग़ी के सत का संग नहीं करेगा और जो करने लग जावे, उसको 'सत्संगी' कहते हैं।
यह ज़ाहिरी क़लाम को "सुतीती" जिससे मुराद सगुण उपासना है। फिर उस पर ग़ौर करते हैं और मानी पर आ जाते हैं, उसको निर्गुण उपासना कहते हैं, क्यों कि सतत लफ़्ज़ी लिवास का बुत है और उसके मानी बातिनी क़ैफ़ियत है जो निर्गुण है। यह सत्संग में बैठ कर निर्गुण और सगुण उपासना दोनों एक साथ करता है। अभी तक इस शख़्स ने "गुरु धारण" नहीं किया।
अधि मारना = बहुत और कृ मारना करना। मतलब कर्म मैलान तबई-दिली ख्वाहिश और अंदरूनी जज़्बात के ग़ल्बे को कहते हैं, वस्फ़ उसका सिर्फ़ श्रवण और मनन है। जब ग़ौर करके हक़ीक़त और सच्चाई को ज़हन नशीं कर ले, तब साधन सीखें जिससे उसके अंदर 'सत' के भाव पैदा होने का इम्कान हो, उसको 'साधू' कहते हैं।
तहसील, तक़्सीब, मश्क़ और अभ्यास से ताल्लुक़ रक्खे जो साधना न करे, उसको 'साधू' नहीं कह सकते। जैसे कि उसको 'सत' की धुन है, वह ही उसको सत ग्रहण करने की सरगर्मी रहती है। जो शै उसके साधन में रूकावट है, उसको छोड़ने में कभी परहेज़ नहीं रखता, सच्चे मानी में गुरु का ज़हूर उसके लिए है। यह 'गुरुमत' हो कर गुरु के बताये हुए क़ाइदे की पाबंदी मुक़द्दम रखता हुआ अपनी कामयाबी की फ़िक्र में लगा रहता है। 'साधू' का दर्जा "निध्यासन" है। 'नि' मानी अंदर, 'ध' माने इख़्तियार करना और 'आसान' बैठने को कहते हैं। जो किसी ख्याल को अपने अंदर इख़्तियार करके उसी पर जम कर बैठे, उसी को 'निध्यासन' कहते है। यह अमल व शग़ल है और उसके लिए तरह-तरह के तदबीरों और तरक़ीबों की तालीम का सिलसिला जारी किया गया है जिसका नाम ज़िक्र, फ़िक्र और राब्ता है। यानि 'भजन', 'सुमिरन' और 'ध्यान'।
सत्संगी का धर्म - सत्संगी का धर्म 'यम' 'नियम' है। असत्य भाव, असत्य ख्याल को तर्क करना 'यम' कहलाता है। 'यम' ख़ारिज़ करने को कहते हैं। सत भाव और सत के ख़्याल करने को या इख़्तियार करने को नियम कहते हैं। 'यम' से मुराद इख़्तियार, क़ुबूल और जज़्ब से है। 'यम' नफ़ी है। 'नियम' असबात है। दिल के बर्तन से नफ़ी का ख़ारिज़ करना 'यम' और दिल के बर्तन में असबात को भरना 'नियम'।
साधू का धर्म - आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धरना। यह 'चौसाधन' हैं।
[01] आसन - अव्वल ऐसा खास बज़अ में बैठना कि चित्त की वृत्ति के चंचल होने का ख़ौफ़ न रहे। तरह यह सहूलियत हाँसिल हो जावे, वह ही 'आसन' है।
[02] प्राणायाम - प्राण की वृत्ति को अपने अंदर ऐसी शक्ल में क़ाइम कर लेना है कि वह चित्त को निश्चल रख सके। साँस को रोकने से यहाँ कोई मुराद नहीं है। न हब्सदम न पास-अनफ़ास से मक़सद है।
[03] प्रत्याहार - चित्त उस वक़्त तक कभी न रुकेगा, जब तक उसको ख़ास मर्क़ज़ पर क़ाइम करके किसी और शै पर टिकने का सहारा न दिया जाय। जब चित्त की वृत्ति रुकने से इन्कार करे, ख़्वाह भागने लगे तो उसको बार-बार मर्क़ज़ पर जमाया जावे और तवज्जोः या ख़्याल से मदद ले कर उस पर क़ाइम किया जावे तो उसका नाम 'प्रत्याहार' है। वृत्ति के बार-बार रोकने के अमल को 'प्रत्याहार' कहते है।
[04] धारणा - इख़्तियार करने, पकड़ रखने और जमा देने को धारणा कहते हैं। यह लफ्ज़ 'धृते' मानी पकड़ने से निकला है। यह सब मिल-मिला कर 'निध्यासन' कहलाते हैं। जो 'चौसाधन' हैं।
ध्यान - अच्छी तरह धारण करके तसव्वुर और ग़ौर करने का नाम 'ध्यान' है।
समाधि - ध्यान की गहरी हालत का नाम है। 'सम' मानी मिला-जुला हुआ, 'धा' मानी धारण करना। मतलब यह है कि 'सत' से खूब मिल-जुल कर उसको पकड़ रखने को 'मुराकब:' या 'समाधि' कहते हैं।
अब एक दर्जा 'हंस' का है, जिसके मानी हैं "सत का ग्रहण करने वाला" सत्संगी सत का संग करने वाला, 'साधू', सत का साधन करने वाला। 'हंस' लफ्ज़, 'हन' मानी मारने से निकला है। जिसने बुरी ख़्वाहिश को मार गिराया है और जिसमें सत रूह बन कर रहता है, वह हंस है। उसका वस्फ़ साक्षात्कार करना है।
इस नज़र से हंस की दो कैफ़ियतें हैं, पहली 'असत' का त्याग और 'सत' का भली भांति गृहण करना, दूसरा उसका रूप बन जाना। यह इस वजह से माना गया है कि हंस पानी-पानी को छोड़ देता है और दूध-दूध को पी लेता है।
जब तक कि 'सत' के इख़्तियार और असत के ख़ारिज करने से ताल्लुक़ है तब तक 'हंस' की हालत को "सुकमिल" कहते हैं। 'स' मानी साथ, कला मानी तमीज़ करना। तमीज़ करने को सुकल्प कहते हैं।
यह दूध और पानी की मिली-जुली अवस्था में से पानी का तर्क करना और दूध का पीना मुराद है। जब 'हंस' इस वस्फ़ और ख़सूसियत का हो जाता है तब उसका नाम "परमहंस" कहा जाता है। यह ज़िन्दग़ी की निहायत खुशग़वार हालत है। उसको कोई कोई 'अवधूत' और 'कलन्दर' बोलते हैं। यह सत या हक़ीक़त की मस्ती की क़ैफ़ियत है। 'सत्संगी', 'साधू' और 'हंस' यह तीनों अब तक माया, सिफ़ात और काल के चक्कर में हैं। इन सब के परे एक चौथी हालत है, जिसको 'संत' कहते हैं। 'संत' सत के रूप को कहते हैं। संत जात में और हक़ीक़त में निज स्वरुप है। असल में इनके सिवाय सब नक़ल है। इब्तिदा इसकी सत से होती है लेकिन हालतों में फर्क होता है। फ़र्क के दायरे में तमीज़ी मद्दात रहते हैं। तमीज़ी मद्दात को भी सिफ़ाती और कृत्रिम कहते हैं।
जाती और जातियत और चीज़ है। सिफ़ाती और नक़ल दूसरी चीज़ है। सत जातियत है और कृत्रिम सिफ़ातियत है। जो असल में है और हमेशा रहता है वह तो सत है। जो असल में नहीं है, असल की नक़ल बन कर दिखा रहा है वह कृत्रिम है। जो क़ाइम बिल-जात है वह संत और सत है। जो क़ाइम-बिल ग़ैर हो वह असत और असत है। इसलिए सत्संगी सत या संत के सोहवती को कहते हैं।
'साधू' सत या 'संत' की क़ैफ़ियत के साधन करने वाले को कहते हैं। हंस सत की या संत की क़ैफ़ियत में महब रहने वाले का नाम है। संत सत का रूप है और ज़ात हक़ीक़त है। और 'परमसंत' सन्तपने की घनेपन की इम्तिआज़ी सूरत जहननशीं कराने की ग़र्ज़ से यह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है।
सत्संगी में संत के निश्चय के साथ कथनी और कुछ करनी रहती है, यानि काल और कुछ हिस्सा हाल का। 'साधू' में संत के निश्चय के साथ करनी रहती है, कथनी नहीं रहती यानि हाल रहता है, काल नहीं रहता।
हंस में करनी और रहनी यानि हाल और उसमें हाल की महवियत, रहनी का हिस्सा ज़्यादा होता है। संत में कथनी [काल] करनी [हाल] रहनी [हाल की महवियत] निहायत मौजूनियत, हम-आहंगी और बाहमी मुताबिक़त के साथ एक लड़ी में गुंथी रहती है। वह रहनी का रूप बना रहता है यानि 'बाक़ाउलबक़ा' हो जाता है। इन सब दर्जों में कस्बी और वहबी दोनों तरह के होते हैं। अब आपने सत और असत के मतों की क़ैफ़ियत जान ली। "दरअसल जो साधू और संत सिफ़ात के चक्करों से आगे जाने का एहतमाम करे और कराये वह संत और संत-मत है। यह सब मतों की हक़ीक़त से आगाह हो कर दया की नज़र से सब को अपनाता है और किसी से विरोध इस वजह से नहीं करता कि सब मत उसके अंदर हैं और और वह सब मतों से ऊपर है। सब को बुला कर और बिला कराहियत और एतेराज़ के है एक की निग़ाह ऊँची करना और कराना चाहता है।"
अब इस नम्बर दस [10] के मद में सवाल यह था कि इसमें शिरक़त की वजह सिर्फ़ अंदर का अभ्यास है या बाहरी उसूलों की पाबंदी भी। अंदर के अभ्यास की तालीम और तशरीह ज़्यादातर अमल से ख़सूसियत रखती है जो करीब-करीब सबको मालूम है, और बाहरी उसूल भी बिलकुल उसके मुताबिक हैं। अंदर और बाहर उसूल एक ही काम करता है। क्या आप अंदर सत की तलाश करेंगे बाहर असत की ? क्या आप 'दोहरापना' अख़्तियार करेंगे। जो महापाप है। अंदर और, बाहर और ; 'मन में राम बग़ल में ईंटें'। जो मदारीज़ की तशरीह की गयी है उसमें, निहायत तफ़सील के साथ सिर्फ़ सत और असत के भाव दिखलाये गए हैं। अगर उनको गुरुमत हो कर कार्यवाही की जावे तो कामयाबी मुमकिन है वर्ना हरगिज़ नहीं। 'मनमत' होना इस मत के ख़िलाफ़ है। 'गुरुमत' होना उसको कहते हैं कि जो गुरु कहे उसको मन, वचन और कर्म से बजा लावे। मैं तो यह देख रहा हूँ कि 'मनमत' इस क़दर ज़ोर है कि वह मनमत के ज़ोर से यह चाहते हैं और कोशिश करते रहते हैं कि जो कुछ हम चाहें उसी के मुताबिक़ गुरु हुक्म बजा लावे और उसकी करतूतों पर हरगिज़ और किसी किस्म की चूं व चरा न करे और सर औंधाए जहाँ तक हो सके सब बेएतदालियाँ बर्दाश्त करें। इस मानी में तो अब उलट-धार मामला हो गया है। गुरु चेला है और चेला गुरु। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बाहरी व अंदरूनी अभ्यास और बाहरी ब्यवहार में लगाए रखने को 'गुरुमत' कहते हैं।
पस् असल में सवाल मनमत और गुरुमत होने का है। यहाँ ज़्यादातर तादाद इस वक़्त सत्संगियों की है जिन्होंने अब तक गुरु धारण नहीं किया है, और साधू भी हैं जो अमल तो करते हैं मगर मनमत के साथ। जैसा उनके दिल में आता है वह करते हैं, और जो उनका दिल गवाही नहीं देता है उसको हरगिज़ नहीं करते। इसी तरह पर उन्होंने गुरु को उसूलन धारण कर लिया है मगर रिवाज़ी मनमत नहीं छोड़ा।
अगर महज़ सत्संग और अंदरूनी अभ्यास से काम है और बाहिरी उसूलों की तरफ़ तवज्जः नहीं भी है यानि मनमत बने रहते हैं तो उस वक़्त तक उनको बैअतसानी के लायक नहीं समझा जाता है, इस दूसरे दर्जे के सम्बन्ध को 'गुरुमुखी' होना कहते हैं इसमें चंद वायदे लिए जाते हैं। हालाँकि बहुत कम ऐसे हैं कि वायदे पूरा किया करते बल्कि अधूरा भी नहीं करते। लेकिन यह उनका फ़ेल है। शैतान सब के साथ है। उसमें चूँकि रूहानियत से ताल्लुक़ जोड़ा जाता है इसलिए इसमें यह ज़िम्मेदारी होती है कि इस ताल्लुक़ का छूटना निहायत मुश्किल हो जाता है। ख़्वाह कितने ही अर्से तक साधू गुमराह रहे और अभ्यास न करे लेकिन रूहानियत घेर-घार करके कभी-न-कभी उसको फिर राहे रास्त में वापिस ले आती है। बहुत कम ऐसा देखा और सुना गया है कि यह ताल्लुक़ तमाम उम्र के वास्ते क़तई छँट जावे।
अगर इस ताल्लुक़ को साधू खुद ही दिल से तोड़ दे तो फ़ौरन टूट जाता है, लेकिन अगर वह दिल से न चाहे तो गुरु के नाराज़ रहने और निकाल देने पर भी कुछ-न-कुछ डोरा लगा रहता है और तअल्लुक क़तई नहीं छूटता। इस वजह से वक़्त आ जाने और संस्कार उभर जाने पर वह बदस्तूर संभल जाता है।
इसके बाद जब फिर देखते हैं कि साधू 'हंस' के दर्जे में आ गया, लेकिन मुस्तक़िल नहीं हुआ है और उसमे तासीर दूसरे में तसर्रुफ़ [व्यय, उपयोग, प्रयोग, महात्माओं आदि की अलौकिक शक्ति = expenses, use, mystical power of saints] करने की आ गयी है तो उसकी चढ़ाई जज़्ब की क़ुव्वत से जज़्ब के नुक़्ते या मर्क़ज़ तक अक्सी तौर पर करा के उसको दूसरे में तसर्रुफ़ करने की इजाज़त दे देते हैं। यह "तीसरी बैअत" कहलाती है। इसमें सत्संग करने और तसर्रुफ़ करने की 'इजाज़त' होती है। अगर उसको 'इजाज़त' न ही दी जावे तो ख़्वामख़्वाह उसमें यह क़ुदरतन माद्दा 'तसर्रुफ़' करने का पैदा हो जाता है और इरादा या बिला इरादा उसमें तासीरात और तसर्रुफ़ात ज़ाहिर होने लगते हैं, इसलिए मजबूरन अक्सी तौर पर मुक़म्मिल करा के 'इजाज़त' दे देते हैं। ताकि उसकी क़ुव्वत और तासीर झुट्ठल और ख़राब न हो जावे, लेकिन उनको चाहिए कि कोशिश करके अक्सीपने और नकली से असल कर लें, मगर नादानिस्तग़ी [अनजानपन = ignorance] और ग़लती से यह लोग अपने आप को मुक़म्मिल समझ कर अहंकारी बन जाते हैं और ऐसा समझने लगते हैं कि जो कुछ होना था वह हो गया।
यह जुहल और नादानी है अभी न मालुम क्या-क्या मंज़िलें तय करना बाक़ी हैं। इन लोगों को ताल्लुक़ कराने की इजाज़त नहीं होती। जब 'तीसरी बैअत' वाले मुक़म्मिल कर लेते हैं तो उनकी 'चौथी बैअत' होती है फ़िर तासीर और तसर्रुफ़ करने वालों की या तो बिजली को हरकत करते हैं या कि आगे वग़ैरह- वग़ैरह।
[तफ़सील तलब]
अलावः इसके साहिबे तासीर और तसर्रुफ़ की चन्द क़िस्में हैं। एक तो वह है कि सिर्फ़ अपने से नीचे वालों को एक दर्जा ऊपर उचका दें या मुतहर्रिक़ कर दें और एक वह है कि जिस मुक़ाम से जिसको चाहें ऊपर सरका कर के ले जावें और इनमें से एक इस क़िस्म के हैं कि जब चाहें न ले जा सकें, लेकिन जब उन पर एक ख़ास हालत पैदा हो उस वक़्त हिम्मत को काम में ला सकें।
एक वह है कि जब और जिस वक़्त चाहें, ख़्वाह हालत हो या न हो, हिम्मत को सर्फ़ कर दें। एक वह है कि जब इरादा करें, तब तासीर हो और जो इरादा न करें तो तासीर न हो। एक ऐसे है कि इरादा करें या न करें, तासीर जारी रहे और रोक करना चाहें तो रोक लें। एक वोह है की उनको रोकने या न रोकने से कुछ मतलब नहीं। एक वह हैं कि उनकी तासीर से सिर्फ़ बातिनी जज़्बात को हरक़त हो जावे, लेकिन आदात और अख़लाक़ पर कुछ असर न पड़े। एक वह है कि जिसकी तासीर से बातिनी जज़्बात पर भी असर पड़े और अख़लाक़ साथ-साथ संभल जावें। एक वह है कि जिनकी तासीर और हिम्मत से बातिनी जज़्बात में कुछ हरक़त महसूस न हो, लेकिन ज़ाहिरी और बातिनी अख़लाक़ की दुरुस्ती हो जावे।
मैं ख़्याल करता हूँ कि यह मामला बहुत दर्जे का है। हाँसिल इस कलाम का यह है कि बाहिरी उसूलों की पाबंदियाँ मुक़द्दम हैं और आला हैं। जो लोग ऐसा करना नहीं चाहते तो मुज़ायक़ा नहीं कि क़ुव्वत और हिम्मत आने के वक़्त तक फज़ल के मुम्मेदवार रहें। लेकिन क़तई इंकार करने वालों के लिए यह मसला उन पर सादिक़ आवेगा।
"ई ख़याल अस्तो, मुहाल अस्तो जुनूँ।
हम खुदा ख़्वाही व् हम दुनियाँए दूँ।।"
खाना [मद] नंबर 13 [तेरह] में यह सवाल किया गया था "आप महज़ संतमत के क़ाइद के मुताबिक़ रहनी-सहनी अख़्तियार करने को तैय्यार हो सकते हैं। सामाजिक ब्यवहारों को भी साथ-साथ ले कर चलते रहेंगे।" इस सवाल के साथ ही और बहुत से सवालात उठ खड़े होते हैं -
[01] अव्वल तो यह है कि 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी क्या है ?
[02] दूसरे यह है कि क्या 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी अख़्तियार किये बग़ैर काम नहीं बन सकता।
[03] तीसरे यह कि 'संतमत' की रहनी-सहनी के अख़्तियार किये जाने पर सामाजिक ब्यवहार का किया जाना नुक्सान पैदा करेगा और किस हद तक सामाजिक ब्यवहार किया जाना चाहिए, जिन्होंने कि पूरा बयान जो इस वक़्त से पहले बयान किया जा चुका है पूरा सुन लिया है, अगर समझ में आ गया है तो और अगर इस वक़्त पूरी तौर पर समझ में नहीं आया है तो फिर कभी ग़ौर करने पर समझ में आ जावेगा तो मालुम हो जायेगा कि संतमत के मुताबिक़ रहनी-सहनी क्या है।
इसकी बावत मुफ़स्सिल तफ़्सील तो जिस क़दर हो उसी क़दर कम है और कभी ख़त्म नहीं हो सकती। लेकिन ऐसे मुन्तख़िब उसूल और सिद्धान्त के इस वक़्त जौहर बयान किये जाते हैं जो ग़ालिबन हर बात और हर अमल के साथ-साथ रहते हैं, और तफ़्सीलवार अगर आप साहिबान चाहेंगे तो बाद को किताब की शक्ल में शाया कर दिया जाएगा। इस वक़्त का तफ़्सील के साथ बयान करना मुश्किल भी है और नामुमकिन भी है। और न इस क़दर वक़्त है।
अव्वल उनमें से ऐतक़ाद है और वह ज़रूरी है और ऐतक़ाद यह है कि ऊँचा ख़याल क़ाइम करना चाहिए। जैसा ख़याल होता है उसका वैसा ही मआल [अंत, निष्कर्ष = end, conclusion] होता है। इस लिए हमको मंज़िले मक़सूद का ख्याल ऊँचाई निग़ाह रख कर करना चाहिए ; मसलन सिवाय 'संतमत' वालों के बक़िया सम्प्रदायों और पंथों का यह मेराज तमन्ना है कि इस नीचे मुक़ाम से सरक कर पारब्रह्म में लय हो जाना चाहिए या ब्रह्म में लय हो जाना चाहिए।
[यहां 'ब्रह्म' और 'पारब्रह्म' की तफ़्सील करना चाहिए] और इन्हीं में लय हो जाने की उम्र भर कोशिश किया करते हैं। और 'संतमत' के मानने वाले यह मानते हैं कि नीचे मुक़ामात से चल कर पारब्रह्म के क़रीब या उसमें फ़ना हो जाने से काम नहीं बनेगा और मोक्ष नहीं होगी इसलिए पारब्रह्म के मुक़ाम से शुरू करके 'सतपद' मुक़ाम तक रसाई हाँसिल करने का ख़याल क़ाइम करते हैं और इस ही के मुताबिक़ कोशिश भी करते रहते हैं।
इनका मक़सद यह है कि दर्मियानी मरहिलों और रास्तों से गुज़रना ज़रूरी होगा। इसलिए देवता - फरिश्ता और शक्तियों के मुक़ाम में भी फ़नाईयत और क़ुरबत [सामीप्य = proximity] भी होगी। लेकिन इनसे पार जाने का ख़याल रखना और जतन [यत्न] करते रहना चाहिए।
ज़ाहिरी ऐमाल [कार्यवाईयाँ = actions] में सत के हिस्से को लेते हैं और 'असत' हिस्सों से काम ले कर उनमें तबियत नहीं लगाते और जब ज़रूरत पड़ती है उसी से काम निकाल कर अलहिदा हो जाते हैं। जैसे कि 'पाखाना' और' पेशाबखाना' में जाना ज़रूरी पड़ता है।
ऐसी 'रहनी-सहनी' और आदत अपनी नहीं बनाते कि जिनकी वजह से इस दुनियाँ को छोड़ते वक़्त उनको तक़लीफ़ और दुःख हो और प्राण अटके रहें। इस क़िस्म के ज़ाहिरी और बातिनी ऐमाल हमेशा करते रहने के आदी अपने आप को करते हैं कि उनसे अपने आप को जिस्मानी, अख़लाक़ी और रूहानी तक़्लीफ़ न हो। नीज़ दूसरों को भी अपने मन, वचन और कर्म से जिस्मानी, अख़लाक़ी और रूहानी तक़लीफ़ न पहुँचे और पहुँचने का इम्कान हो।
इनमें सामाजिक ब्यवहार भी ऐसे शुद्ध हुए रहते हैं जिनसे किसी तरह की सोसाइटी को इल्मी - अमली जवानी तहरीरी एतराज़ नहीं हो सकता। चूँकि ऊँचे आदर्श होने की वजह से नीचे के कुल मुक़ामात पर इनका उबूर होता है और सब की वाक़फ़ियत और हक़ीक़त को जान जाने के ग़र्ज़ से इनमें द्वेष भाव, तअस्सुब और कट्टरपना नहीं रहता। इसलिए किसी को अपने से जुदा नहीं मानते और उनको कमज़ोर और नाक़िस देख कर घृणा नहीं करते बल्कि सच्ची नियत और इरादों से जनकी बेहतरी चाहते और तालीफ़ कलूब और दया के ख्याल से हर एक की निगाह को ऊँची कर देने का एहतमाम करते रहते हैं।
इनके तरीके में कश्फ़ व करामत ज़रूरी नहीं और क़यामत में बक्शवाने की ज़िम्मेदारी नहीं। न दुनियां के कामों की कारबरारी [काम का पूरा होना = completion of work] का वादा रहता है कि 'ताबीज़' और गंडों से काम बनाया जाय या मुकदमात दुआ से फ़तह हो जाया करें या रोज़गार में तरक़्क़ी हो या 'झाड़-फूँक' से बीमारी जाती रहे या होने वाली बातें बतला दी जाया करें। न तसर्रुफ़ात का होना लाज़िमी है कि पीर की तवज्जः से मुरीद की अज़-खुद ऐसी इस्लाह हो जाय कि उनको गुनाह का ख़्याल तक न आवे और खुद ब खुद इबादत के काम होते रहें और मुरीद को ज़्यादा इरादा भी न करना पड़े। न ऐसे बातिनी कैफ़ियात के पैदा हो जाने की कोई मियाद है कि हर वक़्त या इबादत के वक़्त लज़्ज़त से शरशार रहें। इबादत में ख़तरात भी न आवें। खूब रोना आये। ऐसी महावियत हो जाय कि अपने पराये की ख़बर न रहे। फ़िक्र और शग़ल में रोशनियाँ वग़ैरह नज़र आयें और न खास करके आवाज़ का सुनायी देना ऐसा ज़रूरी है, न उम्दा उम्दा ख़्वाबों का नज़र आना या इलहामात का सहीह होना लाज़िमी है।
नोट - इससे यह मुराद नहीं है कि यह सब दावे किये जायँ बल्कि यह ईश्वर की मर्ज़ी पर मुनहसिर है कि जो 'उसको' मंज़ूर है वह हो जाएगा। असल मक़सूद तो परमात्मा का राज़ी रखना है और उसकी रज़ामंदी इसमें है कि जहाँ तक मुमकिन है 'धर्मशास्त्र' के हुक्मों की ताबेदारी करना और उन पर चलना है।
इन हुक्मों में से बाज़ ज़ाहिर के मुताल्लिक हैं। जैसे कि संध्या, उपासना, व्रत, तीर्थ प्रजटन, माल से कुछ हिस्सा ख़ैरात के लिए निकालना, शादी, ब्याह, औरत, भाई, बहन, रिश्तेदार, दोस्त, माँ-बाप, पड़ोसी के हक़ूक़ का अदा करना।
लेन-देन और ब्यवहार के मसले, मुकदमात की पैरवी, गवाही देना, वसीहत अपने बाद की जायदाद की तक़्सीम वारिसों के लिए, सलाम, बोल-चाल, सोना, खाना, सफ़र, मेहमानी, मेज़बानी वग़ैरह वग़ैरह।
और बाज़ बातें बातिन के मुताल्लिक़ हैं - मिसलन ईश्वर से मोहब्बत रखना, उससे ख़ौफ़, उसकी याद, दुनियाँ से मोहब्बत का कम करना, उसकी रज़ा पर राज़ी रहना, हिर्स न करना या उपासना में दिल का हाज़िर रखना। और दीन के कामों को निहायत ख़लूस से करना, किसी को हक़ीर न समझना, खुद-पसंदी न होना, ग़ुस्से को ज़प्त करना वग़ैरह - इन सब को सलूक कहते हैं। बातिनी ख़राबियों से अक्सर ज़ाहिरी एमाल में भी ख़राबी वाक़े हो जाती है। जैसेकि क़िल्लते-मोहब्बते-हक़ से उपासना में सुस्ती होगी या जल्दी-जल्दी बिला तब्दील अर्कान पढ़ ली या कंजूसी की वजह से ज़कात और तीर्थ वग़ैरह जाने की हिम्मत न हुयी या ग़रूर व ग़लबा ग़ुस्से से किसी पर जुल्म हो गया ताकि हक़दारों का हक़ तलफ़ हो गया।
अगर ज़ाहिरी ऐमाल में एहतियात भी कर ली जावे तो भी जब तक नफ़्स की इस्लाह नहीं हुयी तो वह एहतियात चन्द रोज़ से ज़ायद नहीं चलती पस् नफ़्स की इस्लाह इन दो सबब से ज़रूरी ठहरी। लेकिन यह बातिनी खराबियाँ ज़रा कम समझ में आतीं हैं और जो समझ में आतीं हैं तो उनकी दुरुस्ती का तरीक़ा कम मालूम होता है और जो मालूल भी हो तो नफ़्स की खींचा-खांची से उस पर अमल मुश्किल होता है। इन ज़रूरतों से पीर-कामिल तज़बीज़ किया जाता है कि वह इन बातों को समझ कर आगाह करता है और उनका इलाज और तद्बीर बताता है और नफ़्स की अन्दर दुरुस्ती की इस्तेदाद और इन मामलात में सहूलियत और तदबीरों में क़ुव्वत पैदा होने के लिए कुछ ज़िक्र और शग़ल की भी तामील करता है। पस् सालिक को दो काम करने पड़ते हैं।
[01] यह कि गुरु के पास आ कर उससे सलाह और मशवरा ले कर अमल सीखने के पहिले सहीह विश्वास और मुस्तकिल इरादा क़ाइम करना। और फ़िर -
[02] गुरु करने के बाद उसकी बतायी हुयी बातों को निहायत मज़बूती और इस्तक़लाल से करना और साबित क़दम रहना और जो उन ऐमाल के नतीज़े हों उनसे आगाह करते रहना।
अब यह सवाल आता है कि क्या 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी इख़्तियार किये बग़ैर काम नहीं चल सकता है तो उसका जवाब यह है कि मिसाल से सुनिए -
ज़ाहिरी जिस्म की बीमारी तो वैद्य हक़ीम व डॉक्टर से इलाज और परहेज़ से जाती है और इख़लाक़ी और रूहानी मर्ज़ का डॉक्टर संत, साधू वग़ैरह है।
अगर अपने पास से दवा ऐसी दे कि जो पाँच रुपये की एक खुराक हो और हिदायत यह करे कि इस शीशी की डॉट मज़बूत लगाए रखना कि असल जौहर उड़ न जाय और शीशी को क़ब्ल इस्तेमाल करने के डूब हिला लिया करना और दवा को ठण्डी जगह पर रखना, गर्मी उसको न पहुँचे और दिन में तीन खुराकें क़ब्ल खाना-खाने के इस्तेमाल करना। और ख़ुराक़ में साबूदाना और खिचड़ी और दाल-मूंग, दूध इस्तेमाल करना।
अब मरीज़ साहिब दवा पी कर शीशी की डॉट को खुला छोड़ दें और बजाय साया में रखने के सहन में, धूप में, चूल्हे का पास रख दें और दवा पीने के क़ल्ब उसको हिलाएँ नहीं और एक मर्तवा में दो दफः की दवा एक-साथ पी जावें और तीसरी ख़ुराक़ पीना बिलकुल भूल जावें या जैसा कि आम-तौर पर औरतों का क़ायदा है कि दवा को क़सदन फेंक दिया करतीं हैं और जिस क़दर ज़्यादः ताक़ीद कर दो उसी क़दर उसका उलटा करतीं हैं - करें और ख़ुराक़ में जो उन्होंने बतलाया है कि यह खाना, वह खाना, उसके बजाय गोश्त और घुइँया और सोहन हळवा इस्तेमाल करें तो अब इस दवा के नतीज़े को आप ख़याल करें कि क्या होगा।
आप निहायत लतीफ़ दर्जे का कोई पौधा बो दें और उसमें खाद उसके ख़िलाफ़ डालें और पानी कभी न दें और न उसकी बकरियों से हिफाज़त करें तो उस पौधे का क्या हाल होगा। आप आला क़िस्म का अर्क गुलाब सबसे ज़्यादा कीमती मँगवा लें और शीशी को खुला हुआ अलमारी के नीचे के तख़्ते में रख दें और ऊपर के तख़्ते में मिट्टी के तेल का बर्तन जो टूटा हुआ है रिसता है उसका तेल बह-बह कर शीशे-अर्क में गिरे तो फिर उस गुलाब के अर्क का क्या हाल होगा। बजिन्सहू आप ख़्वाह कैसा ही अमल और शग़ल वग़ैरह करेंगे और ज़ाहिरी जिस्म के मुतअल्लिक़ जिस क़दर अहकाम हैं बजिन्सहू क़ाइदे के मुताबिक़ अमल में न लाएंगे तो फ़ायदा न होगा।
अब आप ग़ालिबन यह चाहते होंगे कि 'अभ्यास' करें संतमत का और 'रहनी-सहनी' रक्खे मौजूदा सामाजिक ऐमाल के जो बिगड़ी हुयी शकल में है उसका सवाल आप खुद हल कर सकते हैं। अलबत्ता ऐसे ब्यवहार का कर लेना रिश्तेदारी व ब्यवहार और रस्म व रिवाज़ के मुताबिक कर सकते हैं कि जिनमें वाक़ई उसूल की बुनियाद में कोई अज़ीम धक्का न लगे और धर्म का बिलकुल सत्यानाश न हो जावे, मिसलन आज-कल मामूली मोटी-मोटी बातें जो रस्म-रिवाज़ में दाख़िल हो सकतीं हैं और मायूब [जिसमे ऐब या दोष हो = faulty] नहीं समझी जातीं हैं बल्कि अच्छी समझी जातीं हैं लेकिन उनसे वाक़ई 'धर्म' की बुनियाद हिल जाती है उनको तो कम-से-कम ख़याल करें, मिसलन नशे वाली चीज़ों का खुल्लम्खुल्ला और चोरी-छुपे इस्तेमाल करना, जुआ खेलना, आम-बाज़ारी औरतों से बज़ाप्ता सम्बन्ध का रखना वग़ैरह वग़ैरह। ये बातें तो ऐसी नहीं कि जो बहुत बारीक़ हों, समझ में न आतें हों। पहले हमारे भाई इन मोटी-मोटी बातों से परहेज़ रखना सीखें फ़िर और बारीक़ बातें भी मालुम हो सकतीं हैं।
बाक़िया क़ाइदे 'B' पर देखो
[B]
[ज़मीमा सवाल नंबर 13 - रहनी-सहनी]
ज़ैल [आगे आने वाला भाग = following, under mentioned] के चंद क़ाइदे ख़ास सत्संगियों के वास्ते लिखे जाते हैं। ढुलमुल यक़ीन रखने वालों के लिए नहीं हैं।
इसके मेम्बरों का पूरा विश्वास परमात्मा ही पर होना चाहिए जिस तरह कि कोई आदमीं को किसी चीज़ की तलाश है लेकिन हर जगह माँगने पर कोई भी आदमी उसको वह चीज़ न देवे तो वह बिलकुल निराश हो कर बैठ रहता है। इसी तरह वह हर एक भाई-बंधु, रिश्तेदार, दोस्त, अहबाब, ऑफ़िसर, मातहत और राजा वग़ैरः सब से निराश और नाउम्मीद हो कर रहे।
अगर कोई उसकी मदद देवे तो वह 'मदद' परमात्मा की तरफ़ से ख़्याल करे और यह ख़्याल करे कि परमात्मा ने उसके दिल में जिसके ज़रिये से मदद मिली है यह बात डाल दी है कि वह इस तरह मदद कर रहा है। पर उसको ईश्वर का धन्यवाद् देना चाहिए और फिर उस शख़्स का तहेदिल से जवानी और दिली मश्कूर होना चाहिए क्योंकि उसने ऐसे हुक्म को जो उसको ईश्वर ने दिया, मंज़ूर किया और फ़रमावरदारी की। हर अपनी बड़े की इज़्ज़त और तमीज़ करता रहे और अपने छोटे के लिए प्यार, और उसकी ज़रूरतों को हत्तुल्मकदूर पूरा करने की कोशिश और कसूरों की चश्मपोशी। अपने बराबर वालों के साथ मोहब्बत, हमदर्दी और जायज़ इम्दाद। जो लोग कि मुख़ालिफ़त पर बिला वजह आमादा रहें, उनसे बचाव और बेपरवाह और इसी तरह अपने-आप को उनसे अलाहिदा रखने की कोशिश करना चाहिए जिस तरह कि दुनियाँदार - क़र्ज़दार अपने क़र्ज़ख़्वाह से घबराता है या कंजूस अपना रूपया ख़र्च होने की जगह से, लेकिन अगर वह मदद के ख्वाः हो तो उनका काम कर देना चाहिए और फिर अलग भाग जाना चाहिए। नफ़रत और नुकसान पहुँचाने और बदला लेने की कोशिश हरग़िज़ नहीं करना चाहिए। हरेक शख्स की ऐबपोशी हमेशा करते रहना चाहिए और किसी का भेद अगर मालुम है तो बिला-इजाज़त उसकी कभी कहीं ज़ाहिर न करना चाहिए।
अपने क़सूर को फ़ौरन मान लेना चाहिए और हठ और ज़िद न करना चाहिए। नुक़्ताचीनी की नज़र से बचते रहना चाहिए। अपना ऐब देखना चाहिए।
दूसरों के ऐब की तरफ़ नज़र जाती है तो उस ऐब से खुद सबक़ लेना चाहिए।
किसी के ऐब की बुराई [अपनी] ज़ुबान से नहीं करना चाहिए। मुमकिन है कि वह ऐब तुमसे भी हो जावे।
किसी को बिला तहक़ीक़ इलज़ाम नहीं लगाना। अगर रिश्तेदार-ख़ास या अपना लड़का [बेटा] तक बद्चलन हो तो उसका बेजा साथ नहीं देना चाहिए। वर्ना उसको दुबारा करने की शह और इम्दाद मिलेगी। अगर समझने से न माने तो उसको छोड़ कर अलग हो जाना चाहिए।
बे-इज़्ज़ती और बुराई, बुरे चाल-चलन और ब्यवहार से होती है, झूँठा वायदा करने से बे-इज़्ज़ती होती है।
क़र्ज़ लेना सबसे ज़्यादा बुरा है, मगर निहायत ज़रूरत के वक़्त, ज़रूरत का मौका सोंचने और समझने से पैदा हो सकता है। जो कर्ज़ा कि 'नुमायश' की ग़र्ज़ से लिया जाता है उसका अदा होना दुश्वार हो जाता है। अगर मुसीबत और खुर्दनोश या लड़की की शादी या कहत वग़ैरह में लिया जाता है, वह अगर नियत उम्दा रखता है तो ईश्वर उसकी मदद करता है और कभी अदा हो ही जाता है।
क़र्ज़ख़्वाह का सामना हमेशा करना चाहिए, मुहँ-छिपाना मना है। नौकर से वह काम लेना चाहिए जिसको तुम करने से बिल्कुल मजबूर हो। वह नौकर बतौर इमदाद के है, न कि ऐश-परस्ती का साधन। मज़दूर की मज़दूरी फ़ौरन अदा कर दो, हीला-हवाला करते रहना बड़ी बदइख़लाक़ी है।
अपने बच्चों को धार्मिक-तालीम ज़रूर देना चाहिए। अपनी बीबी को किसी-न-किसी तरह 'हमख़याल' बना लें, जहाँ शराब और नशा या उसके साथ 'रक्सो-सरोद' की महफ़िल हो, वहाँ हत्तुलमक़दूर शिरकत से परहेज़ करें और अगर मजबूरन शरीक़ होना पड़े तो इस तरह पर शरीक़ हों, जिस तरह कि 'संडास' में वक़्त-ज़रूरत जाना पड़ता है।
गाने के सुनने के अवसर अगर सामने आ जायँ तो ऐसा परहेज़ न करें कि लोग ताड़ जायँ कि भागते हैं ; रग़वत भी न करें और दिल उसमें न लगावें और उसमें आनन्द न लें। अग़र रिश्तेदार और सम्बन्धी ऐसे कामों के करने पर मजबूर करें, जिनके करेने से धर्म नष्ट हो जाता है तो रिश्ते को, अग़र ज़रूरत हो, तोड़ दें क्योंकि कोई रिश्तेदार और दोस्त और अज़ीज़ वक़्त मुसीबत में मदद तो करता नहीं है और अग़र मालदार भी होता है तो भी एक कौड़ी क़र्ज़ नहीं देता, बल्कि नुक़्ते-चीनी और ताना-ज़नी को हर वक़्त तैयार रहते हैं। नहीं मालुम कि फ़िर क्यों उनसे बेजा उम्मीदें बाँध कर अपने आप को सत्यानाश लगाते हैं।
खुलासा यह है कि 'संतमत' की तरीक़ सलामतरबी, हमदर्दी, तस्लीम व रज़ा का तरीक़ा है। इसमें ईश्वर के ऊपर भरोसा और उसके क़ानून क़ुदरत के मुताबिक़ अमल करना ही लाज़िमी है। हर एक मुक़दमें के लिए मुफ़स्सिल क़ाइदे अगर आप साहिबान कहेंगे, तो लिख कर शाया कर दिए जायँगे।
नंबर 14 [चौदह] में यह सवाल है कि जहाँ आपका रहना होता है वग़ैरह वग़ैरह।
यह सवाल निहायत ही ज़रूरत की वजह से बहुत तज़ुर्बे के बाद किया गया है। बहुत से लोग इस क़िस्म में आते है कि वह यह चाहते हैं कि जो कुछ हमारी समझ में आया है, वह ही करते रहें। मिसलन ध्यान करने में उनको कोई लतीफ़ शै अंदर की जानिब ख्याल करने को बतलाई गयी है, लेकिन वह यह अमल करते हैं कि ज़रा देर के वास्ते बतलाये हुए क़ाइदे के मुताबिक़ अमल करते हैं, उसके बाद बहुत सा हिस्सा वक़्त का अपनी पुरानी बातों के अमल में सर्फ़ कर देते हैं।मिसलन जो तस्बीरें कि उन्होंने अपने कमरे में लटका रक्खीं हैं, इस अमल के बाद उनका ध्यान करते हैं और बहुत सी मूर्तियों को सामने रख कर उनका ध्यान बाँधते हैं।
[01] अब फ़रमाइये कि बतलाया यह गया कि बिला मूर्ति के शून्य ध्यान किया जावे या अंदर की तरफ 'प्रकाश' पर ख़याल किया जावे और वह उलटा और बिलकुल उल्टा अमल करते हैं।
[02] एक साहिब को यह बतलाया जाता है कि वह अपने 'घट' के अंदर जो कुदरती शब्द और ज़िक्र होता है, उसको सुनें और ध्यान लगावें। बावजूद इसके कि उनको शब्द सुनायी देता है, लेकिन वह मन्त्र का जाप जो पहिले से किसी ने बतला दिया था, अब तक बराबर किये जा रहे हैं।
[03] उसूल यह बताया गया है कि ज़ात हकीकत मूर्तिमान चीज़ों और नाम और रूप के झमेलों से परे-दर-परे है, लेकिन वह सिफ़ाती मूरतों के ध्यान पर क़ाइम हैं।
बतलाया यह जाता है कि तन्हाँ ज्ञानकाण्ड बिला अमल और शग़ल के सिर्फ़ वाचक-ज्ञान है और यह महज़ बेकार और धोखा है। इसलिए कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों को निहायत ही माक़ूलियत के साथ रोज़ाना करना चाहिए, लेकिन वह सिर्फ़ ज्ञान और वाचकज्ञान को दख़ल देते हैं।
यह खूब मालूम है कि "एक के साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।" मगर उनकी यह आदत है कि कोई साधू मिल गया, उसके पास पहुँच गए और जो तरीक़ा उसने बताया वह करने लगे और जो उसूल और सिद्धांत उसने अपने सम्प्रदाय के मुताबिक़ समझाए, सब को ग्रहण कर लिया और अपने अमल और शग़ल को 'खिचड़ी' और 'गजरभत्ता' [गजर-बजर = poor quality food] बना लिया है।
एक [कोई] साधू के सत्संग में जाते हैं और फ़िर जो कोई मिल जावे, उसके पास भी तरीक़ा मालुम करने के लिए जाते हैं। एक [कोई अन्य] दिल और मोहब्बत किस-किस से जोड़ने की कोशिश करते हैं और आख़िरकार कहीं के नहीं रहते।
बाज़ साहिब यह सवाल किया करते हैं कि "क्यों साहिब, क्या हर्ज़ है कि फलाँ साहिब ने और फलाँ साहिब ने हमको यह-यह बतलाया था, वह हम सब करते हैं और यह आपका बताया हुआ भी करते रहें और वह भी करते रहें।" अब इसका जवाब किस तरह और क्या दिया जावे ? आप खुद समझ सकते हैं।
बाज़ सत्संगी साहिबान ऐसी मजलिस में जा कर भी शरीक़ होते हैं कि जहाँ सिद्धान्त और उसूल के बिलकुल बरख़िलाफ़ तालीम दी जाती है और तालीम ही नहीं दी जाती है बल्कि इस तालीम के मुअलमान [मुअल्लिम = अध्यापक = the work or a profession of a teacher] को कोस-कोस कर तबर्रा [घृणा = hate] भी कहा जाता है। मगर आप हैं और आप की ग़ैरत कि अपने उस्ताद के ख़िलाफ़ गालियाँ सुनने में मज़ा आता है।
ज़्यादातर तादाद ऐसे साहिबान की शरीक़ है कि जो उनका पुराना तरीक़ा है, वह ख़्वाह कितना ही कमज़ोर नामुकम्मल और नाक़िस हैं, अपनी हठ और आदत बन जाने की वजह से उसको मुख्य समझते हैं और इसको 'गौण' [secondary, inferior] यानि असल उसको क़ाइम रखते हैं और इसको इज़ाफ़ी [ऊपर से बढ़ाया हुआ = extended] । पहिले वह उसको ठीक समझते हैं और इसको अगर वक़्त बचा तो ख़ैर, वर्ना नदारद।
बाज़ ऐसे साहिबान हैं कि तबीयत में कुछ और उसूल क़ाइम हैं और दिल रखने के लिए इनकी भी "हाँ में हाँ" मिलाते रहते हैं। बाज़ ऐसे हैं कि उनके दोस्त इत्तफ़ाक़ से आ गए हैं तो हम भी चले चलें। तरीक़े से दर-असल कुछ मतलब उनको नहीं हैं। उनको तो दर-असल अपने क़दीम साथी के रियायत मंज़ूर है और एक क़िस्म का अहसान अपने साथी पर रखते हैं।
बहुत साहिबान ऐसे है कि जहाँ ज़रा कड़ा पकड़ा, फिर तो ऐसे ग़ायब कि जैसे "गधे के सर से सींघ।" उनके लिए तो यह ज़रूरत है कि वह कुछ ही करें, उनकी मर्ज़ी में मुताबिक़ करने दें। बाज़ सिर्फ़ इसलिए आते हैं कि आँखें बंद कीं और तवज्जः में 'पीनक' आ गयी और आनन्द ले कर 'हाँथ झाड़ कर' उठ खड़े हुए और असली सत्संग में जा कर दुसरी नक़ली आनन्द के मज़े भोगने लगे।
बाज़ शिकायत करते हैं कि हमेशा तो वैसा आनन्द आता ही नहीं और हमेशा तो एक सी तबीयत लगती ही नहीं है। लेकिन उनसे ज़रा यह सवाल तो करना चाहिए कि आप ने भी हमेशा तो सत्संग नहीं किया। शाम को अगर यहाँ सिद्ध संत का सत्संग है तो रात भर का कहीं और।
"वाइज़ाँ चूँ जलबह बर मेहराब ब मिम्बर मीकुनद।
चूं बख़िलवत मीर बंद आँ कार दीग़र मीकुनद।"
असल यह है कि जब तक पुख्तगी न आ जावे, उस वक़्त तक जो सत्संग कि ठान लिया है - करें और 'हरजाई’ न बनना चाहिए, वर्ना सब काम बेकार हो जावेगा।
[15] पन्द्रहवाँ सवाल यह है कि आप के माता और पिता मौजूद हैं और वह आपके ख़यालों को ठीक समझते हैं कि नहीं।
यह सवाल भी किसी ख़ास मस्लहत से किया गया है। मुझे इस उम्र में बहुत तजुर्बा हुआ है कि सत्य और सत्य के रास्ते में बहुत रुकावटें हुआ करतीं हैं। हालांकि माँ-बाप का मौजूद होना एक बड़ी बरक़त है। मगर इस ख़ास मसले यानि सत्य के ग्रहण करने और कराने में इनकी मौजूदगी निहायत दर्जे बाधक है। जिन माँ बापों को खुद तो इस तरफ़ तवज्जः तमाम उम्र हुयी नहीं, न उनको कभी इस क़िस्म का 'सत्संग' नसीब हुआ है। उनको तो उनके लड़कों के लिए जिनको कि ख़ुशक़िस्मती या इत्तफ़ाक़ वक़्त से अभी 'सत्संग' मिल गया या मिल जाता है, एक ख़ास रुकावट उनके भी माँ-बाप हैं। वह जहाँ दुनियाबी मामलात में अपने आप को बड़ा वाक़िफ़कार और तजुर्बेकार ख़याल करते हैं, उसके साथ ही बदक़िस्मती से इस मामले में भी बड़ी वाक़िफ़दारी दिखाते हैं और उनकी वाक़िफ़दारी की तफ़सील ज़रा मालुम कीजिये कि किस क़दर वसीअ पैमाना पर है। आप कहते हैं कि बच्चों और बचपन में इस सत्संग की क़तई ज़रूरत नहीं है, जब बुढ़ापा आवेगा, सिर हिलने लगेगा, हाँथ-पैर थक जावेंगे, मन-बुद्धि-चित्त कुछ काम न करेंगे, कोई बात याद न रहेगी और बाहर से घर के अंदर जाने में हाँफ जाया करेंगे, उस वक़्त इस काम का वक़्त मुनासिब आएगा। यह वक़्त तो खेल-कूद, पढ़ने-पढ़ाने, रुपया पैदा करने, बदइख़लाक़ी सीखने, जुआ खेलने, शराब पीने, दूसरों का माल हज़म करने, ताश गंजीफा खेलने, रंडियों में गश्त लगाने, ग़र्ज़े कि सिवाय इस सत्संग के सब जुमला बातों के रहने का है। हमारे सत्संग में जिस क़दर नौजवानों के लिए इस तालीम के लिए मुज़िर अब तक माँ-बाप हुए है, उस क़दर और कोई असबाब नहीं मालुम हुए।
बाज़ जी शऊर और मुंसिफ-िमजाज़ हाल के तालीमयाफ़्ता इस बात को तस्लीम करने लगे हैं कि हाँ, इस क़िस्म की तालीम की भी ज़रूरत है और 'लड़कों' को भी इसमें शरीक़ होना चाहिए और वह खुद भी बाज़-बाज़ शरीक़ हैं। लेकिन बावजूद इस वाक़फ़ियत के भी इस क़दर दिल के कमज़ोर हैं कि अपने लड़कों की आधा घण्टे की शिरक़त उनको ग़वारा नहीं है। इस आधा-घण्टे में उनका ख़याल है कि उनकी तालीम में इस क़दर हर्ज हो जाता है कि जितना दूसरे पन्द्रह-सोलह घण्टों नहीं होता।
वह खुद भी इन मरहिलों से गुज़र चुके हैं और जानते हैं कि तालिब-इल्म स्कूल के वक़्त में किस तरह वक़्त को सर्फ़ करते हैं और फिर गेंद-खेलने, हंसी-मज़ाक़ और बेहूदा बद-इख़लाक़ी के छिपे-चोरी सोसाइटिओँ में अपना वक़्त अज़ीज़ जाया करते हैं। वह वक़्त इनकी समझ में बेकार नहीं जाता और यही आधा-घण्टा सत्संग का इस क़दर गराँ [बोझिल = burdensome] गुज़रता है कि तोबा ही भली। इसलिए मैंने यह सवाल किया है कि वह उनके ख्यालों को ठीक समझते हैं या नहीं।
नंबर 16 [सोलह] - सवाल यह है कि आप की शादी हो गयी और आपकी बीबी मौजूद है ?
यह सवाल भी ऐसी ग़र्ज़ से किया गया है और इसके मुताल्लिक़ भी काफ़ी वाक़फ़ियत है कि यही रुकावटें वह भी पैदा करती है। मिसालें अगर मौका हो तो बयान करना चाहिए। दुसरी वजह यह है कि मुझे यह मालुम करना है कि अगर बिला शादी-शुदा मेंबर जिनकी उम्र इस क़ाबिल है कि वह शादी कर सकते हैं, अगर करना चाहें तो इस फेहरिस्त से मदद लें और मुमकिन है कि शादी हो जाने में कुछ सहूलियत हो जावे।
नंबर 18 [अठारह] - सवाल यह है कि बीबी आपकी 'हम-ख़्याल' है ?
अगर हम-ख़्याल है तो क्या अभ्यास करती है ? अगर अभ्यास करती है तो फ़िज़ूल रस्म व रिवाज़ को वह छोड़ सकती है या नहीं ?
यह ज़ाहिर है और साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि अगर बीबी 'हमख़्याल' है तो हर मामले में ख़्वाह वह दुनियाँ का हो या दीन का, निहायत ही सहूलियत रहती है। हाल में फ्रांस में बाल और मूंछों का वाक़्या हुआ है। वह इबरतनाक [इबरत = बुरे काम से मिलने वाली शिक्षा = a thing learned] है। क्या ही खुशी होती अगर वह आपके हमख़्याल है।
अगर अभ्यास भी करती है तो खुद घर में एक सत्संगी मौजूद है और औलाद पर किस क़दर असर पड़ेगा। बच्चे पर माँ का किस क़दर असर पड़ता है जितना कि उस्ताद और बाप का नहीं। अलावह इसके हम-ख़याल होने की वॉयस दूसरे जहान में भी एक-ही हलके में रहेंगे। इस मसले को साबित करना चाहिए।
अब रहा सवाल फ़िज़ूल रस्मियात का। यह इस वक़्त बेकार है। अभी मर्द ही इस क़ाबिल नहीं हैं कि बावजूद जानने और समझने के उनको तर्क कर सकें तो फिर औरतों को क्या कह सकते हैं ; अलबत्ते चन्द जरूरी मसले मसायल की बातें हैं। उनको हिंदी में मुरत्तिब करके अलहदा एक 'ट्रैक्ट' की शक्ल में छाप दिया जायगा।
इस वक़्त तक मर्दों को यह कोशिश करना चाहिए कि पहिले वह [खुद] रस्मियात-बद को छोड़ने की खुद कोशिश करें और औरतों को उम्दा-उम्दा किताबें तलाश कर-कर के सुनाना चाहिए और उनको समझाना चाहिए। कभी वक़्त आवेगा कि औरतें खुद छोड़ देंगीं और मर्दों को जो नहीं छोड़ेंगें उनको अपनी 'तिरिया-हठ' से छुड़वा देंगीं।
सवाल नंबर 19 [उन्नीस] - यह है कि क्या पारसी, यहूदी, बौद्ध, मुसलमान वग़ैरह दीग़र मजहब वालों के आप विरोधी हैं।
यह सवाल मैंने अपनी वाक़फ़ियत के इज़ाफ़े के लिए किया था, हालाँकि मुझे खुद इल्म और तजुर्बा है। जो जवाबात आये हैं, वह क़रीब-क़रीब सब मस्नूई हैं और अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ लिखे गए हैं। ख़ैर मैंने अंदरूनी तरक़्क़ी के लिहाज़ से हर शख्स की निःस्बत ख़यालात का अंदाज़ा लगाने के लिए किया था और वह हो गया।
सवाल नंबर 20 [बीस] क्या पॉलिटिकल मामलात से आपको कुछ वास्ता है।
यह सवाल लिए किया गया है कि मेरा नुक़्तए-ख़याल ऐसे लोगों से अभी इस लिए मुत्तफ़िक़ नहीं है कि जो तरीक़े और जराय-तरक़्क़ी करने के उन्होंने सोंचे हैं, वह मेरे जाविये [कोण = angle] निग़ाह [दृष्टि कोण] से लागू और नतीज़ा-ख़ेज़ नहीं है। मैं दूसरे सिद्धांत के ज़रिये से इस मसले को हल करना बेहतर ख़्याल करता हूँ।
सवाल नम्बर 21 [इक्कीस] - ग़ैर शादी-शुदा लड़के और लड़कियों की तादाद।
जिस क़दर कि फॉर्म मिल गए हैं, उनसे मैंने वाक़फ़ियत का एक ज़रिया पैदा किया है और एक लिस्ट फ़िर्क़े-वार तैय्यार कर ली है जिससे पता चल सकता है कि किस-किस फ़िर्क़े में कितनी-कितनी तादाद लड़के और लड़कियाँ बिला शादी-शुदा मौजूद हैं। इसमें अगर और कुछ नहीं तो इस क़दर सहूलियत पैदा हो जायगी कि तलाश करने की जो बड़ी दिक़्क़त होती है, वह कुछ कम हो गयी है। लेकिन मुझको यह महसूस होता है कि अगर लड़के वाले को यह पता चल गया कि लड़की वाला सत्संगी है और वह अपने वास्ते सम्बन्ध चाहता है तो फिर हरग़िज़ शादी करने के लिए तैयार न होगा बल्कि हज़ारों बहाने करेगा, इसलिए कि उसको यह ख़ौफ़ होगा कि लड़की वाला मुझको कहीं दर्मियान में न डाल दे और फ़िर उसकी सारी तमन्नाओं का खून हो जाय। ख़ैर ऐसी फ़हरिस्त से क़ामयाबी हो या न हो, मगर फ़हरिस्त का बन जाना अच्छा ही है और कुछ-न-कुछ काम निकलेगा ही। सब आदमी एक तरह के नहीं होते हैं। जिन साहबान ने अब तक किसी ख़ास वजह से फॉर्म को वापस नहीं किया है, वह बराय मेहरबानी और ख़यालों को छोड़ कर सिर्फ़ इसी ख़याल से फॉर्म भर कर दे दें कि उनके फॉर्म से डायरेक्टरी में नामों का इजाफ़ा हो जायगा। जिन साहबान ने ख़ौफ़ की वजह से बावजूद अपनी औलाद ग़ैर-शादीशुदा मौजूद होने के तादाद लड़के और लड़कियों की नहीं लिखी है, वह अब खाना-पूरी कर दें और इत्मिनान कर लें कि उन पर कोई ना-जायज़ दबाव नहीं डाला जायगा।
सवाल नम्बर 23 [तेईस] - क्या आप की राय में शादी-ब्याह के मुताल्लिक़ तरमीम की ज़रूरत है या नहीं ?
यह सवाल हल हो गया है और मुझ को अनुभव हो गया है कि मैं अभी इस लायक नहीं हूँ कि तर्मीम कर सकूँ। जो तर्मीम की है और जिनकी बावत आम-तौर पर मुश्किलात दरपेश हैं, वह खुद कभी-न-कभी होंगी और ज़माना खुद उनसे किसी वक़्त करा लेगा। मेरी बात को अभी कोई नहीं मानेगा, इसलिए मैं उसको ज्यों-का-त्यों छोड़ देता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे और आप-सब के ऊपर अपना फज़ल और रहम करें। सिर्फ़ इस क़दर कह देना चाहता हूँ कि शास्त्र के मुताबिक़ या 'आर्यसमाजी-तौर' पर शादी करें, लेकिन उनमें इस क़दर हिम्मत को दख़ल दें कि शास्त्र से बढ़ कर रस्म और रिवाज़ को अफ़ज़ल [सर्वश्रेष्ठ = most excelent] न बनायें। मतलब यह है कि शास्त्र की बात चाहें छूट जाय, मगर जो अपने ख़ानदान और शहर में ऐसे रिवाज़ हैं, वह ख़्वाह किसी क़दर भी ग़लत हों, कर ही लें, यह बात न करें।
सवाल नंबर 24 [चौबीस] - आपको अपने लड़के, लड़कियों की शादी-ब्याह में अपना खुद ही अख़्तियार है या वाल्दैन और रिश्तेदारों का ?
यह सवाल भी अब बिलकुल बेकार है, क्यों कि मालुम हो गया है कि बहुत कम ऐसे लोग हैं जिनके यहाँ किसी दूसरे का दख़ल नहीं है। अगर एक-आध ऐसे हैं भी तो उनके यहाँ शैतान का दख़ल है।
सवाल नंबर 25 [पच्चीस] - सत्संग में 'संतमत' के उसूलों के मवाक़िफ़ शादी करना पसंद करेंगे और उनको देख कर आप सिर्फ़ उन्हीं क़ाइदों की पाबंदी से शादी करना-कराना पसंद करेंगे या पुराने रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़।
[क] सत्संग के उसूलों के मुताबिक़ बताये हुए क़ायदों के मुताबिक़ शादी-ब्याह।
[ख] पुराने तरीके के मुताबिक़ शादी-ब्याह।
हालाँकि अभी कोई संत-मत का असली पाबंद नज़र नहीं आया है और न अभी वक़्त आया है, इसलिए मैं बेकार सा समझता हूँ की इसमें कुछ तर्मीम की जावे। लेकिन चूँकि लोग यह सवाल कर सकते हैं कि आख़िर वह क़वायत क्या है, बिला देखे और समझे हुए कैसे फ़ैसला और इरादा किया जावे। इसलिए ज़रूरी हुआ कि मुख़्तसर तौर पर उनको लिख दूँ।
जब जिस मेंबर को तौफ़ीक़ और हिम्मत होती जाय, उतना-उतना ही काम करते जायँ। वाजे रहे कि जब तक 'संतमत' के मेंबर दोनों तरफ़ से यानि 'लड़के' व 'लड़की-वाले' न होंगें, उस वक़्त तक इन उसूलों के मुताबिक़ शादी नहीं हो सकती।
[01] यह तो लाज़िम है कि जहाँ 'लड़के' और 'लड़कियों' की तलाश हो, पहले जो फ़हरिस्त कि मुरत्तिब [तरतीब या क्रम लगाने वाला = methodologist] है, उसको देख लें और जब अपने मुताबिक पसंद के 'लड़का' और 'लड़की' न मिले तब दूसरी जगह तलाश करना शुरू करें।
[02] जिस तरह कि अब तक फ़िरक़े-वार अपने-अपने फ़िरक़े में शादी करना पसंद करते हैं, वह ऐसा ही रक्खें और जो ग़ैर-फ़िरक़े में करना चाहें, वह 'इण्टर-कास्ट-मेरिज' करें।
[03] 'विधवा-विवाह' भी हस्ब-रिवाज़ सभा-सोसाइटी के, जैसी कि उनकी क़ौम इजाज़त दे, कर लें।
[04] 'लड़के' और 'लड़की' की तलाश में जो-जो बातें अब तक देखीं जातें हैं, निगाह रक्खें।
[05] ग़रीबी और अमीरी के सवाल को जहाँ तक मुमकिन हो, हटा दें।
[06] उजलेपन - हड्डी का सवाल, 'सोशल-पोज़िशन' का लिहाज़ ज़रूर रखना चाहिए।
[07] ज़्यादा मालदार के यहाँ लड़की न दें और अपने से ज़्यादा मालदार के यहाँ लड़का न ब्याहें।
[08] बी ए, ऍम ए के पासशुदा लड़कों को ज़रा देख-भाल लें, सिर्फ़ उनके 'पास' होने को महज़ लियाक़त ख़्याल न करें, बल्कि उनके चाल-चलन और अख़लाक़ की ज़्यादा तहक़ीक़ात करना वाजिब है।
[09] 'लड़की' और 'लड़के' की तंदरुस्ती देखना चाहिए। जहाँ तक मुमकिन हो सके, जिन लड़कों को कोई हुनर आता हो या दस्तकारी आती हो, उनको पसंद करें। उसके बाद तिजारत वाले को और सबसे आख़िर में वह जो नौकर हैं।
[10] जो रीति और रस्म व रिवाज़ हुए हैं, उनकी हक़ीक़त मालुम है और खुद सोसाइटी के मुक़र्रर किये हुए हैं। इसलिए जिस सोसाइटी में रहना है, उसी रस्म को इख़्तियार करना चाहिए।
[11] शादी पुराने शास्त्र के मुताबिक़ करें या 'आर्य-समाज' के उसूल पर, जैसा आपस में मशविरा हो जावे। दीग़र रसूम खुद तय कर लें।
[12] बेहतर यह होगा कि 'लड़का' और 'लड़की-वाला', लड़के और लड़की को साथ ला कर या जो चंद ख़ास-ख़ास रिश्तेदार आना चाहें, 'भण्डारे' के मौके पर आ जायँ और शादी जैसी कि अब-तक होती आ रही है, हो जाय। बाराती और जनाती सब 'सत्संगी' होंगे, ख़ास दावत की ज़रूरत नहीं है। एक रोज़ रह कर 'घर' को वापस चले जायँ। अगर भंडारे पर न ला सकें तो सिर्फ़ सत्संगियों को जो ख़ास-ख़ास हों, बुलावें और जो सम्बन्धी और रिश्तेदार जो इस मामले के ख़िलाफ़ हों और बिघ्न डालने-वाले हों, उनको शरीक़ न करें।
[13] चढ़ावा और ज़ेवर ठोस बनवाएं, जो काम आयें।
[14] यह ज़ेवर या तो इक्यावन रुपये का हो या एक सोउ पच्चीस रूपये के या दो सोउ इक्यावन का हो। इससे ज़्यादा रक़म का ज़ेवर न चढ़ाया जावे। बाक़िया ज़ेवर, जिस क़दर चाहें, अपने घर पर या बाद को रुनुमाई या किसी दूसरे तरीक़े पर दे देवें, इसकी मुमानियत नहीं है।
[15] बहुत ज़्यादा कीमती जोड़े वक़्त-शादी के नहीं होना चाहिए। बाद शादी जिस क़दर चाहें, कर सकते हैं।
[16] शादी के वक़्त आम-दावत की मुमानियत है। उसके बाद अगर रुपया है और क़र्ज़ नहीं लेना है, तो दावत करें। लेकिन ख़ास-ख़ास अहबाब और रिश्तेदारों को बुलना चाहिए। शोहरत और नामवरी का लिहाज़ तर्क है।
[17] बाज़ार में बरात का आराइश [सजावट = decoration] के साथ घुमाना मना है।
[18] नज़राने की रक़म सिर्फ़ 'मान्य' रिश्तेदारों के लिए वाजिब है, बाक़ी की ऐसी ज़रूरत नहीं।
[19] अङ्कमाला [आलिंगन, भेंट] निहायत फ़िज़ूल है।
लेकिन ये बातें तभी हो सकतीं हैं, जब फ़रीक़ैन [फ़रीक़= विवेकशील व्यक्ति, समूह = rational person, a group] एक-राय हों। यह सब क़ाइदे जो ऊपर लिखे गये हैं, सब के वास्ते नहीं हैं, बल्कि उनके वास्ते हैं जो अपने आप को ख़ालिस संतमत का पाबंद मानते हैं।
सवाल नंबर 26 [छब्बीस] - सवाल यह है कि आप के पास माली गुंजाइश ख़ैरात और दान करने की है तो क्या 'सत्संग' के बनाये हुए क़ायदों के मुताबिक़ तक़सीम अख्तियर करने को राज़ी हैं या अपने मनमाने पुराने ढकोसलों के साथ।
अगर उदारता की सिफ़त नहीं है तो इंसान नाक़िस है। मजहबी नुक़्ता-ए-निगाह के अलावा क़ानून मजलिसी और सोसाइटी के लिहाज़ से अपनी आमदनी का कोई कम-से-कम हिस्सा ज़रूर अलग करके रखना चाहिए। कोई मज़हब ऐसा नहीं है जिसमें ज़कात, सदका और ख़ैरात का मसला ज़रूरी नहीं समझा गया है।
अगर क़र्ज़दार न हों तो ज़रूर ख़ैरात या ज़कात निकालना वाजिब है। अब तो शायद कोई आदमी ऐसा हो कि कुछ-न-कुछ क़र्ज़दार न हो, लेकिन चूँकि अब यह बात आम हो गयी है, इसलिए अब 'क़र्ज़दारी' की शर्त लगाना 'ज़कात' और 'खैरात' के लिए मान्य नहीं है। जब सदहा और हज़ारहा काम चलाये जाते हैं तो सिर्फ़ इसी को जायज़ न रखना सरासर ज़ुल्म और ख़िलाफ़ मजहब है। अब इसकी तक़सीम कहीं-कहीं तो मुनासिब की जाती है और कहीं-कहीं बिलकुल नाक़िस तरीक़े से, मिसलन एक तरीक़ा रक़म अलाहिदा रखने का यह है कि जब चाहा बिला किसी उसूल के निकाल दिया और एक यह है कि नियम, पाबंदी और आमदनी की तादाद की मुनासिबत से। पस् तरीक़ा अव्वल निहायत नाक़िस है और दूसरे तरीक़े में काम अर्से तक चलता रहता है।
आप से बहुत क़िस्म के चंदे सरकारी लोग और शहर वाले ले जाते हैं, इसलिए इस रक़म के खर्च हो जाने से आप के पास आपके ख्याल के मुताबिक़ रक़म तक़सीम करने को बाक़ी नहीं रह जाती या बिलकुल कम रह जाती है। पस् इस तरह मज़बूर हो जाते हैं और आपकी बचाई हुयी और ख़ैरात की हुयी रक़म ऐसे मामलात खर्च की जाती है जिससे आप को कोई दिलचस्बी नहीं या आपकी तबियत और उसूल के बिलकुल बरख़िलाफ़ है, जो मतलब यह हुआ कि आपका गला घोंट कर जबर्दस्ती यह रक़म आप से खर्च कराई जाती है। इसलिए 'अव्वल ख्येसह बादहू दरवेश' का मसला आप सीखें। पहिले अपनी सोसाइटी और हक़दारों की ज़रूरतों को पूरा कर लें, तब दूसरों की खबर लेना वाजिब है। आप का पड़ोसी भूखा है, नंगा है, आपका रिश्तेदार फ़ांकामस्ती कर रहा है, आपके हक़ीक़ी रिश्तेदार के पास इसक़दर रूपया नहीं है कि वह अपने लड़कों को तालीम करा सके, आपकी सोसाइटी में किसी की लड़की बीस-वर्ष की जवान मौजूद है और बिला रूपये के शादी नहीं होती है, बिधवाएँ नंगी-उघारी हैं, भूखों मरतीं हैं, फिर भी मांग नहीं सकतीं और आप अपना दान का रुपया हरिद्वार और ब्रह्म-भोज और अन्नकूट करके खर्च कर रहे हैं।हज़ारों मदरसे सरकार की तरफ़ से, और दीग़र मदरसे 'चंदे' से चल रहे हैं और उसी मद में आप भी अपना रूपया लगाए देते हैं। वजह क्या, महज़ नाम और शोहरत। क्या सब मालदार एक ही जानिब पिल पड़ेंगे ? यह भेंड़-चाल नहीं तो और क्या है। मैं आगे चल कर दूसरे निहायत ज़रूरी कामों की तफ्सील बतलाऊंगा, जिनकी तरफ़ आमतौर पर निगाह भी नहीं जाती है।
आपको लाज़िम है कि शादी और ब्याह के मौकों पर जो दान-देने की रस्म है, उन पर ज़रा निगाह रक्खें। कहीं आप बरेली के यतीमख़ाने और कहीं आप चित्रकूट जी के मंदिर और कहीं और किसी बड़े मंदिर में तक़सीम ख़ैरात की करते हैं। अब आयन्दा से 'सत्संग' समाज और 'साधू-सेवा-फंड' में पहले रक़म दिया करें और फिर दुसरी जगहों पर। 'मुण्डन', 'कनछेदन', 'नामकरण', 'लगुन' और तमाम दीग़र रसूमात पर जहाँ अब तक एक ख़ासी रक़म नाम और नुमायश के लिए लगते हैं, उस वक़्त इस फण्ड का भी लिहाज़ करके यह ख़ास रक़म किसी तरह निकाल कर उस में दाख़िल कर दिया करें। 'मौत' के वक़्त जो दान कि 'एकादशा', 'तेरहवीं', 'चौथापटा', 'बरसी' वग़ैरह पर दिया जाता है, अगर वह वाक़ई एक ख़ास फ़ायदे और मजहवी नुक़्तए-निग़ाह से देखा जावे तो भी यह लिहाज़ करना कि वह किस जगह और किन आदमियों के हाँथ में जाता है। यह सबको मालुम है, इसकी तफ़्सील बतलाने की ज़रूरत नहीं है। आप-सब अगर यही ज़रूरी ख्याल करते हैं कि बिला इसके ईसाल-ए-सबाब किस तरह हाँसिल करेंगे तो थोड़ी रक़म शगुन के तौर पर उसमें ख़र्च करें और बक़िया फण्ड में दाख़िल किया करें।'तेरहंवी', 'बरसी' वग़ैरह पर जो ज़बरदस्ती गला-घोंट कर दावतें कीं जातीं हैं, यह निहायत मज़मूम [ख़राब, बुरा = bad] तरीक़ा है। इसकी वजह सिर्फ़ कहने की यह है कि अब घर शुद्ध हो गया और तमाम बिरादरी ने क़बूल कर लिया कि 'मकान' और उसके लोग शुद्ध हो गए। यह सिर्फ़ एक रस्म है। मगर जिनके पास कुछ नहीं है और बाल-बच्चे कल [अगले दिन] से ही भूंखे मरने लगेंगे, उनसे ज़बरदस्ती क़र्ज़ लिबवा कर 'तेरहवीं' और 'बरसी' पर 'निबाले-निगले' जाते हैं। पस् अगर यह बुरी रस्म बंद हो जाय तो बहुत कुछ सहूलियत हो सकती है। मैं हुक्म नहीं देता कि आप ऐसा करने लगें, अगर आप की समझ में आ जाय तो करें वर्ना नहीं।
यह ख़ैरात, दान और ज़कात वग़ैरह आप तभी निकाल सकते हैं जब आप अपनी ख्वाहिशात के घोड़े की बाग़ रोके रक्खें। अगर घोड़ा मुँहजोर और बदलगाम है तो ख़्वाहिशात के हुजूम का क्या कहना है। अपने ख़र्च और ज़रूरत से पचासों गुना ज़्यादा घर में चीज़ मौजूद हुआ करती है तो भी लोग ख़रीदते चले जाते हैं। अगर घर में दो ही तीन आदमी हैं और पाँच सौ आदमियों के वास्ते निहायत उम्दा आलीशान मकान बना हुआ मौजूद है तो भी एक धुन है कि कुछ जदीद [आधुनिक = modern] इमारतों के लिए नक़्शे बन रहे हैं और काम जारी है और ख़्वामख़्वाह हज़ारों रूपया खर्च कर रहे हैं। ख़ैर -
ज़रूरत यह है कि आमदनी के रुपयों की जायज़ तक़सीम करना सीखें और इस तरह हैवानी जज़्बात को काम में न लायें।
सवाल नंबर 27 [सत्ताईस] - इस सवाल में यह है कि रस्म-रिवाज़ की बिरादरी पर 'सत्संग' की बिरादरी को तरजीह देना है।
इसकी महज़ वजह यह है कि लोग बावजूद इसके कि वह ब्यवहार के और रसूमात के तरीकों को ख़राब जानते हैं और जानते हुए भी सिर्फ़ इस डर की वजह से कि अगर हम कोई रस्म नहीं अदा करेंगे तो बिरादरी वाले एतराज़ करेंगे और 'हुक्का-पानी' बंद हो जायगा और शादी-ब्याह दिक़्क़त के साथ होंगे।
मालूम कीजिये कि किसी मेहतर वग़ैरह के साथ खा लेने, किसी बाज़ारी औरत के साथ खुल्लम-खुल्ला ताल्लुक़ रखने या ग़ैर बिरादरी के यहाँ शादी करने से, ब्यवहार छूट जाता है, न कि किसी रस्म के न अदा करने से। मुमकिन है कि लोग ज़लील और कम-हिम्मत समझने लगें। पर अब तो ज़माना वह नहीं रहा है। लोग नाजायज़ ताल्लुक़ रखते हैं और ज़ाहिर और खुला हुआ ताल्लुक़ रखते हैं, मगर कोई शख्स बिरादरी से ख़ारिज़ नहीं करता है। मालदार तो मूंछों पर ताव देते और गुर्राते हैं और चुनौती देते हैं कि कोई उनको छोड़ तो दे। ग़रीब आदमियों पर ज़रूर ग़ायबाना आवाज़ें कसे जाते हैं और बुज़दिलाना हमले भी किये जाते हैं, मगर आख़िर को टॉयं- टॉयं फिस्स। असल यह है कि लोग सिर्फ़ बहाना-बाज़ी करते हैं। तबीयत अंदर से खुद-ब-खुद छोड़ने को नहीं चाहती है। ख़याल तो कीजिये कि बुरे कामों को करने से तो बिरादरी एतराज़ न करे और इस्लाह और मुफ़ीद कामों के अख़्तियार करने से लोग उसको छोड़ दें। हरगिज़ ऐसा नहीं हो सकता। अगर बिल-फ़र्ज़ ऐसा होता भी है तो अक्सर देखा गया है कि बिरादरी में जिद्दम-जिद्दा का मामला चल पड़ता है। और फिर ज़िद्द की वजह से चन्द दिनों तक ऐसी कोशिश, हमले-बाज़ी और बचाव की होती रहती है और चन्द दिन बाद जब मामला पुराना हो जाता है तो खुद-ब-खुद मुक़दमा ठप्प हो जाता है।
इसलिए जहां ज़िद्द पर नौबत पहुँच जाय तो वक़्त को हटा देना अच्छा है। मुमकिन है कि अगर बिरादरी के लोग ज़िद्द छोड़ दें तो क्या आपके सत्संगी भाई आपका साथ न देंगे। अगर यह भी न दें तो आपका मामला खालिस नियत और हक़ पर है तो नतीज़ा ज़रूर आख़िर को अच्छा होगा।
प्रश्न नंबर 28 [अट्ठाईस] -
इंसान का उद्द्येश्य यह है कि आपस में एक-दूसरे की इमदाद करें और बेहतरी सोचें और करें। सबसे बड़ा दान तो यह है कि विद्या-दान दें और फिर 'ब्रह्मविद्या' का दान सब से बड़ा है, क्योंकि उससे मंज़िले-मक़सूद पर आदमी पहुंचता है।
लेकिन जिस्म और जान का साथ है, इस लिए बाज़ वक़्त इस ताल्लुक़ की वजह से एक-दूसरे की निज़ामे अमल में तसर्रुफ़ करते वक़्त मायावी और माद्दी पदार्थों की भी ज़रूरत पड़ जाती है। इस बात को आप मिसाल से समझेंगे, इसलिए मैं अब मिसाल ले कर समझाता हूँ। मैंने सारी उम्र सिर्फ़ ख़ालिस रूहानियत और उसकी ख़ालिस तालीम के ऊपर ताल्लुक़ रक्खा है, जैसा कि दूसरे सम्प्रदायों और पंथों में यह भी दस्तूर है कि सामाजिक और सोशल उमूर को भी कुछ साथ-साथ ले लेते हैं या खुद-ब-खुद उसका साथ आ जाता है, जैसाकि अब तज़ुर्बे से मुझको साबित हुआ है, लेकिन कस्दन इस मामलात को नज़रअन्दाज़ करता रहा और गुरेज़ किया। कुछ तो नौकरी की मसरूफ़ियत और दुनियावी मशाग़िल के वायस फुर्सत भी नहीं हो सकी, इसलिए ख़ालिस अंदरूनी सत्संग होता रहा, लेकिन जब ताल्लुक़ ज़्यादा बढ़ जाते हैं तब उसके साथ ही सोशल और सामाजिक ब्यवहारों की भी ज़्यादती होती जाती है।
[01] देखिए मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में मुख़्तलिफ़ लोग हैं। हर शख़्स अपनी-अपनी वाक़फ़ियत पैदा करने के लिहाज़ से और अपने हालात के जवाबात की ख़्वाहिश में खतो-किताबत का सिलसिला जारी रखते हैं।
[02] अगर इसी तरह यह जवाबदेही का भी सिलसिला जारी रहता है तो मुख़्तलिफ़ तौर पर ऐसी ज़रूरत महसूस होती है कि ताल्लुक़ात ज़बानी को तहरीरी कर दिया जावे ताकि वह एक सिलसिला और तरतीब में आ जावे। और जो लोग मज़बूर हैं कि 'सत्संग' में ज़्यादा वक़्त सर्फ़ नहीं कर सकते हैं और बाज़ बिलकुल नहीं आ सकते हैं। तो उनको तहरीरी हिदायत भी पहुँच जाय। बच्चों और औरतों के लिए एक ऐसा निसाब [पूँजी = capital] तालीम का मुन्तख़ब [संकलित] करके तैय्यार किया जाय और जिससे उनकी वाक़फ़ियत को मदद मिले।
वक़्तन फ़वक़्तन सिलसिले के साथ ऐसी तरकीब या पैम्फलेट जारी किये जायँ, जो छप कर हर मक़ाम पर वाक़फ़ियत में इजाफ़ा करने के लिए भेजे जा सकें। जो शायक़ीन [शौक़ रखने वाले = inclined, tending] और तालिब [तलाश करने वाला = investigator, desirous] रोज़ाना मेरे पास आते-जाते रहते हैं उनका सिलसिला मेरी फ़ुरसत ज़्यादा हो जाने की वजह से, अब ज़्यादा हो गया है।
उनके ठहरने और आसाइश [सुख-सुविधा या सहूलियत] के लिए मेरे पास काफ़ी मकान नहीं है, और अगर है तो वह इस ढंग का बनाया हुआ है, जो 'ज़नाना' [ज़नानख़ानः = जहाँ स्त्रियाँ रहतीं हों या अंतःपुर] में शामिल है। ख़ालिस अलहदा 'मर्दाना' [मर्दानखाना] नहीं है। अगर किसी तरहँ अब तक गुज़ारा भी किया गया तो मुतअब्बिद [साधना करने वाला] लोगों के लिए मुफ़ीद नहीं, क्योंकि उनको एकान्त चाहिए। 'सत्संग' के वक़्त यहाँ कभी एकान्त, जैसा चाहिए, नसीब नहीं होता। इसके लिए बिलकुल अलहिदा ही मकान होना चाहिए, चाहें वह एक 'खँडहर' ही हो। लेकिन 'चहारदीवारी' हो कुँवा हो, पाखाना हो और एक बड़ा कच्चा-पक्का छप्पर का कमरा हो। जहाँ सत्संग हो और उसके बाद लोग [बाहर के] ठहर भी जावें।
अगर यह मामला ज़्यादा वसीअ [विस्तृत = extensive] किया जावे तो जैसे कि सैकड़ों स्कूल जारी होते हुए भी हज़ारों स्कूल ज़ाहिरी तालीम के जारी किये जा रहे हैं, उसके बजाय एक इस किस्म की भी तालीमगाह करार दी जावे कि वहाँ दो-चार ख़ास लोग जो इस इल्म में बखूबी माहिर हैं ऐसे काम के लिए तलाश कर लिए जावें, ताकि एक ख़ास नज़ाम और बंदोबस्त के साथ चाहने वालों के लिए ऐसी तालीमगाह दस्तेयाब हो सके तो मुमकिन है कि इस किस्म के ख़ास लोग मिल सकते हैं और मेरी नज़र में रह सकते हैं। लेकिन जब तक कि उनके वास्ते ऐसा फण्ड न हो जिससे कि उनकी गुज़र-औक़ात का ज़रिया हो सके, किस तरह वह यहाँ रह सकते हैं और अगर वह अपने घरों पर भी तालीम दें - जैसा कि वह अब भी जारी किये हुए हैं, मगर ख़्याल कीजिये कि जब उनको रोज़ी के कमाने से फुर्सत और मौका मिलता नहीं। ऐसे लोग किसी से कुछ नहीं कह सकते, लेकिन मुझसे तो वह अपना हाल छिपाते नहीं। मुझको ऐसे चन्द वाक़ियात मालुम हैं। आप लोगों को क्या ख़बर है। मुझको उनका हाल देख-देख कर कलेजा मुहँ को आता है।
मेरे पास भी इतना नहीं कि उनकी इम्दाद कर सकूँ, इसलिए मैंने आप साहिबान से फण्ड काइम करने की दरख़्वास्त की। अपने वास्ते नहीं बल्कि उन कामों के वास्ते जो ऊपर दिखलाये गए हैं। लेकिन ख़ाली चंदे से यह काम नहीं हो सकते हैं जब तक कि वह तद्बीरें जो मैंने बतलायीं हैं, अमल में न लाई जावें।
मुश्किल से एक सौ आदमियों ने एक रुपया माहवारी चंदा लिखा है उनमें से चन्द असहाब ऐसे भी हैं कि जिन्होंने तौअन-व-करहन [बहुत ही कठिनाई से, विवश हो कर = with difficulty] मंज़ूर किया है। बल्कि बाज़ ऐसे हैं कि जिन्होंने इस क़दर बदमज़गी दिखलाई है गोया कि इनकम टैक्स दो सौ रुपये माहवार उन पर मुक़र्रर कर दिया गया हो। यह हालत ग़रीबों ने नहीं दिखलाई है बल्कि मालदारों ने, बाज़ असहाब ने तो मुझको इस क़दर डरा दिया कि अगर ऐसा फण्ड क़ाइम करोगे तो लोगों का आना बंद हो जायगा, तो लोगों का ऐतक़ाद ख़राब हो जायगा। दो-एक साहिब ने आ कर मुझसे खुद शिकायत की कि लोग बाहर ज़िकर करते हैं कि खूब खाने-कमाने का सिलसिला जारी कर दिया और हलके-हलके एक दुकान सी क़ाइम कर दी। ख़ैर, मेरी नियत दुरुस्त है और मुझे उनका ख़ौफ़ नहीं कि ऐसी बदनामी होगी। अगर सत्संगी साहिब कोई ऐसे ज़ईफ़ुल्ऐतक़ाद हों कि एक रूपये-पैसों पर बदगुमानी पैदा कर लें तो वह 'सत्संगी' होने के लायक कब हैं। बदनामी अगर करेंगे तो इस तरह कौन सी ऐसी 'संस्था' है जो इस माली-फण्ड से ख़ाली हो सकती है।
अमेरिका वालों का 'मिशन' का काम किस ज़ोर का चल रहा है। साहिबजी महाराज आगरा और हर जगह इसका कुछ-न-कुछ दख़ल है। मगर मुझे यह यक़ीक़ है कि यह 'एक रुपया' चंदा जो लिखा गया है वसूल होना निहायत दुश्वार है और चलेगा नहीं। इसलिए जो साहिब कि खुद चाहें इसी तरह जैसा कि जो साहिब कि चाहें मेरे पास फ़र्ज़ अपना समझ कर भेज देंगे और वह जमा कर लिया जायगा और जैसा मौका मुनासिब होगा ख़र्च किया जावेगा और हिसाब मुरत्तिब करा दिया जावेगा। अपने-अपने मुक़ाम पर खुद ही ऐसा इंतज़ाम कर लें और 'जमा-ख़र्च' रक्खें। अगर मुझको ज़रूरत होगी, मांग लिया करूँगा, लेकिन मैं खुद इस झंझट में न पडूँगा।
थोड़ी देर के लिए यह काम कर सकते हैं और अगर रोज़ी पूरी नहीं होती तो उनकी तबीयत घर-गृहस्थी और बच्चों की ज़रुरियात पूरी न होने की वजह से मुक़द्दर और परेशान हाल रहा करती है और जैसे सफाई के साथ तालीम होना चाहिए, नहीं हो सकती। अलावः इसके मोहल्ले और शहर के लोगों में उनका ऐतक़ाद नहीं होता और ऐतक़ाद न होने की वजह से शहर के मुक़ामी लोग उनसे फ़ायदा नहीं उठाते।
बाहर के लोग अव्वल तो अपनी मसरूफ़ियत की वजह से आ नहीं सकते और अगर कोई ख़ास बड़ी तबीयत-दार आदमी आ भी गया तो ठहर नहीं सकता। इसके अलावः जब खास एक मदरसे की निस्बत वाक़फ़ियत हो जाय कि इस किस्म की तालीम का वहाँ रोज़ इस जगह एहतमाम है तो लोग तलाश की दिक़्क़त और फ़िर इम्तिहान और इत्मिनान करने की पेचीदगियों से महफूज़ रहें।
वाक़या कानपूर के मदरसे - 'इल्म-इलाही' का -
अब अगर बाहर चल-फ़िर कर शायक़ीन और तालिबीन की ज़रुरियात को पूरा करते रहें तो भी घर के मामले से उनको इत्मिनान होना चाहिए और रास्ते के इख़राजात और कियाया वग़ैरह का इंतज़ाम होना चाहिए। मांग-मांग कर यह काम करना ज़रा दिक़्क़ततलब और दुश्वार है। यह काम सन्यासियों का है। अब फिर आप एक दूसरी मुश्किल ख्याल करें कि आप को तो वाक़फ़ियत नहीं है, चाहने वालों की मौत है। हमारे यहाँ सत्संगी भाइयों में से बाज़-ख़ास मी ऐसी नौबत है कि रोटी को मोहताज़ हैं, उनके बच्चों के पास कपड़ा नहीं, तालीम के लिए फ़ीस और किताब के लिए दाम नहीं। लड़कियां जवान हो रहीं हैं। पैसा न होने की वजह से शादी नहीं हो सकी। शर्म के मारे तलब कर नहीं सकते न इज़हार इस तंगी का कर सकते हैं।
"ॐ पूर्णमदाः, पूर्ण मिदाः, पूर्णस्य, पूर्ण समोच्चते।
पूर्ण मुदायाम, पूर्णातपूर्ण, पूर्ण मेवा वशिष्यते।।"
परिशिष्ट [घ]
परमपूज्य लालाजी साहिब के पार्थिव जीवन-काल के अंतिम वर्ष 1931 AD की डायरी की तिथि-वार प्रविष्टियों का मूल-पाठ -
THE DIARY EXTRACTS OF REVERED LAALAAJI SAHIB :
Thursday the 01st. January 1931:
Friday the 02nd January 1931 :
बृजमोहन, रायसाहिब के यहाँ गए। गोवर्धनदास [श्रीमती भगवती देवी, धर्मपत्नी महात्मा जगमोहन नरायन के फुफेरे भाई] मय अपनी बहिन [श्रीमती भगवती देवी, धर्मपत्नी महात्मा जगमोहन नरायन] के एटा से रात के दो बजे आये।
Saturday the 03rd January 1931 :
आज गोवर्धन दास से सख्त ग़ुफ़्तगू की नौबत आयी।
Sunday the 04th January 1931 :
जगदम्बा प्रसाद [साक़िन - हरदोई उ0 प्र0] ने 01 जनवरी को बैअत ली।
Thursday the 08th January 1931 :
रूद्रसेन [परमपूज्य लालाजी साहिब के कोटा वाले दामाद, बाबू श्याम बिहारी लाल के सगे छोटे भाई] की हमराह [धर्मपत्नी] श्यामा और जगमोहन की दुलहिन [श्रीमती भगवती देवी] कोटा - राजस्थान को गयीं।
Saturday the 10th January 1931 :
कृष्णचन्द्र भार्गव ने रूपया 45/- भेजे।
Monday the 12th January 1931 :
आज 09. 00 बजे सुबह की गाड़ी से एटा को रवाना हुआ।
Wednesday 14th January 1931 :
मकर संक्रान्ति थी। बाबू अवधबिहारी लाल और उनकी बीबी ने बैअत ली। बाबू राधा रमन अलीगढ ने बैअत ली।
Thursday the 15th January 1931 :
एटा से रवानग़ी और शाम को घर पहुँच गया।
Friday the 16th January 1931 :
राम प्रसाद [वैद्य बलदेव प्रसाद के सगे छोटे भाई] की लगुन दिल्ली से आयी। बृजमोहन मय अपनी दुलहन के सिकन्द्राबाद [जिला बुलन्दशहर उ0 प्र0] से वापस आये।
Monday 19th January 1931 :
चटाइयाँ शाहजहाँपुर से आईं। बालकिशन के वालिद की बरसी थी।
Tuesday the 20th January 1931 :
नन्हें [परमपुज्य लालाजी साहिब के सगे छोटे भाई, महात्मा रघुबर दयाल - कानपुर] की दुलहन मय ज्योती [महात्मा रघुबर दयाल के सबसे छोटे बेटे, महात्मा ज्योतिन्द्र मोहन लाल ] के कानपुर से आये। आज से रमज़ान शुरू हुए।
Friday the 23rd January 1931 :
बृजमोहन लाल आज बुलन्दशहर को रवाना हो गए सुबह नौ बजे। बरात रात को दस बजे की गाड़ी से रवाना हुयी।
Saturday the 24th January 1931 :
सुबह 06.30 बजे फ़र्रुख़ाबाद रवाना हुआ। गाड़ी से दिल्ली की तरफ़ रवाना हुआ। किराया तीन रूपया दो आना था। शाम को 06.30 बजे दिल्ली पहुँचा। दरवाज़ा हुआ। स्वागत कराया गया।
Sunday 25th January 1931 :
आज 'दावत-भात' थी। बाबू भगवत प्रसाद के होटल में गया। वहाँ से 'श्रद्धानन्द भवन' गया। स्वामी आनन्दभिक्षु जी से मुलाक़ात हुयी। मुन्शी जीवाराम जी से मुलाक़ात हुयी और उनके समधी मुन्शी साहिब तखल्लुस ज़ौक़ से मुलाक़ात हुयी। बाबू जमुना प्रसाद के बरादरे निस्बती [साला या बीबी का भाई] बाबू भगवत स्वरुप को होटल में उपदेश दिया गया।
Monday the 26th January 1931 :
[*Mahatma Gandhi was freed from prison.]
आज 'दावत-बड़ाहार' थी। सायंकाल को आनन्दभिक्षु जी आये। मैं दावत में नहीं गया। आज गोया आज़ादी का बड़ा भारी जुलूस निकला*। तमाम दिल्ली में चहल-पहल और रोशनी थी। लीडर लोग रिहा किये गए थे। जगमोहन और मुन्शीजी [मुन्शी कालीसरन भोजपुर वाले] कोटा की तरफ़ रवाना हुए।
Tuesday the 27th January 1931 :
आज सुबह सात बजे 'श्रृद्धानन्द भवन' गया। स्वामी नारायण जी सरस्वती से मुलाक़ात हुयी। बहुत ख़ुल्क़ और ख़ातिर से पेश आये। फतेहगढ़ आने का वायदा किया और दो किताबें ----- उपनिषद् इनायत कीं। सुबह 09.30 बजे फतेहगढ़ की तरफ़ रवानगी हुयी।
Thursday the 29th January 1931 :
आज दो राज-मिस्त्री, दो मज़दूर अमानी [रोज़न्दारी] पर थे। दो बजे अजुध्यानाथ [जनाब लालजी साहिब की तीसरी बेटी, सुश्री श्यामादेवी के पतिदेव] कोटा से [वापस] आये।
Friday 30th January 1931 :
आज वक़्त सुबह बृजमोहन मय कुल औरतों के कानपुर की तरफ़ रवाना हो गए। मुब्लिग़ रुपया 04/- नज़राना बलदेव प्रसाद ने दिया।
Saturday the 31st January 1931 :
आज सवा छः रूपया चोरी हो गए। ईशावास्योपनिषद भवानीप्रसाद माँग कर ले गए। घी पाँच रुपये का आया।
महाराज नरायन [परमपूज्य लालाजी साहिब की दूसरे नंबर की बेटी, कृष्णा कुमारी उर्फ़ 'बब्बन' के पति, अर्थात लालाजी के दामाद] 'उमरैन' को रवाना हुए। 'सिब्बा' [जनाब लालाजी साहिब के घर का पूर्णकालिक सेवक जो कि उमरैन का ही रहने वाला था] अपने घर को गया, मय 'भगोल' के। दिल्ली से डॉक्टर साहिब रुख़्सत कराने आये। एक रूपया नज़राना दिया।
Monday the 02nd February 1931 :
आज एक मज़दूर अमानी में है। मास्टर पुत्तूलाल - कमालगंज ने बैअत ली। केनोपनिषद मुंशी चिम्मनलाल के पास है।
Wednesday the 04th February 1931 :
आज मज़दूरों का हिसाब कर दिया गया। आज रात की एक बजे की गाड़ी से कानपुर और उरई की तरफ़ रवाना हुआ। स्टेशन पर बाबू गुरुप्रसाद तारबाबू से मुलाक़ात हो गयी। एक रुपया दो आना ताँगा का किराया और पाँच रुपया दस आना किराया रेल।
Thursday the 05th February 1931 :
आज आठ बजे कानपुर पहुँच गया। ओला और बर्फ़ पड़ने की वजह से निहायत सख़्त सर्दी थी। दस कानपूर से रवाना हो कर साढ़े बारह बजे उरई पहुँचा। रात में बाबू सूरज प्रसाद के यहाँ क़याम किया। रात में नन्हें कानपुर से आये।
Friday the 06th February 1931 :
सुबह 12.30 बजे झाँसी की तरफ़ रवाना हुआ। तीन बजे पहुँचे। रात में बाबू भवानी प्रसाद के साथ एक पंडित जी नायब मुहाफ़िज़ दफ़्तर [Record Keeper] आये और शारदाप्रसाद अहलमद [Junior Court Clerk] मिलने को आये।
Saturday the 07th February 1931 :
आज बाबू नारायण प्रसाद मुंसिफ़ जरीमः से मुलाक़ात हुयी। दिन में खाना बाबू सूरजप्रसाद के भाई के यहाँ खाया। दावत भात थी। पंडित जी नायब मुहाफ़िज़दफ़्तर को उपदेश किया गया। एक नाबीना लड़का साकिन - लखनऊ ने उपदेश लेने की दरख़ास्त की।
Sunday the 08th February 1931 :
आज दिन में बाबू बालाप्रसाद क्लर्क के यहाँ दावत थी। शाम को दावत बड़हार थी। आज सत्संग 'जनवासे' [Living quarters of the bridegroom's party, at the time of a wedding] में शाम को हुआ बहुत लोग शामिल थे।
Monday the 09th February 1931 :
सुबह बाबू भवानी शंकर के यहाँ गया। बाबू शिवदयाल को समझाया गया। उन्होंने अपनी तस्फीफ़ [condition] ज़ाहिर की। बाबू शारदाप्रसाद क्लर्क-जजी को जनरल तवज्जोः दी गयी, नतीज़ा मालूम नहीं क्या हुआ। दो रुपए बाबू मेवालाल और भवानीशंकर ने दिए। एक कम्बल पण्डित नाथूराम नायबमुहाफ़िज़दफ़्तर जजी ने दिया। डाक गाड़ी से उरई वापस आया।
Tuesday the 10th February 1931 :
आज रँगीलेलाल उर्फ़ खुनखुन नबीना साकिन लखनऊ को उपदेश किया गया। शाम को आम दावत लाला सुखवासी लाल के यहाँ थी।
Wednesday the 11th February 1931 :
सुबह छः बजे कानपुर की तरफ़ रवाना हुए। नन्हें [लालाजी के छोटे भाई] वहीं रह गए। शाम को पाँच बजे फतेहगढ़ पहुँचे। मेरठ में बाबू काशीराम के यहाँ शादी थी।
Thursday the 12th February 1931 :
आज बुद्धसेन [लाला मंगलसेन के बड़े भाई] सुबह ही आये और रोए-धोए।
Friday the 13th February 1931 :
आज फ़िर बुद्धसेन आये। उनको रु-बरु समझाया गया कि यह मर्ज़ मुश्किल से जाता है। मालुम होता है कि बुद्धसेन बहुत नाराज़ हो गए।
Saturday the 14th February 1931 :
लाला विशुनदत्त से 70 रूपये क़र्ज़ लिए गए।
Sunday the 15th February 1931 :
शिवरात्रि। आज 12 बजे फ़र्रुख़ाबाद से मैनपुरी की तरफ़ रवाना हुआ। 04 बजे पहुँचा। मन्दिर-चित्रगुप्त में ठहरा। रात में सत्संग हुआ। मस्तुरात [स्त्रियाँ] भी शरीक़ हुईं। श्रीपतिसहाय के वालिद भी आये। मुंशी चेतराम के यहाँ खाना खाया। गोपीनाथ अहलमद की निस्बत मालुम हुआ की उनकी सोहबत एक सन्यासी से रही और अब इस तरफ़ उनका ध्यान नहीं है। और न उनकी तबीयत सत्संग में लगी।
Monday the 16th February 1931 :
आज सुबह भी सत्संग हुआ। आनंदस्वरूप स्वरुप कुर्कअमीन भोगांव को उपदेश दिया गया। रात को आशाराम पंजाबी साकिन गुजरात इलाक़ा हुशियारपुर पंजाब को उपदेश किया गया। और एक लड़का तालिबइल्म [विद्यार्थी] साकिन खेड़ा [भोगांव - ज़िला मैनपुरी] को उपदेश किया गया। दिन में मुंशी हरनारायण मुख्त्यार के यहाँ गया। वहाँ एक रुपया चाची ने दिया। रात को फ़िर मय मस्तूरात [स्त्रियों] के सत्संग हुआ।
Tuesday the 17th February 1931 :
आज भजनलाल के यहाँ दोपहर को खाना खाने गया। वहाँ भजनलाल की हमशीरा [बहिन] को उपदेश किया गया। भजनलाल की दुल्हन ने एक रुपया नज़र किया। तीन बजे रेल से भोगांव की तरफ़ रवाना हुआ। रात को मय मस्तूरात के सत्संग हुआ। आज रात को मैं पाँच मर्तवा पेशाब को गया। सेवकराम 08.00 बजे की गाड़ी से अपने रिश्तेदार के घर मैनपुरी चले गए।
Wednesday the 18th February 1931 :
आज फ़िर सत्संग हुआ। बाग़ की हालत को जा कर देखा, निहायत बदतर हालत में पाया। तमाम दरख़्त कटे हुए पाए गए और दरख्तों की शाखें कटी हुयी थीं और जानवर चर रहे थे। श्याम लाल, मगन बिहारी लाल के रिश्तेदार हैं, उन्होंने अपने मुक़दमे की बावत कहा है। खां साहिब से मुलाक़ात हुयी। आनन्द स्वरुप सत्संग में शरीक़ हुए। भावज-रामकिशनलाल ने बावत बैअत कहा लेकिन जब उनको उसकी हकीकत समझाई गयी तब चुप हो गयीं।
Thursday the 19th February 1931 :
आज नौ बजे की रेल पर भोगांव से रवाना हो कर मैनपुरी पहुँचा। हमराह श्रीपतसाहाय के एटा की तरफ़ रवाना हुआ। रस्ते में मोटर बिगड़ा। शाम को एटा पहुँचा। राय साहब मय हरस्वरूप मौजूद थे। सत्संग हुआ।
Friday the 20th February 1931 :
क़ाज़ीजी वग़ैरह और दीग़र मौलवी साहबान मिलने को आये। आज नन्हें और बाबू सुखबासीलाल कानपुर से बराह [via] शिकोहाबाद आए।
Saturday the 21st February 1931 :
आज भी क़ाज़ीजी साहिब व दीग़र मुसलमान वग़ैरह आए। सत्संग हुआ। 'फ़ातिहः' [क़ुरान की पहिली सूरत] की गयी। बाबू उल्फ़तराय साहिब की तरफ़ प्रसाद तक़सीम हुआ। मुंशी सूरज सहाय मुख्त्यार की बैअत।
Sunday the 22nd February 1931 :
सत्संग हुआ। बाबू होतीलाल के चाचा साहिब को उपदेश किया गया। एक साहिब जो चुंगी में मुलाज़िम हैं को उपदेश किया गया। एक कहाँर हमराही मुंशी हुब्बालाल पटवारी भी सत्संग में बैठे।
Monday the 23rd February 1931 :
रायसाहिब के यहाँ गए। शाम को वापस हुए। आज एक पंडितजी साहिब आचार्य स्कूल-मास्टर एटा से गुफ़्तगू हुयी। उनको समझाया गया और वोह आमादा हुए। रूपया 11/- बाबू सूरज सहाय ने और 11/- रुपया राय साहिब ने पेश किए।
Tuesday the 24th February 1931 :
आज ग्यारह बजे कासगंज की तरफ़ रवाना हुआ। मोटर रस्ते में कई जगह बिगड़ा। शाम को कासगंज पहुँचा। दौरा दर्द का सिर में और दाढ़ में हुआ। मास्टर साहिब बाबू बसंतलाल से मुलाक़ात हुयी। मुंशी छेदालाल मामू - मुंशी उमाशंकर जो पेंशन पाते हैं, मय उनके लड़कों के मुलाक़ात हुयी। एक लड़का जो बाबू फतहलाल का रिश्तेदार है और एक स्कूलमास्टर है, मुलाक़ात हुयी। सत्संग में बैठा। रात को सिरदर्द और दांत में दर्द बहुत हुआ।
Wednesday the 25th February 1931 :
आज 12.00 बजे की गाड़ी से फतेहगढ़ की तरफ़ रवाना हुआ। शाम को अस्सिस्टेंट सर्जन मोहम्मद उमर साहिब तशरीफ़ लाये और बाबू माधव प्रसाद कम्पाउण्डर साथ में थे। उनसे मुलाक़ात हुयी और गुफ़्तगू हुयी। रात को हरारत हो आयी।
Thursday the 26th February 1931 :
आज बाबू कृष्ण नारायण सेन [जनाब लालाजी साहिब के पश्चिम दिशा में सटे हुए मकान के पड़ोसी] वक़ील सुबह को आये और ग़ुफ़्तगू निस्बत उपदेश लेने के की। आज नक्शा मकान का मन्ज़ूर हो कर आ गया। रात को मर्दुमशुमारी [जनगणना = census] हुयी। कानपुर से राम विशन मय बच्चों के स्याही फ़रोख़्त करने के वास्ते आये।
Friday the 27th February 1931 :
सुबह को बाबू कृष्ण नारायण सेन और उनकी बीबी को तवज्जः दी गयी। कोई फ़ायदा महसूस नहीं हुआ। रात को भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। राम विशन कानपूर रवाना हुए।
Saturday the 28th February 1931 :
आज अलमारी-कमरा में किबाड़ लगाए गए। रात को बाबू कृष्ण नारायण सेन को तवज्जःदी गयी। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उनकी बीबी के तबीयत पर कुछ असर हुआ।
Sunday the 01st March 1931 :
आज वक़ील साहिब के यहाँ नहीं गया। रात को मसानः [पेशाब की थैली, मूत्राशय, मूत्रकोष] ढीला हो गया। ख़्वाब में जनाब क़िब्ला मौलाना साहिब को हालते नज़अ [मरते समय की दशा] में और निहायत ही परेशानी की हालत में देखा। कुछ वजह समझ में नहीं आयी।
Monday the 02nd March 1931 :
दो रोज़ से तमाम दिन अब्र [बदली छाई हुयी] है। बहुत बुरा मालुम होता है। किबाड़ रंगने वाला रंग चोरी करके भाग गया। ऊपर के जदीद [नए] कमरे में फ़ातिहः [प्रसाद चढ़ाया गया] की गयी।
Tuesday the 03rd March 1931 :
एटा से बाबू अवधबिहारी लाल का ख़त आया कि प्रेमबिहारी के यहाँ 28 फ़रवरी को सुबह साढ़े आठ बजे लड़का पैदा हुआ। नौ मार्च का दष्ठौन है। तलब किया [बुलाया] है। बाबू आनन्द स्वरुप कानपुर की बीबी का इंतक़ाल हो गया।
Wednesday the 04th March 1931 :
आज साढ़े सात बजे सुबह 'आखत' डाले गए। [होली] मिलने-मिलाने को लोग आये। बावजह दाँतों के दर्द की वजह से कुछ नहीं खाया गया।
Thursday the 05th March 1931 :
मुकुन्दीलाल का ख़त आया कि उनका विवाह नौ मार्च को है। 'मथन्नी' [लालाजी के चचेरे छोटे भाई - डॉ कृष्ण स्वरुप] का ख़त आया कि भगन्दर का फ़िर ऑपरेशन किया गया है और चारपाई से उठ नहीं सकते हैं। बुआ के जूतों का पार्सल आ गया। मनीआर्डर उरई से बीस रुपये का आया। मगनबिहारीलाल के यहाँ शाम का सत्संग हुआ। ख़्वाब में रातभर पाख़ाना फ़िरता रहा।
Friday the 06th March 1931 :
योगवशिष्ठ का हिस्सा अव्वल [part - first] पण्डितजी मुहाफ़िज़-दफ़्तर [जजी] ले गए। स्वामी रामतीर्थ वर्क्स का हिस्सा अव्वल [part - first] बाबू रघुबर दयाल अहलमद [कोटावार्डस] ले गए।
Tuesday the 10th March 1931 :
बाबू भगवत प्रसाद भटनागर चन्दौसी से आये। दाँत वाले को दाँत दिखलाया। बाबू कृष्ण नारायन सेन के यहाँ आज फ़िर गया। दावत पेशकार साहिब के यहाँ थी।
Wednesday the 11th March 1931 :
आज तबीयत ज़ियादह कमज़ोर रही। दाँत दिखलाने को इस ख्याल नहीं गया कि जाने कौन सा दाँत उखाड़ दें।
Thursday the 12th March 1931:
नौ रुपया बारह आना श्री कृष्ण ने और पाँच रुपये बलबीर सहाय [पूर्वोक्त श्री कृष्ण लाल के बहनोई] ने भेजे हैं। बहादुर सिंह सर्किल इन्स्पेक्टर [सवाई] जयपुर का ख़त आया है। बाबू राधारमन अलीगढ से आये। बलदेव प्रसाद के ससुर ने वक़्त दो बजे दिन इंतक़ाल किया, रात-भर पड़े रहे।
Friday the 13th March 1931 :
कोई शख़्स बिरादरी का सिवाय लालता प्रसाद के लाश उठाने को नहीं आया। पण्डित मानसिंह के लड़का पैदा हुआ।
Saturday 14th March 1931 :
भगवत प्रसाद ओवरसियर बैअत ली। राधा रमन अलीगढ को रवाना हो गए।
Tuesday the 17th March :
जगमोहन की दुल्हन के गर्भपात [miscarriage] का दर्द उठा। और पेशकार साहिब के घर में [उनकी पत्नी के] भी रात को दर्द उठा।
Wednesday the 18th March 1931 :
दस रुपये का मनीआर्डर रामसिंह मास्टर आगरा ने भेजा।
Thursday the 19th March 1931 :
दस रूपये सीताराम लखनऊ ने भेजे। बाबू भगवतप्रसाद रात को दिल्ली रवाना हो गए।
Friday the 20th March 1931 :
बाबू कन्हैयालाल का खत इलाहबाद [परिवर्तित नाम 'प्रयागराज'] से आया। पन्द्रह रुपये बाबू राजेंद्र कुमार ['प्रोफ़ेसर राजेंद्र कुमार'] ने भेजे हैं। आज वक़्त तीन बजे दिन के हरारत ज़ोर गयी। आज काम मरम्मत का बन्द रहा।
Monday the 23rd March 1931 :
ज़ोर से हरारत बुख़ार की आ गयी। सिर में दर्द ज़्यादः है। बाद को बुख़ार ज़ोर से आ गया। तीस रुपये इलाहबाद-सत्संग से आये। माताचरन आये।
Tuesday the 24th March 1931 :
आज दुल्हन [श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी - महात्मा जगमोहन नरायन] की फ़िर वही हालत हो गयी। तमाम दिन और तमाम रात दर्द रहा।
Wednesday the 25th March 1931 :
दो रूपये मुन्शीसिंह ने दिए हैं। मिसिस छोटेलाल [पॉपुलर नाम - "काली मेम] को दिखाया गया।
Thursday the 26th March 1931 :
आठ बजे दिन को [दुल्हन, श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी - महात्मा जगमोहन नरायन का ] लड़का मिसकॅरियज [गर्भपात] हो गया। पन्द्रह रूपये डॉ श्यामलाल ने भेजे हैं। कानपुर में झगड़ा [हिंदू-मुस्लिम] शुरू हो गया है।
Saturday the 28th March 1931 :
आज रात क़रीब एक घड़े के पेशाब हुआ। राम नवमी का दिन है आज बहुत गर्म खबर कानपुर के झगड़े की है। फर्रखाबाद और फतेहगढ़ में भी झगड़े का अंदेशा सुना गया है।
Sunday the 29th March 1931 :
कोई ख़बर कानपूर से दरियाफ़्त नहीं हुयी। कोतवाली के दीवानजी से अजीब क़िस्म की गुफ़्तगू दरपेश आयी। जिसकी कोई वजह अब तक समझ में नहीं आयी। कानपुर से एक लड़का ब्राह्मण का कानपुर आया। उससे मालुम हुआ कि ज्योति बाबू [महात्मा ज्योतींद्र मोहन, छोटे बेटे श्रीमन महात्मा रघुबर दयाल जी] को उसने नवाबगंज में देखा। बाबू लक्ष्मी दयाल के यहाँ दावत थी। फर्रुखाबाद में चित्तरगुप्त के मन्दिर में जलसा था, वास्ते मकान बनवाने के।
Tuesday the 31st March 1931 :
नवाबगंज, कानपुर को 'तार' [Telegram] दिया गया है। जवाब का 'तार' नहीं आया। अहिबरन सिंह के भाई से मालुम हुआ को वो [ ज्योति बाबू ] नवाबगंज में हैं।
Wednesday the 01st April 1931:
कानपुर से तार [टेलीग्राम] का जवाब आ गया कि सब लोग महफूज़ हैं। लड्डू [भण्डारे में प्रसाद वितरण हेतु] बनवाये गए।
Thursday the 02nd April 1931 :
कानपुर से सब लोग आये। रामदयाल अलीगढ से मय अपनी भावज के आये। किशन स्वरुप [डॉ कृष्ण स्वरुप - लालाजी महाराज के छोटे चचेरे भाई] अजमेर से आये।
Friday the 03rd April 1931 :
[वर्ष 1931 का 'जलसा-सलाना' The Annual Congregation दिनांक 03 अप्रैल से 05 अप्रैल 1931 तक]
आमद शुरू हो गयी।
Saturday the 04th April 1931 :
बाबूराम मझोला शाहजहाँपुर, भँवर पाल ब्राह्मण आगरा, मुन्शी सिंह जिला हरदोई [ग्राम नगरिया], काशीनाथ ब्राह्मण गोरखपुर, बाबू रघुबीर प्रसाद आगरा, पण्डित रेवतीराम आगरा, बाबू फतेहलाल कासगंज, बाबू शेवती प्रसाद कासगंज ने बैअत की। मौलवी साहिब [शाह मौलाना फ़ज़ल अहमद खान साहिब रहमत0] सिरसागंज से तशरीफ़ लाये।
Sunday the 05 April 1931 :
आज तीन बजे दिन के मौलवी साहिब वापस गए।
Monday the 06th 1931 :
बृजमोहन फतेहपुर को वापस गए।
Tuesday the 07th April 1931 :
दाँत उखड़वाये गए।
Wednesday the 08th April 1931 :
नन्हे [लालजी के छोटे भाये, रघुबर दयाल] हमराह माताचरन के मैनपुरी चले गए।
Thursday the 09th April 1931 :
मुन्शी मनमोहनलाल, बाबू करुणाशंकर जिला शाहजहाँपुर, कुँवर राम सिंह सांगानेर - मनोहरपुरा जयपुर ने बैअत की।
Friday the 10th April 1931 :
कृष्ण स्वरुप भोगांव से वापस आये और फिर कानपुर चले गए। ग्वालियर को नौ रुपये का और उन्नाव तीन रुपये का मनीऑर्डर किया गया।
Saturday the 11th April 1931 :
आज तबीयत पाहिले के मुक़ाबिले अच्छी मालुम होती है। वक़ील साहिब [कुँववर कृष्ण नरायन सेन] ने आज फ़िर फ़ायदा हाँसिल करने के लिए कहा। कुँवर राम सिंह जयपुर वापस चले गए। और शाहजहाँपुर के लोग भी वापस गए।
Sunday the 12th April 1931 :
पण्डित रामेश्वर प्रसाद शाहजहाँपुर वापस चले गए।
Monday the 13th April 1931 :
जगमोहन को स्टीमबाथ दिलवाया गया। आज जगमोहन की माँ की तबीयत और दिनों के मुक़ाबिले ज़्यादः ख़राब है। डॉ मक़सूद अली साहिब को दिखलाया गया।
Tuesday the 14th April 1931 :
मुंशी मनमोहन लाल सिकन्द्राबाद को वापस गए। कृष्ण स्वरुप कानपुर से सुबह को वापस आ गए। आज डॉ मक़सूद अली साहिब से अपने पेशाब की जाँच करवाई। उन्होंने शकर का आना बतलाया।
Wednesday the 15th April 1931 :
कृष्ण स्वरुप अजमेर को और मुन्शी आत्मा राम कानपुर को वापस चले गए।
Thursday the 16th April 1931 :
आज मुशगिल [अत्तार] की दवा खाई है। चार-पाँच दस्त आये, तबीयत ज़्यादा साफ़ नहीं हुयी। तमाम घर - वाल्दा जग्गू [जगमोहन नारायन], बिट्टन, बब्बन, बीमार पड़े हैं।
Friday the 17th April 1931 :
आज से दवा डॉ सय्यद मसूद अली की इस्तेमाल की गयी। मगन बिहारी लाल के यहाँ बरसी की दावत है। माता चरन आये। बब्बन को आज बहुत ज़ोर से बुख़ार है। तमाम रात बेचैनी रही।
Saturday the 18th April 1931 :
मुझ को आज दौरा हरारत का फ़िर से हो गया। मगर हल्का। रात को बेचैनी रही और नींद नहीं आयी। राम किशन और राम गोपाल आये। राम गोपाल की बीबी चली गयीं।
Monday the 20th April 1931 :
राम किशन और राम गोपाल चले गए। कुछ खाना नहीं खाया गया। कुछ झगड़े की बातें घर के अंदर अंदाज़ से मालुम हुईं। हालाँकि मुझसे कहा नहीं गया। मगर ऐसा ख़याल हुआ।
Tuesday the 21st April 1931 :
दिल को निहायत सदमा है कि हमारे यहाँ इस क़िस्म के सवालात और बातें दरपेश हैं। जिनके हम लोग दूसरों के वास्ते मना करते हैं में अपनी कमज़ोरी है वर्ना अल्लाह पाक ने जुमला नियामतों से मालामाल कर दिया है । कमज़ोरी ज़्यादा है।
Wednesday the 22nd April 1931 :
बाबू राम चरन लाल एक्सपर्ट मुरादाबाद से अपना हाल कहा। बाबू दया शंकर वक़ील के यहाँ लड़के का मुण्डन था। आज दवा डॉक्टर साहिब की नहीं खाई। आज शाम को सात मिनट तक 'बाथ' लिया गया। बहुत फ़रहत [आनन्द] और ताक़त मालुम हुयी।
Thursday the 23rd April 1931 :
भजनी और उपदेशक लोग कमरे में आ कर ठहरे हैं।
Friday the 24th April 1931 :
आज मुंशी मनमोहन लाल साहिब और डॉ श्री कृष्ण आये। आज नगर कीर्तन था।
Saturday the 25th April 1931 :
आज सुबह पंडित रूद्र दत्त जी का व्याख्यान है। स्वामी सत्यव्रत जी से मुलाक़ात हुयी। मुंशी मनमोहन लाल शाहजहाँपुर गए। जलसा आर्यसमाज का था। जगमोहन की दुल्हन को एक दाई को दिखलाया गया। जो चुंगी की मुलाज़िम है।
Sunday the 26th April 1931 :
जलसा आर्यसमाज का था।
Monday the 27th April 1931 :
जलसा आर्यसमाज का है। श्री किशन सिकंदराबाद वापस गए। मुंशी मनमोहनलाल शाहजहाँपुर से वापस आये। जलसा ख़त्म हो गया।
Saturday the 02nd May 1931 :
आज 'गार्डलाइन' में दावत थी। मगर नहीं जा सका। सुना गया है कि नारायण स्वामी लखनऊ से आये हैं। पार्सलघर [के पास] गार्डलाइन में नारायण स्वामी का लेक्चर सुना गया।
Sunday the 03rd May 1931 :
आज शाम फतेहगढ़ में नारायण स्वामी का लेक्चर सुना गया।
Monday the 04th May 1931 :
आज सुबह 07.00 बजे बा हमराही मुन्शी मनमोहन लाल जी व सुशीला वग़ैरह के सिकन्द्राबाद [ज़िला बुलन्दशहर] की तरफ़ रवाना हुए। 11.00 बजे शिकोहाबाद पहुँचे। 01. 45 पर शिकोहाबाद से रवाना हए। 06.00 बजे शाम को शाम को पहुँचा। किसी क़िस्म की कोई तक़लीफ़ नहीं हुयी।
Tuesday the 05th May 1931 :
मुंशी मसूद आलम साहिब 'तबीब' को दिखाया गया। आज रोटी रग़बत से [दिलचस्पी ले कर] खाई गयी।
Wednesday the 06th May 1931 :
मुंशी महमूद अली 'तबीब' को दिखलाया गया। यूनानी [इलाज] भी शामिल किया गया।
Thursday the 07th May 1931 :
आज दिन में कई मर्तबा दौरा दर्द का, दाँत और सिर में हुआ। मगर हल्का। बाबू सूरज प्रसाद उरई का ख़त आया है कि अभी शादी की तारीख़ ठीक नहीं है। बलग़म और खाँसी का ज़ोर रहा।
Friday the 08th May 1931 :
आज शाम को वाल्दा-सुशीला [लालाजी की धर्मपत्नी] की दावत भजनलाल के यहाँ थी। वहाँ जा कर खाने की बेतरतीबी को देखा गया और एतराज़ किया गया। हक़ीम साहिब ने आ कर नब्ज़ देखी।
Saturday the 09th May 1931 :
आज से श्रीकृष्ण के यहाँ उठकर आ गया। और खाना खाया। इलाज 'टब' का शाम से बंद किया गया। आज भी हकीमसाहिब ने आ कर नब्ज़ देखी।
Sunday the 10th May 1931 :
आज पेट [stomach] यानि जिगर [liver] पर लेप [a medical plaster] रक्खा गया। दो-तीन दस्त पतले आये। रामायण समझाना शुरू किया गया।
Monday the 11th May 1931 :
आज सुबह आठ बजे दिल्ली को रवाना हुआ। रायसाहिब दयाशंकर के यहाँ गया। वहाँ से फ़िर तिब्बिया कॉलेज को गया। और विश्वास बाबू को दिखलाया गया। फ़िर होटल में जा कर मथुरा के ज़दीद [आधुनक] आदमियों और औरतों से मुलाक़ात हुयी। शाम को वापस आ गया। बाबू भगवत प्रसाद साथ आये।
Tuesday the 12th May 1931 :
आज जगमोहन का ख़त आया है। दिल्ली की दवा इस्तेमाल करना शुरू की। जगमोहन के ख़त जवाब दे दिया गया। बाबू श्यामलाल वापस गए।
Friday the 15th May 1931 :
आज पण्डित काशीनाथ मेरठ से और बाबू राजेंद्र कुमार आगरा से आये। आज खाना नहीं खाया गया।
Saturday the 16th May 1931 :
आज श्रीकृष्ण व महादेव स्वरुप व बाबू भजनलाल व डॉ श्यामलाल दिल्ली मोटर ख़रीद करने गए हैं। आज नहाया गया क्योंकि डॉक्टर साहिब दिल्ली इजाज़त का ख़त भेज दिया गया था।
Sunday the 17th May 1931 :
आज सुबह मोटर में मय शीला वग़ैरह के बिठला कर डॉ श्यामलाल ने शुरुवात की। और पाँच रुपया नज़राना दिया। मौलवी मुश्ताक़ अहमद हेडक्लर्क चंगी मिलने को आये। और अपनी एक किताब दे गए।
Monday the 18th May 1931 :
आज दिन भर खाना नहीं खाया गया और भूँख नहीं लगी । सुशीला को आज चौथा रोज़ बुख़ार का है कि नहीं उतरा है और गलासुए निकल आये हैं। मौलवी मुश्ताक़ अहमद मय एक हाफ़िज़ साहिब मिलने आये। कन्हैयालाल का ख़त इलाहाबाद [परिवर्तित नाम - प्रयागराज] से आया।
Tuesday the 19th May 1931 :
मुकुन्द स्वरुप के साथ दिल्ली गया। मुअज़्ज़मदार जी को दिखलाया गया। शाम को वापस आया। तेज़ हवा की वजह से बहुत तक़लीफ़ हुयी। खाना बिलकुल दो रोज़ से नहीं खाया जाता है। हेडमास्टर साहिब मेरठ वापस चले गए। बाबू श्यामसुन्दर भान्जा मुन्शी शिवशंकर लाल से मुलाक़ात हुयी।
Wednesday the 20th may 1931 :
तबीयत [state of health] निहायत [exceedingly] ख़राब [spoiled] है। डॉ शम्भू प्रसाद को दिखलाया गया। तमाम हालात उनसे दरियाफ़्त किये। दस्त साफ़ नहीं आया और न खाना खाया गया ।
Thursday the 21st May 1931 :
आज भी दस्त [motion = मल-त्याग] साफ़ नहीं आया और न खाना खाया गया। दिल्ली का इलाज तर्क [छोड़ना = बंद] कर दिया गया, और वक़्त शाम बुलन्दशहर आ गया। डॉ चुन्नीलाल को दिखलाया गया।
Friday the 22nd May 1931 :
आज इलाज डॉ चुन्नीलाल का शुरू किया गया। सिर्फ़ फ़ल और दूध बतलाया। आज तबीयत अच्छी रही।
Saturday the 23rd May 1931 :
बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर राजेंद्र कुमार] का खत आया कि आगरा आ जाओ। मगर वहाँ के डाक्टर साहिब और यहाँ के डॉक्टर की राय मुताबिक़ पडी। इसलिए जाना मुल्तवी [स्थिगित] किया गया।
Sunday the 24th May 1931 :
आज सुबह साढ़े पाँच बजे बहमराही महादेव स्वरुप कार पर रवाना हुए। अलीगढ़ में बाबू गौरीशंकर व केदारनाथ से मुलाक़ात हुयी फ़िर एटा रवाना हुआ। दस बजे एटा पहुँचा। सब से मुलाक़ात हुयी। दिन और रात में क़याम किया।
Monday the 25th May 1931 :
सुबह 05.30 बजे फ़तेहगढ़ की तरफ़ रवाना हुआ। सुबह 09.00 बजे फ़तेहगढ़ पहुँच गया। गुसाईंजी [गोस्वामी जी] व गँगाभारतीजी ठहरे हुए मिले। भोगावं में मौलवी आविद अली साहिब से और वैद्य जी से रास्ते में मुलाक़ात हुयी। दस बजे इलाहबाद [परिवर्तित नाम - प्रयागराज] से तीन औरतें और बाबू गंगासहाय याकूतगंज से आयीं। उनको उपदेश दिया गया।
Tuesday the 26th May 1931 :
आज 'गंगास्नान' [का पर्व] है। आज से 'टब-बाथ' लेना फ़िर शुरू किया गया। आज फिर वोह औरतें आईं, उनको उपदेश किया गया। बाबू रामकुमार सॉर्टर [sorter] आर ऍम एस - कासगंज, और बाबू भजनलाल मय असबाब के आये। इलाहाबाद की औरतों ने रूपया 04/- बब्बन [लालाजी की द्वितीय पुत्री - सुश्री कृष्णा कुमारी उर्फ़ बब्बन] को दिए।
Wednesday the 27th May 1931 :
कोई ताज़ा बात नहीं। रामकिशन लाल भोगावं से आये। आज कल गुसाईंजी, सुन्दरलाल, पुत्तूलाल, रामकिशन, उमाशंकर और भजनलाल मौजूद हैं।
Thursday the 28th May 1931 :
रामकिशन लाल वापस गए। मुंशी जीवा राम और रुद्रसेन जी मैनपुरी से आये। रात को थोड़ा दलिया [coarsely ground grain] खाया। महेश्वर सहाय उर्फ़ मस्सू भोगांव से आये और अपने घर का वाक़्या बयान किया। इलाज होम्योपैथिक बंद कर दिया।
Saturday the 30th May 1931 :
आज टब-बाथ गरमा [steam-tub bath] लिया गया। मुंशी जीवाराम और गुसाईंजी वापस गए। शाम को नन्हें वग़ैरह मय मस्तूरात के उरई से वापस आये। कानपुर में सोराइसिस [Psoriosis] फ़ैल गयी है इस लिए शहर में दखिल नहीं हुए।
Sunday the 31st May 1931 :
आज जगमोहन वास्ते शिरक़त शादी एटा - भोगांव हो कर गए ताकि मुंशी [लालाजी के सगे छोटे भाई महात्मा रघुबर दयाल जी साहिब के मझले बेटे - महात्मा राधा मोहन लाल] को कानपुर जाने से रोक देवें। बाबू हरप्रसाद फुलैरा [राजस्थान] से आये।
Monday the 01st June 1931 :
बाबू हरप्रसाद वापस गए। बरात एटा जगत नरायन पिसर [आत्मज] रामपूरन दास की है।
Tuesday the 02nd June 1931 :
नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] मय 'ज्योती' [महात्मा ज्योतिन्द्र मोहन लाल] के फतेहपुर हँसुआ [इलाहाबाद के पास] 'अनन्दे' [बाबू आनन्द बिहारी लाल] की बरात में गए। दोपहर में पेन्शन [Pension] लाया।
Thursday the 04th June 1931 :
आज स्टीम-बाथ लिया गया। जगमोहन एटा से वापस आये। ग्वालियर [संभवतः लालाजी के गुरुदेव के पुत्र के परिवार के लिए] को दस रुपये का मनीऑर्डर किया गया।
Friday the 05th June 1931 :
आज तीन मर्तबः टब-बाथ लिया गया। बारात अनन्दे की फतेहपुर से वापस आयी है। पार्सल उरई को किया गया।
Saturday the 06th June 1931 :
बीस रुपये का मनीऑर्डर उरई से आया। पिंडोल [ yellow or white soil used to smear or wash the walls of the houses] का प्लास्टर पेट पर किया गया।
Sunday the 07th June 1931 :
आज भजनलाल सुबह को वापस सिकन्द्राबाद [जिला - बुलन्दशहर] गए। आज रात को मुन्शी मनमोहन लाल साहब सिकन्द्राबाद से आये। बाबू रतनलाल [श्री आनन्दबिहारी लाल उर्फ़ अनन्दे के पिता जी, जो कि महात्मा श्याम बिहारी लाल - फतेहगढ़ के सगे बहनोई भी थे] के यहाँ 'गार्डन-पार्टी' [उनका यह बाग़, मौजूदा वक़्त की छोटी-जेल चौराहा और महात्मा श्याम बिहारी लाल जी की 'समाधि' तक उस समय में स्थित था] थी।
Monday the 08th June 1931 :
मैनपुरी से नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल जी] ने ख़रबूज़े भेजे हैं। मुन्शी सुखवासी लाल ने रूपये 10/- का मनीऑर्डर भेजा है। ख़ानबहादुर अब्दुल हमीद ख़ान साहिब तशरीफ़ लाये।
Tuesday the 09th June 1931 :
आज सुबह को कमज़ोरी ज़्यादः रही और वरम [सूजन] के स्थान पर छूने से कभी-कभी दर्द सा होता है, तबीयत गिरी-गिरी सी हुयी है । नन्हें [महत्मा रघुबर दयाल] मय बच्चों के और मुंशी आत्माराम के कानपुर तीन बजे रात को चले गए।
Wednesday the 10th June 1931 :
मुंशी मनोहन लाल सिकन्द्राबाद [जिला - बुलन्दशहर] वापस गए। अयोध्या नाथ सहाय [लालाजी के साले साहिब, जिज्जी श्रीमती बृजरानी के सगे छोटे भाई] बरेली से शिरक़त बारात बिश्वम्भर नाथ [उपनाम बिस्सू बाबू, उनके छोटे भाई के बेटे] के लिए आये। बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर साहिब] कानपुर से आये। बाबू शिवशंकर लाल की बारात बारात गए। मौलवी अब्दुलग़नी खां साहिब भोगांव [जिला - मैनपुरी] से तशरीफ़ लाये।
Friday the 12th June 1931 :
रायसाहिब इन्द्रनारयण - सकीट [लालाजी की धर्मपत्नी के सगे ममेरे भाई, जिनके घर पर रहकर वे बचपन से शादी तक पलीं-बढ़ीं थीं] रात को मिलने को आये। सुबह को शशि मुकुट नारायन पटियाली से [लालाजी के बेटे महात्मा जगमोहन नरायन की प्रथम पत्नी के पिताजी] मिलने को आये।
Saturday the 13th June 1931 :
राम गोपाल [लालाजी की पत्नी के भाई के दामाद, जो कि उनके बैअतशुदा शिष्य भी थे] छिबरामऊ से आये और वापस गए। अयोध्या नाथ सहाय वापस गए। बाबू राजेंद्र कुमार आगरा को वापस गए। ठाकुर तेजसिंह आये।
Sunday the 14th June 1931 :
जगमोहन बारात वास्ते शामिल होने नन्हेंबाबू के लड़के की गए। महाराज नरायन [लालाजी की द्वितीय पुत्री कृष्णाकुमारी के पतिदेव] बुलन्दशहर [अपने घर] गए। दीनानाथ आये और उनके हमराह पिसर रघुनन्दन लाल सबइंस्पेक्टर साकिन मौजा भवानीप्रसाद वास्ते हुसूल [प्राप्ति] तालीम के आये । आज रात में बवासीर ज़ोर कर आयी है।
Monday the 15th June 1931 :
आज शिव वरन को तवज्जः दी गयी, असर हुआ। शाम को भी तवज्जः दी गयी, असर अच्छा हुआ।
Tuesday the 16th June 1931 :
आज फ़िर तवज्जोः दी गयी। आज रातभर निहायत दर्द रहा। तमाम रात नींद नहीं आयी और तबीयत बेचैन रही । तौला [copper or earthen vessel for measuring out liquids] में भरकर आया।
Wednesday the 17th June 131 :
जगमोहन बरात से वक़्त शाम वापस आये। आज तबीयत ठीक रही और दर्द नहीं हुआ।
Thursday the 18th June 1931 :
बाबू कन्हैया लाल [लाला जी के साढ़ू = co-brother, wife's sister's husband] मय-बच्चों के मैनपुरी से आये। बाबू शम्भूनाथ वकील की लड़की जो जमुनास्वरूप की सास है, मय बच्चों के फ़र्रुख़ाबाद से आयी। बाबू अवधबिहारी इलाहाबाद वाले अपने घर से आये। श्रीगोपाल ढर्रा से आये।
Friday the 19th June 1931 :
बाबू कन्हैयालाल वापस चले गए। श्रीगोपाल दास गए। स्टीम-बाथ लिया।
Saturday the 20th June 1931 :
पण्डित शिवनारायन उर्फ़ गाँधीजी कानपुर से आये।
Sunday the 21st June 1931 :
आज खाना बहुत कम खाया गया।
Monday the 22nd June 1931 :
पण्डित शिवनरायन मास्टर [गाँधीजी] कानपुर दस बजे सुबह वापस गए। फ़र्रुख़ाबाद की लड़की यानि जमुना स्वरूप की सास वापस चली गयी। खाना नहीं खाया गया। दिमाग़ी तक़लीफ़ ख़ानगी [निजी, घर-गृहस्थी से सम्बंधित] से हालत मेरी कमज़ोर [mental-boggling] है।
Tuesday the 23rd June 1931 :
आज बाबू राम चन्द्र शाहजहाँपुर से आये और फ़ल [fresh-fruits] लाये । आज फ़लों का इस्तेमाल ज़ियादा किया गया। दोपहर में गरम पानी और कपड़े से सेंका [fomenting] गया। एटा से एक ख़त गोवर्धनदास [लालाजी की पुत्रवधू सुश्री भगवतीदेबी के फुफेरे-भाई ] का निस्बत रुख़सत [दुल्हन की विदाई से सम्बंधित] आया और जवाब फ़ौरन दिया गया।
Wednesday the 24th June 1931 :
आज सुबह को पेशाब जर्द [पीले रंग वाला] रंग का आया जिसमें सुर्ख़ी और हरारत कम थी । दोपहर को पिण्डोल की गरम-पट्टी इस्तेमाल की गयी। रात को तीन बजे पंडित रामनरायन गार्ड बुलन्दशहर से आये। पार्सल लीची [litchi] का देहरादून से आया और [एक] पार्सल फ़लों का लखनऊ से आया ।
Thursday the 25th June 1931 :
माता चरण, राम चन्द्र, राम नरायन गार्ड, श्यामा मौजूद हैं। आज फ़िर गरम पानी से सेंका गया। दस रुपये का मनीऑर्डर सीताराम लखनऊ ने ख़ैरात फण्ड का भेजा है। बाबू राम गोपाल बरेली से आये।
Sunday the 28th June 1931 :
आज से शरबत तुख़्म काशायी [a Tibbiya medicine] का इस्तेमाल किया गया। माता चरन वापस गए। एक ख़त रियासत रामपुर को वास्ते 'सवालहै उमरी' [A Persian Book] के रवाना [dispatched] किया गया।
Wednesday the 01st July 1931 :
आज बाथ [टब-बाथ] का नाग़ः [ग़ैरहाज़िरी = adjourn] किया गया। बाबू अवध बिहारी लाल इलाहबाद जाने के वास्ते अपने घर से आये।
Thursday the 02nd July 1931 :
[Went, himself to draw His last pension during life-time.]
पेंशन वसूल [collect] करने गया। आज शाम को टहलने गया। रास्ते आँधी-पानी आ गया। अब्दुल रहमान खान साहिब वक़ील के यहाँ नौ बजे रात तक बैठा रहा। बाबूराम वग़ैरह फ़र्रूख़ाबाद से आये। जगमोहन की छत [roof-top] पर [लालाजी के पुत्र जगमोहन के कमरे के सामने खुली जगह में] रात को सोया।
Friday the 03rd July 1931 :
खूब ठण्डा रहा। बावज्अ [जो अपनी वज्अ का पाबन्द हो = के कारण ीi. e. on account of] कमज़ोरी के टहलने न जा सका। ग़ालिबन [probably] पेशाब में 'रेशः' [तंतु = fiber] आ रहे हैं। इस वजह से कमज़ोरी है। बाबू उमाशंकर और बाबू बसन्त लाल कासगंज से आये हैं। कालेश्वर प्रसाद की लड़की आयी हुयी है। बारिश खूब हुयी।
Saturday the 04th July 1931 :
आज भी कमज़ोरी ज़्यादः है। पेशाब निहायत सुर्ख़ आता है। बारिश खूब हुयी। बाबू भजन लाल कानपुर से आये। कालेश्वर प्रसाद की लड़की [भगवती] को उपदेश किया गया। मगर उनको कोई असर नहीं हुआ।
Sunday the 05th July 1931 :
बावज्अ बारिश के दोनों वक्त टहलने न जा सका। लखनऊ से फ़ल रामेश्वर प्रसाद ने भेजे हैं I
Monday the 06th July 1931 :
आज भी सुबह को बारिश हो रही है। बाहर नहीं जा सका। श्यामलाल के 03 जुलाई को लड़का पैदा हुआ। और पेशकारसहिब के लड़का पैदा हुआ। रात में मुझको बुख़ार बहुत ज़ोर से आ गया और पेट नफ्ख [फूल] हो गया कि तमाम रात किसी तरह चैन नहीं पड़ा।
Tuesday the 07th July 1931 :
आज भी बुख़ार है। सच्चिदानन्द ने ‘टब-बाथ’ अपने हाँथ से मुझको दिया। बीस रूपये उरई से आये। शाम को पाखाना पतला आया और साफ़ आया। रात में बुख़ार बहुत पसीना आ कर उतर गया।
Wednesday the 08th July 1931 :
आज कमज़ोरी बहुत ज़्यादः है।
Thursday the 09th July 1931 :
आज कोई ख़ास बात नहीं हुयी। पेट की हालत ऐसी रही कि जिससे साँस लेने में तक़लीफ़ रही। शाम को थोड़ा टहलने गया।
Friday the 10th July 1931 :
आज सवानिहे-उम्री [जीवनी] - हज़रत नुजद्दिद अल्फसानी रहमत0 की दो रुपये सात आने की आयी। बीस रूपये का मनीऑर्डर बाबू दिलाराम ने भेजा और दस रूपये ख़ैरात [charity] के भेजे हैं। आज पेशकार साहिब के यहाँ 'छठी' [the sixth day after the birth of a child, when ceremonial observances, including the naming of the child are performed] थी। रात को सब औरतें वहाँ गयीं थीं।
Saturday the 11th July 1931 :
आज टब-बाथ नहीं लिया गया।
Sunday the 12th July 1931 :
आज भी टब-बाथ नहीं लिया गया। बाबू उमाशंकर कासगंज और पण्डित रामेश्वर प्रसाद शाहजहाँपुर से आये। लाला गोवर्धन दास [लालाजी की पुत्रवधू - सुश्री भगवती देवी के फुफेरे भाई] एटा से वास्ते रुख़सत कराने आये। रात को [उन्होंने भी] खाना खाया। शाम को नुस्ख़ा-यूनानी इस्तेमाल किया गया।
Monday the 13th July 1931 :
सुबह को मुन्शी गोवर्धन दास और बाबू उमाशंकर वापस चले गए। रुख़सत [पुत्रवधू की विदा] नहीं हुयी। आज सुबह भी नुस्ख़ा यूनानी लिया गया। रामकिशन लाल भोगावं से आए।
Tuesday the 14th July 1931 :
पेशकार साहिब के घर में [उनकी पत्नी] ज़्यादह बीमार हैं। तमाम दिन खाना नहीं खाया गया क्योंकि यूनानी नुस्ख़े मेदा फुला दिया। रामकिशन लाल वापस चले गए। पुत्तू लाल मुदर्रिस [अध्यापक] आये।
Wednesday the 15th July 1931 :
पुत्तूलाल और अहिबरन सिंह वापस गए। आज पिंडोल की पट्टी रक्खी गयी। डॉ. चतुर्भुज सहाय व बाबू अवधबिहारी लाल एटा से आये।
Thursday the 16th July 1931 :
आज दोनों वक़्त टब-बाथ लिया गया। शाम को बाथ के बाद ताक़त आ गयी। बाबू अवधबिहारी लाल वापस चले गए।
Friday the 17th July 1931 :
आज से डॉ चतुर्भुज सहाय ने होम्योपैथिक दवा इस्तेमाल कराई। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] कानपुर से, मुंशी मदनमोहन लाल तिलहर से व बाबू बिशन दयाल मुख्त्यार तिलहर से व करुणाशंकर शाहजहाँपुर से आये। कमज़ोरी कल के मुक़ाबिले आज ज़्यादः है। रात को पेट नफ्ख [फूल] हो गया।
Saturday the 18th July 1931 :
बाबू महाराज नारायण अग्रवाल कानपुर से आये। और शाम को वापस चले गए। दिल्ली से फ़ल आये। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] फ़र्रुख़ाबाद चले गए।
Sunday the 19th July 1931 :
आज डॉ चतुर्भुजसहाय और जगमोहन मय अपनी दुल्हन [पत्नी] के एटा को गए। रात भर नींद नहीं आई। पेट फूल गया। आज कमज़ोरी बहुत ज़्यादः है। श्यामलाल बुलंदशहर से आये। पेशकार साहब के यहाँ दष्ठौन है। मुंशी मदनमोहन लाल और बिशुनदयाल वापस शाहजहांपुर गए।
Tuesday the 21st July 1931 :
जगमोहन मय दुल्हन व डॉ चतुर्भुजसाय की बीबी के एटा से वापस आये। रात को और दिन में कई मर्तबा पेट फूला। रात को पानी बहुत बरसा।
Wednesday the 22nd July 1931 :
रामप्रसाद दिल्ली से वापस आये और 'टब' सिकन्द्राबाद से लाये । रात को बेक़रारी [बेचैनी] बहुत रही। और मच्छरों ने बहुत काटा। तमाम दिन पानी बहुत बरसा है। मनीऑर्डर ग्वालियर उन्नाव और सिरसागंज के लिए किये गए।
Thursday the 23rd July 1931 :
आज तमाम दिन नफ्ख [पेट फूलता] रहा। रामेश्वरप्रसाद शाहजहाँपुर वापस चले गए। रात को नींद 12.00 बजे तक काम आयी। फिर नफ्ख [पेट का फूलना] काम हो गया। और सुबह तक सोता रहा।
Friday the 24th July 1931 :
आज छोटेलाल डॉक्टर की बीवी [Popularly named as 'Kaalee mem'] देखने को आईं। उन्होंने वर्म-जिगर [जिगर की सूजन] तज़बीज़ किया। तमाम रात निहायत दर्ज़ा गर्मी रही। बहुत बेचैनी रही। रात भर नहीं सोया और मच्छरों ने काटा।
Saturday the 25th July 1931 :
खाना बहुत कम खाया गया है। पेट की सूजन बहुत ज़्यादः है। रात को नींद नहीं आयी।
Sunday the 26th July 1931 :
आज मैनपुरी का एक लड़का जो बोर्डिंग [छात्रावास] में रहता है आया। सुबह को कमज़ोरी ज़्यादः है, टहलने को नहीं गया। बाबू उमाशंकर और उनके रिश्तेदार सॉर्टर [sorter in RMS] और चले गए। करुणाशंकर वापस शाहजहाँपुर गए। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] रात को तीन बजे कानपुर चले गए। तमाम रात गर्मी की वजह से नींद नहीं आयी।
Monday the 27th July 1931 :
डॉक्टर साहिब बाबू पुरुषोत्तम दास [डॉ वत्सल] फतेहगढ़ व बाबू जगन्नाथ प्रसाद वकील देखने को आये। आज हवा अच्छी चलती रही। और रात में नींद भी अच्छी आयी। उन्होंने [डॉ वत्सल] 'गोमा' तज़बीज़ [diagnosed] किया है।
Tuesday the 28th July 1931 :
बाबू श्रीकृष्ण [डॉ श्रीकृष्ण लाल - सिकन्द्राबाद वाले] व श्याम लाल [ डॉ श्याम लाल - ग़ज़िआबाद वाले] शाम को एटा से आये।
Wednesday the 29th July 1931 :
आज सुबह 05.00 बजे कार पर मय [together] श्रीकृष्ण व श्याम लाल के रवाना हुआ। 09.30 बजे कानपुर पहँचे। बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर साहिब] मुक़ीम [साथ में ठहरे] हुए। बाबू हरिकृष्ण प्रोफ़ेसर - फ़ारसी [Persion] से मुलाक़ात हुयी। क़याम कानपुर रहा। माताचरन व प्रसाद [राम प्रसाद] रेल से आये।
Thursday the 30th July 1931 :
आज सुबह 07.00 बजे लखनऊ को रवाना हुआ। कानपुर से ही बारिश शुरू हो गयी। और लखनऊ तक बराबर बारिश हुयी। तमाम भीग गए। राम प्रसाद और माताचरन व ज्योतिबाबू रेल आये। आज डॉ ग़ुप्ताजी को दिखलाया गया।
Friday the 31st July 1931 :
पेशाब का इम्तहान कराया गया। डॉ प्यारे लाल जी को दिखलाया गया। धर्मशाले से उठ कर आ गए। आज रात को पेट नहीं फूला।
Saturday the 01st August :
डॉ प्यारे लाल जी सुबह को फिर देखने को आये। और दवा आज से शुरू की गयी। आज सुबह ही से पेट फूला है। 'Syphilinum' 200 एक डोज़ दी गयी। बाबू राम चन्द्र, रामेश्वर प्रसाद व बाबू श्री राम शाहजहाँपुर से आये।
Sunday the 02nd August 1931 :
Antimonium Tartaricum 200 एक डोज़। आज रात में अफ़ारा ज़्यादः रहा। और नाभि के नीचे दर्द रहा। आज सुबह से नफ्ख [पेट फूला] है और पेट बहुत फूला है। तमाम दिन और तमाम रात निहायत तक़लीफ़ रही। रयाः खारिज नहीं हुए और पेट फूल गया। रात को दो गोइयाँ जुलाब की दी गयीं। मगर कोई दस्त सुबह को नहीं आया। और पाख़ाना बिलकुल सख़्त हो गया। बाबू श्रीपत सहाय और बृजबिहारी लाल मैनपुरी से आये।
Monday the 03rd August 1931 :
आज सुबह को पाख़ाना बिलकुल खुश्क हो गया। और दस्त साफ़ नहीं आय, बावजूद जुलाब की गोलीयों के। दर्द बहुत कसरत [abundance] से हुआ। पेट फूल गया। साढ़े दस बजे दिन सवारी कार लखनऊ से कानपुर को रवाना हो गया। शाम को बक्शी जी को दिखलाया गया। आठ बजे रात को पट्टियों का लेप चढ़ाया गया। रात को आराम रहा। खाना बिलकुल नहीं दिया गया। श्याम लाल वग़ैरह मय कार के चले गए।
Tuesday the 04th August 1931 :
सुबह को कुछ खाना नहीं दिया गया। सुबह बर्फ़ और सिरके के पानी से नहलाया गया। और उसके बाद रात वाली पट्टियाँ चढ़ायीं गयीं। इसके बाद नफ्ख [पेट फूलना] हुआ और पेन्डु में दर्द बहुत शिद्दत के साथ हो गया। तमाम दिन बहुत बेचैन और बेताब रहा। जब गरम पानी से फलालेन से सेंका गया तब दर्द बंद हो गया। और रियाह भी ख़ारिज़ हो गया। पण्डित छोटे लाल वैद्य को दिखलाया गया। उन्होंने 'जलन्धर' की शुरुवात बतलाई। मगर तहक़ीक़ नहीं।
'कम्बलधारी अवधूत संत'
[एक तत्व-विवेचनात्मक अध्यन]
'कंबलधारी-मज्जूब' ; जिसके बारे में आम अवधारणा है, वह एक मुस्लिम फ़कीर थे। एक अध्ययन के स्रोत के अनुसार, वह शायद "मुस्लिम फ़कीर" होने के बजाय एक रोज़िक्रूशन था। रोज़िक्रूशन समाज के व्यक्ति 'गुह्यविद्या' में प्रवीण होते हैं, जो कि पहले-पहल 17 वीं शताब्दी की शुरुआत में इतिहासकारों की जानकारी में आये।
यह आम तौर पर रोज़ क्रॉस के प्रतीक के साथ जुड़ा हुआ है, जो कि "क्राफ्ट" या "ब्लू लॉज" फ्रीमेसोनरी से परे कुछ अनुष्ठानों में भी पाया जाता है। Rosicrucian ऑर्डर पहले और कई आधुनिक Rosicrucian को आंतरिक दुनिया के आदेश के रूप में देखा जाता है, जिसमें महान 'दक्ष' [Adepts] शामिल हैं। जब मनुष्यों की तुलना की जाती है, तो इन विशेषणों की चेतना डिमॉडोड्स की तरह होती है। इस "कॉलेज ऑफ इनविजिबल" को स्थायी रूप से रोसिक्रीकियन आंदोलन के विकास के पीछे स्रोत के रूप में माना जाता है।
Freemasonry एक विश्वव्यापी भ्रातृ संगठन है। सदस्यों को एक नैतिक और आध्यात्मिक प्रकृति दोनों के साझा आदर्शों के साथ और उसकी अधिकांश शाखाओं में, परमात्मा में विश्वास की संवैधानिक घोषणा द्वारा एक साथ शामिल किया जाता है। फ्रेमासोनरी एक गूढ़ समाज है, जिसमें इसके आंतरिक कार्यों के कुछ पहलुओं को आम तौर पर जनता के सामने प्रकट नहीं किया जाता है, लेकिन यह आम तौर पर समझ में आने वाली प्रणाली नहीं है।
ज्ञानवाद विभिन्न रहस्यमय दार्शनिक धर्मों, संप्रदायों और स्कूलों के लिए एक शब्द है जो भूमध्यसागरीय के आसपास कॉमन एरा की पहली कुछ शताब्दियों में सक्रिय थे और मध्य एशिया में फैले हुए थे। ये प्रणालियाँ विशेष रूप से जीवन के केंद्रीय लक्ष्य के रूप में विशेष ज्ञान (सूक्ति) की खोज की सलाह देती हैं। वे आमतौर पर प्रकाश और अंधेरे की प्रतिस्पर्धी ताकतों के बीच द्वंद्वात्मक संघर्ष के रूप में सृजन को चित्रित करते हैं, और भौतिक क्षेत्र के बीच एक चिह्नित विभाजन को प्रस्तुत करते हैं, जिसे आमतौर पर दुर्भावनापूर्ण ताकतों के शासन के रूप में दर्शाया जाता है, और उच्च आध्यात्मिक क्षेत्र से विभाजित किया जाता है। परिणामस्वरूप ये लक्षण, द्वैतवाद, एंटीकोस्मिज़्म और शरीर-द्वेष कभी-कभी ज्ञानवाद के भीतर मौजूद होते हैं। हालांकि, इसमें शामिल परंपराओं में विविधता, सूक्ष्मता और जटिलता है।
सिस्टर इरीना ट्वीडी, [Irina Tweedi],
अब, शायद, "कम्बलधारी-मज़्ज़ूब" द्वारा अभियाचित "मछली" के रहस्य को स्पष्ट करने के लिए सहायक कारण और इसकी अनुपलब्धता की स्थिति में, वह वापस चला जाएगा। इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए अपनाया गया साधन, जानने के लिए हमें, बहुत पीछे के इतिहास को साझा करके, इना [Ina] , पश्चिम सेक्सॉन्स [जर्मनी] के राजा से संबंधित - क्वीन एलिजाबेथ के समय में पोप समर्थकों [Papists] को सम्मानित किया जाता था। इसलिए, नीतिवचन वाक्यांश, वह एक ईमानदार आदमी है, और मछली नहीं खाता है; यह स्पष्ट करने के लिए कि वह सरकार का मित्र है और प्रोटेस्टेंट है। एक धार्मिक खाते में खाये वाली मछली, फिर पॉपरी [धर्माध्यक्षता] का ऐसा बिल्ला [badge] लगाया जाता है, कि जब संसद के कार्यों के लिए एक मौसम का आनंद लिया जाता है, तो मछली शहरों के प्रोत्साहन के लिए, कारण घोषित करना आवश्यक समझा गया; इसे सेसिल व्रत [Cecil Vrat] कहा जाता था। ”- वार्बर्टऑन।
वारबटन ने जिस अधिनियम का उल्लेख किया वह एलिजाबेथ के पांचवें वर्ष, 1562, कैप में पारित एक क़ानून था। वी। "नौसेना के रखरखाव के लिए पॉलिटिक को छूना," संप्रदाय। –XIV.- XXIII। इस अधिनियम के पंद्रहवें खंड में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति सामान्य मछली-दिनों में मांस खाता है,
"हर बार जब वह या वे अपराध करेंगे, तो तीन पाउंड का त्याग करना होगा; या जमानत या मुख्य आश्चर्य के बिना तीन महीने के करीब कारावास भुगतना पड़ता है ”, यह संभावना है कि अधिनियम में सबसे बड़ी आपत्ति संप्रदाय XIV में आदेश था। : - "यह सेंट माइकल द आर्कहेल की दावत से, हमारे भगवान भगवान 1514 के वर्ष में, प्रत्येक बुधवार को पूरे वर्ष में हर हफ्ते, जो देर से कानूनों या इस क्षेत्र के रीति-रिवाजों द्वारा नहीं किया गया है, का उपयोग किया गया और मनाया गया। एक मछली-दिवस, यहाँ मनाया और रखे जाने के बाद होगा, जैसा कि हर सप्ताह में शनिवार होना चाहिए या होना चाहिए ”।
[The Act to which Warburton refers was a statute passed in the fifth year of Elizabeth, 1562, cap. V. “touching Politick constitutions for the maintenance of the Navy,” Sect. –XIV.- XXIII. The fifteenth section of this Act provides, that any person eating flesh on the usual fish-days,
“ shall forfeit three Pound for for every time he or they shall offend; or else suffer three months close imprisonment without bail or mainprise”, It is probable that the greatest objection to the Act was the order in sect XIV. :- “That from the feast of St. Michael the Archangel, in the year of our Lord god 1514, every Wednesday in every week throughout the whole year, which heretofore hath not by late laws or customs of this realm been used and observed as a Fish-day, shall be here after observed and kept, as the Saturdays in every week be or ought to be”.]
परिशिष्ट [ख]
सत्संगियों के कर्तव्य
नीचे लिखे हुए नियम ख़ालिस-सत्संगियों के वास्ते लिखे जाते हैं। ढुलमुल यक़ीन रखने वालों के लिए नहीं।
[01] इन सत्संगियों का पूरा विश्वास परमात्मा ही पर होना चाहिए। जिस तरह किसी आदमी को किसी चीज़ की तलाश है लेकिन हर जगह माँगने पर भी कोई आदमी उसको वह चीज़ न देवे तो वह निराश हो कर बैठ रहता है, इसी तरह वह हर एक भाई-बंधु, रिश्तेदार, दोस्त, अफ़सर, मातहत और राजा आदि सबसे निराश होकर रहे। यदि कोई उसकी सहायता कर देवे तो वह सहायता परमात्मा की तरफ़ से ख़्याल करे और यह समझे कि परमात्मा ने उसके दिल में, जिसके ज़रिये से मदद मिली है, यह बात दाल दी है कि वह इस तरह मदद कर रहा है। अतः उसको ईश्वर का धन्यवाद् देना चाहिए और उस आदमी का भी दिल से, और जवानी [verbally] कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि उसने ऐसे हुक्म को जो उसको ईश्वर ने दिया, मन्ज़ूर किया और आज्ञा-पालन की।
[02] हर अपने बड़े की इज़त व ताज़ीम [respect] करता रहे और अपने से छोटों के लिए प्यार और उसकी ज़रूरतों को यथाशक्ति पूरा करने की कोशिश करें और उसके क़सूर [fault (of omission or commission) error, shortcoming] से चश्मपोशी [नज़रअंदाज़]। अपने बराबर वालों के साथ मोहब्बत, हमदर्दी और जायज़ इमदाद। जो लोग मुख़ालिफ़त [विरोध] पर बिलावजह आमादा रहें उनसे बचाव और बेपरवाही, और इस तरह अपने आप को उनसे अलहदा रखने की कोशिश करनी चाहिए, जिस तरह कि दुनिंयाँदार अपने क़र्ज़ख़्वाह से घबराता है या कंजूस अपना रुपया ख़र्च होने की जगह से, लकिन अगर वे मदद चाहें तो उनका काम कर देंना चाहिए और फिर अलग भाग जाना चाहिए। नफ़रत और नुक़सान पहुँचाने और बदला लेने की कोशिश हरग़िज़ नहीं करना चाहिए।
[03] हर-एक आदमी के ऐब को हमेशा छुपाना चाहिए और किसी का भेद अगर मालूम है तो बिना उसकी इजाज़त कभी कहीं ज़ाहिर न करना चाहिए।
[04] अपने कसूर को फ़ौरन मान लेना चाहिए, हठ और ज़िद न करना चाहिए। नुक़्ताचीनी की नज़र से बचते रहना चाहिए। अपना ऐब देखना चाहिए। दूसरों के ऐब की तरफ़ अगर नज़र जाती है तो उस ऐब से खुद सबक़ लेना चाहिए।
[05] किसी के ऐब की बुराई ज़ुबान से नहीं करनी चाहिये, मुमकिन है वही ऐब किसी वक़्त तुम में भी आ जावे ; किसी को बिना जाँच-पड़ताल के दोष नहीं देना चाहिए। यदि रिश्तेदार-खास या अपना लड़का तक बद्चलन हो तो उसका बेजा साथ नहीं देना चाहिए। वर्ना उसको दुबारा करने की शह और मदद मिलेगी। अगर समझाने से न माने तो उसको छोड़ कर अलग हो जाना चाहिए।
[06] बेइज़्ज़ती और बुराई, बुरे चाल-चलन और व्यवहार से होती है। झूठा वायदा करने से बेइज़्ज़ती होती है।
[07] क़र्ज़ लेना सबसे बुरा है, मगर निहायत ज़रूरत के वक़्त लिया जा सकता है। ज़रूरत का मौका सोचने और समझने से मालुम हो सकता है। जो क़र्ज़ नुमायश की ग़र्ज़ से लिया जाता है, उसका अदा [due payment ; as of a debt etc] होना कठिन हो जाता है । अगर मुसीबत और खाने-पीने या लड़की की शादी या अकाल वग़ैरह में लिया जाता है और नियत ठीक रखता है तो ईश्वर उसकी मदद करता है और कभी-न-कभी अदा हो ही जाता है। क़र्ज़ख़्वाह [Debtor] का सामना हमेशा करना चाहिए। मुहँ-छिपाना [to hide the face from] मना है।
[08] नौकर से वह काम लेना चाहिए जिसको तुम करने से बिलकुल मजबूर हो। नौकर बतौर इम्दाद [asststance] के है, न कि ऐशपरस्ती [luxury] का साधन।
[09] मज़दूर की मज़दूरी फ़ौरन अदा कर दो। हीला-हवाला [trickery] करना बड़ी बद-अख़लाक़ी है।
[10] अपने बच्चों को धार्मिक तालीम ज़रूर देना चाहिए।
[11] अपनी बीबी [wife] को किसी तरह हम-ख़याल [like-minded] बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
[12] जहाँ शराब और नशा के साथ नाच-रंग की महफ़िल हो, वहाँ यथा-शक्ति शामिल होने से परहेज़ करना चाहिए और अगर मजबूरन शरीक़् होना पड़े तो इस तरह शरीक़् हों जिस तरह 'सण्डास' [latrine] में वक़्त-ज़रूरत जाना पड़ता है।
[13] गाने के सुनने का अवसर अगर सामने आ जावे तो ऐसा परहेज़ न करें कि लोग ताड़ [perceptive] जावें, कि भागते हैं और रगवत भी न करें और दिल उसमें न लगावें और उसमें आनन्द न लें।
[14] अग़र रिश्तेदार और सम्बन्धी ऐसे कामों को करने पर मजबूर करें जिनके करने से धर्म नष्ट हुआ जाता है तो रिश्ते को, अगर ज़रूरत हो, तोड़ दें। क्योंकि कोई रिश्तेदार, दोस्त और अज़ीज़ वक़्त मुसीबत में मदद तो करता नहीं है और मालदार भी होता है तो भी एक -कौड़ी क़र्ज़ नहीं देता, बल्कि नुक़्ता-चीनी [to carp] और ताना-जनी [ridicule] को हर वक़्त तैयार रहते हैं। नहीं मालूम की फ़िर क्यों उनसे बेज़ा उम्मीदें बाँध कर अपने आप को सत्यानाश लगाते हैं।
सारांश यह है कि 'संतमत' का तरीक़ 'सलामत-रवी' [salvation of integrity] हमददर्दी [sympathy], तस्लीम [acceptance] व रज़ा [contentment] का तरीक़ है। इसमें ईश्वर के ऊपर भरोसा और उसके क़ानून-क़ुदरत के मुताबिक़ अमल करना ही लाज़िमी है।
अनिवार्य कर्तव्य ;
[01] सूर्योदय से पहिले उठना।
[02] शौचादि से निवृत्त हो कर स्नान करना। अगर बीमारी या कमज़ोरी या किसी और ख़ास वजह से स्नान न कर सकें तो भली-प्रकार हाँथ-पैर धो कर 'धोती' [वस्त्र] बदल लें।
[03] जो अभ्यास प्रतिदिन करने को बताया गया है उसको करना। अगर किसी को मालुम न हो तो अपने गुरु से दरियाफ़्त [seek out] कर लें।
[04] यदि कहीं सत्संग होता हो तो वहाँ जाना। अगर सत्संग नहीं होता है तो बतायी हुयी पुस्तकों का पाठ करना।
[05] साँयकाल सूर्यास्त के पश्चात् हाँथ-मुँह धो कर 'संध्या' और 'प्रार्थना' करना।
[06] रात को सोने से पहिले प्रार्थना करना। यदि हो सके तो 12.00 बजे दोपहर और 04.00 बजे शाम को भी प्रर्थना करना।
[07] रात को तमाम बाल-बच्चों आदि के साथ प्रार्थना व भजन करना और किसी बतायी हुयी पुस्तक या रामायण का पाठ करना।
[08] जो अभ्यास बताया गया है उसे हर समय, जब फुर्सत हो, दिन और रात में बराबर करते रहना।
अन्य कर्तव्य
[01] अधर्म की कमाई का खाना अथवा संदिग्ध भोजन करना बहुत बुरा है।
[02] जहाँ तक हो सके सत्संगी के हाँथ का भोजन करना।
[03] भोजन करने से पूर्व उसे ईश्वरार्पण करना। इसकी विधि गुरु से पूँछ लेनी चाहिए।
[04] स्वच्छ स्थान पर भोजन करना।
[05] भोजन सादा और पवित्रता के साथ खाना, परन्तु भूँख से कुछ कम खाना।
[06] भोजन करते समय कम बोलना।
[07] मादक वस्तुओं का सर्वथा परित्याग।
[08] तामसी भोजन [मांसादि] का त्याग।
[09] दावतों में कम जाना और केवल उनके यहाँ भोजन करना जिनका विश्वास हो कि निषिद्ध धान्य [prohibited cereal] नहीं है। यदि विवश हो कर खाना ही पड़े तो उसके बाद व्रत [fast] रखना और पश्चाताप करना।
[10] सप्ताह में एक दिन व्रत [fast] रखना और दिन में किसी धार्मिक पुस्तक का पाठ करना।
[11] किसी का दिल न दुखाना।
[12] किसी की बुराई न करना और ऐसी बात जो उसके सामने न कह सकें, उसके पीछे भी न कहना।
[13] औरों के दुर्गुणों को छिपाना।
[14] यदि किसी मनुष्य को कष्ट में देखो तो उसकी सहायता करना।
[15] किसी आदमी से, चाहें वह कितना भी बुरा क्यों न हो, घृणा न करना। यदि उसके कर्मों से घृणा है तो उसके लिए प्रार्थना करना।
[16] किसी भिखारी को द्वार से न ललकारना [shout], शक्ति के अनुसार जो हो सके वह दें अथवा सहज में मना कर दें।
[17] यदि किसी से कड़ी बात भी कहनी हो तो मुलायम शब्दों में कहना।
[18] स्त्रियों और बच्चों की संगति से बचना।
[19] अपनी धर्मपत्नी के सिवाय किसी अन्य स्त्री के साथ बात-चीत करते समय, किसी अन्य को साथ रखना।
[20] किसी अन्य के माल पर अथवा किसी ग़ैर की स्त्री [पत्नी] की ओर दृष्टि न डालना।
[21] काम क़ीमत, मज़बूत और साफ़ कपड़े पहनना।
[22] पुरुषों को ज़ेबर न पहनना चाहिए। अधिक से अधिक अँगूठी का प्रयोग कर सकते हैं।
[23] अपनी आमदनी का कुछ भाग, सोलहवाँ या इससे भी कम, दान के लिए निकालना। यदि कोई निकट सम्बन्धी हो तो उसको दे देना। यदि कोई ऐसा न हो तो 'सत्संग' में जमा कर देना, जिससे आवश्यकता पड़ने पर किसी सत्संगी-भाई-बहन की सहायता की जा सके। जो रुपया वर्ष के अंत में बच रहे, उसे 'वार्षिक-भण्डारे' में भेंट कर देना, ताकि उससे किसी शुभ-कार्य में सहायता हो सके।
[24] बड़ो का सम्मान, छोटों से प्यार, 'सत्संगियों' से प्रेम व मेल-जोल रखना चाहिए। जिससे तबीयत न मिले उससे सम्बन्ध तोड़ देना चाहिए।
[25] प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक का सम्मान अपने [धर्म-प्रवर्तक] के ही समान करना चाहिए। उनकी वाणी को श्रद्धा और विश्वास के साथ सुनना चाहिए। यदि कोई बात समझ में न आवे तो किसी सत्संगी से अथवा अपने गुरु से पूंछ लें, परन्तु उसे झूँठ न समझें।
[26] यदि किसी धर्म-प्रवर्तक अथवा अपने गुरु की किसी जगह निंदा हो रही हो तो उस स्थान को छोड़ देना चाहिए और ऐसों के कल्याण के लिए प्रार्थना करना।
[27] जहाँ तक हो सके, तमाम सोसाइटियों [societies] से अलग रहना ; किसी सोसाइटी का मेम्बर न होना।
[28] बच्चों को हिंदी ज़रुर पढ़ाना, जिससे धार्मिक किताबें देखने में आसानी हो।
[29] ब्याज न लेना ; और बदर्जा मजबूरी, चार आना [01/16 रुपया] प्रति सैकड़ा माहवार लेना।
[30] जुआ किसी प्रकार का न खेलना।
[31] ताश, चौसर/चौपड़ [a game played by two players with sixteen counters each using three dice, on a cloth or cross-shaped layout] आदि से बचना उचित है।
[32] मुर्दे के साथ जाने की कोशिश करना, धीरे-धीरे चलना और उसके लिए प्रार्थना करते हुए जाना।
[33] किसी सम्बन्धी की मृत्यु पर जोर-जोर से न रोना, वरन उसके लिए प्रार्थना करना।
[34] 'दसवाँ' [prayers or offerings on the tenth day after a death] आदि की रस्में ठीक ढँग से नहीं होतीं और जानने वाले भी कोई बिरले हैं। अतएव, इनसे कुछ लाभ नहीं। जो पुरुष क्रिया-कर्म करे, उसे उचित है कि तेरह दिन तक 'पवित्र' रह कर आत्मा की शांति के लिए 'प्रार्थना' करता रहे। 'दसवाँ', 'तेरहवीं' आदि पर यथाशक्ति दीन-दुखियों को दान करें।
खर्च संबंधी नियम
[01] हर सत्संगी को लाज़िम [आवश्यक=incumbent] है कि हर वक़्त मामूली से मामूली ख़र्च करने से पहिले इन बातों को अपने दिल में ख़याल कर लिया करें - [क] यह ख़र्च किसी ख़ास ज़रूरत की बुनियाद पर है या महज़ रिवाज़ या आदत के दबाव पर ; [ख] या इसमें बेजा नुमायश का अंश तो शामिल नहीं है, या इस काम में किसी भाई/बहन का भी कोई फ़ायदा होता है या बिलकुल शेख़ी और शान [आत्मश्लाधा=boasting] ही है ; [ग] इस ख़र्च का आयन्दा नतीज़ा इस हालत को तो पैदा नहीं करेगा, कि हमारी शांति में ख़लल डाले, या रूहानी-रास्ते में रुकावट पैदा करे। [घ] किसी ख़र्च के करने में धर्म के ख़िलाफ़ या अपने समाज के उसूलों के विरुद्ध तो कोई बात तो पैदा नहीं हुयी जाती है।
[02] अगर किसी सत्संगी की आमदनी और ख़र्च के बाद दस रुपये की बचत है लेकिन क़र्ज़ पहिले से मौजूद है तो उसको ज़रूरत के अलावः किसी ज़ायदाद चीज़ ख़रीदने के वक़्त कम से कम यह ख़्याल होना चाहिए कि सत्संग के उसूलों के ख़िलाफ़ है या नहीं।
ज़रूरत की मिसाल यह है कि बिना उस चीज़ के काम न चले । अगर उसी तरह की चीज़ पहिले से घर में मौजूद है और यह नयी चीज़ कुछ दिनों तक, कतिपय इस्तेमाल में नहीं आएगी तो यह ज़रूरत की चीज़ में दाखिल नहीं है।
[03] मासिक आमदनी का कोई हिस्सा [अंश] ज़रूर अलग निकाल कर रखते रहना चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत के बिना दिक़्क़त काम आ सके।
यह रक़म भाइयों के ज़रूरी कामों की इम्दाद में सर्फ़ [खर्च=expand] होना चाहिए।
"अव्वल शेख़ बादहू दरवेश।"
सत्संगियों की दिनचर्या
[01] सुबह सूरज निकलने से पहिले प्रत्येक मनुष्य उठे।
[02] नौकर की सहायता से प्रत्येक व्यक्ति घर की सफ़ाई करने में लग जाय, कोई झाड़ू लगाए, कोई खाट उठा कर बिछौने को क्रम से तह करके एक ओर रक्खे, कोई अंगौछा ले कर चीज़ों को झाड़े इत्यादि इत्यादि।
[03] सब लोग शौचादि से निवृत्त हो कर हाँथ-मुँह धोएं। अगर स्नान करने की ज़रूरत हो तो स्नान कर लें और सन्ध्योपासना [प्रातःकालीन प्रार्थना] यथाशक्ति सूर्योदय से पूर्व समाप्त करें।
[04] घर में एक विशेष स्थान या एक विशेष कमरा, पूजा के लिए नियत कर लेना चाहिए। इसमें सुगन्धित-धूप सुलगानी चाहिए। कमरे में साफ़ चटाइयाँ बिछा दीं जायँ। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें।
[05] पूजा, प्रार्थना से प्रारम्भ की जावे। एक व्यक्ति पढ़े और सब शेष सभी उसको दोहरावें। चाहें भजन से प्रार्थना की जावे। एक व्यक्ति भजन गावे और शेष सब सुनें। दस मिनट तक तलीन रहें। अंत में फ़िर प्रार्थना की जाय। यह सब कार्य सुबह सात बजे तक समाप्त हो जाना चाहिए।
[06] इसके उपरांत पंद्रह मिनट तक व्यायाम करें।
[07] तत्पश्चात जो कुछ साधारण भोजन हो, उससे थोड़ा जलपान करें।
[08] तत्पश्चात स्त्रियाँ भोजन बनाने के कार्य में लग जावें और सब आपस में मिल कर कार्य समाप्त करें। एक कार्य को दूसरे पर न टालें [टालमटोल = prevarication]। बारी नियत करने के आवश्यकता नहीं है।
[09] पुरुष और लड़के केवल भक्ति-प्रधान धार्मिक-ग्रंथों का स्वाध्याय किया करें।
[10] भोजन बनाने और खाने से जब स्त्रियाँ निवृत हो जायँ तो एक घण्टा तक विश्राम कर लें। एक बजे तक यह कार्य समाप्त होजाय।
[11] फ़िर, स्त्रियाँ घर-गृहस्थी का काम सीना-पिरोना इत्यादि तीसरे-प्रहर, तीन बजे तक करें।
[12] तीसरे-प्रहर, तीन बजे से साढ़े-तीन बजे तक स्त्रियाँ और बच्चे किसी धार्मिक ग्रन्थ का पाठ करें।
[13] तीसरे पहर, साढ़े तीन बजे से भोजन बनाने का काम सब मिल कर आरम्भ करें। इस समय बुहारी [झाड़ू-लगाना] लगाने का काम भी शामिल है।
[14] सूर्यास्त होने के समय स्त्रियाँ और लड़के-लड़कियाँ एक नियत-स्थान पर बैठ कर संध्या-उपासना करें जो आधा-घण्टा से अधिक न हो।
[15] फ़िर, भोजन करके सभी व्यक्ति कुछ टहल कर, बाहर बैठ कर सत्संग करें। पुस्तक सम्बन्धी अथवा मौखिक-वार्तालाप के पश्चात् ध्यानादि में सत्संग करें।
[16] व्यर्थ वार्ता, पर-निंदा या चुग़ली [tale-bearing] कभी न करनी चाहिए।
[17] अधिक से अधिक साढ़े-दस बजे [रात्रि] तक अवश्य सो जाना चाहिए और पुनः, प्रातःकाल साढ़े चार बजे जाग कर उठ जाना चाहिए।
परिशिष्ट [ग]
वर्ष 1928 में फ़तेहगढ़ [उ0 प्र0] में गुडफ्राइडे के 'जलसा-सालाना' [वार्षिक भण्डारे] में दिनांक 06 अप्रैल [शुक्रवार] को परमपूज्य लालाजी साहिब द्वारा दिए गये भाषण का मूल-पाठ।
[786]
ईश्वर का धन्यवाद
बुज़ुर्गाने तरीक़त व ब्रादरान व हमदर्दाने मिल्लत उस ज़ात वाजिबुल वुजूद का लाख-लाख़ अहसान है कि उसने अपने फज़ल अज़ीम से इतनी मुतफ़र्रिक़ हस्तियों को एक वक़्त में और एक जगह जमा कर दिया है।
अगर हम सब फ़रदन इस इकट्ठे होने की ग़रज़ दरियाफ़्त करने लग जायँ तो ग़ालिबन सब के ख़याल इज़हार का तर्ज़ जुदा होगा। मगर जब इस उसूल की जानिब निगाह डालेंगे तो एक ही उसूल उन सब मुख़्तलिफ़ ख्यालों के अंदर छुपा हुआ नज़र आएगा। यह दुनियाँ लम्हे-लम्हें तब्दील पज़ीर है और इसमें तबादिला का क़ानून लगातार सिलसिले के साथ क़ाइम है कि हर मुतनफ़्फ़िस बिल इरादः या बिला इरादः, दानिस्ता या ग़ैर-दानिस्ता इसके शिकंजों में जकड़ा हुआ है। इसमें खिचाव है - सिमटाव है, देना है - लेना है, बढ़ाव है - घटाव है, जाना है - आना है।
लेकिन इसके अलावः हमें एक तीसरी क़ैफ़ियत भी इन सब के अंदर पोशीदः नज़र आती है - हर खिचाव और सिमटाव के साथ 'ठहराव' भी है, बढ़ाव और घटाव के साथ 'सुकून' भी है, आने और जाने के अलावः 'क़याम' भी है। अगर कोई चीज़ पैदा होती है और फ़ना होती है तो थोड़े वक़्त के लीये उसमें 'क़याम' भी लगा हुआ है। मांझी और मुस्तक़बिल निस्बती अल्फ़ाज़ हैं और हाल की क़ैफ़ियत इन दोनों के शामिल और दर्मियानी क़ैफ़ियत है। यह सिफ़ात सिलासा का क़ानून [त्रिगुणात्मक] अपने मौसूफ़ के आधार पर है और उसके सहारे ही रहते हैं। हाँसिल कलाम यह है कि सिफ़ात में तब्दीली है और यह सिफ़ात जिसके आधार और सहारे पर रहती है वह ज़ात है, जिसमें तबदीली का क़ानून अलग रहता है। आप ज़रा ग़ौर करें तो कभी आप खुश और कभी दुःखी, कभी शांत और कभी अशान्त, कभी कमज़ोर कभी ताक़तवर, कभी मुफ़लिस और कभी मालदार, कभी तन्दरुस्त कभी बीमार वग़ैरह वग़ैरह नज़र आते हैं लेकिन जब हम इन दोनों मुख़्तलिफ़ क़ैफ़ियतों को अलहदः अलहदः देखने लग जाते हैं तो हर एक क़ैफ़ियत की तह में दूसरी मुतज़ात क़ैफ़ियत साथ लगी हुयी मालूम होती है। जहाँ खुशी है वहाँ दुःख का ख़ौफ़ मौजूद है। शांति में अशांति वग़ैरह का ख़याल छिपा हुआ मौजूद है और यह मसला बहुत उलझन में डाल देता है लेकिन दरअसल हमारी नज़र का क़सूर है और तलाश और तहक़ीक़ात का तरीक़ा ग़लत है, जिसकी वजह से कभी यह गुत्थी सुलझनें पर नहीं आती है। दरअसल दुःख खुशी का, अशांति शांति का, बीमारी तंदरुस्ती का कमज़ोर और नाक़िस पहलू है। अगर हद से ज़्यादः खुशी होगी तो आंसू निकल आयंगे और ज़्यादः दुःख होगा तब भी रोना आएगा।
नुक़्स और कमज़ोरी साया है अपनी असल का, जुज़वियत नाक़िस है और मुकम्मिल उससे बरी है। कुल्लियत में एतदाल है और जुज़वियत में कमी और बेशी। दरअसल एतदाल की क़ैफ़ियत सुकून की है। और घटाव-बढ़ाव सिमटाव की क़ैफ़ियतें नाक़िस हैं। अगर कोई शै अपनी ज़ाती क़ैफ़ियत से हट गयी तो उससे एतदाल क़ाइम नहीं रहता है। अगर कोई चीज़ बढ़ जाय तो भी नाक़िस और घट जाय तो भी नाक़िस। और जब दोनों क़ैफ़ियतों से हट कर एतदाली क़ैफ़ियत पैदा हो जाय तो अब यहाँ सवाल कमी और वेशी, जज़्बीयत और कुल्लियत दोनों का जाता रहता है और असली सुकून क़ल्ब पैदा हो जाता है। आप आज़मां लें। अगर खुशी हद से ज़्यादः बढ़ जावे तो यही इज़्तिराब [व्याकुलता] नहीं जाता है और आगे बढ़ने का हौंसला रहता है और कमी में भी क़ैफ़ियत इज़्तिराब [व्याकुलता] की है।
आप को मालुम है कि पैदाइश के वक़्त बच्चा फ़ितरत सलीम [शान्त] पर पैदा होता है। इसके बाद उसकी वालिदैन और इर्द-गिर्द की सोसाइटी उसको जो कुछ चाहे, बना देते हैं।
पस हज़रत इंसान की इब्तदाई फ़ितरत सलीम को सोसाइटी, आवोहवा व तालीम और अफ्ऑल [कार्यसमूह या करतूत] ने इस तरह बना दिया है कि वह अपनी असल से हज़ारों कोस दूर जा पड़ा है। तो उसी इब्तदाई फ़ितरत सलीम को फ़िर दोबारा हाँसिल करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। तदबीरें अमल में लानी होतीं हैं। स्कूल, तालीमगाहों में जाना पड़ता है। एतदाली क़ैफ़ियत को, जिसको दुसरे लफ़्ज़ों में अख़लाक़ कहते है, अज़सरे नौ पैदा करने के लिए पहले किताबों से, फ़िर अमल से और फ़िर सोहबत फुकरा [संतों का साथ] और सत्संग से मदद लेने की ज़रूरत पड़ती है।
आज हमारे अहबाब की शिरक़त की ग़र्ज़-ताबादिला ख़यालात हुसूल [प्राप्ति] फैज़ व बरक़त, इज़ाफ़ा, वाक़फ़ियत व आगाही तमन्नाय हुसूले सरूर व आनन्द की हो तो बिला मुबालगा वह ही एक उसूल जिसका ज़िक्र मैंने पिछली सतरों [पंक्तिओं] में किया है इस वक़्त चस्पा और आयद हो जाता है।
इस सोहबत में उसूलन कामिल और नाकिस दोनों ही शामिल हैं। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि हर फ़र्द बशर अगर एक ख़ासियत में नाकिस है तो दूसरी ख़ास सिफ़त [प्रशंसा] में कामिल। खालिस एतदाली क़ैफ़ियत तो ख़ास-ख़ास बन्दों में जिन पर उसका फज़ल व करम हो शामिल और आयद हो सकती है। इस का इल्म तो सिवाय उस ज़ात-पाक के और किसी को हो ही नहीं सकता है और न इसके इल्म की ज़रूरत ही है। यहाँ तो सब नाकिस और कामिल बन्दों की एक जगह जमा हो कर यह ग़र्ज़ है कि उसके फज़ल के उम्मीदवार बनें। दुआएँ करें और अपने तरीक़े से बुज़ुर्गान के वसीले से मदद चाहें ताकि फ़िर अपने खोए हुए अख़लाक़ को दोबारा हाँसिल कर सकें।
साल भर में एक मर्तबा ऐसी कोशिश करना कि जहाँ तक मुमकिन हो सके इस फ़ायदे को हाँसिल करने की ख़्वाहिश रखने वाले अहबाब ज़्यादः से ज़्यादः तादाद में एक जगह पर कोशिश करके जमा हो जायँ, ताकि जो वक़्त ज़द्दोज़हद और तदाबीर में गुज़र गया इसके अलावः ज़्यादः मुफ़ीद और सहलुलवसूल [जो सहज में वुसूल हो जाँय] तदबीरें और ऐसा एहतमाम आयन्दा साल के लिए नियत करें और प्रोग्राम की शक्ल में लायें कि बनिस्बत साल गुजिश्ता के तरक़्क़ी की शक्ल पैदा कर लें। गुजिश्ता कमी और नाकिस तर्ज़ अमल पर अफ़सोस करें। इज़्ज़ियाद [आधिक्य] मोहब्बत के वसीले अख़्तियार किये जायँ।
दुनियावी कारोबार और व्यवहार के सिलसिलों को पारलौकिक तरीक़े के साथ बावस्ता और हम-आहंग होने के तदाबीर सोचें ताकि हमारी पारलौकिक धर्म और तरीक़त की मुरादें मुमिद [सहायक] व मुआविन [मददग़ार] हों और रुकावट न पैदा करें।
आख़िर में बुज़ुर्गान तरीक़त के लिए, जिन की मदद और वसीले से हम को यह इल्म, ज्ञान और यह अवसर प्राप्त हुआ है, दुआ में शरीक हों और उनकी पाक अरबाहों को एक जमात के साथ सबाब पहुंचाने की हिम्मत बांधें।
यह सबब और अगराज हमें जिन की वजह से हम सब लोग इस वक़्त निहायत ख़ुलूस अक़ीदत और मोहब्बत के साथ दूर-दूर से अपना क़ीमती वक़्त, अपना रुपया ख़र्च करके जमा हुए हैं, आने का शुक्रिया अदा किया जाता है। आने का शुक्रिया इस बात के लिए भी अदा किया जाता है कि ज़्यादःतर साहिबान ने मेरे गढ़े हुए फॉर्मों को जैसा जिन साहिबान की समझ में आया जवाब लिख कर मरे पास भेज दिया है ताकि मुझको स्कीम के मुरत्तिब करने में काफ़ी इमदाद व वाक़फ़ियत मिल गयी है।
मुझको उन असहाब के शुक्रिया अदा करने में ग़ुरेज़ नहीं करना चाहिए कि जिन्होंने अब तक फॉर्मों को नहीं वापिस किया क्यों कि उनके उस अमल से यही मुझको काफ़ी मदद इस बात के मालूम करने में मिल गयी है कि उनका शौक़ और मोहब्बत का जज़्बा किस दर्जे की हरारत रखता है। उस फॉर्म को उन्होंने बॉक्स के अन्दर किस क़दर हिफाज़त से रख छोड़ा है या अख़बारात की टोकरी की तह में डाल दिया है या कोट की जेब में रख कर अब तक उसको निकालने का मौका नहीं मिला है या जिन्होंने अब तक उसको पढ़ा ही नहीं है और बाज़ साहिबान ने दवा-फ़रोशों के इश्तहारात समझ कर उसको अलहदा फेंक दिया है या पढ़ कर ऐसा बेहूदा और लगो [मूल शब्द = लग़ोदंग अर्थात ऐसा जंगल जिसमें कोसों न छाया हो न पानी] कार्यवाही समझा है कि मामूली मज़ाक और नोबिल [उपन्यास] और इश्तहारात और अख़बारों की सनसनीख़ेज़ ख़बरों के जहरीले असरात से भी उनको ज़्यादः ज़हरीला समझा है।
ख़ैर जो हो मैंने तो यह तरीक़ा इस लिए अख़्तियार किया है कि इसमें अहबाब की बहबूदी मद्देनज़र समझी और हर काम में नियत देखी जाती है। पस जो नियत है उसका इल्म उस अल्लामुल अयूब ही को है।
अब मैं उम्मीद करता हूँ कि अहबाब उस फॉर्म की हर 'मद' [item] के मुताल्लिक़ जो राय मैं ज़ाहिर करूँगा ग़ौर से सुनेंगे और फ़िर अपनी राय आख़िर में ज़ाहिर करेंगे। यह ख़याल है कि फॉर्म के मद्धांत के मदलूल [जिसके लिए दलील दी गयी हो] क़ाइम करने में मेरा भी ज़्यादःतर ख्याल सतही बहुत कम रहा है बल्कि ज़्यादःतर जो ऊपर से बिला सोचे और समझे इस दुनियावी अक्ल के अलावः और अलैदः बराहेरास्त आया लिखा गया है।
खानापूरी फॉर्म
इस फॉर्म की तरतीब और अल्फ़ाज़ निहायत सादा और मामूली शक्ल के नज़र आते हैं। पर मुझको यकीन है कि वह ऐसे नहीं हैं। हर मद [आइटम] में एक ख़ास रम्ज़ [रहस्य] और भेद मख्फी [मूल शब्द है, मक़्फ़ूफ़ = उर्दू छन्द में सप्त-अक्षरीयगण] है और मुझे उम्मीद है कि वह बहुत मुफ़ीद साबित होंगे क्यों कि दरअसल मेरी और मुझ से नहीं बल्कि किसी ख़ास रूहानियत और ख़ास फैज़ की रोशनी की किरणें हैं। यह दूसरी आला तबक़ा की शख़्सियत की रूहानी इम्दाद है वर्ना मैं क्या और मेरा इल्म क्या "जमाले हमनशीं दर मन असर कर्द बग़र्ना मन कुजा हाकिम कि हस्तम"।
अब मैं फॉर्म की मद - 09 [Item No. 09] को ले कर बहस शुरू करूँगा और उसके लिए मैं फ़िर अपने पिछले मज़मून पर वापिस आता हूँ। आप साहिबान अपनी याद-दाश्त को फ़िर उस तरफ़ बराहे-मेहरबानी वापिस ले जायँ। *
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* इब्तदाई फॉर्म दाख़िला - 'संतमतमत सत्संग फ़तेहगढ़' ।
[01] नाम। [02] बाप का नाम। [03] क़ौम जैसे - वैश्य, ब्राह्मण इत्यादि। [04] उपजाति जैसे - कान्यकुब्ज, सनाढ्य, अग्रवाल, श्रीवास्तव इत्यादि। [05] असली रहने की जगह मय कुल पते के। [06] जहाँ इस वक़्त रहते हैं, मय कुल पते के। [07] पेशा मिसलन नौकरी, तिजारत, दस्तकारी, काश्तकारी इत्यादि मय हर एक की तफ़्सील के। [08] उम्र वक़्त फॉर्म भरने के। [09] मजहब जैसे सनातनी, आर्यसमाजी इत्यादि। [10] मत जैसे संतमत, कबीर-पन्थी, वैष्णवी, शैव्य, रामानन्दी, रामानुजी, शक्ति वग़ैरः।
नोट : अगर आप संतमत के सत्संग में इस वक़्त सिर्फ़ जाँच-परड़ताल और फ़ैसला करने की ग़रज़ से शामिल हुए हैं और फ़ैसला करके संतमत को क़बूल बिलकुल नहीं कर लिया है और अपने पुराने मत पर क़ाइम हैं तो खाना नंबर 10 तक का ही भर कर भेज दीजिये, बाक़ी ज़रूरत नहीं।
[11] उन किताबों का नाम जिनको पढ़ने का शौक़ है। 12] संतमत और सत्संग में शामिल होने की ग़रज़ से सिर्फ़ अंदर का अभ्यास ही है या उसके बाहरी उसूलों की पाबन्दी, यह उसूल [नियम] अलहदा मिलेंगे। [13] क्या आप संतमत के क़ायदों के मुताबिक़ अपनी रहनी-सहनी अख़्तियार करने को तैयार हो सकते हैं या सामाजिक व्यवहारों को भी साथ लेकर चलते रहेंगे। [यह बातें अलग किताब में मिलेंगी]।[14] जहाँ आपका इस वक़्त रहना हो रहा है वहाँ कोई दूसरे संप्रदाय या पंथ के साधू- महात्मा मौजूद हैं और संतमत के सत्संग में दाख़िल हो कर भी उनकी सोहबत में भी पाबंदी के साथ जा कर शामिल होते हैं। तुम्हारा अक़ीदा वहाँ भी है या नहीं और सत्संग के बताये हुए अभ्यास के अलावः और किसी का बताया हुआ अभ्यास करते हो। [15] आपके माता-पिता मौजूद हैं और वे आपके ख़यालों को ठीक और मुनासिब समझते हैं। [16] आपकी शादी हो गयी है और बीबी मौजूद है ?[17] अगर बीबी मौजूद नहीं है तो आपका दूसरी शादी करने का क्या ख़याल है ? [18] क्या आपकी बीबी हमख़याल है ? अगर हमख़याल है तो वह क्या अभ्यास करती है ? अगर अभ्यास करती है तो वह पुरानी रीति-रिवाज़ों को जो फ़िज़ूल हैं, छोड़ सकती है, जैसे जखैय्या की जात, मियाँ की कंदुरी वग़ैरह। [19] क्या आप दीग़र मजहब वालों के विरोधी हैं जैसे पारसी, यहूदी, बौद्ध, सिख, मुस्लमान, ईसाई इत्यादि। [20] क्या आपको पोलिटिकल मामलात से कुछ वास्ता है ?[21] ग़ैर-शादीशुदा लड़के व लड़कियों की तादाद और उनकी हर एक की उम्र जो इस वक़्त है व जिस भाई, बहन, भतीजी की देख-भाल व अख़्तियार खुद अपने ख़र्चे से करते हो लिखना चाहिए। [22] हर-एक [आश्रित] की क़ाबलियत, ख्वांदगी [पुकारने का नाम] वग़ैरः। [23] आपके राय में शादी वग़ैरः के मुताल्लिक़ रिवाज़ में तमरीम की ज़रूरत है या नहीं ?[24] आपको अपने लड़के-लड़कियों की शादी में अपना खुद ही अख़्तियार है या वाल्दैन या दीग़र रिश्तेदारों का ?[25] क्या आप सत्संग में संत-मत के उसूलों के मुताबिक़ शादी के क़ाइदे जो लिखे जावेंगे, उनको देख कर आप शादी उन्हीं क़ाइदों की पाबन्दी से करना पसंद करेंगे या पुराने ही रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़ ?[26] अगर आपके पास माली-गुंजाइश ख़ैरात और दान करने की है तो क्या आप सत्संग के बनाये हुए क़ाइदों के मुताबिक़ तक़सीम अख़्तियार करने को राज़ी हैं या अपने पुराने मनमाने ढकोसलों के साथ ही ? [27] अगर इस वक़्त नहीं तो आइंदा किसी वक़्त आप से यह उम्मीद की जा सकती है कि आप अपनी इस वक़्त के रस्म-रिवाज़ों की बिरादरी को अलग और सत्संग की बिरादरी को अलग और तरजीह की नज़र से देखने लग जायेंगे। [28] क्या आप की राय में यह मुनासिब है कि इस सोसाइटी की माली-सहायता [इम्दाद] उसके रिवाज़ों की ज़रूरतों को पूरा करने और उसकी ज़ाहिरी हस्ती को क़ाइम रखने के वास्ते फण्ड की ज़रूरत है ?[29] अगर ज़रूरत है तो दो सूरतें इस वक़्त अख़्तियार की जा सकतीं हैं इस इब्तिदाई हैसियत की बुनियाद डालने से और दूसरी हर-दम [लगातार] जारी रखने के सूरत। पहली सूरत में फार्म दाख़िला भरते वक़्त मुबलिग़ एक रूपया और दूसरी सूरत में पाबंदी के साथ इसी चंदे की शक्ल में। [30] हिंदी शास्त्र के मुताबिक़ 01/10 यानी आमदनी का दसवां अंश होना चाहिए।[31] ज़माने की हवा के मुताबिक़ कम से कम छः पाई प्रति रूपया। [32] या हर महीना हस्ब-हैसियत [स्थिति के अनुसार] पाबंदी के साथ। [33] नम्बरान 30, 31,32 मे से जो पसंद आयें उसको क़बूल करके उस पर इक़रार लिख दीजिये। अगर आपकी किसी भी नंबर की मर्ज़ी नहीं है, बिना ख़याल के इंकार लिख दीजिये। [34] इब्तिदाई चन्दा एक रूपया दाख़िला फॉर्म सिवाय तालिबे-इल्म [विद्यार्थियों] व साधुओं वग़ैरह लोगों से जो कोई कुछ आमदनी नहीं रखते हैं, मुआफ़ होगा। [35] जहाँ बहुत से सत्संगी-भाई हों वहाँ सब मिलकर एक मेंबर को इंतिखाब [चुनाव] कर लें और आप चंदा इब्तिदाई फ़ीस को दे कर रसीद हाँसिल कर के फॉर्म के साथ दे दें और जो भाई अकेले हैं, बज़रिये मनीऑर्डर भेज देवें।
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ज़रा अपनी पिछली और मौजूदा हस्ती की ग़ौर करने की तकलीफ़ ग़वारा फ़रमायें। इस मौजूदा दुनियाँ के फ़र्श-ज़मीन पर क़दम रखने से पहिले आप को मालूम है कि आप कहाँ थे? अगर हम इल्म फ़लसफ़ा तबीयात और तबक़ात आलम के उलूम पर बहस करने लग जायँ, शास्त्रों की सिफ़ात, सिलासा और सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और लय के मसायल और बड़ी-बड़ी बातों को समझनें में अपना दिमाग़ और वक़्त लगा दें तो हम में से कोई ग़ालिबन ऐसा दिमाग़, ऐसा इल्म, इतना वक़्त और जहन रसां नहीं रखता कि समुन्दर को नाप लेने की और ब्रह्माण्डों की मार्फ़त दरयाफ़्त करने की मेहनत कर सकें। इस लिए ज़रूरी है कि अपनी मोटी-मोटी बातों को जो मामूली अक्ल और समझ और नज़र में हैं, ग़ौर करें।
एक वक़्त यह था कि बच्चा अपने शिकमे-मादर की दुनियां में अारामयाफ़्ता था, उसकी नशिस्त और आराम पाने की यह बज़आ और क़तआ थी कि उल्टा लटका रहता था। चारों तरफ़ से रगों और बन्दिशी रस्सियों की जंज़ीरों से जकड़ा हुआ झिल्ली के गिलाफ़ में लिपटा हुआ पड़ा रहता था। उसकी ग़िज़ा सिर्फ़ माँ के खून का तब्दीलशुदा हिस्सा थी। उसके लिए हवा पहुंचाने का ज़रिया महज़ चन्द नालियाँ और मनाक़िद थे। रोशनी के बजाय तारीक़ी [darkness] उसके हिस्से में थी, ग़र्ज़ेकि इस हालत का मुकाबिला जीवन की दुनियां के साथ करने के बाद हम फ़ौरन कह सकते हैं कि उसका ठिकाना महज़ एक तंग व बारीक़ और हब्स और क़ैद की जगह थी, और कुछ नहीं।
लेकिन एक वक़्त यह आया कि उसी ने शिकमे-मादर की दुनियाँ से अपना मुहँ फेर लिया और उसके लिए यह मौत का नमूना से कम नहीं। लेकिन क्या यह मौत-दायनी मौत थी, यानी ज़िन्दगी में दाख़िल होने के लिए एक पल्टा। अब इस दुनियाँ की ज़मीन में यह अपना क़दम रखता है और सिवाय इसके कि वह तंग व तारीक़ दुनियाँ में जकड़ा हुआ अपने आप को पाता है। अब एक रोशन और खुली हुयी और वसीय ताज़ी हवा के तबका में सांस लेते हुए पाता है। यहाँ उसको हाँथ-पैर हिलाने और आवाज़ निकालने की आज़ादी है। ग़िज़ा की शक्ल में भी तबदीली है। इससे पहिले उसकी तबई हालतें सिकुड़ी हुयी और दबी हुयी पड़ीं थीं। जिस तरह कि तुख्म [फ़ा0 = बीज] के अन्दर उसकी शाख़, टहनियाँ, फल, फूल मौजूद होने का गुमान रहता है। लेकिन बात इस तबई क़ैफिअतों को जुम्बिश होती है। इसमें अँखुए, कोपल, पत्तियाँ, टहनियाँ, फूल और फल अपने-अपने वक़्त पर बरामद होना शुरू होते जाते हैं। बच्चे की इस पहली क़ैफ़ियत का नाम 'नफ़्स अम्मारा' [Sura xii : 53] है। जिसको अब जुम्बिश हुयी है। इस पहली हरकत को तमोगुणी कहते हैं। यह तमोगुण इसके जन्म की पहली ज़िन्दग़ी में दबा हुआ पड़ा था। और हरकत करने के कोई असबाब नहीं थे। अब इसको ज़िन्दगी में फैलने-फूटने का मौका मिलता है। यह हालत तबई है। जिसकी पहली हरक़त में यह ख़ासियत है कि वह इन्सान को बदी की तरफ़ जो उसके कमाल के मुख़ालिफ़ और उसके अख़लाक़ी हालतों के बरअक्स है, झुकाता है। ग़र्ज़ेकि बेएतदालियों और बदियों की तरफ़ जाना इंसान की एक हालत है जो अख़्लाक़ी हालत से पहले उस पर तप अन ग़ालिब होती है। और यह हालत उस वक़्त तक तबई हालत कहलाती है जब तक कि इंसान अक्ल और मार्फ़त [intellect/spirituality] के जेरेसाया नहीं चलता। बल्कि चौपायों की तरह खाने-पीने, सोने-जागने या गुस्सा और जोश दिखलाने वग़ैरह उमूर में तबई जज़्बात का पैरों रहता है। जैसाकि हम सब बच्चों में देखते हैं कि उनके जज़्बात जिस तरफ़ उभर कर ढल जाते हैं और रोके नहीं रुकते ; जिस को 'बालहठ' कहते हैं।
यह हालत एक वक़्त मुअय्यन [निश्चित] तक रह कर पलटा खाती है। यह तबई हालत की मौत है और फिर नयी ज़िन्दग़ी की तरफ़ रुख़ करती है। यहाँ से इंसानी अक़ल और मारिफ़त [spirituality] की मशवरः से तबई हालातों में तसर्रुफ़ करता और एतदाल मतलूब की रयासत रखता है फ़िर इसका नाम तबई हालत नहीं रहता बल्कि इसको इख़लाक़ी हालत कहते हैं। जो बदी की हालत पर और बेएतदाली पर अपने आप को मालामाल करता है। यह नफ़्स लव्वामा [sura lxxv : 02] है जिसकी वजह से उसको पशेमानी, शर्मिन्दग़ी, अफ़सोस और आगे तरक़्क़ी करने की ख़्वाहिश होती है।
यह रजोगुणी है, जिसका ख़ास्सा है, आगे बढ़ना और पीछे हटना यह आगे और पीछे को अपनी हरक़त जारी रखता है। सुकून और आराम नहीं पकड़ता। इस वक़्त हैवानात की मुशाहिबत से नजात पाता है और राजी नहीं होता कि तबई लवाज़िम में शुतर बेमुहार की तरह चले और चौपायों की ज़िन्दग़ी बसर करे। बल्कि यह चाहता है कि इससे अच्छी हालत और अच्छे इख़लाक़ सादिर हों और इंसानी ज़िन्दग़ी के तमाम लवाज़िम में कोई बेइतदाली ज़हूर में न आवे और तबई जज़्बात और तबई ख़्वाहिश अक्ल के मशवरे से ज़हूर पजीर हों।
नफ़्स लव्वामा अगर तबई जज़्बात को पसंद नहीं करता और अपने आप को मालामाल करता रहता है लेकिन शुक्र के बजा लाने में पूरे तौर पर क़ादिर भी नहीं हो सकता और कभी न कभी तबई जज़्बात उस पर ग़लबा कर जाते हैं, तब गिर जाता है और ठोकर खाता है। गोया कि वह एक कमज़ोर बच्चे की तरह होता है, जो गिरना नहीं चाहता मगर कमज़ोरी की वजह से गिर जाता है, फिर अपनी कमज़ोरी पर नादिम होता है। ग़र्ज़े कि यह नफ़्स की वह इख़लाक़ी हालत है जब नफ़्स इख़लाक़ फ़ाज़ला को अपने अंदर जमा करता है और सरकशी से बेज़ार होता है। मगर पूरे तौर पर ग़ालिब नहीं आ सकता। तो फिर एक तीसरा सरचश्मा उस पर खुलता है जिसको रूहानी हालातों का मब्दा कहना चाहिए। इसको 'नफ़्स मुतमइय्यना' [Sura Fajar : 27 - The Nafs that has found rest in God. It has been addressed thus "O Nafs which hath found rest in God, turn back to thy Lord. He is pleased with thee ; and thou are pleased with him. Mingle with my servants and enter in to my paradise."] कहते हैं और इसको सतोगुणी-प्रधान अवस्था कहते हैं। इस वक़्त इंसान का नफ़्स आरामयाफ़्ता है, जो खुदा से आराम पा गया। अपने खुदा की तरफ़ वापिस चलता है। वह उससे राज़ी और वह उससे राज़ी।
यह वह मर्तबा है जिससे नफ़्स अपनी तमाम कमज़ोरियों से नजात पा कर रूहानी क़ुव्वतों से भर जाता है और खुदाताला से ऐसा पैबंद कर लेता है कि बग़ैर उसके जी ही नहीं सकता और जिस तरह से ऊपर से नीचे की तरफ़ बहता है और बसबब अपनी कसरत और नीज रोकों से दूर होने से बड़े जोर से चलता है इसी तरह वह अब उलट-धार हो कर खुदा की तरफ़ बहता चला जाता है। पस् इसी ज़िन्दगी में न कि मौत के बाद एक अजीमुलशान तबदीली पैदा करता है। और है, इसी दुनियाँ में, न कि दूसरी जगह एक बहिश्त उसको मिलता है। वह अपने रब यानि परवरिश करने वाले की तरफ़ वापिस आता है और खुदा की मोहब्बत इसकी ग़िज़ा होती है और इसी ज़िन्दगी-बख्श चश्मे से पानी पीता है और इसलिए मौत से नज़ात पाने के दरवाज़े में दाख़िल हो जाता है।
यहाँ तक इंसान की तबई, इख़लाक़ी, रूहानी पैदाइश के दर्जे और मौत के सिलसिले की कहानी पहुँचती है लेकिन पैदाइश और मौत का सिलसिला ख़त्म नहीं होता। यह सब दर्जे पैदाइश और मौत के इब्ततरारी [प्रारंभिक] है, इख़्तियारी [जो अनिवार्य न हो ] और हक़ीक़ी नहीं। इख़्तियारी और हक़ीक़ी पैदाइशों और मौतों की अवतार और दर्जों की इब्तिदा अब शुरू होने वाली है। अगर तबई और इख़लाक़ी हालतों के मुहँज़ोर जज़्बातों से नज़ात पा कर इंसान रूहानी और सतोगुणाय हालत को प्राप्त हो गया तो यह रजोगुण यानी 'नफ़्स लव्वामा' के चंगुल से छुटकारा मिला है। लेकिन हक़ीक़ी सकून क़ल्ब और ठहराव जब तक फ़ना की सिफ़त और हरक़त धक्का दे कर अपने असली भण्डार और जाये-क़याम पर ले जार न बैठा दे उस वक़्त तक खदशा [शुद्ध शब्द - खद्शः = संदेह] है। पस् वह फ़ना की सिफ़्त [महेश-शक्ति] जिसको मालिक 'यौमुद्दीन' कहेंगे [यौमुलक़ियामत = क़ियामत का दिन, जब मुर्दे क़ब्रों से निकल कर उठ-खड़े होंगे, वह सब एक बड़े मैदान में एकत्र होंगे और उनके कर्मों का हिसाब-किताब होगा और दंड अथवा पुरस्कार दिया जायेगा। अर्थात, 'यौमुद्दीन' का मतलब है क़ियामत के दिन का मालिक।], जब तक [महेश-शक्ति] अपनी गोद में न ले लेवें उस वक़्त तक असली बक़ा [अस्तित्व या जीवन] और स्थिति कहाँ नसीब है।
इस दर्जे तक पहुँचने पर इंसान की सिर्फ तीन जाहिरी हालतें तब्दील हुईं। पहिले दर्जे में इंसान बशक्ल जमादात [बेजान और जड़] और नबातात [वनस्पतियाँ] था, दुसरे दर्जे में वह इंसान बशक्ल हैवानात [जंगली जानवर] , जमादात और नबातात और किसी क़दर इंसान था। तीसरे दर्जे में वह इंसान बशक्ल इंसान है। अभी तक इंसान-कामिल नहीं बना।
हर तीन हालतों के तबादिले में उसको मौत का ज़ायक़ा चखना पड़ा है और नयी ज़िन्दग़ी के खुशग़वार मरहलों से गुज़रना पड़ा है। अभी इसी ज़िन्दग़ी में "इंसान कामिल" बनने के लिए न मालूम कितनी सीढ़ियाँ मौत और ज़िन्दग़ी की तय करना बाक़ी हैं। उस वक़्त तक यह 'इस्तरारी' [दैहिक] जिसको मामूली मौत कहते हैं न आ जावे। इंसान कामिल बनने के लिए हमको किसी चोले [देह] में मरना है और वह मौत से पहिले मरना है।
ज़रूरी है कि हमको मौत-मामूली [दैहिक मृत्यु] के बाद 'लतीफ़तर' [subtlest] और रोशनतर [most lightened] क़ुर्रए-तबक़ात [योनियों की उपास्थि] में दाख़िल करना बाक़ी है और न मालुम कितने ऐसे तबक़ात के परत-दर-परत हमको अलहदा करना है। क़ल्ब इसके कि हम इंसान कामिल बनने और उन मदारिज़ [of stages] का ज़िक्र करें और मुफ़स्सिल [स्पष्टीकरण करने वाला] बयान करें, यह बात तय कर लेना चाहिए कि यह उतार-चढ़ाव, ठहराव, आना-जाना है क्या भेद ? क्योंकि अगर हम एक वक़्त में एक ही साथ गहराई से ऊंचाई में चले जाने की हिम्मत करें तो ख़ौफ़ है कि मबादा [ऐसा न हो कि] हमारा दम इस इत्तफ़ाक़िया तबदीली से फूल जावे या घुट जावे इसलिए ठीक यह है कि हम ज़रा दम ले लेवें और सस्ता [rest] लें ताकि आगे कमर हिम्मत बाँधने का हौंसला हो जावे।
इस चलने और रुकने या आगे बढ़ने और ठहर जाने से उम्र वक़्त तक तो हम सिर्फ इस नतीज़े पर पहँच सकते हैं कि हम किसी मंज़िल पर पहँचने के लिए रास्ते में हैं। दर्मियानी मंज़िलें हमारे ठहराव और सस्ताने और आगे बढ़ने के लिए मुक़ाम और मंज़िलें हैं इसके सिवाय कुछ नहीं और फिर आगे रास्ता है और चळचळाव है।
रास्ते में अपने आप को दरिंदों और चोरों और ठगों से महफूज़ रहने, सर्दी-गर्मी और दूसरी तकलीफों से बचने के लिए ऐसी तदबीरें इख़्तियार करना होतीं हैं ताकि रास्ता खोटी [सदोष = vicious] न हो जाय और मंज़िल-मक़सूद तक कभी न कभी दाख़िला हो जावे। पस् रास्ता, दर्मियानी मंज़िलें और दुनियाँ भर की तमाम ऐसी तदबीरें और कोशिश जिसके ज़रिये से महफूज़ रह कर आख़िर मंज़िल नसीब हो जावे, मजहब और पंथ कहलाते हैं। यह है आपके ' मज़हब' के लफ्ज़ का जवाब और मद [item] नम्बर नौ [09] की तशरीह, हालाँकि कि काफ़ी नहीं नहीं है।
मद [item] नम्बर नौ [09] का सवाल मजहब का है ; जवाब में ज़्यादा तर लफ्ज़ 'सनातनी' और 'आर्यसमाजी' आमतौर पर लिख कर आये आये हैं। मालुम होना चाहिए कि परमात्मा मुजस्सिम ज्ञान-स्वरुप, सरापा-सुरूर [आनन्द की साकार मूर्ति], सरापा-रहमत [दया और कृपा की साकार मूर्ति] वग़ैरह है ; सिर्फ़ कमाल और पूर्णता उसी में है। बाक़ी सब नाकिस और कमज़ोर।
हज़रत इंसान में ज़हूर उस मुक़म्मल हस्ती, ऐन-इल्म [ज्ञान का स्रोत] और लाजबाल [अनश्वर, जिसका नाश न हो] आनन्द का मौजूद है, मगर कामिल नहीं। उसकी जुमला सिफ़त का अंश या हिस्सा या परतौ का ज़हूर भी शामिल है मगर अक्सी [प्रतिबिम्ब]। इसी को कहा गया है कि खुदा ने इंसान को अपनी शक्ल पर पैदा किया है - "पिण्डे सो ब्रह्माण्डे" यानि जो कुछ आलम-कबीर में है उसका अक्स आलम-सगीर में हस्ब-इस्तेदाद और मुनासिबत मौजूद है।
पस् उसकी रहम की सिफ़त में हमको अकेला नहीं छोड़ा है कि महज़ अपनी क़ुव्वत और कोशिश पुरुषार्थ से तरक़्क़ी करे और मुकम्मिल बने। हमारे पहिले पैदा होने से उसका यह रहम और अदल [तर्क-युक्त] है कि जुमला सिफ़ात हमारे में निहायत एतदाल के साथ पैबस्त कर दी। और साथ लगा दी। और चूँकि वह कामिल नहीं थी इसलिए क़ुव्वत तमीज़ें भी अता कर दीं कि नाक़िस से क़ामिल को तमीज़ कर सकें और बदी और नेकी का फ़र्क़ दरियाफ़्त कर लें।
और फिर दरियाफ़्त करने के बाद यह अपने इरादा-अजली [अनादि काल से सम्बद्ध] से वह हिम्मत और इरादा भी मर्हमत [दया] फ़रमाँ दिया कि फ़िर नीचे से ऊपर को चढ़ सके या ऊपर से नीचे की तरफ़ गिरने से अपने आप को बचाये रक्खे। इस रहमत की सिफ़त ने यह भी फ़र्क़ नहीं रक्खा कि काफ़िर और मूमिन के दरम्यान कोई तमीज़ का ख़त खींच दे। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हवास-जिस्म, आज़ा- तंदरुस्ती, जुमले-अस्वाब, परवरिश, ग़िज़ा, पानी, हवा वग़ैरः पहिले से मुहईय्या कर दी। और फिर पैदाइश के वक़्त बच्चे को फ़ित्रत- सलीम [सहनशीलता की प्रकृति] अता फ़रमाई, यह उसकी रहमानियत है, जिसको दयालुता कहते हैं ; जो हमारे पैदा होने से पहिले हमारी परवरिश के लिए मौजूद की गयी और चाहें किस क़दर भी हम गुमराह हो जायँ मगर यह हक़ूक़ जो आम हैं वापस नहीं लिए जाते हैं।इसके बाद जब हम अपनी दुनियाँ अपने आप बना लेते हैं, अपना दिल, अपनी अक़्ल, अपनी आदत में खुद तबदीली पैदा कर लेते हैं, फ़ित्रत-सलीम से जुदा हो कर फ़ित्रत-सानिहः [मुसीबत या दुर्घटना] पैदा कर लेते हैं, तो हम खुद अपने 'पैरों पर कुल्हाड़ी' लगा लेते हैं। और हमेशा मुसीबत के शिकार रह कर ग़ुमराह हो जाते हैं, हमेशा के लिए मौत की गहरी ख़ंदक़ में जा गिरते हैं। लेकिन उसकी सिफ़त-रहमत, जिसको हम कृपा कहते हैं, हमेशा साथ-साथ रहती है। अगर हम 'तमीज़ी-क़ुव्वत' से आगाह हो कर फ़िर अपने खोये हुए रास्ते को तलाश करते हैं, अफ़सोस करके माफ़ी चाहते हैं और तोबा करते हैं, मगर सच्ची, तो फ़िर उसकी कृपा से एक 'लहर' और 'मौज' उमड़ती है और सहीः रास्ते पर ला कर खड़ा कर देती है।
अगर हम सच्चे दिल से तौबा और प्रार्थना करते हैं तो उसकी सिफ़त-कृपा हमको शाहे रह क़ामयाबी पर दुबारा ला कर खड़ा कर देती है।
चूँकि यह सब सिफ़ात और सिफ़त-रहमानी-रहीमी, क़ुव्वत-तमीज़ी, क़ुव्वत-इरादी वग़ैरह हमारी पैदायिश से 'क़ब्ज़ः' [अधिकार या गिरिफ़्त] और उसके बाद, और मौत के बाद भी हमारे साथ लगी रहती है, और हमको क़ाबू और इख़्तियार नहीं कि इनसे हम अलग भाग कर जा सकें। इसलिए यह हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगी, और इसी वास्ते उनको "सनातन" कहते हैं और चूँकि हम उसको इख़्तियार करने के लिए निहायत दर्ज़ा मज़बूर हैं और अलग नहीं भाग सकते, इस लिए उनको धर्म कहते हैं।
यह लफ्ज़ "धारणा" से निकला है, जिसके मानी हैं इख़्तियार करने के। ऐसी शै जिसको हमेशा से इख़्तियार करने पर मजबूर हैं और हमेशा तक इख़्तियार किये रहना पड़ेगा ; "सनातन धर्म" कहलाता है। इसमें दुनियाँ के जुमला [कुल] मजाहिब, पंथ और धर्म आ सकते हैं। कोई सम्प्रदाय, मजहब, पंथ, मिल्लत, तरीक़ा इससे अलहिद: हो ही नहीं सकता।
अलबत्ता एक बात क़ाबिल ग़ौर रह गयी है वह यह है कि आप को मालूम है कि दुनियाँ आलमे-अस्वाब है। इसका जाहिर भी है, बातिन भी, मग्ज़ [बीज] भी है, पोस्त [खाल, त्वचा] भी है, जात [अस्तित्व] भी है, सिफ़ात [गुण] भी है, असल भी है और साया भी, अंदर भी, बाहर भी, रोशनी, तारीक़ी, नेकी, बदी, जलाल, जमाल, तश्बीह-नज़ीर, आलमे कबीर, आलमे सग़ीर, परा और अपरा, वशिष्टि और समिष्टि, रहिमान और शैतान।
जो आदर्श, आइडियल, मक़सद, तमन्ना, ज़िक्र व फ़िक़्र दर्स [पढ़ना] व तद्रीस [पढ़ाना], इल्म व शग़ल, जद्दोजहद, ज़ात [अस्तित्व] की तरफ़ माइल कर दे और मंज़िले मक़सूद तक पहुँचा दे और रास्ते में रुकावट न डाले, वह ही 'सनातन धर्म' है। क्यों कि ज़ात से उसका ताल्लुक़ है, और ज़ात लाजवाब और अब्दी [भक्ति-भावना से पूर्ण] और अज़ली [सृष्टिकाल के समय का] है।
और जो आदर्श वग़ैरह [मुतज़क्करः बाला] तदाबीर रस्ते में रुकावटें डाले और गुमराही के ख़ंदक़ में गिरा दे और आख़िरकार महाप्रलय या क़यामते-कुबरा में जीव की वापसी का सुझाव की असल ज़ात में स्वाभाविक दाख़िला कर दे वह सिफ़ाती [वह दोष या गुण जो किसी के स्वभाव में अस्थायी रूप से हो] है और सिफ़ात [सिफ़्त = किसी चीज़ का गुण] से उनका ताल्लुक़ हो। यह भी सनातन-धर्म के मातहत है, क्योंकि नूर और तारीक़ी [अन्धकार] दोनों हमेशा साथ-साथ हैं। सिफ़ात की दो कैफ़ियतें रजोगुण और तमोगुण यानि नफ़्स-अम्मारा और लव्वामा देर में राह-रास्ते पर लाने वाली तहरीक़ है लेकिन सिफ़ात की एक क़ैफ़ियत सतोगुण नफ़्स मुतमइय्यना से है जो जल्दतर अपने मत्लूब [जिसकी इच्छा की जाय] तक ले जाती है। यह नफ़्स मुतमइय्यना तरीक़ा 'सनातन-धर्म' ज़ाती और सिफ़ाती के दर्मियान बर्ज़ख [परस्पर विरोध रखने वाली दो चीज़ों के बीच की तीसरी चीज़ जो दोनों से संपर्क रक्खे, बन्दर जो मनुष्य और पशु के बीच 'बर्ज़ख' है।] है। पस् ज़ाती [व्यक्तिगत] सिर्फ़ 'सनातन-धर्म' को माना गया है। और सिफ़ाती [वह दोष या गुण जो किसी के स्वभाव में अस्थायी रूप से हो] को मना किया गया है। हालाँकि दूसरे तरीक़े वाले भी किसी न किसी तरह और कभी न कभी उसके दीदार से मुश्रिफ़ [ज्ञाता] होंगे। लेकिन "हर कि दाना कुनद कुनद नादाँ - लेक वाद अज हज़ार रुस्वाई।"
लफ्ज़ 'आर्यसमाजी', 'सनातन-धर्म' की मद में ख़्वामख़्वाह आ जाता है। रहा यह कि मतभेद, वह दूसरी शै है। इसकी तफ़्सील आयन्दा करेंगे। 'आर्यसमाजी' से मतलब महज़ मुल्क़ 'आर्यावर्त' के ताल्लुक़ की वजह से नाम दिया गया है।
आज-कल जिसको 'सनातन - धर्म' कहते हैं, न वह 'सनातन-धर्म' है और न आज-कल का 'आर्य-समाज' का मतलब 'आर्य-समाज' ही है।
इस्लाम के मानी हैं - ऐसा रास्ता जिस पर सलामत रब्बी [ईशरीय या खुदा की तरफ़ से] हो, एतदाल हो, और ईमान यानी विश्वास व ऐतक़ाद मुसल्लम [सर्वमान्य, समग्र] हो और मुक़म्मिल हो। अब ईमान यानी ऐतक़ादात और विश्वासों की तफ़्सील यह है कि चँद उमूर [अम्र = कार्य या विषय का बहुवचन अर्थात - कार्य-समूह, समस्याएँ] ईमाने मुज्मल [संक्षिप्त, सार-रूप] और चन्द उमूर ईमाने मुफ़स्सल [विस्तारपूर्ण, स्पष्ट] के तहत में आ गए हैं, जिसके अमल में लाने से दर्मियान के रास्ते में और एतदाल पर रह कर लोक और परलोक की मंज़िलें तय हो कर जल्दतर उस मंज़िल-मक़सूद को हाँसिल लेना है। इसकी तफ़्सील पर इस वक़्त बहस नहीं की जा सकती है आइन्दा अगर ज़रूरत होगी तो इस पर रोशनी डाली जावेगी।
इस वक़्त तो खाना [item] नंबर नौ [09] की सराहत [निर्दिष्ट] दरकार थी। मैं उम्मीद करता हूँ कि किसी हद तक हो गयी होगी।
अब खाना [item] नंबर दस [10] में मत-भेद [मत-मतान्तरों का रहस्य] और अक़ायद [विश्वास] के इख़्तिलाफ़ात [मतभेद = discord] का ज़िक्र है।
यह तो मुज्मलन [in brief] कहा जा चुका है कि पमात्मा ने आदि सृष्टि में या अव्वल इंसान में अपने सिफ़ात [virtues / qualities] कामिला [abilities] से अक्सी [pertaining to reflection] तौर पर सिफ़्त के हिस्से मरहमत [अनुग्रह पूर्वक = favoured] फ़रमाये, लेकिन वह बहुत एतदाली [abstinence] क़ैफ़ियत पर थे और तजर्रुद [act of living in solitude or celibacy] और तबरीद [a kind of cooling and refreshing drink] की हालत में थे। इसके बाद ही दूसरी नस्ल [dynasty] से पुरुष और प्रकृति के संयोग और मुरक़्क़ब [compound] रचना के ताल्लुक़ से इफ़रात [abundance] और तफ़रीक़ [वर्गीकरण = classification] की नौबत पहुँची। [तशरीह = exposition तलब = demand] और फिर इसका तसल्सुल = sequence / order] नामुतनाही [insufficient] के साथ ऐसी तरक़ीब किवाम [a kind of jelly mixed with tobacco] की बिगड़ गयी कि असलियत का उलट-फ़ेर हो गया और असल को नक़ल से तमीज़ करना मुश्क़िल हो गया। या यों ख्याल कीजिये कि हज़रत इंसान जमादात [solid inorganic substances], नबातात [vegetation], हैवानात [beasts] की क़ैफ़ीयत [विवरण = details] से गुज़रते हुए आये हैं। इसलिए उनमें सबसे ज़र्रात [particles] और क़ैफीयात [state of affairs] ख़िलअत-मिळत [nature] हो कर निज़ाम [structure] जिस्म व जान के तरक़ीबी किवाम के अजज़ा [components] का दरियाफ़्त करना उस वक़्त तक मसला लायनहल हो चुका है कि जब तक यह सब सिफ़ात और कैफ़ियात, इख़लाक़ी हालत और एतदाल की शक्ल पर न आ जायँ और उस वक़्त तक इत्मीनान की हालत और सहीः शीशे का दरियाफ़्त कर लेना मुश्क़िल है।
बच्चे के पैदा होते ही उसकी आदत और जज़्बात ज्वार-भाटे के मिस्ल हैं। चूँकि उनमें नक़ल करने की सलाहियत का माद्दा मौजूद होता है इसलिए उसका पहिला स्कूल उसके माँ-बाप का घर [परिवार] है और माँ उसकी पहली इस्लाह [improvement] करने वाली और उस्ताद, बाप, रिश्तेदार, सोसाइटी के जो अमल होंगे उसी को बच्चे नकल करते हैं और वैसा ही उनका आइन्दा दिल और दिमाग़ बनता है। दूसरा मदरसा, स्कूल और तामिलगाहें हैं, जहाँ उलूम [Arts & sciences] ऐतक़ादात - आदात और अख़लाक़ की मुख़्तलिफ़ तौर पर तालीम होती है। यहाँ नक़ल, किताब, तजुर्बा बाहिरी मुशाबहत [similarity] पर तालीम का इनहसार [इन्हिसार [encirclement] है। यहाँ उसकी क़ल्ब और अक़्ल और नफ़स [incoming and outgoing breath] की तालीम ज़ाहिरी किताबों और लेक्चरों से होती रहती है। इन मुख़्तलिफ़ ताल्लुक़ात आ असल सबब सिर्फ़ इस उसूल से ख़ाली नहीं हैं कि बच्चा क़मज़ोर है, नाक़िस [faulty] है, नामुक़म्मिल है।
उसकी कमज़ोरी उसका नुख़्स दूर करना है और कमाल हाँसिल कराना है। नुख़्स और कमज़ोरी उसमें किसी दूसरी हस्ती के मुक़ाबिले में है। और उसकी तफ़्सील यह है कि इंसानी पिण्ड [आलम सग़ीर = small world] है, जो नक़ल है अपने ब्रह्माण्ड यानि ‘आलम-कबीर’ की और ‘आलम कबीर’ नक़ल है अपनी असल ज़ात की। [तश्रीह तलब = necessity of explanation] गोया कि इन्सान आलमे कबीर के मुक़ाबिल कमज़ोर और नाक़िस है। कमज़ोरी और नुक़्स दूर करने के लिए जद्दो-जहद है। तालीम और तदरीस [तद्रीस = act of education] का सिलसिला है। ज़िक्र, [ Remembrance of God] फिक्र, [Meditation] मुराक़बः [act of uniting with the God, divine contemplation] व राब्ता [रबितः = Meditation on the figure or presence of the Spiritual Master] के समान है।
अगर यह कमज़ोरी दूर गयी तो नुक़्स [बुराई = fault, defect] जाता रहा। कमज़ोरी और नुक़्स यह है कि एतदाल [abstinence] की क़ैफ़ियत कम हो जाय। इफ़रात [abundance] और तफ़रीक़ [division] पैदा हो जाय। तश्रीह [exposition] तलब - नुक़्स और कमज़ोरी या तो [01] आनन्द में है, [02] इल्म [ज्ञान] में, [03] दवाम [नित्यता = perpetuity] बक़ा [शाश्वत या अमर होने का भाव = immortality] की ख़्वाहिश। सरूर, इल्म, बक़ाए दवाम की ख़्वाहिश हर इन्सान में है और ख़्वाहिश का सबब यह है कि कमज़ोरी है। इसको दूर करने के लिए तमाम दुनियाँ भर की तरकीबें हैं।
इंसान की बचपन की तालीम से ले कर तमाम कॉलेज की तालीम और तमाम फ़लसफ़ा और साइंस के मरहले तय करने-कराने के बाद भी कोई दावा में यह इक़रार नहीं कर सकता है कि उसकी सेरी [तसल्ली = patience] हो गयी, आनन्द व ख़ुशी की अब ज़रूरत नहीं, और इल्म [ज्ञान] के हुसूल [फ़ायदा = profit] से वाज़ाही [clarity] हो गयी, ज़ियादा ज़िंदगी की अब ख़्वाहिश नहीं। मैं कह सकता हूँ कि यह ख़्वाहिश कभी कम होने पर नहीं आती, बल्कि मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। तो इंसान आख़िरी मरहलों [मंज़िलें = storeies] को तय करके और बेबस हो कर ऐसा बेबस और मुज़्तरिब [बेचैन = nervous] हो जाता है कि क़दम टिकाने की जगह तलाश करता है और जगह नहीं मिलती, ख़्वाब में भी चैन नहीं, परेशान करने वाले ख़्वाब पीछा नहीं छोड़ते और ख़्वाब सेहत यानि ग़फ़लत का ख़्वाब तारी करना चाहते हैं। यह नशाबाज़ों की इब्तिदा और ईजाद इस हबिस में हुयी है। अब आदत बन कर दूसरा शग़ल हो गया [pastime] हो गया। मसनूई [बनावटी = artificial or fake] सरूर की क़ैफ़ियत तारी करने को और ज़रा देर के लिए बेचैनी दूर करने को शराब, भांग, धतूरा, चरस और अफ़यून [opium] का इस्तेमाल रायज [जिसका रिवाज़ हो = prevalent] हो गया मगर क्या इससे असल मक़सद निकला ? जो नतीज़ा हुआ और होता है वह ज़ाहिर है।
पस् यह ख़्वाहिश हुयी कि असली क़ैफ़ियत नींद और नयी खुशी की पैदा करना चाहिए और उसकी खोज में चल पड़ें।
इस बेचैनी को दूर करने को और क़ल्ब की इस्लाह [improvement] करने को कर्म-काण्ड का मस्ला पहिले-पहिल ऋषियों ने अख़्तियार किया। और सबसे पहिले वेदों की तालीम में सिर्फ़ कर्म करने को ही बतलाया गया और मुक़द्दम [leading] समझा। कर्मकाण्ड में भी नुक़्स साबित हुआ।
इसके बाद ऋषियों ने उपनिषदों में कर्मकाण्ड की मुखालिफ़त शुरू की और कर्म को अज्ञान और अंधकार ठहराया क्यों कि कर्म में यहाँ तक ख़राबी पैदा हो गयी कि क़ुर्बानी वग़ैरह की मज़मूम [अश्लील = obscene] रस्में बिला समझे-बुझे रायज़ [prevalent] हो गयीं।
उपनिषदों में क़ुर्बानी के मसले को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है, जो ज्ञान से ताल्लुक़ रखता है और यहाँ से ज्ञान-काण्ड की इब्तिदा हुयी। अलहिदा पर्चा - 'A' देखो।
'A'
[01] सबसे पहिले वेदों की तालीम, जिसमें सिर्फ़ कर्म करने को ही बताया गया है।
[02] इसके बाद ऋषियों ने उपनिषदों में कर्मकाण्ड की मुख़ालिफत शुरू की और 'कर्म' को अज्ञान और अंधकार ठहराया, क्यों कि कर्म में यहाँ तक ख़राबी पैदा हुयी कि सिर्फ़ 'क़ुर्बानी' वग़ैरह की रस्म आ गए। यहाँ से हिन्दुओं का 'ज्ञान-काण्ड' शुरू हुआ है । चूँकि उपनिषदों में मुख़्तलिफ़ क़िस्म की बहस की गयी थी इसलिए आपस में इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ, क्योंकि ख़यालात में इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ। इन तफ़ावुत [फ़ासला = difference] के दूर करने के लिए बादरायन ऋषि ने अपने 'वेदान्त सूत्र' में सब उपनिषदों के ख़्यालात की एकता दिखलाई। 'वेदान्त सूत्र' का दूसरा नाम 'ब्रह्म सूत्र' है, जिसके ख़ास रचनाकार श्री वेदव्यास जी हैं। इसके बाद श्री शंकराचार्य जी महाराज हुए, जिन्होंने इसको और भी फ़रोग़ [प्रकाश = light] दिया। बाद में एक शताब्दी के बाद गोपालाचार्य के सिलसिले में एक और शंकराचार्य पैदा हुए। यह वेदांत के सबसे बड़े हामी [स्वीकारोक्ति = to give assent] हुए हैं।
उपनिषदों का ज्ञान ज़्यादातर तर वैराग्य यानि तर्क के मुताल्लिक़ है। इन में वैदिक तरीक़ यानि शग़ल व अमल का ज़िक्र ही नहीं किया गया। इसके बाद बौद्ध धर्म हुआ। महाराजा ऋषभ देव जी ने क़ुर्बानी की रस्म बंद की।
बौद्ध धर्म के जवाल [उतार = fall] के बाद मुख़्तलिफ़ सम्प्रदाय चले। ब्राह्मणों ने 'कर्मकाण्ड' को मुक़द्दम [प्रधान या मुख्य = leading] क़रार दिया और मआश [जीविका = means of livelihood] का ज़रिया क़ाइम किया। इस फलसफ़ा का नाम "पूर्व मीमामांसा" यानि 'कर्म सूत्र' रक्खा है। इसकी इब्तिदा जैमिनी ऋषि से हुयी। क्षत्रियों ने ज्ञानकाण्ड को अच्छा समझ कर अपना ज़रिया मआद [परलोक = heaven] का क़ाइम किया। ज्ञान, तलाश को कहते हैं। इसका नाम यानि ज्ञान की तलाश और ज्ञान के फ़लसफ़े का नाम "उत्तर मीमांसा" रक्खा। इब्तिदा [प्रारम्भ = origin] व्यास ऋषि ने की। इसका नाम 'ब्रह्म सूत्र' रक्खा।
वेदांत, ज्ञान की तलाश का पहिला मरहला [पड़ाव = halting place] है। पहिले मरहले को "उत्तर मीमांसा" कहते हैं और पिछले मरहले को "वेदांत"। शंकराचार्य जी ने यह कहा है कि हर एक धार्मिक संप्रदाय के दो कुदरती हिस्से होते हैं। पहिला 'तत्व-ज्ञान' [इल्म हक़ीक़त] दूसरा 'आचरण' यानि अमल [आचरण = conduct] । पहिले में 'पिण्ड' [निज़ामे जिस्म] के ख़याल से परमेश्वर के स्वरुप का फ़ैसला करके 'मोक्ष' [release from rebirth in the world] का फ़ैसला किया जाता है ; दूसरे में इस अम्र [विषय = subject] पर ग़ौर किया जाता है कि मोक्ष के लिए और उसके हुसूल [फ़ायदा = profit] के लिए क्या ज़रिये और तरीके हैं। यानि इस दुनियाँ में इंसान को किस तरह बर्ताव करना चाहिए।
इनमें से पहिली बात यानि इल्म हक़ीक़त [तत्व ज्ञान की नज़र] से श्री शंकराचार्य जी का यह अक़ीदा है [मन में होने वाला दृढ़ विश्वास = firm belief] कि अव्वल [मैं और तू] यानि इंसान की आँख से नज़र आने वाला सारा जगत, या यूँ कहो कि दुनियाँ की तमाम चीज़ों की कसरत सहीह नहीं है। इन सब में एक ही शुद्ध और नित् पारब्रह्म भरपूर है, और इसी माया से इंसान की इन्द्रियों को यह कसरत मालुम हुआ करती है।
दोयम, मनुष्य की आत्मा ही दर-हक़ीक़त पारब्रह्म स्वरुप है। सोयम, आत्मा और पारब्रह्म की एकता [वहदत = oneness, unity] का पूरा इल्म यानि इल्म हक़ीक़ी होने के बग़ैर कोई भी मोक्ष नहीं पा सकता। इसी को 'अद्वैतवाद' कहते हैं। इस मसले का यह मक़सद है कि एक शुद्ध, बुद्ध, नित्य, मुक्त पारब्रह्म के सिवाय दूसरा कोई भी आज़ाद और हक़ीक़ी आज़ाद चीज़ नहीं। इसके अलावः और भी ऐमाल के नुक़्तए ख़याल से एक और ऐतक़ाद भी है। वह यह है कि अग़रचे चित्त की शुद्धि के ज़रिये ब्रह्म और अपनी आँख का ज्ञान हाँसिल करने के लिए स्मृति ग्रंथों में बयान करदा [किया हुआ = done] गृहस्थ आश्रम के फ़रायज़ की अदायगी निहायत ज़रूरी है। लेकिन इन फ़रायज़ की अदायगी हमेशा ही न करते रहना चाहिए क्योंकि इन सब को तर्क करके आख़िर में सन्यास लिए हुए बग़ैर मोक्ष नहीं मिलता। इसकी वजह यह बताते हैं कि कर्म और ज्ञान अँधरे और उजियाले के मानिन्द एक दूसरे से मुतज़ाद [परस्पर विरोधी = conflict] हैं। इसलिए जुमले क़िस्म के ख़ाहिशात और ऐमाल के तर्क के बग़ैर ब्रह्मज्ञान की तकमील [पूर्णता = completeness] नहीं हो सकती। इस मसले को निवृित्त-मार्ग या राहे-तर्क भी कहते हैं। सब कर्मों को तर्क करके ज्ञान ही में महब करने को सन्यास-निष्ठा या ज्ञान-निष्ठा कहते हैं। इस मसले का "महावाक्य-तत्वंमसि" कहते हैं।
तजर्बे से यह साबित हुआ है कि कर्म और ज्ञान के दर्मियान के मराहिल हैं और जब तक अधिकारी इनमें से न ग़ुज़रेंगे तब तक ज्ञान का अनुभव सख़्त कठिन होगा, इसी लिए और [अन्य] कई दर्शनों की इब्तिदा हुयी। मुख़्तलिफ़ दर्शनों के मानने वाले अपने-अपने दर्शन को मुक़म्मिल और उत्तम समझने लगे और आगे बढ़ने की ज़रुरूरत महसूस नहीं की। उपनिषदों ने इशारा किया। बौद्ध ने उसको अमली जामा पहिनाया। शंकराचार्य ने विचार की अहमियत जिहननशीं [made intelligible] कराई। आख़िर को ज्ञानियों की ज़ियादातर तादाद ज़बानी जमाखर्च ही में पड़ी रहती है।
मायावाद, मर्मवाद, प्रमाणवाद, मिथ्यावाद, विरतवाद [autism] वग़ैरह इसकी बेशुमार शाखाएँ हैं। और आख़िर में मज़बूर हो कर इन सब को "उत्तरोचनी ख्याति" यानि लाक़ाबिल बयान उसूल मौजूदा के पनाह लेनी पड़ी। और जिस क़दर बहस-मुवाहिशा का ज़ोर और दलील और हुज्जत का ज़ोर होता है, यहाँ आ कर ख़त्म हो जाता है।
वेदान्ती कहते हैं कि यह जगत मिथ्या है। 'मिथ्या' कहना ही खुद 'मिथ्या' है क्यों 'मिथ्या', नफ़ी [न होने का भाव = nothingness] का कल्मा है। 'नफ़ी' को 'अस्वात' [ध्वनियाँ, स्वर-समूह] में लाना सख़्त ग़लती है।दूसरे यह कि जब सिद्धान्त और उसूल यह ठहरा कि एक के सिवाय दूसरे की हस्ती नहीं है तो फ़िर कोई दूसरा कौन है जो उसको सहीह करके दिखाता है, और इसका इम्कान [हो सकने की अवस्था या भाव, सम्भावना [possibility] कैसे है। तौहीद [एकेश्वरवाद] की दलील खुद रद्दे-तौहीद है । तौहीद का साबित करना 'दो-पने' के गहरे ख़ंदक़ में गिराता है। जहाँ दो होते हैं वहाँ एक-दूसरे की सुनता, एक दूसरे को कहता और जहाँ दो नहीं वहाँ उनका कहना-सुनना, समझना-जानना कैसे मुमकिन है।
यह जगत साफ़ नज़र आ रहा है, हम इसको बरत [usage] रहे हैं इसका बुतलान [निदान =extinguishment] बातों से तो होता नहीं, और जब लोग यह सवाल करते हैं कि क्यों भासता [आभास = inkling] है तो जवाब यह दिया जाता है कि माया के मर्म की वजह से। बहुत अच्छा ! फ़िर 'माया' क्या है ? इसका जवाब है कि यह बाँझ [barren, a woman or a cow] के लड़के, आकाश के फूल और सुरख़ाब [चकवा ; सुरख़ाब का पर लगना = अनोखा पैन होना, कोई विलक्षणता होना] से मुशाबा [समान = alike] है।
यह सब सहीह लेकिन फ़िर यह सब मिथ्या ही मिथ्या है। फ़िर मिथ्या के साबित करने में मिथ्या शै [वस्तु, पदार्थ] की मुशाबहत [मिलता-जुलता होने का भाव] क्यों दी जाती है, फ़िर यह कहा जाता है कि यह जगत भासता किसको है। इसका जवाब वेदान्ती नहीं देते। अगर वह कहें कि ब्रह्म को भासता है तो ब्रह्म के अलहदा और कोई हस्ती उन्हीं की दलील से साबित हो जाती है। जब जवाब नहीं बन पड़ता "उत्तरोचनी" यानि लाक़ाबिल बयान कह देते हैं। असल वेदान्त को समझने के लिए 'अनुभव-ज्ञान' की ज़रूरत होती है जो इंसान में मौजूद है, जिसको 'अक़्ल-कुल्ली' कहते हैं। अक़्ल-जुज़वी [बहुत अल्प या सामान्य बुद्धि] से यह समझ में नहीं आता, वहम [मिथ्या धारणा = misconception, delusion] का पर्दा पड़ा हुआ है, और इस तरह अक़्ल-जुज़वी [बहुत अल्प या सामान्य बुद्धि] के उधेड़-बुन से दूर नहीं होता। जिस तरह हम को हर शै का इल्म साधन से हाँसिल होता है, वैसे ही साधन करने से जब वहम मिट जाता है, हक़ीक़त की समझ खुद ब खुद आ जाती है। इब्तिदायी मरहले [प्रारम्भिक पड़ाव] में साधन की तालीम ज़रूरी क़रार दी जावे और ब-तदरीज [क्रमशः, धीरे-धीरे] उसको अमल [आचरण] और शग़ल [कार्य] के सिलसिले में अनुभव हो जावे यानि कश्फ़ [प्रकट होना] हो जावे तो फ़िर वेदांत का मसला सहीह है। वगैरः वगैरः।
बौद्धों के फिलसफ़े में एक लफ्ज़ 'शून्य' आया है जिसको संत लोग 'शून्य' या 'महाशून्य' कहते हैं। इस शून्य का तर्जुमा ग़लती से खुलू [ख़ाली] किया गया है।
जब बौद्धों ने यह कहा कि यह जगत शून्य से पैदा हुआ है। तो शंकर स्वामी ने हक़ीक़त में उनको तंग कर दिया कि जब कोई शै खाली है तो फिर उसके ख़ाली होने का इल्म किसे और किसको हुआ, बौद्ध सोचने लगे। तब तक मज़ाक़ मज़ाक़ में उनको ला-जवाब कर दिया और अपनी फ़तह का एलान कर दिया।
इसी 'शून्य' का तर्जुमा सूफ़ियों ने 'अदम नेस्ती' किया है। लेकिन अदम नेस्ती नहीं है। अदम [हीन, बिना या अभाव] की भी हस्ती है। इसलिए उसका सहीह तर्जुमा नहीं हो सकता।
इसके बाद 'मायावाद' और 'अद्वैत' और 'सन्यास' की तल्क़ीन [दीक्षा देना, गुरु मन्त्र देना, पीर का मुरीद को अमल आदि पढ़ाना] करने वालों के बाद श्री रामानुज आचार्य पैदा हुए। श्री शंकराचार्य और श्री रामानुज आचार्य के उसूल में बरायनाम और मामूली फ़र्क़ है। सिर्फ़ बाहमी ज़िद और हठ की वजह से ख़राबी पड़ गयी है। वर्ना दोनों ही तौहीद के क़ायल हैं। शंकर स्वामी कहते कि जो है चेतन है और वह अद्वैत है। और वह्दत [एकत्व, एकता, अद्वैत-भाव] के सिवाय कुछ नहीं।
रामानुज स्वामी ने यह बतलाया कि अद्वैत और अहिदियत तो है लेकिन यह अद्वैत-पना जड़ और चेतन दोनों का पहलू लिए हुए है। अगर वह इससे खाली होता तो फ़िर जगत में जड़ [माद्दा] और चेतन का ज़हूर न होता।
पैदाइश और सृष्टि एक सी नहीं होती, और यह दोनों मिले-जुले हुए मटर के दोनों दानों और टुकड़ों की तरह एक हैं। जब वह्दत की जानिब नज़र है तब 'दो' नज़र आते हैं और जब एक की तरफ निगाह है तो फिर 'एक' के सिवाय कुछ भी नहीं। यह फ़र्क़ कुछ फ़र्क़ नहीं कहलाता। असलियत पहले मटर के टुकड़ों की तरह मिली-जुली थी और जब उनमें अलहदगी हो गयी तब एक 'पुरुष' दुसरी 'प्रकृति'। श्री रामानुज जी यह यक़ीदा कहते हैं कि - "मसला हमा ऑस्त" [अद्वैत झूठ है] और माया [माद्दा] मिथ्या है ; यह ठीक नहीं है।
जीव, जगत और ईश्वर यह तीनों अन्सुर [मूल तत्व = element] अग़रचे मुख़्तलिफ़ हैं तो भी जीव चित [जी इल्म] और जगत अचित [बेइल्म] दोनों एक ही ईश्वर के शरीर हैं। इस लिए यह भी इल्म और बेइल्म लतायफ़ ही से और फिर जी-इल्म [जानकारी रखने वाला] और बेइल्म क़साफ़त [भद्दापन = awkwardness] से दुनियां की पैदाइश हुयी है। इसलिए वह यह फ़ैसला करते हैं कि तत्व-ज्ञान यानि हक़ीक़त की नज़र से अद्वैत और अमली नुक़्ते-निग़ाह से भी हमा अज ओस्त दुरुस्त हैं। यानि भक्ति या उपासना की राह ठीक है। शग़ल और अमल कोई आज़ाद फ़ेल नहीं हैं । यह सिर्फ ज्ञान के हाँसिल करने का एक ज़रिया है। उन्होंने अद्वैत-ज्ञान के बदले विशिष्टा-द्वैत और सन्यास यानि तर्क के बदले भक्ति को क़ाइम किया है। आचार्य ने यह फ़र्क़ क़ाइम कर दिया तो अमली नुक़्ते-निगाह से उन्होंने महज़ भक्ति को ही आख़िरी फ़र्ज़ क़रार दिया और दूसरे अमल सब को तर्क बतला दिया। दोनों आचार्यों के ख़्याल का नतीजा एक ही है, वह सिर्फ़ कर्म को तर्क करके महज़ ज्ञान से ही ताल्लुक़ रखते हैं और यह महज़ भक्ति को रखते हैं। बाक़ी सब आख़िर में तर्क कर देते हैं। इस लिए दोनों ही ने तर्क-अमल किया है। एक ने महज़ ज्ञान को ले लिया और दूसरे ने महज़ भक्ति को और कर्म को आख़िर में तर्क कर दिया है।
इसकी इस्लाह [संशोधन = improvement] के लिए माधवाचार्य तशरीफ़ लाये और उन्होंने द्वैत - अद्वैत सम्रदाय चलाये। इसकी करीब-करीब वह ही हैसियत है जो मौजूदा 'आर्य-समाज' की। इनका ख़्याल है कि 'पारब्रह्म' और जीव को कुछ हिस्सों में एक और कुछ हिस्सों में मुख़्तलिफ़ मानना एक-दूसरे के ख़िलाफ़ और वे बे-ताल्लुक़ बात है। इसके दोनों हिस्सों को हमेशा मुख़्तलिफ़ ही मानना चाहिए क्योंकि इन दोनों में मुक़म्मिल या ग़ैरमुक़म्मिल तरीक़ से भी एक-सानियत नहीं हो सकती, इस तीसरे सम्प्रदाय को 'द्वैत-सम्प्रदाय' कहते हैं। यक़ीदा इसका यह है कि भक्ति की सिद्धि हो जाने पर कर्म करना या न करना एक सा ही है। 'ध्यानात-कर्म-फल-त्याग' - वह यह कहते है कि परमेश्वर के ध्यान यानि 'भक्ति' की निस्बत कर्म-फल का त्याग या निष्काम कर्म करना आला [श्रेष्ठ] है। इसका मतलब यह है कि महज़ भक्ति में भगवंत और भक्त 'दो' क़ाइम रहते हैं। यानि कर्म करते रहना चाहिए। लेकिन उसके नतीज़े की तरफ़ बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिए। निष्काम कर्म करना चाहिए।
फ़िर, इनके कई सौ वर्ष के बाद बल्लभाचार्य जी ने शुद्ध 'द्वैत' शाख की बुनियाद डाली। यह चतुर्थ संप्रदाय है, फिर 'वैष्णव' पंथ है। लेकिन जीव-जगत के मुताल्लिक़ इसका ख़्याल विशिष्ठ-अद्वैतवाद से मुख़्तलिफ़ है। यक़ीदा यह है कि 'माया' से ख़ाली-शुदा जीव और 'पारब्रह्म' एक ही चीज़ हैं। दोनों में इस लिए इनको 'शुद्ध-अद्वैत-पंथ' कहते हैं। मगर यह श्री शंकराचार्य के मानिंद यह नहीं मानते हैं कि जीव और ब्रह्म एक ही हैं। माया, परमेश्वर की इच्छा इरादा-अज़्ली [अज़्ल = पदच्युति]से तक़सीम हुयी है। यह एक ताक़त है। माया में फ़ंसे हुए जीव को ईश्वर की कृपा के बग़ैर, मोक्ष-ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए 'मोक्ष' का सबसे बड़ा ज़रिया भक्ति ही है। इस तरह यह शंकराचार्य के यक़ीदे से अलग है। इस संप्रदाय वाले ईश्वर की कृपा को "पुष्टि" [ताक़त] और पोश [परवरिश] भी कहते हैं। इस लिए यह पंथ 'पुष्टि-मार्ग' भी कहलाता है। इसका ख़्याल है कि पहले ज्ञान और फिर कर्म, और फिर भक्ति करने से काम बन सकता है। इस लिए एक तो "भगवन्त की भक्ति" और फिर खास कर तर्क फ़ेल से नियत रखने वाली 'पुष्टि-मार्ग' की भक्ति करना चाहिए। यानि 'सब धर्मों को छोड़ कर सिर्फ़ मेरी शरण में आ जा'। यानि, "राज़ी व रज़ा" और तस्लीम का तरीक़ अख़्त्यार कर। अगर कर्म करे, तो जो कर्म किया जावे, वह 'उसकी' रज़ा के वास्ते।
इसके बाद अम्बारिकाचार्य का वजूद हुआ, इसमें राधा-कृष्ण की भक्ति की अज़मत [महत्ता = dignity] रक्खी गयी है। जीव-जगत और ईश्वर के मुतअल्लिक़ अम्बारिकाचार्य का यह मत है कि अग़रचे ये तीनों मुख़्तलिफ़ हैं। फ़िर भी जीव और जगत का ब्यवहार और उनकी हस्ती ईश्वर की रक्षा पर मुनहसर [आश्रित = dependent] है और आज़ाद नहीं, और परमेश्वर ही में जीव और जगत के लतीफ़ अनासिर [तत्व = elements] रहते हैं। रामानुजाचार्य की बनिस्बत अद्वैत पंथ से इस सम्प्रदाय को तमीज़ करने के लिये इसे द्वैत-अद्वैत सम्प्रदाय कह सकते हैं।
रामानुज सम्प्रदाय के और कई पुश्त बाद स्वामी रामानन्द जी का ज़हूर हुआ, जो निस्बतन आज़ाद-तबा थे। अब यहाँ से कबीर साहिब की सम्प्रदा शुरू हुयी है। यहाँ से संत सम्प्रदा कहलाने लगी है, जिसके मुख़तलिफ़ नाम हो गए हैं। इनके यहाँ राम-नाम की महिमा गाई गयी है। इसकी महिमा की असल हक़ीक़त 'गुरु' की मदद से हाँसिल होती है। महज़ किताबी ज्ञान से असलियत समझ में नहीं आती। यहाँ तसलीसी [त्रयी = triplit] पहलू की मद्देनज़र रखने की ज़रूरत है। [01] सतनाम, [02] सत्संग और [03] सतगुरु सतनाम है। सच्चे मालिक का जो आदर्श, मैराज या इष्टपद है, यह नाम एक तरह का कानून-क़ुदरत है जो इंसान के घट यानि बातिन में गूंज रहा है। इससे 'सुरत' यानि रूह के मेल-मिलाप से रूहानियत आने लगती है और जहाँ ज़रा भी अंदरूनी लज़्ज़त मिलने लगी, खुद-ब-खुद रूहानी बन जाता है। इसी का 'संतमत' में अभ्यास कराया जाता है। रामानंद जी का "राम-नाम" का अभ्यास जो सब जगह फैला हुआ और रमा हुआ है।
उसका नाम यानि 'शब्द' का अभ्यास ज़ुबान से। आभास का इष्ट मुख़्तलिफ़ है। वह कहते हैं - जगत में चारो राम हैं। तीन राम ब्यवहार, चौरा राम निजसार है। ताका करौं विचार -
एक राम दशरथ घर डोले। एक राम घट घट में बोले।।
एक राम का सकल पसारा। एक राम त्रिगुण से न्यारा।।
साकार राम दशरथ घर डोले। निराकार घट घट में बोले।।
बुन्द राम का सकल पसरा। निरालम्ब सब ही से न्यारा।।
तशरीह करना चाहिए - रामानुज सम्प्रदाय वाले तीन राम की उलझन में पड़े हैं, उनको चौथे राम की खबर तक नहीं है।
तीन लोक को सब कोई धावै। चौथे देव का मर्म न पावै।।
चौथा छोड़ पञ्चम चित लावै। कहै कबीर हमरे ढिंग आवै।।
तीन गुनन की भक्ति में भूल रहा संसार।
कहैं कबीर सतनाम बिन कैसे उतरै पार।।
यह राम हक़ीक़त में 'सतनाम' है। वह ही पाँचवाँ पद है। इन पाँचों के अंतर्गत [शमूल] में पञ्च अग्नि विद्या का रम्ज़ [रहस्य = mystery] छिपा हुआ है। तशरीह तलन : पाँच अग्नि, पाँच नाम की तशरीह होती है। अग्नि से मुराद - प्रकाश, नूर है। नाम से मुराद - ध्वन्यात्मिक शब्द और जात हकीकत है। अमली और इल्मी दोनों तरह की ज़िन्दग़ी की ज़रूरत है। एक से काम नहीं चलता है।
पस् इन अक़ायद में तफ़सीली मद्दात [मद = विभाग का बहुबचन] में ग़ौर किया जावे तो महज़ एक लतीफ़ फ़र्क नज़र आता है। असल मुराद तो तौहीद पर आने की है क्योंकि बिला तौहीद के असली शान्ति और सुकून क़ल्ब प्राप्त नहीं होता। तौहीद के मत-भेद बहुत हैं। अहिदीयत [इकाई, एकत्व = oneness, unity], वाहदियत [वाहिद = एक या अकेला], वहदत [वाहिद या एक होने का भाव = oneness, unity], वहदत वजूद, वहदत शहुद, जाती, सिफ़ाती ग़र्ज़ेकि हज़ारों शाखें हैं। रगड़ करने और छान-बीन से पैदा हो गयीं हैं। जैसी जिसकी पहुँच है, वैसी ही उसकी समझ है। लड़ाई और झगड़ने की ज़रूरत नहीं है। अब पन्थ और सम्प्रदायों के मुख़्तलिफ़ अक़ायद और ख़यालात को आपने खूब समझ लिया होगा कि बाज़ ने अक़ायद के लिहाज़ से तौहीद की मुख़्तलिफ़ शाखें क़ाइम कर लीं हैं। किसी ने कोई, और किसी ने कोई। और अक़ाइद के साथ जद्दोजहद और अमल व शग़ल के फ़रायज़ के अंजामदेही के वास्ते किसी ने महज़ कर्म, किसी ने महज़ ज्ञान, किसी ने महज़ उपासना और किसी ने इन तीनों को एक साथ एतिदाल के साथ पाबंदी करने का एहतमाम [कोशिश = endeavour] किया है।
श्री शंकराचार्य जी से ले कर श्री रामानंद जी तक जो अक़ायद में इख़्तलाफ़ [ख़िलाफ होने की अवस्था या भाव = opposition] रहा, उसकी तफ़सील आप सुन चुके हैं। आख़िर में श्री कबीर साहिब ने तमाम सम्प्रदायों के नुख़्स और क़वायद [क़ायदा का बहुबचन यानि ब्यवस्थाएँ = rules] और उसूलों को लिहाज़ कर के छान-बीन कर के एक फैसला यह किया कि तौहीद और तस्लीम के झगड़े इब्तिदाई हालत के मरहिले हैं। इनसे गुज़रना ज़रूरी है। मगर मक़सद तमन्ना और आख़िरी इष्ट-पद वह होना चाहिए जो त्रिगुण [सिफ़ात सलासा] से मुनज़्ज़म [संगठित = organized] और मुबर्रा [पाक-साफ़ = pure, holy, sacred] हो, वह एक है, और दो भी, और तीन भी। न वह एक है, न दो, न तीन। और वह सब है। और कुछ भी नहीं। उन्होंने तौहीद वजूदी को दर्मियानी मंज़िल क़रार दिया है और बाक़ी सब ने उसको आख़िरी मंज़िल। लेकिन कबीर साहिब ने इसको तौहीद शहूदी के दर्ज़े को बालातर क़रार दिया। तफ़सील करना चाहिए :- मख़मूर [नशे में चूर = dead-drunk] और ज्ञान के साथ खुमार की तरह।
सिफ़ात का ख़याल और उसमें लय होना, सिफ़ात ही में मंज़िले-मक़सूद हो जाता है। इसके आगे चलना चाहिए। जहाँ और लोग ख़तम करते है, वहाँ से यह शुरू करते हैं। इसी तौहीद को हज़रात मुजद्दिद अलिफ़सानी रहमत0 ने निहायत खूबी और शरहवसीत के साथ हल किया है और वह जौहर अमल और शग़ल वग़ैरह के ईज़ाद किये कि तरीक़ा पेटेन्ट हो गया।
मतभेद यानि अक़ायद में इख़्तिलाफ़ नज़र आता है, लेकिन एक ही उसूल को सिद्ध और साबित करने को यह मुख़्तलिफ़ तरीक़े अमल में आ गए हैं। असली ग़र्ज़ तो बेचैनी अजतरब [खुशी की] क़ल्ब का दूर करना और सुकून की हालत पर पहुँचना है, और यह सिर्फ़ दिल अक़्ल का हेर-फेर है और कुछ नहीं। अगर मन और क़ल्ब का नश्वानुमा [उद्भव, विकास] हो जाय और तरबियत पजीर हो कर तरतीब और क़ायदे में आ जाय तो सब काम बने बनाये हैं। दरअसल आत्मा शुद्ध और अशुद्ध दोनों में से कुछ भी नहीं, और जब आत्मा की यह हालत है तो परमात्मा की निस्बत क्या सवाल किया जाय।
ज़रूरत मालूम हो जाने पर यह बात क़ाइम करना कि मतभेद और इख़्तिलाक अक़ाइद में और अक़ाइद के साथ अमल और शग़ल के सिलसिले में तमाम मजाहिब का फ़ैसला और इज़तमाअ [इज्तिमाअ = इकठ्ठा होना, जमा होना = an act of gathering] क्योंकर हो सकता है। इसी के लिए मुख़्तलिफ़ अक़ायद के पैरोकारों के उसूल और तवारीख आप सुन चुके हैं। अब अपनी-अपनी पहुँच और अक़ल के मुवाफ़िक़ आप तस्फियः कर सकते हैं। तस्फियः [निर्णय = decision] पर पहुँचने के लिए मैं फिर इस अम्र [विषय = work] की कोशिश करता हूँ कि हर एक मत के उसूलों को फिर दोहरा दूँ ताकि मुक़ाबिला किया जा सके, और यही गर्ज़ है कि जहाँ तक मुमकिन हो सके, आप साहिबान कम से कम तस्फियः न कर सकें तो तस्फियः का ख़्याल ले कर तो यहाँ से उठें।
एक साहिब यह कहते हैं कि महज़ कर्म करना चाहिए जिसमें कि इल्म को न पहिले और न पीछे कुछ ग़र्ज़ हो। मिसलन एक बढ़ई लकड़ी पर बसूला या आरी चलाना शुरू कर दे, बिला इस ख़्याल के कि इसका क्या बनेगा ? और न दर्मियान में ख्याल आये और न बाद को। एक साहिब यह कहते हैं कि किसी चीज़ को बनाये जाने का ख़याल पहिले ही सी से ख्याल कर लेना चाहिये और हालत-मशग़ूली में कुछ ख़याल न करना चाहिए। एक यह कहते हैं कि कर्म इस तरह करना चाहिए कि पहिले से यह ख़याल कर लेना चाहिए कि बनेगा और बसूला या आरी चलाते वक़्त हर लम्हे यह ख़याल करते रहना चाहिए कि क्या बनाया ज रहा है और इसका यह नतीज़ा होगा। एक साहिब का ख़याल है कि कर्म करते वक़्त उम्मेद और नतीज़े का ध्यान न बाँधना चाहिए, बल्कि नतीज़े को ईश्वर पर छोड़ना चाहिए। यह तरक़ीब तनहा कारआमद साबित न हुयी, बल्कि इल्म और एकसुई यानि भक्ति और महवियत की मुहताज़ रही।
अब महज़ इल्म और ज्ञानकाण्ड की जानिब आइये। एक गिरोह इसके क़ायल है कि कर्म करने की क़तई ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ फ़िक्र और सोंचते-विचारते रहना चाहिए, उपासना की बिलकुल ज़रूरत नहीं। दूसरा गिरोह यह कहता है कि मुक़द्दम फिक्र करना और सोचना चाहिए, लेकिन कर्म को भी थोड़ा-थोड़ा शामिल कर लेना चाहिए, लेकिन उपासना की क़तई ज़रूरत नहीं। तीसरा गिरोह यह कहता है कि मुक़द्दम फ़िक्र और सोंच-विचार है, लेकिन सोंच और विचार के सिलसिले में एकसुई क़ल्ब की ज़रूरत लाहक़ होती है, इसलिए उपासना का एक हिस्सा भी शामिल कर लेना चाहिए। लेकिन कर्म करने की हरग़िज़ ज़रूरत नहीं, बल्कि गुमराही है।
यह हिस्सा तो रहा अमल और शग़ल का, अब अक़ीदा की हक़ीक़त की निस्बत ग़ौर कीजिये। एक साहिब यह कहते हैं कि जंगल नज़र आता है, लेकिन मुख़्तलिफ़ किस्म के दरख्तों की बेशुमार तादाद भी नज़र आती है, उन सब से मिल कर जंगल की एक शकल बन जाती है। अगर जंगल को एक करार दे दिया जाय तो जंगल है, वर्ना सब दरख़्त अलहिदा-अलहिदा हैं।
एक साहिब यह मानते हैं कि दीवार ईंटों की हज़ारों की तादाद से मिल कर और चूने से बनायी गयी है, वह एक है और एक नज़र आती है, लेकिन ईंटों की तरफ़ अलग-अलग निगाह ज़माने और चूना और पानी के ख़याल को साथ-साथ लाने से दूसरी हालत पैदा हो जाती है। एक साहिब का ख्याल है कि सोना से उसके मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ज़ेबरात बनाये गए और अलहिदा-अलहिदा सूरतें उसकी हो गयीं। लेकिन दरअसल जात उसकी और हक़ीक़त सोना ही है।
फिर एक साहिब यह सिद्ध करते हैं कि समुद्र एक रूप और 'एक' नज़र आता है जो बूंदों की मज़मूआ [संग्रह = collection] है, लेकिन बूंदें आतीं ; सिर्फ़ समुद्र एक सा नज़र आता है और बूंदों का ख़याल करना पड़ता है। लेकिन बूंदों का ख़याल बूंदों की हस्ती की वजह से है। अगर उसकी हस्ती न होती तो ख़याल भी न आया होता।
अब हालत महवियत को मुलाहिज़ा फ़रमाइये। एक ने नशा किया और ऐसी मस्ती आयी कि अपनी हस्ती का ख़याल मौजूद है और नशा वाली चीज़ का यानि शराब का और अपनी बदमस्ती का भी और होश का भी। दूसरे साहिब को ऐसी मस्ती तारी है कि अपनी हस्ती का तो ख़याल है, लेकिन शराब का और मदहोशी का नहीं। तीसरे साहिब को मस्ती के बाद अपना ख्याल है, न शराब का, न मस्ती का और न होश का। यह ज्ञान काण्ड वालों की हालत और सराहत हुयी। अब अमल और उपासना की बावत सुनिए।
उपासना, भक्ति, तरीक़त इश्क़ के मुताल्लिक़ सुनिए। हालत बेदारी [जागने की अवस्था, जाग्रति = awkening] में, ज़माना हाल-माज़ी [बीता हुआ समय = past] और मुस्तक़बिल [आने वाला समय = time to come] तीनों का इल्म है। हालत नीम [आधा = half] ख़्वाब में अंदर का इल्म और ख़्वाब की ग़फ़लत में किसी का इल्म भी नहीं। उपासना की एक हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त तीनों क़ाइम हैं। दुसरी हालत में भक्ति का ख़्याल नहीं, लेकिन 'भक्त' और 'भगवन्त' मौजूद हैं। तीसरी हालत में या तो भक्त नहीं या भगवन्त का ख़्याल नहीं। चौथी हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त सब ग़ायब। पाँचवी हालत में भक्ति, भक्त और भगवन्त सब ग़ायब तो हैं मगर इसके साथ ही साथ एक ही वक़्त सब मौजूद भी हैं। न उसको ग़ायब होने से कुछ सरोकार और न मौजूद होने से कुछ खुशी। मौजूद भी और ग़ैर मौजूद भी, और न यह और न वह और सब कुछ।
खुलासा यह है
एक साहिब ने महज़ अमल और शग़ल से सरोकार रक्खा है। दूसरे ने महज़ ज़िक्र से, तीसरे ने महज़ फिक्र से और चौथे साहिब ने ज़िक्र, फ़िक्र और राबता = राबितः [सम्बन्ध = familiarity] से। पांचवें साहिब ने इन सबसे सरोकार रखते हुए भी कुछ सरोकार न रक्खा। एक तरीक़े ने अमल व शग़ल में सिर्फ़ यज्ञ और 'बलि' वग़ैरह, पंचदेश-कम और ज़ाहिरी पूजा-पाठ, आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, तीर्थ वर्त, नमाज़ वग़ैरह से काम रक्खा और ज़िक्र यानि 'जाप' में सिफ़ाती [सिफ़त या गुण सम्बन्धी = pertaining to the virtue] नाम और ज़िक्र-लस्सानी [उच्चारण सहित जाप] तक रक्खा और शग़ल राबता में मंदिर की मूर्ति तक के दर्शन करने कराने से वास्ता रक्खा।
दूसरे तरीक़ वालों ने अमल और शग़ल के सिलसिले को ज़रा वासीअ [विस्तृत = extensive] किया यानि धारणा और ध्यान के मरहिलों को शामिल किया और तरीक़े-ज़िक्र में 'अजपा-जाप' में 'ज़िक्र-क़ल्बी' वग़ैरह को दाख़िल कर लिया, लेकिन सिफ़ाती नामों के साथ, मिसलन कहार [क़हर, विपत्ति, आफ़त = calamity, disaster], जब्बार [जब्र या जबरदस्ती करने वाला, बलवान, ईश्वर का एक नाम = using coercion, coercive, mighty, the epithet of the God]वग़ैरह और शग़ल-राबता में बाहरी मूर्तिमान शक्लों की बजाय मानसिक शकलें अंदर की तरफ़ क़ाइम कर लीं जिनका कि रूप अंदर घट में ख़याल किया और सिफ़ाती लिहाज़ से देवताओं की शकलें क़ाइम कीं।
तीसरे तरीक़े वालों ने अमल और शग़लों सिलसिले को ज़रा और वसीअ किया यानि बजाय धारणा और ध्यान के 'समाधि' के दर्जे पर आये, बाज़ों ने 'तुख़्म' [अण्डा, बीज, औलादवीर्य = seed, an offspring, semen] वाली समाधि तक रसाई की और बाज़ों ने ग़ैर तुख़्म वाली समाधि की। बाज़ों ने सिफ़ात की तरफ़ रुज़ूअ की और बाज़ों ने जात की जानिब और ज़िक्र में क़ल्बी के साथ, सिफ़ाती नामों को जोड़ दिया और जाती नामों मद्देनज़र रक्खा। और शग़ल राबता में सिर्फ़ मुर्शिद कामिल के सत्संग को अहमियत दी, वग़ैरह वग़ैरह। अब आप ग़ौर करना शुरू करें कि मतभेद का सबब, रास्ते की बातें हैं। मंज़िल मक़सूद तक पहुँचने के सिर्फ़ असबाब और ज़रिये हैं, बज़ात खुद 'मंज़िल मक़सूद' नहीं है। जिस जिस क़दर जिसने तहक़ीक़ात कर ली, उसको आख़िरी क़रार दिया, और यह क़ुदरती बात है। और फ़िर दूसरे ने ज़ियादह तहक़ीक़ात की और ज़ियादह गहरा गया। इस तरह यह सिलसिला चला आया और चला आता है और न मालुम कब ख़त्म होगा। बहरहाल अब जो मौजूदः क़तई तरमीम शुदा तरीक़ और क़ुदरतन रायज़ है, उसकी खोज करना ज़रूरी है। हर 'मत' वाला यह दावा करने को तय्यार है कि मेरा तरीक़ आला और सह्लुलवसूल और सरीउल असर है। लेकिन यह तो अमल और शग़ल और जाँच-पड़ताल के बाद ही मालुम हो सकता है, बशर्ते कि सहीह वज़नदार [वज़नी = भारी = heavy] और बिला पक्षपात और तलब सादिक़ की मद्दों को लिहाज़ करके तहक़ीक़ात और तलाश की जाय।
क्या यह सब मानने के लिए तय्यार हैं कि इंसान माजून = मअजून [औषधि के रूप में काम आने वाला कोई मीठा अवलेह = sweetened tonic] मुरक़्क़ब [मिश्रित, मिला हुआ = combined, mixed] है और हर क़िस्म के माबाद [इसके बाद = after this] से इसका किवाम [शहद के समान गाढ़ा किया हुआ अवलेह जिसमें तम्बाकू मिला रहता है = a kind of jelly mixed with tobacao-powder] बनाया गया है। यह ज़रूरी है कि किसी न किसी बात को इस्तेदाद = इस्तिअदाद [सामर्थ्य, शक्ति, विद्या-सम्बन्धी योग्यता = cpacity, strength, ability, knowledge] ज़्यादः है और किसी में किसी की कमी, लेकिन हर हालत में सब चीज़ें मौजूद हैं। महज़ एक ही को ले लेने से बाक़ी तमाम चीज़ों से हमेशा के लिए मुहँ मोड़ लेने से काम नहीं बनता है।
इसलिए ज़रूरी है कि आप वह तरीक़ा अपना लें जो उचित है और सब बातों का विचार कर अत्यंत सद्व्यवहार और वक़्त-वक़्त की आवश्यकता को ध्यान में रख कर चुना गया हो। लेकिन क्या योग्यता और वक़्त की अनुकूलता का ख़्याल अक्खा गया है ?
जिन तरीकों में कि एक वक़्त में कहीं कर्मकाण्ड यानि शरीयत को ही क़ाइम रक्खा है और बक़िया और तरीक़ों से बिलकुल लापरवाही कर दी गयी है और कहीं सिर्फ़ ग़ौर व फिक्र को ही अकेला मद्देनज़र रक्खा है और कहीं महज़ तरीक़त इश्क़ को ही क़ाइम रक्खा। चूँकि ऐसा हो नहीं सकता इस लिए संतमत ने कर्मकाण्ड, शरीयत और उपासना-काण्ड यानि तरीक़ते-इश्क़ और ज्ञान-काण्ड यानि मारिफ़त और हक़ीक़त सब को निहायत हम-आहंगी [आहंग = विचार, इरादा, उद्देश्य] से तरतीब दे कर लाज़िम क़रार दिया है। शरीयत के वक़्त काम करने में समझ-बूझ और दिल के लगाव का एहतमाम [इहतमाम् = प्रबंध, व्यवस्था = management] कर दिया है और तरीक़त यानि भक्ति में समझ-बूझ और ज़ाहिरी अरकान [अर्कान = स्तम्भ, खम्भे, तत्व या चरण = poles, elements, feet, pioneers] की तादीब [तअदीब = दोष आदि दूर करके सुधारना, भाषा और साहित्य की शिक्षा = act of improving or correcting] का लिहाज़ रक्खा है और मारिफ़त में भी तरीक़त यानि महवियत के मदारिज़ क़ाइम किये और शरीयत का लिहाज़ नहीं छोड़ा है।
श्रवण मनन, निध्यासन की मुताबिक़त [मुताबिक़ होने की क्रिया या भाव = suitabillity] दिखलाई। कर्म, उपासना और ज्ञान की ज़रूरत एक तरतीब के साथ अमल में लाने को बतलाई। ज़िक्र, फिक्र और शग़ल-ए-राब्ता को शुद्ध करके लतीफ़ हालत में पेश कर दिया।
ज़िक्र-लस्सानी के बजाय ज़िक्र क़ल्बी क़ाइम किया। फिक्र के दर्जात को सिफ़ात के ताल्लुक़ात से उबूर कराके जाती तजल्लियात की तरफ़ माइल किया। शग़ल-ए-राब्ता में बाहिरी चीज़ों से हटा कर अंदरूनी सिफ़ाती बुतों के दर्शन कराने के बाद असली और जाती हक़ीक़त और सच्चे मालिक को मेराज़-ए-तमन्ना क़ाइम कराया। ग़र्ज़े कि सिफ़ात के दायरे से निकलवाने और जाती दायरों में दाख़िला करने का इहतमाम किया। इस पिण्ड और शरीर में मुक़ामात नासूती [नासूत = मर्त्य लोक = this mortal world] को छोड़ दिया गया और लतीफ़ और सूक्ष्म मुक़ाम से चलने की हिम्मत बंधाई। क्योंकि उमरें कम हो गयीं। हिम्मतें पस्त और क़ासिर [असमर्थ = having a shortcoming or unable] हो गयीं हैं। ताक़तें ज़ायल हो गयीं हैं। दुनियाबी मसरुफियतों का हुजूम हो गया है। इन उमूर [अम्र का बहुबचन = आवश्यक विषय = an essential subject] का लिहाज़ कर संतों को दया आयी और ऐसा नुस्खा-ज़ात ईज़ाद किये कि वक़्त कम लगे और काम बहुत हो। पिछले लोग मुक़ाम - नासूत से चल कर मुक़ाम - जबरूत तक जा कर मंज़िल ख़त्म कर देते थे। लेकिन अब यह रिफार्म किया गया कि मुक़ाम - जबरूत से शुरुवात की और आख़िर वहाँ किया जो असल मक़सद-ए-तमन्ना है। "अव्वले माँ आख़िरे हर मुन्तिही अस्त ; आख़िरे मां जेबें तमना ति ही अस्त।" लेकिन बिरादरान-तरीक़त ज़रा ग़ौर कीजिये कि जिस मंज़िल से चाहें शुरू करा दें और जो मंज़िलें चाहें छुड़वा दें, यह काम सहल है। इसकी हक़ीक़त फिर किसी वक़्त के लिए रखिये। अब आप फॉर्म के खाना [आइटम] दस [10] के मतलब को ग़ालिबन कुछ ज़रूर समझ गए होंगे और अब आप अपना मत दुरुस्त कर के जो मिजाज़ में हो लिखें। अगर आप उसूल इस तरह के मानें जो अब बतलाये गए है और नाम वह ही क़ाइम रखना चाहते हैं तो यह आपकी आज़ाद तबई [प्राकृतिक, असली = of nature, phylosophy] की दलील है।
खाना [मद] नम्बर 11 [ग्यारह]
इसमें सवाल यह किया गया है कि आप को किन-किन किताबों के पढ़ने का शौक़ है। इस मामले में बिला समझे-बूझे काम करते रहना अलग चीज़ है। सवाल तो उनसे है जो समझ-बूझ रखते हैं या समझ-बूझ के दायरे में क़दम रख चुके हैं यह क़दम रखने को तैय्यार हैं। एक शेर यह है -
"दिल का हुजरा साफ़ कर जानाँ आने के लिए। ध्यान ग़ैरों का मिटा 'उस' के बिठाने के लिए।"
पाहिले आप मालुम कर छूके हैं कि सारी तरकीबें दिल के अज़तराब दूर करने के लिए है और वह एकसूई क़ल्ब है। अगर किताब देखना दिल की एकसूई [एकाग्रता] को मदद देता है तो शौक से पढ़िए और अगर बजाय तसफ़िये के उलझन पैदा करता है तो फिर उसको अपने फ़ेल का खुद इख़्तियार है।सारी दुनियाँ अख़बार, रिसाले, मजामीन, और किताबें और अनाप-शनाप ख़बरों के मालूम करने में इस दर्जे झुक पड़े हैं जिसको नज़ारा आप को अख़बारों, लाइब्रेरी बग़ैरह के हालात से मिल सकता है। जानना और मालुम करना क़ुदरत का तक़ाज़ा ज़रूर है, मगर ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी, वक़्त और बे-वक़्त इसका लिहाज़ मुक़द्दम है। दिमाग़ एक लतीफ़ शै है और क़ुव्वत हाफ़िज़ा के भण्डार में वह अशिया जमा करना चाहिए जो कि आपको सहीह मतलूब कर ले जाने में मदद दे सके न कि कोठरी में अनाप-शनाप, अल्लम-ग़ल्लम, कूड़ा-करकट जो सामने आ जावे भर लेना सिद्ध है। क्या यह सब चीज़ें 'कोठरी' सारी हवा को मसमूअ और ज़हरीली न कर देंगीं।
फ़िर आप तो अमल व शग़ल इसका करने लगे हैं कि जहाँ तक ख्याल कम आवे, बेहतर है। अब ऐसी तरक़ीब उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हैं कि चौगुने ख्यालों का ढेर इखट्ठा हो जाय और चाहें वह आप के मतलब के हों या न हों।
अह्ले-तरीक़त की एक फ़िर्क़े के यह राय है कि मुब्तदी [नौसिखिया = an apprerntice] को इब्तिदा में किताब न देखना चाहिए और एक की क़तई यह राय है कि पहले सिद्धान्त को देख लेना चाहिए, फ़िर अमल के मैदान में क़दम मारना चाहिए। अक्सर यह देखा गया है कि आलिम और पण्डित लोग इल्म के अभिमानी हो कर अमल के तरीक़ को क़ुबूल नहीं करते और अमल के करने से पहले इस क़दर मीन-मेख़ करते हैं कि तौबा ही भली। बरख़िलाफ़त इसके कोरे लट्ठ को जो अमल बताया जावे फ़ौरन करना शुरूअ कर देते हैं और जल्द कामयाब होते हैं, लेकिन अगर सोहबत मुर्शिद की ज़्यादः न मिली तो मामूली सी बात में बहक जाते हैं या ग़लत को सहीः और सहीःको ग़लत अपनी नादानी से फ़र्ज़ कर लिया करते हैं, जिससे अंदेशा है कि कभी वह ख़ंदक़ में गिर जायँ और कहीं के न रहें। लेकिन अगर खूब पढ़े-लिखे हुए हैं, समझने के बाद मैदान-अमल में उतर आयँ और तौफ़ीक़ ईज़दी उनके शामिल-हाल हो तो उनको आयन्दा बहक जाने का और गिरने का अंदेशा नहीं होता और कामिल होते हैं। बरख़िलाफ़ इसके जाहिल अगर कामिल भी हो तो भी खदशा से खाली नहीं।
हमारे मुर्शिद "अलैह-उल-रहमत" का यह दस्तूर था कि पहिले शग़ल में इस क़दर सई [परिश्रम = endeavour] फ़रमाते कि शाग़िल [अभ्यासी] को हक़ीक़त तक पहुँचा देते और साक्षातकार करा देते। उसके बाद इस्तिलाहत [किसी शब्द का साधारण अर्थ से भिन्न और विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होना = connotation] तरीक़ा की तालीम ज़ुबानी फ़रमा देते या कोई किताब अपने सामने निकलवा देते और अमल से पहिले किताब का देखना यों मना फ़र्माते कि अगर तालिब का कोई कश्फ़ [सामने या ऊपर से पर्दा हटाना = unveiling] या मुशाहिदा [दर्शन करना, देखना, अवलोकन = act of seeing, beholding, perusal] हो और वह बयान करे तो बिला किताब देखा हुआ वाक़्या और वारदात को बयान करेगा, उसमें गुँजायश शक की न होगी और किताब देखनेके बाद वाक़्या और वारदात में शक की गुँजायश है। मुमकिन है कि क़ुव्वत हाफ़िज़ा से वक़्त एकसूई वाहिमा [वह शक्ति जिसमें सूक्ष्म बातों का ज्ञान होता है, कल्पना-शक्ति = the ability to form fine ideas, imagination] के तौर पर बरामद हो गयी हो और उसने बयान कर दिया हो। इसलिए जब तक अमल में मजबूत न हो जावे, उस वक़्त तक किताब का देखना ज़्यादः मुफ़ीद नहीं। वह मालूमात में कुछ इज़ाफ़ा नहीं कर देते बल्कि बाज़ औक़ात क़ुव्वत वाहिम को तेज़ और बर्बाद कर देते हैं जिससे कि रास्ते में रुकावटें हो जातीं हैं।
मेरा तज़र्बा है। मसल मशहूर है कि - "सूरदास की काली कामरि पर चढ़ै दूजो रंग।" हाँ, जब देखें की मेरे ऐतक़ाद की बुनियाद निहायत मज़बूत हो गयी है और अब कुछ डर नहीं रहा तो इस्तिलाहत के मालूम करने, अपने कश्फ़ और वारदात को बुज़ुर्गान सल्फ़ [सलफ़ = गुज़रा हुआ या बीता हुआ = past, by-gone] के हालात से मुताबिक़त करने और शक को दूर करने के लिए किताब देखना चाहिए। लेकिन वोह ही किताबें जो टक्साली [genuine] हैं। ऐसी किताबों को न देखना चाहिए कि आख़िर को जण्डका और इल्हाद के क़रीब पहुँच जाने का ख़ौफ़ हो और इन्तहा भी ख़राब हो।
मेरे एक दोस्त ने क़ुतुब-हदीस के देखने की इस क़दर कसरत की कि तक़लीद के दायरे से क़दम बाहर निकाल दिया और जो रिक्कत [कोमलता, रोना-धोना = tenderness, wailing] और दिल-गुदाज़ी [ह्रदय द्रावक = sympathy moving] और तरावत [आद्रता, नमी = moisture, dampness, freshness] थी, वह खुश्की में तब्दील हो गयी। अफ़सोस सद-अफ़सोस। ग़र्ज़े कि ऐसी किताबें देखना मुज़िर नहीं है कि जिनसे उसके रास्ते में रुकावट न हो जावे बल्कि इम्दाद करे।
मुफ़ीद किताबों का ज़ख़ीरा हर जगह हर जवान [language] में इस क़दर मौजूद है कि अब और ज़दीद लिखने की ज़रूरत नहीं और न आजकल के दिमाग़ ऐसी सहीह और क़ाबिल दिमाग़ वाले मौजूद हैं, जो उनसे ज़्यादा लिख सकें। सिर्फ़ उनकी नक़ल कर सकते हैं या काट-छाँट कर के अपनी जुवान [language] में लिख सकते हैं। तालीफ़ [ग्रन्थ की रचना या संकलन = compilation of a book] हर शख़्स कर सकता है, लेकिन तस्नीफ़ [ग्रन्थ आदि की रचना, लिखित या रचित ग्रन्थ = act of writing a book] लाखों लिखने वालों में से एक [ही] शख्स कर सकता है और वह भी दो-चार सफह [pages], क्योंकि तस्नीफ़ वह है कि जो नयी बात हो और नयी बात इल्हाम [मन ईश्वर की ओर से कोई बात प्रकट होना, देववाणी = Godly revelation, voice from Heaven] हो सकती है और इल्हाम हर वक़्त और हर शख़्स की नसीब नहीं।
अलबत्ता पिछला तरीक़ा, बर्ताव, इस्तिलाहें [किसी शब्द का साधारण से भिन्न और विशिष्ठ अर्थ में प्रयुक्त होना = connotation], इस्तआरे [उपमेय में उपमान के साधर्म का उपयोग करके उपमान के रूप उसका वर्णन करना = metaphor], इशारे और ज़ुबान उन किताबों की ऐसी है जिनको आज-कल के पढ़े-लिखे समझने से क़ासिर [जिसमें कोई कमी या त्रुटि हो = having a shortcoming] हैं। जिन ज़ुबानों और इल्म में वोह लिखीं हुईं हैं और जो तरतीब उनकी क़ाइम की गयी है और जो इस्तिलाहात और इशारात इस्तेमाल किये गए हैं उनके जानने वाले, शरह करने वाले अब नहीं रह गए, इस लिए वो किताबें बेकार हैं। अक्सर तर्जुमें ज़रूर किये गए हैं, लेकिन तर्जुमों की ऐसी मट्टी पलीत की गयी, कि असल चाहें समझ में भी आ जाय लेकिन तर्जुमें को हश्र [क़यामत] तक न समझ सके। जो इस्तिलाह थी उन की दूसरी ज़ुबान में तर्जुमा करने को वह मुतरादिफ़ [पर्यायवाची = synonymous] मुफ़रद [अकेला हो या किसी के साथ न हो = single, alone] लफ्ज़ न मिला, ज्यों का त्यों रख दिया, इशारे तो समझ ही क्या सकते, वह अंदर का मामला था और अंदर में दाख़िला नहीं था पस् माज़ूर [असमर्थ, विवश = uncpabale, helpless] रहें। इसलिए ज़रूरत भी है कि उन दक़ीक़ [मुश्किल, कठिन = difficult, hard] किताबों की मौजूदा ज़ुबान में शरह की जावे। मिसलन अगर एक फ़ारसीदां शख़्स है तो फ़ारसी की तसव्वुफ़ [तसौवफ़ = अध्यात्म = spiritualism] की किताब को तर्जुमा कर दें और इस्तिलाहों और इशारों को अगर मुफरद लफ्ज़ मुतरादिफ़ न बतला सकें, तो हिंदी जानने वाले को उसका भाव असली समझा देवें, ख़्वाह किसी क़दर जुमले मुरक़्क़िब-दर-मुरक़्क़िब हो जायँ और हिंदी वाला उस भाव को समझ कर हिंदी की इस्तेलाह इस्तेमाल करे मगर शर्त यह है कि हिंदी और फारसी जानने वाले दोनों शख़्स इल्म-तसव्वफ़ के ज़ाहिरी और बातिनी मामलात से बखूबी वाक़िफ़ हों, और फिर अँगरेज़ी भी जानते हों, क्योंकि आजकल अंग्रेज़ी क़ुतुब की तरतीब को ज़ेर नज़र रख कर किताब को लिखें वर्ना पुरानी तरतीब को आज-कल के लोग नज़र में नहीं लाते हैं।
ऐसा एहतमाम अगर आप लोग चाहें तो मुमकिन हो सकता है कि कोशिश करके किया जावे मगर वक़्त, इमदाद और रुपया की ज़रूरत है। इससे यह और भी फायदा होगा कि सूफ़ी लोग बाज़ तो तंग-दिली की वजह से अहल-हिन्द के असल तसव्वुफ़ को कभी हाँथ नहीं लगाते और सुनी-सुनायी बेतुकी बातों पर अहल-हिन्द के तसव्वुफ़ पर तौहीद नाक़िस का इल्ज़ाम लगा देते हैं और बाज़ उसमें से जो फ़राग़-दिली से अपना वक़्त हिन्द के तसव्वुफ़ में देना चाहते हैं तो उनको लिटरेचर नहीं मिलता और ज़्यादःतर लिट्रेचर वह मिलता है जो 'योग' से मुताल्लिक़ है, और यह लोग इल्म तौहीद में निहायत नामुकम्मिल हैं।
संतों की तहक़ीक़ात अलबत्ता सहीह नतीजे पर पहुँची है और उनका कलाम तश्वीह और इष्तआरात और इशारात में वेशतर पाया जाता है जिनको कि दीग़र मजाहिब के लोगों को खबर तक नहीं है। फ़िर हमादानी [हमादाँ = सब बातें जानने वाला = knowing every thing] की डींग मारना मेरी राय-नाक़िस में ठीक नहीं है। यही हाल हिन्दू-सूफ़ियों और साधुओं का है, जो मुसलामानों का। हाल में शिववृतलाल जी ने चन्द नुस्ख़ेज़ात तसव्वुफ़ इस्लामी के लिखे हैं और उनके यह दावे हैं कि इस्लाम की बावत जो तसव्वुफ़ हैं उनको खूब वाक़फ़ियत है। मगर मैंने ग़ौर किया तो मालुम हुआ कि मौलाना रूम साहिब और मौलवी जामी साहिब व शम्सतवरेज़ साहिब और मुहम्मद इब्न अरबी साहिब के लिट्रेचर को देख कर वाक़फ़ियत को ख़तम कर दिया गया है। हालाँकि इन सब लिट्रेचर में सिर्फ वहदत-वजूदी का राग अलापा गया है। चूँकि संतमत में जदीद तहक़ीक़ात में जो राधास्वामी साहिब और राय साहिब [सालिगराम] जी के सिलसिले में हुयी है वहदत-वजूदी के अलावा ऊँचे मुक़ामात की गयी है। इसलिए मुसलमानी तसव्वुफ़ का मुक़ाबिला करके उसको नीचे दरजे का क़रार दिया जाता है। वजह यह है कि हज़रत शेख़ अहमद साहिब मुजद्दिद अलिफ़सानी रहमत 0 ने वहदत-वजूद को दरम्यानी मुक़ाम साबित कर दिखा दिया और बड़ी-बड़ी बहसों के बाद आप के मुक़ाम को आला क़रार दिया गया। इस लिट्रेचर को हाँथ तक नहीं लगाया गया है और जो मुक़ामात वहदत-वजूदी और अह्म ब्रह्म के बाद मुशाहिदे में लाये गए उनकी पहुँच अब तक बड़े-बड़ों को नहीं हुयी।
काश अगर उनकी सब तस्नीफ़ [लिखित या रचित ग्रन्थ = a written or a composed book] को छोड़ कर सिर्फ़ मक़तूबात [लेख, पत्र, चिट्ठी = an article, letter] ही को देख लें और समझने की कोशिश करें तो आँखें खुल जायँ मगर देखे कौन। खुद मुसलमान सूफ़ी साहबान को इनकी हवा नहीं लगती है। ज़्यादः ऊँचे मुक़ामात होने की वजह से फ़हम [बुद्धि, समझ, ज्ञान, अक़्ल = intellect, wisdom] और इदराक़ [समझ, अक़्ल, बुद्धि = understanding, intellect] का घोड़ा रस्सी तुड़ा भाग निकालता है और समझ नहीं सकते।
अलावा इस्तिलाहत और भी निहायत बारीक़ और दक़ीक़ [नाज़ुक, कोमल, मुश्किल = tender, difficult, hard] मुक़ामात के हुनर किस तरह समझ में आवें। पस् हमारे तरीक़ा के बुजुर्ग़ बारान को चाहिए कि अहले इल्म इस धब्बे को अगर मिटाने की कोशिश न करें तो यही करें कि इस राज़ को तर्जुमा करके समझने-समझाने के लिए छोड़ दें फिर तहक़ीक़ात करने वाला ज़माना खुद ही तसफ़िया कर लेगा और रोज़-रोज़ की तू-तू में-में और झगड़ा दफ़ा हो जाएगा। यह किस क़दर रफ़ाह-ए-आम [सामान्य लोगों के परोपकार = benevolence of general-public] की बात है।
खाना [मद] नम्बर 12
इस खानें में यह सवाल है कि संतमत और सत्संग में शामिल होने की ग़र्ज़ सिर्फ़ अंदर का अभ्यास ही है या उसकी बाहरी उसूलों की पाबन्दी।
मेरा ख़याल है और तज़ुर्बा भी है कि संतमत के अंदर के अभ्यास को अब तक लोग नहीं समझे हैं और न बाहिरी उसूलों को समझे हैं। जो अपने को वाक़िफ़कार ख़याल करते हैं उनको टटोला गया तो मालुम हुआ कि अभ्यास ख़ालिस संतमत का उसूल उनको मालूम नहीं बल्कि 'खिचड़ी' या खिल्त-मिल्त उसूल जो मुख़्तलिफ़ सम्प्रदायों के हैं वह उनको सुने-सुनाये दिमाग़ में लिए हैं। पुराना संयोग और कुछ दर्मियानी ज़माने का तान्त्रिक ख़्याल ऐसा जकड़ गया है कि पीछा नहीं छोड़ता और ज़बानी वेदांत ने भी अपना रॉब गाँठ रक्खा है। इसके अलहिदा तहक़ीक़ात से यह भी वाजः हुआ कि शंकर-मत के सन्यासी जो वाक़ई 'शंकर-मत' के सन्यासी नहीं हैं अपने आप को ऐसा साबित कर दिखाते हैं कि वह 'योग' से बखूबी वाक़िफ़ हैं। हालाँकि वह 'बाम-मार्ग' में जो सिद्धियाँ नीचे दर्जे के योग के मुताल्लिक़ मालूम हैं उनकी निस्बत तारीफ़ के पुल बाँधते हैं। इसी तरह मुस्लमान-सूफ़ी कश्फ़ [ईश्वरीय प्रेरणा = God's inspiration] व करामात के गढ़े हुए पुराने ज़माने के किस्से ज़ात, बेपढ़े और जईफ दिलों की मण्डलियों में सुनाते रहते हैं जो महज़ शेखी-ही-शेख़ी है। फ़कीरी का घर दूर है।
लफ्ज़ 'संत' और उसके 'मत' की तशरीह के लिए हमको इस दर्जे के नीचे के मदारिज़ तय करके आना चाहिए जो ग़ालिबन मुमकिन हैं कि असल लफ्ज़ के मानी की ख़बर पढ़ सके। 'संत' लफ्ज़ की तारीफ़ गोस्वामी तुलसीदास साहिब ने निहायत साफ़ ज़ुबान में कई जगह बतायी है, उनको पढ़ने वालों ने पढ़ा होगा।
करीब-करीब हर मज़हब का यह अक़ीदा है कि दुनियाँ में जब-जब ऐसा अंधकार छा जाता है कि 'धर्म' की 'अधर्म' के मुक़ाबिले रोशनी मंद और फींकी पड़ जाती है और राजा से ले कर रंक तक ऐसी हड़बोम में पड़ जाता है कि असलियत का पता उसको नहीं मिलता और मुल्क़ की आव-हवा ऐसी ज़हरीली हो जाती है कि अच्छे लोगों की नसीहत किताबों की दफ़अत [अचानक, सहसा = suddenly], धर्मशास्त्र की पाबंदी का कोई लिहाज़ बाक़ी नहीं रहता। जो सच्ची बातें हैं वह उल्टी हो जातीं हैं और बदी को नेकी और नेकी को बदी मान लिया जाता है। सहीह रास्ता बताने वालों की राजा खाल खिंचवाते हैं और ग़रीब और रियाया उनकी हँसी उड़ाते है। तो असल भण्डार की दया की सिफ़त जोश में आती है और वक़्त के लिहाज़ से एक खास मुक़ाम से एक पाक शख़्सियत का ज़हूर होता है। उसमे वह क़ुव्वत रूहानी होती है जो उस मुल्क की सब बाशिंदगान की क़ुव्वत पर ग़ालिब आ सके। उसके एक हाँथ में किताब होती है और दूसरे हाँथ में तलवार। 'किताब' से मुराद नसीहत और समझाना-बझाना और क़ानून।
पिछला क़ानून क़तअन मन्सूख़ कर दिया जाता है और जुमला पिछली तर्मीमात और तब्दीलियात रद्द कर दी जातीं हैं या पिछला क़ानून किसी क़दर तरमीम व तनसीख़ [निरसन, रद्दगी = cancellation] के बाद अजसरेनी नाफ़िज़ [प्रचलित = prevalent] कर दिया जाता है। अगर क़ानून समझाने-बुझाने का कोई असर मुल्क पर नहीं होता है तो फिर से खबर ली जाती है। कौन ऐसा अवतार या नबी ऐसा नहीं हुआ कि जिसने हंगामा जल्लाद व क़त्ताल बरपा न किया हो। अगर लोग इसी उसूल की तरदीद करेगे तो ग़ालिबन हज़रत ईसा को और महात्मा गौतम बुद्ध को ऐसी फ़हरिस्त से निकाल देंगे। मगर गौतम बुद्ध के और हज़रत ईसा की बराहेरास्त लड़ाई में शिरक़त तो तवारीक़ में नहीं मिलती लेकिन इनके बाद की बड़े ज़ोर की घमासान मार-काट हुयी है जो उनके हवारियों [हवारी = हज़रत ईसा मसीह के मित्र और साथी = friends of the Christ] और भिक्षुओं ने की है। अलावा इसके वाजः रहे कि अवतारों की पैदाइश की फिलोसोफी में यह भेद है कि बाज़ अवतार या नबी किसी ख़ास मुक़ाम से किसी खास सिफ़त के ज़्यादः हिस्से को ले कर पैदा हुए और बाज़ किसी दुसरी किसी खास सिफ़त और खास मुक़ाम को ले कर। मिसलन परसुराम जी का अवतार खास ब्रह्मचर्य आश्रम का अवतार है और उनमें तबई हैवानी जज़बात और हठ का ग़लबा है। श्री राम चन्द्र जी का गृहस्थ्य आश्रम का। इनमें क़ुव्वत सलूकी का ग़लबा था और इश्क़ व जज़्ब का दवा हुआ और ज्ञान का खुला हुआ था। यहाँ क़ुव्वत-जमाल का दर्शन है, क्योंकि वह 'मर्यादापुरुषोत्तम' माने गए हैं। श्री कृष्णा जी महाराज वानप्रस्थ के अवतार है। इनमें क़ुव्वत जज़बाती और इश्क़ का खुला हुआ और ज्ञान का दबा हुआ बल्कि योँ कहना चाहिए कि जज़्ब व सलूक और इश्क़ साथ-साथ। निहायत सलीम हलात और कैफियत के साथ यहाँ जमाल और जलाल दोनों का रंग अपने-अपने मौके पर है और मिला-जुला हुआ है। गौतम बुद्ध का वैराग्य तक और ज्ञान का साथ है। हज़रत यूसुफ़ अलैह इस्लाम में जमाल ज़ाहिरी, हज़रत मूसा अलहस्लाम में जलाली, हज़रात ईसा में सिफ़त रहम और दरगुज़र।
हज़रत मोहम्मद सल्ले अलह अालहि व् सल्लम में जुमले सिफ़ात जो ऊपर मज़कूर हुयी सब का जलवा एक साथ और अपने-अपने वक़्त और मौके पर अलहिदा रंग में हैं। यहाँ जुमले सिफ़ात जो ग़ैर मुअतदिल [ मातदिल = जो न बहुत उग्र हो, न कोमल = moderate] हो गयी थी और अहल अरब का इख़्लाक़ हर सिफ़त की बावत ख़राब हो गया था उसकी वजह से जुमले सिफ़ात को मुअतदिल और समान अवस्था पैदा करने के लिए आप उस मुक़ाम से पैदा किये गए कि जुमले सिफ़ात पर परतौ [प्रकाश जैसे मेह का परतौ = सूर्य का प्रकाश, रश्मि, किरण, प्रतिच्छाया या अक्स = light, a ray, reflection] पड़े और वह मुल्क राहे-रास्त पर आ जावे। इसलिए श्री राम चन्द्र जी महाराज का मुक़ाम पैदायश असल ब्रह्मचारी मन के मुक़ाम से है। और भरत जी का ब्रह्माण्डी अक़्ल से और शत्रुघ्न जी का चित्त के मुक़ाम से और लक्ष्मण जी का अनानीयत यानि अहँकार के मुक़ाम से और हज़रत श्री कृष्ण जी महाराज का शुद्ध अहँकार, शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि और शुद्ध चित्त और अपरा प्रकृति और परा-प्रकृति सम्मिलित शुद्ध आत्मा के मुक़ाम से। हज़रत ईसा और महात्मा गौतम बुद्ध का 'कृपा' के मुक़ाम से और हज़रत रसूल अरबी का दयालुता के मुक़ाम से जो सतपद का मुक़ाम है। मुक़ाम, दया, कृपा, पारब्रह्म, काल, महाकाल और शून्य, महाशून्य की तारीफ़ किसी [और] मौके पर की जावेगी।
अब इसके आगे चलिए। जब कि ग़र्ज़ पूरी हो जाती है और जिस क़िस्म की बद-इख़लाक़ी या ख़राबी को दूर करने के लिए अवतार हुआ था और जब वह काम खत्म हो जाता है, तब अवतार और नबी वक़्त को पूरा करके फ़ौरन ही अपने जाए क़याम पर, जहाँ से कि उनका अवतार हुआ था, वापस चले जाते हैं और अपने पीछे क़ानून अमल दरामद आयन्दा के लिए छोड़ जाते हैं। पिछला क़ानून या तो बिलकुल मन्सूख़ करके या दूसरा जदीद तय्यार करके छोड़ जाते हैं या पिछले क़ानून में मुनासिब वक़्त व खराबी के लिहाज़ से, जैसी कि हालत हो, तरमीम तंसीख कर जाते है और उनके पीछे हमेशा और हर वक़्त फिर तबदीली का कानून, आव-हवा, रस्म-रिवाज़, तबियत और मिजाजों में हलकी-हल्की तबदीली पैदा करना शुरू कर देता है और जब इस क़दर खराबी फिर पैदा हो जाती है कि तरमीम और कांट-छांट की ज़रूरत पड़ती है, तो उस वक़्त सौ वर्ष या पाँच सौ वर्ष बाद या एक हज़ार वर्ष बाद एक ऐसा सिद्ध, वली, संत, महात्मा पैदा होता है जो पिछले गुज़रे हुए नबी और अवतार के मुरत्तिब करदा और छोड़े हुए क़ानून की तशरीह करके लोगों को जी और मोहब्बत से समझाता है और कोशिश करता है कि गुमराह लोग नेक और सहीह रास्ते पर आ जावें, लेकिन पूरा नए कानून में अपनी राय से कोई तरमीम नहीं करता, सिर्फ़ अमल और शग़ल और अंदरूनी अभ्यास में तरमीम बदल हस्ब ज़रूर कर देता है।
लेकिन जब धर्मशास्त्र के बुनियादी उसूलों पर जिन पर निज़ाम-आलम का दार-मदार है, कोई तबदीली ब-इख़्तियार खुद ख़िलाफ़ उसूल मौजूदा क़ानून के नहीं करता और तालीम और तल्क़ीन का सिलसिला सिर्फ़ मोहब्बत और तालीफ़ [ग्रन्थ की रचना या संकलन = compilation of a book] क़ल्ब ही से करता है। अवतारों की तरह उसको यह मजाज़ [जिसे नियम या क़ानून आदि के अनुसार कोई काम करने का अधिकार मिला हो = illegible] नहीं कि अगर कोई न माने तो डण्डे से उसकी ख़बर ले।अब इनमें से वली और संत दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो क़ानून इश्क़ को सिर्फ़ बरतें और भक्ति-मार्ग से लोगों को उपदेश करे और एक वह जो उसके अलावः धर्म-शास्त्र को भी साथ-साथ ले कर चले। पहिले वाले बाक़ायदा तालीम का अहतमाम नहीं करते और दूसरे बाक़ायदा। पहिले वाले सिफ़त आशिक़ी रहते हैं और दूसरे पर सिफ़त-माशूक़ी का ग़लबा रहता है। पहिले क़िस्म के वली ज़ेर-क़दम जात महज़ होते हैं और दूसरे क़िस्म के महात्मा ज़ात और सिफ़ात दोनों पहलुओं के मुक़म्मिल होते हैं।
मिसाल यह है कि एम् ए सब पास करते हैं। मगर सब में पढ़ाने और तालीम करने की वह खास क़ाबिलियत नहीं होती जो होना चाहिए। यह मुमकिन है कि पढ़ाने-लिखाने के लिए उन एम् ए में से मुक़र्रर कर दिए जावें जिनमे क़ाबिलियत तालीम और तदरीस की हरगिज़ नहीं होती। यह वक़्त को टालते और मुफ़्त की तनख़्वाह वसूल करते हैं। हज़ारों पढ़े-लिखों में से कोई एक-दो ऐसी क़ाबिलियत रखते हैं।
अब ख़याल कीजिये कि एक एम् ए क्लास-टीचर है, बाक़ी बहुत से दीग़र डिपार्टमेण्ट के मुलाज़िम। मुल्ला और पंडित लोग तालीम ही दे सकते हैं। अगर इन्तज़ामी मामलात उनके सुपुर्द कर दिए जावें तो बौखला जाते हैं। इसी तरह कोई डिप्टी कलेक्टर अगर पढ़ाने-लिखाने के लिए मुक़र्रर किया जावे तो बग़लें झाँकने लगेगा और घर पर तैयारी करके आना पड़ेगा और "सिखाये पूत" का मसला हो जावेगा।
हाँ, अगर किसी संत या वली में दोनों क़ाबलियतें एक ही साथ मौजूद हैं तो नूर-आला-नूर और यह क़ामिल मुक़म्मल बल्कि अकमल है। ऐसे महात्मा और वली ग़ालिबन वह लोग होते हैं जो उस अवतार और नबी के ज़ेर क़दम होते हैं जो शरियत और तरीक़त और मारिफ़त और हक़ीक़त को साथ-साथ ले कर निहायत हम-आहंगी के साथ बर्ताव करते हैं। साफ़ लफ़्ज़ों में यह है कि ऐसे वली जो इन्तहाई मुक़ाम जज़्ब को तय करने के बाद इन्तहाई मंज़िलें सलूक में आ गए, यह रुब [शरबत = syrup] ख़ुल्क़ [आदत = a habit] हो जाते हैं और वह रुब खुदा।
दरअसल रुब खुदा हो कर रुब ख़ुल्क़ जो होते हैं, वह नबियों के सच्चे वारिस और क़ाइम मुक़ाम होते हैं और इन्हीं की तालीम मुक़म्मिल है। यह धर्मशास्त्र यानि फ़क़्क़ह को मुक़द्दम समझते हैं। इसी को मैंने बाहरी उसूलों का लफ्ज़ क़रार दिया है।
अब इनमें से बाज़ क़स्बी होते हैं और बाज़ वहबी। क़स्बी वह होते हैं जो अधिकारी और सत्संगी, साधु, हंस, परमहंस, संत, परमसंत की अवस्था तक अपने-अपने अभ्यास और अमल शग़ल के सहारे पहुँचें और बाज़ इनमें से किसी बाहरी सिफ़ाती मुक़ाम में चढ़ाई करके अटक रहें और बाज़ किसी लतीफ़ या सूक्ष्म सिफती मुक़ाम तक पहुँचें और बाज़ अलीत यानि 'कारण' की अवस्था मुक़ाम सिफ़ाती तक उबूर कर सकें और कोई-कोई हर सिहगाना मुक़ाम सिफ़ाती मुक़ामात से उबूर पा कर ज़ात की बारगाह तक क़दम जन हुए और वह ही वह हैं जो तय्यार थे और अभ्यास और सत्संग मामूली किया, ऊपर से फज़ल व करम हुआ और एक दम किसी ने हाँथ पकड़ कर या रफ्ता-रफ्ता ऊपर को खींच लिया। ऐसे लोग जब शुरू करते हैं तो उनको 'मुराद' कहते हैं, बक़िया को 'मुरीद'। 'मुराद' वह हैं जो तैयार आये हैं और जिनको अमल व शग़ल वग़ैरह की ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है। सिर्फ़ सत्संग से उनका काम बन जाता है। 'मुरीद' वह हैं जिनके संस्कार यानि स्तेदाद क़बूल और जज़्ब और क़ाइम रखने की निहायत ज़ईफ़ होती है, जो वर्षों रगड़ते हैं, डूबते हैं, उछलते, गुमराह होते, राहेरास्त पर आते और आख़िरकार किसी सिफाती मुक़ाम पर या उससे निकल कर ज़ात तक रसाई के हक़दार हो जाते हैं। इनकी भी चन्द किस्में और दर्जे हैं जो मालुम करने के क़ाबिल हैं।
पहिले दर्जा 'सत्संगी' का है। 'सत्संगी' सिर्फ अधिकारी से मुराद है, जो 'सत' का संग करे। 'सत' कहते हैं - सच्चाई, हकीकत,असलियत को। और 'संग' नाम है - सोहबत, मिलाप और साथ रहने को। जो हक़ीक़त शनास हो, हक़ीक़त पसंद हो, हक़ीक़त-जू और हक़ीकत-बी हो, वह 'सत्संगी' कहलाने का मुस्तहक़ है। उसका दूसरा नाम 'अधिकारी' है या जिसको इस्तेदाद है, जो पात्र है, ज़र्फ़ रखता है, दरअसल जो खास सोहबत में रह कर फैज़ उठाते हैं, अधिकारी कहे जाते हैं। सत्संगी और अधिकारी में सिर्फ़ इस क़दर फर्क है कि बिला अधिकार, ज़र्फ़, पात्र, इस्तेदाद की मौजूदग़ी के सत का संग नहीं करेगा और जो करने लग जावे, उसको 'सत्संगी' कहते हैं।
यह ज़ाहिरी क़लाम को "सुतीती" जिससे मुराद सगुण उपासना है। फिर उस पर ग़ौर करते हैं और मानी पर आ जाते हैं, उसको निर्गुण उपासना कहते हैं, क्यों कि सतत लफ़्ज़ी लिवास का बुत है और उसके मानी बातिनी क़ैफ़ियत है जो निर्गुण है। यह सत्संग में बैठ कर निर्गुण और सगुण उपासना दोनों एक साथ करता है। अभी तक इस शख़्स ने "गुरु धारण" नहीं किया।
अधि मारना = बहुत और कृ मारना करना। मतलब कर्म मैलान तबई-दिली ख्वाहिश और अंदरूनी जज़्बात के ग़ल्बे को कहते हैं, वस्फ़ उसका सिर्फ़ श्रवण और मनन है। जब ग़ौर करके हक़ीक़त और सच्चाई को ज़हन नशीं कर ले, तब साधन सीखें जिससे उसके अंदर 'सत' के भाव पैदा होने का इम्कान हो, उसको 'साधू' कहते हैं।
तहसील, तक़्सीब, मश्क़ और अभ्यास से ताल्लुक़ रक्खे जो साधना न करे, उसको 'साधू' नहीं कह सकते। जैसे कि उसको 'सत' की धुन है, वह ही उसको सत ग्रहण करने की सरगर्मी रहती है। जो शै उसके साधन में रूकावट है, उसको छोड़ने में कभी परहेज़ नहीं रखता, सच्चे मानी में गुरु का ज़हूर उसके लिए है। यह 'गुरुमत' हो कर गुरु के बताये हुए क़ाइदे की पाबंदी मुक़द्दम रखता हुआ अपनी कामयाबी की फ़िक्र में लगा रहता है। 'साधू' का दर्जा "निध्यासन" है। 'नि' मानी अंदर, 'ध' माने इख़्तियार करना और 'आसान' बैठने को कहते हैं। जो किसी ख्याल को अपने अंदर इख़्तियार करके उसी पर जम कर बैठे, उसी को 'निध्यासन' कहते है। यह अमल व शग़ल है और उसके लिए तरह-तरह के तदबीरों और तरक़ीबों की तालीम का सिलसिला जारी किया गया है जिसका नाम ज़िक्र, फ़िक्र और राब्ता है। यानि 'भजन', 'सुमिरन' और 'ध्यान'।
सत्संगी का धर्म - सत्संगी का धर्म 'यम' 'नियम' है। असत्य भाव, असत्य ख्याल को तर्क करना 'यम' कहलाता है। 'यम' ख़ारिज़ करने को कहते हैं। सत भाव और सत के ख़्याल करने को या इख़्तियार करने को नियम कहते हैं। 'यम' से मुराद इख़्तियार, क़ुबूल और जज़्ब से है। 'यम' नफ़ी है। 'नियम' असबात है। दिल के बर्तन से नफ़ी का ख़ारिज़ करना 'यम' और दिल के बर्तन में असबात को भरना 'नियम'।
साधू का धर्म - आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धरना। यह 'चौसाधन' हैं।
[01] आसन - अव्वल ऐसा खास बज़अ में बैठना कि चित्त की वृत्ति के चंचल होने का ख़ौफ़ न रहे। तरह यह सहूलियत हाँसिल हो जावे, वह ही 'आसन' है।
[02] प्राणायाम - प्राण की वृत्ति को अपने अंदर ऐसी शक्ल में क़ाइम कर लेना है कि वह चित्त को निश्चल रख सके। साँस को रोकने से यहाँ कोई मुराद नहीं है। न हब्सदम न पास-अनफ़ास से मक़सद है।
[03] प्रत्याहार - चित्त उस वक़्त तक कभी न रुकेगा, जब तक उसको ख़ास मर्क़ज़ पर क़ाइम करके किसी और शै पर टिकने का सहारा न दिया जाय। जब चित्त की वृत्ति रुकने से इन्कार करे, ख़्वाह भागने लगे तो उसको बार-बार मर्क़ज़ पर जमाया जावे और तवज्जोः या ख़्याल से मदद ले कर उस पर क़ाइम किया जावे तो उसका नाम 'प्रत्याहार' है। वृत्ति के बार-बार रोकने के अमल को 'प्रत्याहार' कहते है।
[04] धारणा - इख़्तियार करने, पकड़ रखने और जमा देने को धारणा कहते हैं। यह लफ्ज़ 'धृते' मानी पकड़ने से निकला है। यह सब मिल-मिला कर 'निध्यासन' कहलाते हैं। जो 'चौसाधन' हैं।
ध्यान - अच्छी तरह धारण करके तसव्वुर और ग़ौर करने का नाम 'ध्यान' है।
समाधि - ध्यान की गहरी हालत का नाम है। 'सम' मानी मिला-जुला हुआ, 'धा' मानी धारण करना। मतलब यह है कि 'सत' से खूब मिल-जुल कर उसको पकड़ रखने को 'मुराकब:' या 'समाधि' कहते हैं।
अब एक दर्जा 'हंस' का है, जिसके मानी हैं "सत का ग्रहण करने वाला" सत्संगी सत का संग करने वाला, 'साधू', सत का साधन करने वाला। 'हंस' लफ्ज़, 'हन' मानी मारने से निकला है। जिसने बुरी ख़्वाहिश को मार गिराया है और जिसमें सत रूह बन कर रहता है, वह हंस है। उसका वस्फ़ साक्षात्कार करना है।
इस नज़र से हंस की दो कैफ़ियतें हैं, पहली 'असत' का त्याग और 'सत' का भली भांति गृहण करना, दूसरा उसका रूप बन जाना। यह इस वजह से माना गया है कि हंस पानी-पानी को छोड़ देता है और दूध-दूध को पी लेता है।
जब तक कि 'सत' के इख़्तियार और असत के ख़ारिज करने से ताल्लुक़ है तब तक 'हंस' की हालत को "सुकमिल" कहते हैं। 'स' मानी साथ, कला मानी तमीज़ करना। तमीज़ करने को सुकल्प कहते हैं।
यह दूध और पानी की मिली-जुली अवस्था में से पानी का तर्क करना और दूध का पीना मुराद है। जब 'हंस' इस वस्फ़ और ख़सूसियत का हो जाता है तब उसका नाम "परमहंस" कहा जाता है। यह ज़िन्दग़ी की निहायत खुशग़वार हालत है। उसको कोई कोई 'अवधूत' और 'कलन्दर' बोलते हैं। यह सत या हक़ीक़त की मस्ती की क़ैफ़ियत है। 'सत्संगी', 'साधू' और 'हंस' यह तीनों अब तक माया, सिफ़ात और काल के चक्कर में हैं। इन सब के परे एक चौथी हालत है, जिसको 'संत' कहते हैं। 'संत' सत के रूप को कहते हैं। संत जात में और हक़ीक़त में निज स्वरुप है। असल में इनके सिवाय सब नक़ल है। इब्तिदा इसकी सत से होती है लेकिन हालतों में फर्क होता है। फ़र्क के दायरे में तमीज़ी मद्दात रहते हैं। तमीज़ी मद्दात को भी सिफ़ाती और कृत्रिम कहते हैं।
जाती और जातियत और चीज़ है। सिफ़ाती और नक़ल दूसरी चीज़ है। सत जातियत है और कृत्रिम सिफ़ातियत है। जो असल में है और हमेशा रहता है वह तो सत है। जो असल में नहीं है, असल की नक़ल बन कर दिखा रहा है वह कृत्रिम है। जो क़ाइम बिल-जात है वह संत और सत है। जो क़ाइम-बिल ग़ैर हो वह असत और असत है। इसलिए सत्संगी सत या संत के सोहवती को कहते हैं।
'साधू' सत या 'संत' की क़ैफ़ियत के साधन करने वाले को कहते हैं। हंस सत की या संत की क़ैफ़ियत में महब रहने वाले का नाम है। संत सत का रूप है और ज़ात हक़ीक़त है। और 'परमसंत' सन्तपने की घनेपन की इम्तिआज़ी सूरत जहननशीं कराने की ग़र्ज़ से यह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है।
सत्संगी में संत के निश्चय के साथ कथनी और कुछ करनी रहती है, यानि काल और कुछ हिस्सा हाल का। 'साधू' में संत के निश्चय के साथ करनी रहती है, कथनी नहीं रहती यानि हाल रहता है, काल नहीं रहता।
हंस में करनी और रहनी यानि हाल और उसमें हाल की महवियत, रहनी का हिस्सा ज़्यादा होता है। संत में कथनी [काल] करनी [हाल] रहनी [हाल की महवियत] निहायत मौजूनियत, हम-आहंगी और बाहमी मुताबिक़त के साथ एक लड़ी में गुंथी रहती है। वह रहनी का रूप बना रहता है यानि 'बाक़ाउलबक़ा' हो जाता है। इन सब दर्जों में कस्बी और वहबी दोनों तरह के होते हैं। अब आपने सत और असत के मतों की क़ैफ़ियत जान ली। "दरअसल जो साधू और संत सिफ़ात के चक्करों से आगे जाने का एहतमाम करे और कराये वह संत और संत-मत है। यह सब मतों की हक़ीक़त से आगाह हो कर दया की नज़र से सब को अपनाता है और किसी से विरोध इस वजह से नहीं करता कि सब मत उसके अंदर हैं और और वह सब मतों से ऊपर है। सब को बुला कर और बिला कराहियत और एतेराज़ के है एक की निग़ाह ऊँची करना और कराना चाहता है।"
अब इस नम्बर दस [10] के मद में सवाल यह था कि इसमें शिरक़त की वजह सिर्फ़ अंदर का अभ्यास है या बाहरी उसूलों की पाबंदी भी। अंदर के अभ्यास की तालीम और तशरीह ज़्यादातर अमल से ख़सूसियत रखती है जो करीब-करीब सबको मालूम है, और बाहरी उसूल भी बिलकुल उसके मुताबिक हैं। अंदर और बाहर उसूल एक ही काम करता है। क्या आप अंदर सत की तलाश करेंगे बाहर असत की ? क्या आप 'दोहरापना' अख़्तियार करेंगे। जो महापाप है। अंदर और, बाहर और ; 'मन में राम बग़ल में ईंटें'। जो मदारीज़ की तशरीह की गयी है उसमें, निहायत तफ़सील के साथ सिर्फ़ सत और असत के भाव दिखलाये गए हैं। अगर उनको गुरुमत हो कर कार्यवाही की जावे तो कामयाबी मुमकिन है वर्ना हरगिज़ नहीं। 'मनमत' होना इस मत के ख़िलाफ़ है। 'गुरुमत' होना उसको कहते हैं कि जो गुरु कहे उसको मन, वचन और कर्म से बजा लावे। मैं तो यह देख रहा हूँ कि 'मनमत' इस क़दर ज़ोर है कि वह मनमत के ज़ोर से यह चाहते हैं और कोशिश करते रहते हैं कि जो कुछ हम चाहें उसी के मुताबिक़ गुरु हुक्म बजा लावे और उसकी करतूतों पर हरगिज़ और किसी किस्म की चूं व चरा न करे और सर औंधाए जहाँ तक हो सके सब बेएतदालियाँ बर्दाश्त करें। इस मानी में तो अब उलट-धार मामला हो गया है। गुरु चेला है और चेला गुरु। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बाहरी व अंदरूनी अभ्यास और बाहरी ब्यवहार में लगाए रखने को 'गुरुमत' कहते हैं।
पस् असल में सवाल मनमत और गुरुमत होने का है। यहाँ ज़्यादातर तादाद इस वक़्त सत्संगियों की है जिन्होंने अब तक गुरु धारण नहीं किया है, और साधू भी हैं जो अमल तो करते हैं मगर मनमत के साथ। जैसा उनके दिल में आता है वह करते हैं, और जो उनका दिल गवाही नहीं देता है उसको हरगिज़ नहीं करते। इसी तरह पर उन्होंने गुरु को उसूलन धारण कर लिया है मगर रिवाज़ी मनमत नहीं छोड़ा।
अगर महज़ सत्संग और अंदरूनी अभ्यास से काम है और बाहिरी उसूलों की तरफ़ तवज्जः नहीं भी है यानि मनमत बने रहते हैं तो उस वक़्त तक उनको बैअतसानी के लायक नहीं समझा जाता है, इस दूसरे दर्जे के सम्बन्ध को 'गुरुमुखी' होना कहते हैं इसमें चंद वायदे लिए जाते हैं। हालाँकि बहुत कम ऐसे हैं कि वायदे पूरा किया करते बल्कि अधूरा भी नहीं करते। लेकिन यह उनका फ़ेल है। शैतान सब के साथ है। उसमें चूँकि रूहानियत से ताल्लुक़ जोड़ा जाता है इसलिए इसमें यह ज़िम्मेदारी होती है कि इस ताल्लुक़ का छूटना निहायत मुश्किल हो जाता है। ख़्वाह कितने ही अर्से तक साधू गुमराह रहे और अभ्यास न करे लेकिन रूहानियत घेर-घार करके कभी-न-कभी उसको फिर राहे रास्त में वापिस ले आती है। बहुत कम ऐसा देखा और सुना गया है कि यह ताल्लुक़ तमाम उम्र के वास्ते क़तई छँट जावे।
अगर इस ताल्लुक़ को साधू खुद ही दिल से तोड़ दे तो फ़ौरन टूट जाता है, लेकिन अगर वह दिल से न चाहे तो गुरु के नाराज़ रहने और निकाल देने पर भी कुछ-न-कुछ डोरा लगा रहता है और तअल्लुक क़तई नहीं छूटता। इस वजह से वक़्त आ जाने और संस्कार उभर जाने पर वह बदस्तूर संभल जाता है।
इसके बाद जब फिर देखते हैं कि साधू 'हंस' के दर्जे में आ गया, लेकिन मुस्तक़िल नहीं हुआ है और उसमे तासीर दूसरे में तसर्रुफ़ [व्यय, उपयोग, प्रयोग, महात्माओं आदि की अलौकिक शक्ति = expenses, use, mystical power of saints] करने की आ गयी है तो उसकी चढ़ाई जज़्ब की क़ुव्वत से जज़्ब के नुक़्ते या मर्क़ज़ तक अक्सी तौर पर करा के उसको दूसरे में तसर्रुफ़ करने की इजाज़त दे देते हैं। यह "तीसरी बैअत" कहलाती है। इसमें सत्संग करने और तसर्रुफ़ करने की 'इजाज़त' होती है। अगर उसको 'इजाज़त' न ही दी जावे तो ख़्वामख़्वाह उसमें यह क़ुदरतन माद्दा 'तसर्रुफ़' करने का पैदा हो जाता है और इरादा या बिला इरादा उसमें तासीरात और तसर्रुफ़ात ज़ाहिर होने लगते हैं, इसलिए मजबूरन अक्सी तौर पर मुक़म्मिल करा के 'इजाज़त' दे देते हैं। ताकि उसकी क़ुव्वत और तासीर झुट्ठल और ख़राब न हो जावे, लेकिन उनको चाहिए कि कोशिश करके अक्सीपने और नकली से असल कर लें, मगर नादानिस्तग़ी [अनजानपन = ignorance] और ग़लती से यह लोग अपने आप को मुक़म्मिल समझ कर अहंकारी बन जाते हैं और ऐसा समझने लगते हैं कि जो कुछ होना था वह हो गया।
यह जुहल और नादानी है अभी न मालुम क्या-क्या मंज़िलें तय करना बाक़ी हैं। इन लोगों को ताल्लुक़ कराने की इजाज़त नहीं होती। जब 'तीसरी बैअत' वाले मुक़म्मिल कर लेते हैं तो उनकी 'चौथी बैअत' होती है फ़िर तासीर और तसर्रुफ़ करने वालों की या तो बिजली को हरकत करते हैं या कि आगे वग़ैरह- वग़ैरह।
[तफ़सील तलब]
अलावः इसके साहिबे तासीर और तसर्रुफ़ की चन्द क़िस्में हैं। एक तो वह है कि सिर्फ़ अपने से नीचे वालों को एक दर्जा ऊपर उचका दें या मुतहर्रिक़ कर दें और एक वह है कि जिस मुक़ाम से जिसको चाहें ऊपर सरका कर के ले जावें और इनमें से एक इस क़िस्म के हैं कि जब चाहें न ले जा सकें, लेकिन जब उन पर एक ख़ास हालत पैदा हो उस वक़्त हिम्मत को काम में ला सकें।
एक वह है कि जब और जिस वक़्त चाहें, ख़्वाह हालत हो या न हो, हिम्मत को सर्फ़ कर दें। एक वह है कि जब इरादा करें, तब तासीर हो और जो इरादा न करें तो तासीर न हो। एक ऐसे है कि इरादा करें या न करें, तासीर जारी रहे और रोक करना चाहें तो रोक लें। एक वोह है की उनको रोकने या न रोकने से कुछ मतलब नहीं। एक वह हैं कि उनकी तासीर से सिर्फ़ बातिनी जज़्बात को हरक़त हो जावे, लेकिन आदात और अख़लाक़ पर कुछ असर न पड़े। एक वह है कि जिसकी तासीर से बातिनी जज़्बात पर भी असर पड़े और अख़लाक़ साथ-साथ संभल जावें। एक वह है कि जिनकी तासीर और हिम्मत से बातिनी जज़्बात में कुछ हरक़त महसूस न हो, लेकिन ज़ाहिरी और बातिनी अख़लाक़ की दुरुस्ती हो जावे।
मैं ख़्याल करता हूँ कि यह मामला बहुत दर्जे का है। हाँसिल इस कलाम का यह है कि बाहिरी उसूलों की पाबंदियाँ मुक़द्दम हैं और आला हैं। जो लोग ऐसा करना नहीं चाहते तो मुज़ायक़ा नहीं कि क़ुव्वत और हिम्मत आने के वक़्त तक फज़ल के मुम्मेदवार रहें। लेकिन क़तई इंकार करने वालों के लिए यह मसला उन पर सादिक़ आवेगा।
"ई ख़याल अस्तो, मुहाल अस्तो जुनूँ।
हम खुदा ख़्वाही व् हम दुनियाँए दूँ।।"
खाना [मद] नंबर 13 [तेरह] में यह सवाल किया गया था "आप महज़ संतमत के क़ाइद के मुताबिक़ रहनी-सहनी अख़्तियार करने को तैय्यार हो सकते हैं। सामाजिक ब्यवहारों को भी साथ-साथ ले कर चलते रहेंगे।" इस सवाल के साथ ही और बहुत से सवालात उठ खड़े होते हैं -
[01] अव्वल तो यह है कि 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी क्या है ?
[02] दूसरे यह है कि क्या 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी अख़्तियार किये बग़ैर काम नहीं बन सकता।
[03] तीसरे यह कि 'संतमत' की रहनी-सहनी के अख़्तियार किये जाने पर सामाजिक ब्यवहार का किया जाना नुक्सान पैदा करेगा और किस हद तक सामाजिक ब्यवहार किया जाना चाहिए, जिन्होंने कि पूरा बयान जो इस वक़्त से पहले बयान किया जा चुका है पूरा सुन लिया है, अगर समझ में आ गया है तो और अगर इस वक़्त पूरी तौर पर समझ में नहीं आया है तो फिर कभी ग़ौर करने पर समझ में आ जावेगा तो मालुम हो जायेगा कि संतमत के मुताबिक़ रहनी-सहनी क्या है।
इसकी बावत मुफ़स्सिल तफ़्सील तो जिस क़दर हो उसी क़दर कम है और कभी ख़त्म नहीं हो सकती। लेकिन ऐसे मुन्तख़िब उसूल और सिद्धान्त के इस वक़्त जौहर बयान किये जाते हैं जो ग़ालिबन हर बात और हर अमल के साथ-साथ रहते हैं, और तफ़्सीलवार अगर आप साहिबान चाहेंगे तो बाद को किताब की शक्ल में शाया कर दिया जाएगा। इस वक़्त का तफ़्सील के साथ बयान करना मुश्किल भी है और नामुमकिन भी है। और न इस क़दर वक़्त है।
अव्वल उनमें से ऐतक़ाद है और वह ज़रूरी है और ऐतक़ाद यह है कि ऊँचा ख़याल क़ाइम करना चाहिए। जैसा ख़याल होता है उसका वैसा ही मआल [अंत, निष्कर्ष = end, conclusion] होता है। इस लिए हमको मंज़िले मक़सूद का ख्याल ऊँचाई निग़ाह रख कर करना चाहिए ; मसलन सिवाय 'संतमत' वालों के बक़िया सम्प्रदायों और पंथों का यह मेराज तमन्ना है कि इस नीचे मुक़ाम से सरक कर पारब्रह्म में लय हो जाना चाहिए या ब्रह्म में लय हो जाना चाहिए।
[यहां 'ब्रह्म' और 'पारब्रह्म' की तफ़्सील करना चाहिए] और इन्हीं में लय हो जाने की उम्र भर कोशिश किया करते हैं। और 'संतमत' के मानने वाले यह मानते हैं कि नीचे मुक़ामात से चल कर पारब्रह्म के क़रीब या उसमें फ़ना हो जाने से काम नहीं बनेगा और मोक्ष नहीं होगी इसलिए पारब्रह्म के मुक़ाम से शुरू करके 'सतपद' मुक़ाम तक रसाई हाँसिल करने का ख़याल क़ाइम करते हैं और इस ही के मुताबिक़ कोशिश भी करते रहते हैं।
इनका मक़सद यह है कि दर्मियानी मरहिलों और रास्तों से गुज़रना ज़रूरी होगा। इसलिए देवता - फरिश्ता और शक्तियों के मुक़ाम में भी फ़नाईयत और क़ुरबत [सामीप्य = proximity] भी होगी। लेकिन इनसे पार जाने का ख़याल रखना और जतन [यत्न] करते रहना चाहिए।
ज़ाहिरी ऐमाल [कार्यवाईयाँ = actions] में सत के हिस्से को लेते हैं और 'असत' हिस्सों से काम ले कर उनमें तबियत नहीं लगाते और जब ज़रूरत पड़ती है उसी से काम निकाल कर अलहिदा हो जाते हैं। जैसे कि 'पाखाना' और' पेशाबखाना' में जाना ज़रूरी पड़ता है।
ऐसी 'रहनी-सहनी' और आदत अपनी नहीं बनाते कि जिनकी वजह से इस दुनियाँ को छोड़ते वक़्त उनको तक़लीफ़ और दुःख हो और प्राण अटके रहें। इस क़िस्म के ज़ाहिरी और बातिनी ऐमाल हमेशा करते रहने के आदी अपने आप को करते हैं कि उनसे अपने आप को जिस्मानी, अख़लाक़ी और रूहानी तक़्लीफ़ न हो। नीज़ दूसरों को भी अपने मन, वचन और कर्म से जिस्मानी, अख़लाक़ी और रूहानी तक़लीफ़ न पहुँचे और पहुँचने का इम्कान हो।
इनमें सामाजिक ब्यवहार भी ऐसे शुद्ध हुए रहते हैं जिनसे किसी तरह की सोसाइटी को इल्मी - अमली जवानी तहरीरी एतराज़ नहीं हो सकता। चूँकि ऊँचे आदर्श होने की वजह से नीचे के कुल मुक़ामात पर इनका उबूर होता है और सब की वाक़फ़ियत और हक़ीक़त को जान जाने के ग़र्ज़ से इनमें द्वेष भाव, तअस्सुब और कट्टरपना नहीं रहता। इसलिए किसी को अपने से जुदा नहीं मानते और उनको कमज़ोर और नाक़िस देख कर घृणा नहीं करते बल्कि सच्ची नियत और इरादों से जनकी बेहतरी चाहते और तालीफ़ कलूब और दया के ख्याल से हर एक की निगाह को ऊँची कर देने का एहतमाम करते रहते हैं।
इनके तरीके में कश्फ़ व करामत ज़रूरी नहीं और क़यामत में बक्शवाने की ज़िम्मेदारी नहीं। न दुनियां के कामों की कारबरारी [काम का पूरा होना = completion of work] का वादा रहता है कि 'ताबीज़' और गंडों से काम बनाया जाय या मुकदमात दुआ से फ़तह हो जाया करें या रोज़गार में तरक़्क़ी हो या 'झाड़-फूँक' से बीमारी जाती रहे या होने वाली बातें बतला दी जाया करें। न तसर्रुफ़ात का होना लाज़िमी है कि पीर की तवज्जः से मुरीद की अज़-खुद ऐसी इस्लाह हो जाय कि उनको गुनाह का ख़्याल तक न आवे और खुद ब खुद इबादत के काम होते रहें और मुरीद को ज़्यादा इरादा भी न करना पड़े। न ऐसे बातिनी कैफ़ियात के पैदा हो जाने की कोई मियाद है कि हर वक़्त या इबादत के वक़्त लज़्ज़त से शरशार रहें। इबादत में ख़तरात भी न आवें। खूब रोना आये। ऐसी महावियत हो जाय कि अपने पराये की ख़बर न रहे। फ़िक्र और शग़ल में रोशनियाँ वग़ैरह नज़र आयें और न खास करके आवाज़ का सुनायी देना ऐसा ज़रूरी है, न उम्दा उम्दा ख़्वाबों का नज़र आना या इलहामात का सहीह होना लाज़िमी है।
नोट - इससे यह मुराद नहीं है कि यह सब दावे किये जायँ बल्कि यह ईश्वर की मर्ज़ी पर मुनहसिर है कि जो 'उसको' मंज़ूर है वह हो जाएगा। असल मक़सूद तो परमात्मा का राज़ी रखना है और उसकी रज़ामंदी इसमें है कि जहाँ तक मुमकिन है 'धर्मशास्त्र' के हुक्मों की ताबेदारी करना और उन पर चलना है।
इन हुक्मों में से बाज़ ज़ाहिर के मुताल्लिक हैं। जैसे कि संध्या, उपासना, व्रत, तीर्थ प्रजटन, माल से कुछ हिस्सा ख़ैरात के लिए निकालना, शादी, ब्याह, औरत, भाई, बहन, रिश्तेदार, दोस्त, माँ-बाप, पड़ोसी के हक़ूक़ का अदा करना।
लेन-देन और ब्यवहार के मसले, मुकदमात की पैरवी, गवाही देना, वसीहत अपने बाद की जायदाद की तक़्सीम वारिसों के लिए, सलाम, बोल-चाल, सोना, खाना, सफ़र, मेहमानी, मेज़बानी वग़ैरह वग़ैरह।
और बाज़ बातें बातिन के मुताल्लिक़ हैं - मिसलन ईश्वर से मोहब्बत रखना, उससे ख़ौफ़, उसकी याद, दुनियाँ से मोहब्बत का कम करना, उसकी रज़ा पर राज़ी रहना, हिर्स न करना या उपासना में दिल का हाज़िर रखना। और दीन के कामों को निहायत ख़लूस से करना, किसी को हक़ीर न समझना, खुद-पसंदी न होना, ग़ुस्से को ज़प्त करना वग़ैरह - इन सब को सलूक कहते हैं। बातिनी ख़राबियों से अक्सर ज़ाहिरी एमाल में भी ख़राबी वाक़े हो जाती है। जैसेकि क़िल्लते-मोहब्बते-हक़ से उपासना में सुस्ती होगी या जल्दी-जल्दी बिला तब्दील अर्कान पढ़ ली या कंजूसी की वजह से ज़कात और तीर्थ वग़ैरह जाने की हिम्मत न हुयी या ग़रूर व ग़लबा ग़ुस्से से किसी पर जुल्म हो गया ताकि हक़दारों का हक़ तलफ़ हो गया।
अगर ज़ाहिरी ऐमाल में एहतियात भी कर ली जावे तो भी जब तक नफ़्स की इस्लाह नहीं हुयी तो वह एहतियात चन्द रोज़ से ज़ायद नहीं चलती पस् नफ़्स की इस्लाह इन दो सबब से ज़रूरी ठहरी। लेकिन यह बातिनी खराबियाँ ज़रा कम समझ में आतीं हैं और जो समझ में आतीं हैं तो उनकी दुरुस्ती का तरीक़ा कम मालूम होता है और जो मालूल भी हो तो नफ़्स की खींचा-खांची से उस पर अमल मुश्किल होता है। इन ज़रूरतों से पीर-कामिल तज़बीज़ किया जाता है कि वह इन बातों को समझ कर आगाह करता है और उनका इलाज और तद्बीर बताता है और नफ़्स की अन्दर दुरुस्ती की इस्तेदाद और इन मामलात में सहूलियत और तदबीरों में क़ुव्वत पैदा होने के लिए कुछ ज़िक्र और शग़ल की भी तामील करता है। पस् सालिक को दो काम करने पड़ते हैं।
[01] यह कि गुरु के पास आ कर उससे सलाह और मशवरा ले कर अमल सीखने के पहिले सहीह विश्वास और मुस्तकिल इरादा क़ाइम करना। और फ़िर -
[02] गुरु करने के बाद उसकी बतायी हुयी बातों को निहायत मज़बूती और इस्तक़लाल से करना और साबित क़दम रहना और जो उन ऐमाल के नतीज़े हों उनसे आगाह करते रहना।
अब यह सवाल आता है कि क्या 'संतमत' के मुताबिक़ रहनी-सहनी इख़्तियार किये बग़ैर काम नहीं चल सकता है तो उसका जवाब यह है कि मिसाल से सुनिए -
ज़ाहिरी जिस्म की बीमारी तो वैद्य हक़ीम व डॉक्टर से इलाज और परहेज़ से जाती है और इख़लाक़ी और रूहानी मर्ज़ का डॉक्टर संत, साधू वग़ैरह है।
अगर अपने पास से दवा ऐसी दे कि जो पाँच रुपये की एक खुराक हो और हिदायत यह करे कि इस शीशी की डॉट मज़बूत लगाए रखना कि असल जौहर उड़ न जाय और शीशी को क़ब्ल इस्तेमाल करने के डूब हिला लिया करना और दवा को ठण्डी जगह पर रखना, गर्मी उसको न पहुँचे और दिन में तीन खुराकें क़ब्ल खाना-खाने के इस्तेमाल करना। और ख़ुराक़ में साबूदाना और खिचड़ी और दाल-मूंग, दूध इस्तेमाल करना।
अब मरीज़ साहिब दवा पी कर शीशी की डॉट को खुला छोड़ दें और बजाय साया में रखने के सहन में, धूप में, चूल्हे का पास रख दें और दवा पीने के क़ल्ब उसको हिलाएँ नहीं और एक मर्तवा में दो दफः की दवा एक-साथ पी जावें और तीसरी ख़ुराक़ पीना बिलकुल भूल जावें या जैसा कि आम-तौर पर औरतों का क़ायदा है कि दवा को क़सदन फेंक दिया करतीं हैं और जिस क़दर ज़्यादः ताक़ीद कर दो उसी क़दर उसका उलटा करतीं हैं - करें और ख़ुराक़ में जो उन्होंने बतलाया है कि यह खाना, वह खाना, उसके बजाय गोश्त और घुइँया और सोहन हळवा इस्तेमाल करें तो अब इस दवा के नतीज़े को आप ख़याल करें कि क्या होगा।
आप निहायत लतीफ़ दर्जे का कोई पौधा बो दें और उसमें खाद उसके ख़िलाफ़ डालें और पानी कभी न दें और न उसकी बकरियों से हिफाज़त करें तो उस पौधे का क्या हाल होगा। आप आला क़िस्म का अर्क गुलाब सबसे ज़्यादा कीमती मँगवा लें और शीशी को खुला हुआ अलमारी के नीचे के तख़्ते में रख दें और ऊपर के तख़्ते में मिट्टी के तेल का बर्तन जो टूटा हुआ है रिसता है उसका तेल बह-बह कर शीशे-अर्क में गिरे तो फिर उस गुलाब के अर्क का क्या हाल होगा। बजिन्सहू आप ख़्वाह कैसा ही अमल और शग़ल वग़ैरह करेंगे और ज़ाहिरी जिस्म के मुतअल्लिक़ जिस क़दर अहकाम हैं बजिन्सहू क़ाइदे के मुताबिक़ अमल में न लाएंगे तो फ़ायदा न होगा।
अब आप ग़ालिबन यह चाहते होंगे कि 'अभ्यास' करें संतमत का और 'रहनी-सहनी' रक्खे मौजूदा सामाजिक ऐमाल के जो बिगड़ी हुयी शकल में है उसका सवाल आप खुद हल कर सकते हैं। अलबत्ता ऐसे ब्यवहार का कर लेना रिश्तेदारी व ब्यवहार और रस्म व रिवाज़ के मुताबिक कर सकते हैं कि जिनमें वाक़ई उसूल की बुनियाद में कोई अज़ीम धक्का न लगे और धर्म का बिलकुल सत्यानाश न हो जावे, मिसलन आज-कल मामूली मोटी-मोटी बातें जो रस्म-रिवाज़ में दाख़िल हो सकतीं हैं और मायूब [जिसमे ऐब या दोष हो = faulty] नहीं समझी जातीं हैं बल्कि अच्छी समझी जातीं हैं लेकिन उनसे वाक़ई 'धर्म' की बुनियाद हिल जाती है उनको तो कम-से-कम ख़याल करें, मिसलन नशे वाली चीज़ों का खुल्लम्खुल्ला और चोरी-छुपे इस्तेमाल करना, जुआ खेलना, आम-बाज़ारी औरतों से बज़ाप्ता सम्बन्ध का रखना वग़ैरह वग़ैरह। ये बातें तो ऐसी नहीं कि जो बहुत बारीक़ हों, समझ में न आतें हों। पहले हमारे भाई इन मोटी-मोटी बातों से परहेज़ रखना सीखें फ़िर और बारीक़ बातें भी मालुम हो सकतीं हैं।
बाक़िया क़ाइदे 'B' पर देखो
[B]
[ज़मीमा सवाल नंबर 13 - रहनी-सहनी]
ज़ैल [आगे आने वाला भाग = following, under mentioned] के चंद क़ाइदे ख़ास सत्संगियों के वास्ते लिखे जाते हैं। ढुलमुल यक़ीन रखने वालों के लिए नहीं हैं।
इसके मेम्बरों का पूरा विश्वास परमात्मा ही पर होना चाहिए जिस तरह कि कोई आदमीं को किसी चीज़ की तलाश है लेकिन हर जगह माँगने पर कोई भी आदमी उसको वह चीज़ न देवे तो वह बिलकुल निराश हो कर बैठ रहता है। इसी तरह वह हर एक भाई-बंधु, रिश्तेदार, दोस्त, अहबाब, ऑफ़िसर, मातहत और राजा वग़ैरः सब से निराश और नाउम्मीद हो कर रहे।
अगर कोई उसकी मदद देवे तो वह 'मदद' परमात्मा की तरफ़ से ख़्याल करे और यह ख़्याल करे कि परमात्मा ने उसके दिल में जिसके ज़रिये से मदद मिली है यह बात डाल दी है कि वह इस तरह मदद कर रहा है। पर उसको ईश्वर का धन्यवाद् देना चाहिए और फिर उस शख़्स का तहेदिल से जवानी और दिली मश्कूर होना चाहिए क्योंकि उसने ऐसे हुक्म को जो उसको ईश्वर ने दिया, मंज़ूर किया और फ़रमावरदारी की। हर अपनी बड़े की इज़्ज़त और तमीज़ करता रहे और अपने छोटे के लिए प्यार, और उसकी ज़रूरतों को हत्तुल्मकदूर पूरा करने की कोशिश और कसूरों की चश्मपोशी। अपने बराबर वालों के साथ मोहब्बत, हमदर्दी और जायज़ इम्दाद। जो लोग कि मुख़ालिफ़त पर बिला वजह आमादा रहें, उनसे बचाव और बेपरवाह और इसी तरह अपने-आप को उनसे अलाहिदा रखने की कोशिश करना चाहिए जिस तरह कि दुनियाँदार - क़र्ज़दार अपने क़र्ज़ख़्वाह से घबराता है या कंजूस अपना रूपया ख़र्च होने की जगह से, लेकिन अगर वह मदद के ख्वाः हो तो उनका काम कर देना चाहिए और फिर अलग भाग जाना चाहिए। नफ़रत और नुकसान पहुँचाने और बदला लेने की कोशिश हरग़िज़ नहीं करना चाहिए। हरेक शख्स की ऐबपोशी हमेशा करते रहना चाहिए और किसी का भेद अगर मालुम है तो बिला-इजाज़त उसकी कभी कहीं ज़ाहिर न करना चाहिए।
अपने क़सूर को फ़ौरन मान लेना चाहिए और हठ और ज़िद न करना चाहिए। नुक़्ताचीनी की नज़र से बचते रहना चाहिए। अपना ऐब देखना चाहिए।
दूसरों के ऐब की तरफ़ नज़र जाती है तो उस ऐब से खुद सबक़ लेना चाहिए।
किसी के ऐब की बुराई [अपनी] ज़ुबान से नहीं करना चाहिए। मुमकिन है कि वह ऐब तुमसे भी हो जावे।
किसी को बिला तहक़ीक़ इलज़ाम नहीं लगाना। अगर रिश्तेदार-ख़ास या अपना लड़का [बेटा] तक बद्चलन हो तो उसका बेजा साथ नहीं देना चाहिए। वर्ना उसको दुबारा करने की शह और इम्दाद मिलेगी। अगर समझने से न माने तो उसको छोड़ कर अलग हो जाना चाहिए।
बे-इज़्ज़ती और बुराई, बुरे चाल-चलन और ब्यवहार से होती है, झूँठा वायदा करने से बे-इज़्ज़ती होती है।
क़र्ज़ लेना सबसे ज़्यादा बुरा है, मगर निहायत ज़रूरत के वक़्त, ज़रूरत का मौका सोंचने और समझने से पैदा हो सकता है। जो कर्ज़ा कि 'नुमायश' की ग़र्ज़ से लिया जाता है उसका अदा होना दुश्वार हो जाता है। अगर मुसीबत और खुर्दनोश या लड़की की शादी या कहत वग़ैरह में लिया जाता है, वह अगर नियत उम्दा रखता है तो ईश्वर उसकी मदद करता है और कभी अदा हो ही जाता है।
क़र्ज़ख़्वाह का सामना हमेशा करना चाहिए, मुहँ-छिपाना मना है। नौकर से वह काम लेना चाहिए जिसको तुम करने से बिल्कुल मजबूर हो। वह नौकर बतौर इमदाद के है, न कि ऐश-परस्ती का साधन। मज़दूर की मज़दूरी फ़ौरन अदा कर दो, हीला-हवाला करते रहना बड़ी बदइख़लाक़ी है।
अपने बच्चों को धार्मिक-तालीम ज़रूर देना चाहिए। अपनी बीबी को किसी-न-किसी तरह 'हमख़याल' बना लें, जहाँ शराब और नशा या उसके साथ 'रक्सो-सरोद' की महफ़िल हो, वहाँ हत्तुलमक़दूर शिरकत से परहेज़ करें और अगर मजबूरन शरीक़ होना पड़े तो इस तरह पर शरीक़ हों, जिस तरह कि 'संडास' में वक़्त-ज़रूरत जाना पड़ता है।
गाने के सुनने के अवसर अगर सामने आ जायँ तो ऐसा परहेज़ न करें कि लोग ताड़ जायँ कि भागते हैं ; रग़वत भी न करें और दिल उसमें न लगावें और उसमें आनन्द न लें। अग़र रिश्तेदार और सम्बन्धी ऐसे कामों के करने पर मजबूर करें, जिनके करेने से धर्म नष्ट हो जाता है तो रिश्ते को, अग़र ज़रूरत हो, तोड़ दें क्योंकि कोई रिश्तेदार और दोस्त और अज़ीज़ वक़्त मुसीबत में मदद तो करता नहीं है और अग़र मालदार भी होता है तो भी एक कौड़ी क़र्ज़ नहीं देता, बल्कि नुक़्ते-चीनी और ताना-ज़नी को हर वक़्त तैयार रहते हैं। नहीं मालुम कि फ़िर क्यों उनसे बेजा उम्मीदें बाँध कर अपने आप को सत्यानाश लगाते हैं।
खुलासा यह है कि 'संतमत' की तरीक़ सलामतरबी, हमदर्दी, तस्लीम व रज़ा का तरीक़ा है। इसमें ईश्वर के ऊपर भरोसा और उसके क़ानून क़ुदरत के मुताबिक़ अमल करना ही लाज़िमी है। हर एक मुक़दमें के लिए मुफ़स्सिल क़ाइदे अगर आप साहिबान कहेंगे, तो लिख कर शाया कर दिए जायँगे।
नंबर 14 [चौदह] में यह सवाल है कि जहाँ आपका रहना होता है वग़ैरह वग़ैरह।
यह सवाल निहायत ही ज़रूरत की वजह से बहुत तज़ुर्बे के बाद किया गया है। बहुत से लोग इस क़िस्म में आते है कि वह यह चाहते हैं कि जो कुछ हमारी समझ में आया है, वह ही करते रहें। मिसलन ध्यान करने में उनको कोई लतीफ़ शै अंदर की जानिब ख्याल करने को बतलाई गयी है, लेकिन वह यह अमल करते हैं कि ज़रा देर के वास्ते बतलाये हुए क़ाइदे के मुताबिक़ अमल करते हैं, उसके बाद बहुत सा हिस्सा वक़्त का अपनी पुरानी बातों के अमल में सर्फ़ कर देते हैं।मिसलन जो तस्बीरें कि उन्होंने अपने कमरे में लटका रक्खीं हैं, इस अमल के बाद उनका ध्यान करते हैं और बहुत सी मूर्तियों को सामने रख कर उनका ध्यान बाँधते हैं।
[01] अब फ़रमाइये कि बतलाया यह गया कि बिला मूर्ति के शून्य ध्यान किया जावे या अंदर की तरफ 'प्रकाश' पर ख़याल किया जावे और वह उलटा और बिलकुल उल्टा अमल करते हैं।
[02] एक साहिब को यह बतलाया जाता है कि वह अपने 'घट' के अंदर जो कुदरती शब्द और ज़िक्र होता है, उसको सुनें और ध्यान लगावें। बावजूद इसके कि उनको शब्द सुनायी देता है, लेकिन वह मन्त्र का जाप जो पहिले से किसी ने बतला दिया था, अब तक बराबर किये जा रहे हैं।
[03] उसूल यह बताया गया है कि ज़ात हकीकत मूर्तिमान चीज़ों और नाम और रूप के झमेलों से परे-दर-परे है, लेकिन वह सिफ़ाती मूरतों के ध्यान पर क़ाइम हैं।
बतलाया यह जाता है कि तन्हाँ ज्ञानकाण्ड बिला अमल और शग़ल के सिर्फ़ वाचक-ज्ञान है और यह महज़ बेकार और धोखा है। इसलिए कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों को निहायत ही माक़ूलियत के साथ रोज़ाना करना चाहिए, लेकिन वह सिर्फ़ ज्ञान और वाचकज्ञान को दख़ल देते हैं।
यह खूब मालूम है कि "एक के साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।" मगर उनकी यह आदत है कि कोई साधू मिल गया, उसके पास पहुँच गए और जो तरीक़ा उसने बताया वह करने लगे और जो उसूल और सिद्धांत उसने अपने सम्प्रदाय के मुताबिक़ समझाए, सब को ग्रहण कर लिया और अपने अमल और शग़ल को 'खिचड़ी' और 'गजरभत्ता' [गजर-बजर = poor quality food] बना लिया है।
एक [कोई] साधू के सत्संग में जाते हैं और फ़िर जो कोई मिल जावे, उसके पास भी तरीक़ा मालुम करने के लिए जाते हैं। एक [कोई अन्य] दिल और मोहब्बत किस-किस से जोड़ने की कोशिश करते हैं और आख़िरकार कहीं के नहीं रहते।
बाज़ साहिब यह सवाल किया करते हैं कि "क्यों साहिब, क्या हर्ज़ है कि फलाँ साहिब ने और फलाँ साहिब ने हमको यह-यह बतलाया था, वह हम सब करते हैं और यह आपका बताया हुआ भी करते रहें और वह भी करते रहें।" अब इसका जवाब किस तरह और क्या दिया जावे ? आप खुद समझ सकते हैं।
बाज़ सत्संगी साहिबान ऐसी मजलिस में जा कर भी शरीक़ होते हैं कि जहाँ सिद्धान्त और उसूल के बिलकुल बरख़िलाफ़ तालीम दी जाती है और तालीम ही नहीं दी जाती है बल्कि इस तालीम के मुअलमान [मुअल्लिम = अध्यापक = the work or a profession of a teacher] को कोस-कोस कर तबर्रा [घृणा = hate] भी कहा जाता है। मगर आप हैं और आप की ग़ैरत कि अपने उस्ताद के ख़िलाफ़ गालियाँ सुनने में मज़ा आता है।
ज़्यादातर तादाद ऐसे साहिबान की शरीक़ है कि जो उनका पुराना तरीक़ा है, वह ख़्वाह कितना ही कमज़ोर नामुकम्मल और नाक़िस हैं, अपनी हठ और आदत बन जाने की वजह से उसको मुख्य समझते हैं और इसको 'गौण' [secondary, inferior] यानि असल उसको क़ाइम रखते हैं और इसको इज़ाफ़ी [ऊपर से बढ़ाया हुआ = extended] । पहिले वह उसको ठीक समझते हैं और इसको अगर वक़्त बचा तो ख़ैर, वर्ना नदारद।
बाज़ ऐसे साहिबान हैं कि तबीयत में कुछ और उसूल क़ाइम हैं और दिल रखने के लिए इनकी भी "हाँ में हाँ" मिलाते रहते हैं। बाज़ ऐसे हैं कि उनके दोस्त इत्तफ़ाक़ से आ गए हैं तो हम भी चले चलें। तरीक़े से दर-असल कुछ मतलब उनको नहीं हैं। उनको तो दर-असल अपने क़दीम साथी के रियायत मंज़ूर है और एक क़िस्म का अहसान अपने साथी पर रखते हैं।
बहुत साहिबान ऐसे है कि जहाँ ज़रा कड़ा पकड़ा, फिर तो ऐसे ग़ायब कि जैसे "गधे के सर से सींघ।" उनके लिए तो यह ज़रूरत है कि वह कुछ ही करें, उनकी मर्ज़ी में मुताबिक़ करने दें। बाज़ सिर्फ़ इसलिए आते हैं कि आँखें बंद कीं और तवज्जः में 'पीनक' आ गयी और आनन्द ले कर 'हाँथ झाड़ कर' उठ खड़े हुए और असली सत्संग में जा कर दुसरी नक़ली आनन्द के मज़े भोगने लगे।
बाज़ शिकायत करते हैं कि हमेशा तो वैसा आनन्द आता ही नहीं और हमेशा तो एक सी तबीयत लगती ही नहीं है। लेकिन उनसे ज़रा यह सवाल तो करना चाहिए कि आप ने भी हमेशा तो सत्संग नहीं किया। शाम को अगर यहाँ सिद्ध संत का सत्संग है तो रात भर का कहीं और।
"वाइज़ाँ चूँ जलबह बर मेहराब ब मिम्बर मीकुनद।
चूं बख़िलवत मीर बंद आँ कार दीग़र मीकुनद।"
असल यह है कि जब तक पुख्तगी न आ जावे, उस वक़्त तक जो सत्संग कि ठान लिया है - करें और 'हरजाई’ न बनना चाहिए, वर्ना सब काम बेकार हो जावेगा।
[15] पन्द्रहवाँ सवाल यह है कि आप के माता और पिता मौजूद हैं और वह आपके ख़यालों को ठीक समझते हैं कि नहीं।
यह सवाल भी किसी ख़ास मस्लहत से किया गया है। मुझे इस उम्र में बहुत तजुर्बा हुआ है कि सत्य और सत्य के रास्ते में बहुत रुकावटें हुआ करतीं हैं। हालांकि माँ-बाप का मौजूद होना एक बड़ी बरक़त है। मगर इस ख़ास मसले यानि सत्य के ग्रहण करने और कराने में इनकी मौजूदगी निहायत दर्जे बाधक है। जिन माँ बापों को खुद तो इस तरफ़ तवज्जः तमाम उम्र हुयी नहीं, न उनको कभी इस क़िस्म का 'सत्संग' नसीब हुआ है। उनको तो उनके लड़कों के लिए जिनको कि ख़ुशक़िस्मती या इत्तफ़ाक़ वक़्त से अभी 'सत्संग' मिल गया या मिल जाता है, एक ख़ास रुकावट उनके भी माँ-बाप हैं। वह जहाँ दुनियाबी मामलात में अपने आप को बड़ा वाक़िफ़कार और तजुर्बेकार ख़याल करते हैं, उसके साथ ही बदक़िस्मती से इस मामले में भी बड़ी वाक़िफ़दारी दिखाते हैं और उनकी वाक़िफ़दारी की तफ़सील ज़रा मालुम कीजिये कि किस क़दर वसीअ पैमाना पर है। आप कहते हैं कि बच्चों और बचपन में इस सत्संग की क़तई ज़रूरत नहीं है, जब बुढ़ापा आवेगा, सिर हिलने लगेगा, हाँथ-पैर थक जावेंगे, मन-बुद्धि-चित्त कुछ काम न करेंगे, कोई बात याद न रहेगी और बाहर से घर के अंदर जाने में हाँफ जाया करेंगे, उस वक़्त इस काम का वक़्त मुनासिब आएगा। यह वक़्त तो खेल-कूद, पढ़ने-पढ़ाने, रुपया पैदा करने, बदइख़लाक़ी सीखने, जुआ खेलने, शराब पीने, दूसरों का माल हज़म करने, ताश गंजीफा खेलने, रंडियों में गश्त लगाने, ग़र्ज़े कि सिवाय इस सत्संग के सब जुमला बातों के रहने का है। हमारे सत्संग में जिस क़दर नौजवानों के लिए इस तालीम के लिए मुज़िर अब तक माँ-बाप हुए है, उस क़दर और कोई असबाब नहीं मालुम हुए।
बाज़ जी शऊर और मुंसिफ-िमजाज़ हाल के तालीमयाफ़्ता इस बात को तस्लीम करने लगे हैं कि हाँ, इस क़िस्म की तालीम की भी ज़रूरत है और 'लड़कों' को भी इसमें शरीक़ होना चाहिए और वह खुद भी बाज़-बाज़ शरीक़ हैं। लेकिन बावजूद इस वाक़फ़ियत के भी इस क़दर दिल के कमज़ोर हैं कि अपने लड़कों की आधा घण्टे की शिरक़त उनको ग़वारा नहीं है। इस आधा-घण्टे में उनका ख़याल है कि उनकी तालीम में इस क़दर हर्ज हो जाता है कि जितना दूसरे पन्द्रह-सोलह घण्टों नहीं होता।
वह खुद भी इन मरहिलों से गुज़र चुके हैं और जानते हैं कि तालिब-इल्म स्कूल के वक़्त में किस तरह वक़्त को सर्फ़ करते हैं और फिर गेंद-खेलने, हंसी-मज़ाक़ और बेहूदा बद-इख़लाक़ी के छिपे-चोरी सोसाइटिओँ में अपना वक़्त अज़ीज़ जाया करते हैं। वह वक़्त इनकी समझ में बेकार नहीं जाता और यही आधा-घण्टा सत्संग का इस क़दर गराँ [बोझिल = burdensome] गुज़रता है कि तोबा ही भली। इसलिए मैंने यह सवाल किया है कि वह उनके ख्यालों को ठीक समझते हैं या नहीं।
नंबर 16 [सोलह] - सवाल यह है कि आप की शादी हो गयी और आपकी बीबी मौजूद है ?
यह सवाल भी ऐसी ग़र्ज़ से किया गया है और इसके मुताल्लिक़ भी काफ़ी वाक़फ़ियत है कि यही रुकावटें वह भी पैदा करती है। मिसालें अगर मौका हो तो बयान करना चाहिए। दुसरी वजह यह है कि मुझे यह मालुम करना है कि अगर बिला शादी-शुदा मेंबर जिनकी उम्र इस क़ाबिल है कि वह शादी कर सकते हैं, अगर करना चाहें तो इस फेहरिस्त से मदद लें और मुमकिन है कि शादी हो जाने में कुछ सहूलियत हो जावे।
नंबर 18 [अठारह] - सवाल यह है कि बीबी आपकी 'हम-ख़्याल' है ?
अगर हम-ख़्याल है तो क्या अभ्यास करती है ? अगर अभ्यास करती है तो फ़िज़ूल रस्म व रिवाज़ को वह छोड़ सकती है या नहीं ?
यह ज़ाहिर है और साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि अगर बीबी 'हमख़्याल' है तो हर मामले में ख़्वाह वह दुनियाँ का हो या दीन का, निहायत ही सहूलियत रहती है। हाल में फ्रांस में बाल और मूंछों का वाक़्या हुआ है। वह इबरतनाक [इबरत = बुरे काम से मिलने वाली शिक्षा = a thing learned] है। क्या ही खुशी होती अगर वह आपके हमख़्याल है।
अगर अभ्यास भी करती है तो खुद घर में एक सत्संगी मौजूद है और औलाद पर किस क़दर असर पड़ेगा। बच्चे पर माँ का किस क़दर असर पड़ता है जितना कि उस्ताद और बाप का नहीं। अलावह इसके हम-ख़याल होने की वॉयस दूसरे जहान में भी एक-ही हलके में रहेंगे। इस मसले को साबित करना चाहिए।
अब रहा सवाल फ़िज़ूल रस्मियात का। यह इस वक़्त बेकार है। अभी मर्द ही इस क़ाबिल नहीं हैं कि बावजूद जानने और समझने के उनको तर्क कर सकें तो फिर औरतों को क्या कह सकते हैं ; अलबत्ते चन्द जरूरी मसले मसायल की बातें हैं। उनको हिंदी में मुरत्तिब करके अलहदा एक 'ट्रैक्ट' की शक्ल में छाप दिया जायगा।
इस वक़्त तक मर्दों को यह कोशिश करना चाहिए कि पहिले वह [खुद] रस्मियात-बद को छोड़ने की खुद कोशिश करें और औरतों को उम्दा-उम्दा किताबें तलाश कर-कर के सुनाना चाहिए और उनको समझाना चाहिए। कभी वक़्त आवेगा कि औरतें खुद छोड़ देंगीं और मर्दों को जो नहीं छोड़ेंगें उनको अपनी 'तिरिया-हठ' से छुड़वा देंगीं।
सवाल नंबर 19 [उन्नीस] - यह है कि क्या पारसी, यहूदी, बौद्ध, मुसलमान वग़ैरह दीग़र मजहब वालों के आप विरोधी हैं।
यह सवाल मैंने अपनी वाक़फ़ियत के इज़ाफ़े के लिए किया था, हालाँकि मुझे खुद इल्म और तजुर्बा है। जो जवाबात आये हैं, वह क़रीब-क़रीब सब मस्नूई हैं और अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ लिखे गए हैं। ख़ैर मैंने अंदरूनी तरक़्क़ी के लिहाज़ से हर शख्स की निःस्बत ख़यालात का अंदाज़ा लगाने के लिए किया था और वह हो गया।
सवाल नंबर 20 [बीस] क्या पॉलिटिकल मामलात से आपको कुछ वास्ता है।
यह सवाल लिए किया गया है कि मेरा नुक़्तए-ख़याल ऐसे लोगों से अभी इस लिए मुत्तफ़िक़ नहीं है कि जो तरीक़े और जराय-तरक़्क़ी करने के उन्होंने सोंचे हैं, वह मेरे जाविये [कोण = angle] निग़ाह [दृष्टि कोण] से लागू और नतीज़ा-ख़ेज़ नहीं है। मैं दूसरे सिद्धांत के ज़रिये से इस मसले को हल करना बेहतर ख़्याल करता हूँ।
सवाल नम्बर 21 [इक्कीस] - ग़ैर शादी-शुदा लड़के और लड़कियों की तादाद।
जिस क़दर कि फॉर्म मिल गए हैं, उनसे मैंने वाक़फ़ियत का एक ज़रिया पैदा किया है और एक लिस्ट फ़िर्क़े-वार तैय्यार कर ली है जिससे पता चल सकता है कि किस-किस फ़िर्क़े में कितनी-कितनी तादाद लड़के और लड़कियाँ बिला शादी-शुदा मौजूद हैं। इसमें अगर और कुछ नहीं तो इस क़दर सहूलियत पैदा हो जायगी कि तलाश करने की जो बड़ी दिक़्क़त होती है, वह कुछ कम हो गयी है। लेकिन मुझको यह महसूस होता है कि अगर लड़के वाले को यह पता चल गया कि लड़की वाला सत्संगी है और वह अपने वास्ते सम्बन्ध चाहता है तो फिर हरग़िज़ शादी करने के लिए तैयार न होगा बल्कि हज़ारों बहाने करेगा, इसलिए कि उसको यह ख़ौफ़ होगा कि लड़की वाला मुझको कहीं दर्मियान में न डाल दे और फ़िर उसकी सारी तमन्नाओं का खून हो जाय। ख़ैर ऐसी फ़हरिस्त से क़ामयाबी हो या न हो, मगर फ़हरिस्त का बन जाना अच्छा ही है और कुछ-न-कुछ काम निकलेगा ही। सब आदमी एक तरह के नहीं होते हैं। जिन साहबान ने अब तक किसी ख़ास वजह से फॉर्म को वापस नहीं किया है, वह बराय मेहरबानी और ख़यालों को छोड़ कर सिर्फ़ इसी ख़याल से फॉर्म भर कर दे दें कि उनके फॉर्म से डायरेक्टरी में नामों का इजाफ़ा हो जायगा। जिन साहबान ने ख़ौफ़ की वजह से बावजूद अपनी औलाद ग़ैर-शादीशुदा मौजूद होने के तादाद लड़के और लड़कियों की नहीं लिखी है, वह अब खाना-पूरी कर दें और इत्मिनान कर लें कि उन पर कोई ना-जायज़ दबाव नहीं डाला जायगा।
सवाल नम्बर 23 [तेईस] - क्या आप की राय में शादी-ब्याह के मुताल्लिक़ तरमीम की ज़रूरत है या नहीं ?
यह सवाल हल हो गया है और मुझ को अनुभव हो गया है कि मैं अभी इस लायक नहीं हूँ कि तर्मीम कर सकूँ। जो तर्मीम की है और जिनकी बावत आम-तौर पर मुश्किलात दरपेश हैं, वह खुद कभी-न-कभी होंगी और ज़माना खुद उनसे किसी वक़्त करा लेगा। मेरी बात को अभी कोई नहीं मानेगा, इसलिए मैं उसको ज्यों-का-त्यों छोड़ देता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे और आप-सब के ऊपर अपना फज़ल और रहम करें। सिर्फ़ इस क़दर कह देना चाहता हूँ कि शास्त्र के मुताबिक़ या 'आर्यसमाजी-तौर' पर शादी करें, लेकिन उनमें इस क़दर हिम्मत को दख़ल दें कि शास्त्र से बढ़ कर रस्म और रिवाज़ को अफ़ज़ल [सर्वश्रेष्ठ = most excelent] न बनायें। मतलब यह है कि शास्त्र की बात चाहें छूट जाय, मगर जो अपने ख़ानदान और शहर में ऐसे रिवाज़ हैं, वह ख़्वाह किसी क़दर भी ग़लत हों, कर ही लें, यह बात न करें।
सवाल नंबर 24 [चौबीस] - आपको अपने लड़के, लड़कियों की शादी-ब्याह में अपना खुद ही अख़्तियार है या वाल्दैन और रिश्तेदारों का ?
यह सवाल भी अब बिलकुल बेकार है, क्यों कि मालुम हो गया है कि बहुत कम ऐसे लोग हैं जिनके यहाँ किसी दूसरे का दख़ल नहीं है। अगर एक-आध ऐसे हैं भी तो उनके यहाँ शैतान का दख़ल है।
सवाल नंबर 25 [पच्चीस] - सत्संग में 'संतमत' के उसूलों के मवाक़िफ़ शादी करना पसंद करेंगे और उनको देख कर आप सिर्फ़ उन्हीं क़ाइदों की पाबंदी से शादी करना-कराना पसंद करेंगे या पुराने रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़।
[क] सत्संग के उसूलों के मुताबिक़ बताये हुए क़ायदों के मुताबिक़ शादी-ब्याह।
[ख] पुराने तरीके के मुताबिक़ शादी-ब्याह।
हालाँकि अभी कोई संत-मत का असली पाबंद नज़र नहीं आया है और न अभी वक़्त आया है, इसलिए मैं बेकार सा समझता हूँ की इसमें कुछ तर्मीम की जावे। लेकिन चूँकि लोग यह सवाल कर सकते हैं कि आख़िर वह क़वायत क्या है, बिला देखे और समझे हुए कैसे फ़ैसला और इरादा किया जावे। इसलिए ज़रूरी हुआ कि मुख़्तसर तौर पर उनको लिख दूँ।
जब जिस मेंबर को तौफ़ीक़ और हिम्मत होती जाय, उतना-उतना ही काम करते जायँ। वाजे रहे कि जब तक 'संतमत' के मेंबर दोनों तरफ़ से यानि 'लड़के' व 'लड़की-वाले' न होंगें, उस वक़्त तक इन उसूलों के मुताबिक़ शादी नहीं हो सकती।
[01] यह तो लाज़िम है कि जहाँ 'लड़के' और 'लड़कियों' की तलाश हो, पहले जो फ़हरिस्त कि मुरत्तिब [तरतीब या क्रम लगाने वाला = methodologist] है, उसको देख लें और जब अपने मुताबिक पसंद के 'लड़का' और 'लड़की' न मिले तब दूसरी जगह तलाश करना शुरू करें।
[02] जिस तरह कि अब तक फ़िरक़े-वार अपने-अपने फ़िरक़े में शादी करना पसंद करते हैं, वह ऐसा ही रक्खें और जो ग़ैर-फ़िरक़े में करना चाहें, वह 'इण्टर-कास्ट-मेरिज' करें।
[03] 'विधवा-विवाह' भी हस्ब-रिवाज़ सभा-सोसाइटी के, जैसी कि उनकी क़ौम इजाज़त दे, कर लें।
[04] 'लड़के' और 'लड़की' की तलाश में जो-जो बातें अब तक देखीं जातें हैं, निगाह रक्खें।
[05] ग़रीबी और अमीरी के सवाल को जहाँ तक मुमकिन हो, हटा दें।
[06] उजलेपन - हड्डी का सवाल, 'सोशल-पोज़िशन' का लिहाज़ ज़रूर रखना चाहिए।
[07] ज़्यादा मालदार के यहाँ लड़की न दें और अपने से ज़्यादा मालदार के यहाँ लड़का न ब्याहें।
[08] बी ए, ऍम ए के पासशुदा लड़कों को ज़रा देख-भाल लें, सिर्फ़ उनके 'पास' होने को महज़ लियाक़त ख़्याल न करें, बल्कि उनके चाल-चलन और अख़लाक़ की ज़्यादा तहक़ीक़ात करना वाजिब है।
[09] 'लड़की' और 'लड़के' की तंदरुस्ती देखना चाहिए। जहाँ तक मुमकिन हो सके, जिन लड़कों को कोई हुनर आता हो या दस्तकारी आती हो, उनको पसंद करें। उसके बाद तिजारत वाले को और सबसे आख़िर में वह जो नौकर हैं।
[10] जो रीति और रस्म व रिवाज़ हुए हैं, उनकी हक़ीक़त मालुम है और खुद सोसाइटी के मुक़र्रर किये हुए हैं। इसलिए जिस सोसाइटी में रहना है, उसी रस्म को इख़्तियार करना चाहिए।
[11] शादी पुराने शास्त्र के मुताबिक़ करें या 'आर्य-समाज' के उसूल पर, जैसा आपस में मशविरा हो जावे। दीग़र रसूम खुद तय कर लें।
[12] बेहतर यह होगा कि 'लड़का' और 'लड़की-वाला', लड़के और लड़की को साथ ला कर या जो चंद ख़ास-ख़ास रिश्तेदार आना चाहें, 'भण्डारे' के मौके पर आ जायँ और शादी जैसी कि अब-तक होती आ रही है, हो जाय। बाराती और जनाती सब 'सत्संगी' होंगे, ख़ास दावत की ज़रूरत नहीं है। एक रोज़ रह कर 'घर' को वापस चले जायँ। अगर भंडारे पर न ला सकें तो सिर्फ़ सत्संगियों को जो ख़ास-ख़ास हों, बुलावें और जो सम्बन्धी और रिश्तेदार जो इस मामले के ख़िलाफ़ हों और बिघ्न डालने-वाले हों, उनको शरीक़ न करें।
[13] चढ़ावा और ज़ेवर ठोस बनवाएं, जो काम आयें।
[14] यह ज़ेवर या तो इक्यावन रुपये का हो या एक सोउ पच्चीस रूपये के या दो सोउ इक्यावन का हो। इससे ज़्यादा रक़म का ज़ेवर न चढ़ाया जावे। बाक़िया ज़ेवर, जिस क़दर चाहें, अपने घर पर या बाद को रुनुमाई या किसी दूसरे तरीक़े पर दे देवें, इसकी मुमानियत नहीं है।
[15] बहुत ज़्यादा कीमती जोड़े वक़्त-शादी के नहीं होना चाहिए। बाद शादी जिस क़दर चाहें, कर सकते हैं।
[16] शादी के वक़्त आम-दावत की मुमानियत है। उसके बाद अगर रुपया है और क़र्ज़ नहीं लेना है, तो दावत करें। लेकिन ख़ास-ख़ास अहबाब और रिश्तेदारों को बुलना चाहिए। शोहरत और नामवरी का लिहाज़ तर्क है।
[17] बाज़ार में बरात का आराइश [सजावट = decoration] के साथ घुमाना मना है।
[18] नज़राने की रक़म सिर्फ़ 'मान्य' रिश्तेदारों के लिए वाजिब है, बाक़ी की ऐसी ज़रूरत नहीं।
[19] अङ्कमाला [आलिंगन, भेंट] निहायत फ़िज़ूल है।
लेकिन ये बातें तभी हो सकतीं हैं, जब फ़रीक़ैन [फ़रीक़= विवेकशील व्यक्ति, समूह = rational person, a group] एक-राय हों। यह सब क़ाइदे जो ऊपर लिखे गये हैं, सब के वास्ते नहीं हैं, बल्कि उनके वास्ते हैं जो अपने आप को ख़ालिस संतमत का पाबंद मानते हैं।
सवाल नंबर 26 [छब्बीस] - सवाल यह है कि आप के पास माली गुंजाइश ख़ैरात और दान करने की है तो क्या 'सत्संग' के बनाये हुए क़ायदों के मुताबिक़ तक़सीम अख्तियर करने को राज़ी हैं या अपने मनमाने पुराने ढकोसलों के साथ।
अगर उदारता की सिफ़त नहीं है तो इंसान नाक़िस है। मजहबी नुक़्ता-ए-निगाह के अलावा क़ानून मजलिसी और सोसाइटी के लिहाज़ से अपनी आमदनी का कोई कम-से-कम हिस्सा ज़रूर अलग करके रखना चाहिए। कोई मज़हब ऐसा नहीं है जिसमें ज़कात, सदका और ख़ैरात का मसला ज़रूरी नहीं समझा गया है।
अगर क़र्ज़दार न हों तो ज़रूर ख़ैरात या ज़कात निकालना वाजिब है। अब तो शायद कोई आदमी ऐसा हो कि कुछ-न-कुछ क़र्ज़दार न हो, लेकिन चूँकि अब यह बात आम हो गयी है, इसलिए अब 'क़र्ज़दारी' की शर्त लगाना 'ज़कात' और 'खैरात' के लिए मान्य नहीं है। जब सदहा और हज़ारहा काम चलाये जाते हैं तो सिर्फ़ इसी को जायज़ न रखना सरासर ज़ुल्म और ख़िलाफ़ मजहब है। अब इसकी तक़सीम कहीं-कहीं तो मुनासिब की जाती है और कहीं-कहीं बिलकुल नाक़िस तरीक़े से, मिसलन एक तरीक़ा रक़म अलाहिदा रखने का यह है कि जब चाहा बिला किसी उसूल के निकाल दिया और एक यह है कि नियम, पाबंदी और आमदनी की तादाद की मुनासिबत से। पस् तरीक़ा अव्वल निहायत नाक़िस है और दूसरे तरीक़े में काम अर्से तक चलता रहता है।
आप से बहुत क़िस्म के चंदे सरकारी लोग और शहर वाले ले जाते हैं, इसलिए इस रक़म के खर्च हो जाने से आप के पास आपके ख्याल के मुताबिक़ रक़म तक़सीम करने को बाक़ी नहीं रह जाती या बिलकुल कम रह जाती है। पस् इस तरह मज़बूर हो जाते हैं और आपकी बचाई हुयी और ख़ैरात की हुयी रक़म ऐसे मामलात खर्च की जाती है जिससे आप को कोई दिलचस्बी नहीं या आपकी तबियत और उसूल के बिलकुल बरख़िलाफ़ है, जो मतलब यह हुआ कि आपका गला घोंट कर जबर्दस्ती यह रक़म आप से खर्च कराई जाती है। इसलिए 'अव्वल ख्येसह बादहू दरवेश' का मसला आप सीखें। पहिले अपनी सोसाइटी और हक़दारों की ज़रूरतों को पूरा कर लें, तब दूसरों की खबर लेना वाजिब है। आप का पड़ोसी भूखा है, नंगा है, आपका रिश्तेदार फ़ांकामस्ती कर रहा है, आपके हक़ीक़ी रिश्तेदार के पास इसक़दर रूपया नहीं है कि वह अपने लड़कों को तालीम करा सके, आपकी सोसाइटी में किसी की लड़की बीस-वर्ष की जवान मौजूद है और बिला रूपये के शादी नहीं होती है, बिधवाएँ नंगी-उघारी हैं, भूखों मरतीं हैं, फिर भी मांग नहीं सकतीं और आप अपना दान का रुपया हरिद्वार और ब्रह्म-भोज और अन्नकूट करके खर्च कर रहे हैं।हज़ारों मदरसे सरकार की तरफ़ से, और दीग़र मदरसे 'चंदे' से चल रहे हैं और उसी मद में आप भी अपना रूपया लगाए देते हैं। वजह क्या, महज़ नाम और शोहरत। क्या सब मालदार एक ही जानिब पिल पड़ेंगे ? यह भेंड़-चाल नहीं तो और क्या है। मैं आगे चल कर दूसरे निहायत ज़रूरी कामों की तफ्सील बतलाऊंगा, जिनकी तरफ़ आमतौर पर निगाह भी नहीं जाती है।
आपको लाज़िम है कि शादी और ब्याह के मौकों पर जो दान-देने की रस्म है, उन पर ज़रा निगाह रक्खें। कहीं आप बरेली के यतीमख़ाने और कहीं आप चित्रकूट जी के मंदिर और कहीं और किसी बड़े मंदिर में तक़सीम ख़ैरात की करते हैं। अब आयन्दा से 'सत्संग' समाज और 'साधू-सेवा-फंड' में पहले रक़म दिया करें और फिर दुसरी जगहों पर। 'मुण्डन', 'कनछेदन', 'नामकरण', 'लगुन' और तमाम दीग़र रसूमात पर जहाँ अब तक एक ख़ासी रक़म नाम और नुमायश के लिए लगते हैं, उस वक़्त इस फण्ड का भी लिहाज़ करके यह ख़ास रक़म किसी तरह निकाल कर उस में दाख़िल कर दिया करें। 'मौत' के वक़्त जो दान कि 'एकादशा', 'तेरहवीं', 'चौथापटा', 'बरसी' वग़ैरह पर दिया जाता है, अगर वह वाक़ई एक ख़ास फ़ायदे और मजहवी नुक़्तए-निग़ाह से देखा जावे तो भी यह लिहाज़ करना कि वह किस जगह और किन आदमियों के हाँथ में जाता है। यह सबको मालुम है, इसकी तफ़्सील बतलाने की ज़रूरत नहीं है। आप-सब अगर यही ज़रूरी ख्याल करते हैं कि बिला इसके ईसाल-ए-सबाब किस तरह हाँसिल करेंगे तो थोड़ी रक़म शगुन के तौर पर उसमें ख़र्च करें और बक़िया फण्ड में दाख़िल किया करें।'तेरहंवी', 'बरसी' वग़ैरह पर जो ज़बरदस्ती गला-घोंट कर दावतें कीं जातीं हैं, यह निहायत मज़मूम [ख़राब, बुरा = bad] तरीक़ा है। इसकी वजह सिर्फ़ कहने की यह है कि अब घर शुद्ध हो गया और तमाम बिरादरी ने क़बूल कर लिया कि 'मकान' और उसके लोग शुद्ध हो गए। यह सिर्फ़ एक रस्म है। मगर जिनके पास कुछ नहीं है और बाल-बच्चे कल [अगले दिन] से ही भूंखे मरने लगेंगे, उनसे ज़बरदस्ती क़र्ज़ लिबवा कर 'तेरहवीं' और 'बरसी' पर 'निबाले-निगले' जाते हैं। पस् अगर यह बुरी रस्म बंद हो जाय तो बहुत कुछ सहूलियत हो सकती है। मैं हुक्म नहीं देता कि आप ऐसा करने लगें, अगर आप की समझ में आ जाय तो करें वर्ना नहीं।
यह ख़ैरात, दान और ज़कात वग़ैरह आप तभी निकाल सकते हैं जब आप अपनी ख्वाहिशात के घोड़े की बाग़ रोके रक्खें। अगर घोड़ा मुँहजोर और बदलगाम है तो ख़्वाहिशात के हुजूम का क्या कहना है। अपने ख़र्च और ज़रूरत से पचासों गुना ज़्यादा घर में चीज़ मौजूद हुआ करती है तो भी लोग ख़रीदते चले जाते हैं। अगर घर में दो ही तीन आदमी हैं और पाँच सौ आदमियों के वास्ते निहायत उम्दा आलीशान मकान बना हुआ मौजूद है तो भी एक धुन है कि कुछ जदीद [आधुनिक = modern] इमारतों के लिए नक़्शे बन रहे हैं और काम जारी है और ख़्वामख़्वाह हज़ारों रूपया खर्च कर रहे हैं। ख़ैर -
ज़रूरत यह है कि आमदनी के रुपयों की जायज़ तक़सीम करना सीखें और इस तरह हैवानी जज़्बात को काम में न लायें।
सवाल नंबर 27 [सत्ताईस] - इस सवाल में यह है कि रस्म-रिवाज़ की बिरादरी पर 'सत्संग' की बिरादरी को तरजीह देना है।
इसकी महज़ वजह यह है कि लोग बावजूद इसके कि वह ब्यवहार के और रसूमात के तरीकों को ख़राब जानते हैं और जानते हुए भी सिर्फ़ इस डर की वजह से कि अगर हम कोई रस्म नहीं अदा करेंगे तो बिरादरी वाले एतराज़ करेंगे और 'हुक्का-पानी' बंद हो जायगा और शादी-ब्याह दिक़्क़त के साथ होंगे।
मालूम कीजिये कि किसी मेहतर वग़ैरह के साथ खा लेने, किसी बाज़ारी औरत के साथ खुल्लम-खुल्ला ताल्लुक़ रखने या ग़ैर बिरादरी के यहाँ शादी करने से, ब्यवहार छूट जाता है, न कि किसी रस्म के न अदा करने से। मुमकिन है कि लोग ज़लील और कम-हिम्मत समझने लगें। पर अब तो ज़माना वह नहीं रहा है। लोग नाजायज़ ताल्लुक़ रखते हैं और ज़ाहिर और खुला हुआ ताल्लुक़ रखते हैं, मगर कोई शख्स बिरादरी से ख़ारिज़ नहीं करता है। मालदार तो मूंछों पर ताव देते और गुर्राते हैं और चुनौती देते हैं कि कोई उनको छोड़ तो दे। ग़रीब आदमियों पर ज़रूर ग़ायबाना आवाज़ें कसे जाते हैं और बुज़दिलाना हमले भी किये जाते हैं, मगर आख़िर को टॉयं- टॉयं फिस्स। असल यह है कि लोग सिर्फ़ बहाना-बाज़ी करते हैं। तबीयत अंदर से खुद-ब-खुद छोड़ने को नहीं चाहती है। ख़याल तो कीजिये कि बुरे कामों को करने से तो बिरादरी एतराज़ न करे और इस्लाह और मुफ़ीद कामों के अख़्तियार करने से लोग उसको छोड़ दें। हरगिज़ ऐसा नहीं हो सकता। अगर बिल-फ़र्ज़ ऐसा होता भी है तो अक्सर देखा गया है कि बिरादरी में जिद्दम-जिद्दा का मामला चल पड़ता है। और फिर ज़िद्द की वजह से चन्द दिनों तक ऐसी कोशिश, हमले-बाज़ी और बचाव की होती रहती है और चन्द दिन बाद जब मामला पुराना हो जाता है तो खुद-ब-खुद मुक़दमा ठप्प हो जाता है।
इसलिए जहां ज़िद्द पर नौबत पहुँच जाय तो वक़्त को हटा देना अच्छा है। मुमकिन है कि अगर बिरादरी के लोग ज़िद्द छोड़ दें तो क्या आपके सत्संगी भाई आपका साथ न देंगे। अगर यह भी न दें तो आपका मामला खालिस नियत और हक़ पर है तो नतीज़ा ज़रूर आख़िर को अच्छा होगा।
प्रश्न नंबर 28 [अट्ठाईस] -
इंसान का उद्द्येश्य यह है कि आपस में एक-दूसरे की इमदाद करें और बेहतरी सोचें और करें। सबसे बड़ा दान तो यह है कि विद्या-दान दें और फिर 'ब्रह्मविद्या' का दान सब से बड़ा है, क्योंकि उससे मंज़िले-मक़सूद पर आदमी पहुंचता है।
लेकिन जिस्म और जान का साथ है, इस लिए बाज़ वक़्त इस ताल्लुक़ की वजह से एक-दूसरे की निज़ामे अमल में तसर्रुफ़ करते वक़्त मायावी और माद्दी पदार्थों की भी ज़रूरत पड़ जाती है। इस बात को आप मिसाल से समझेंगे, इसलिए मैं अब मिसाल ले कर समझाता हूँ। मैंने सारी उम्र सिर्फ़ ख़ालिस रूहानियत और उसकी ख़ालिस तालीम के ऊपर ताल्लुक़ रक्खा है, जैसा कि दूसरे सम्प्रदायों और पंथों में यह भी दस्तूर है कि सामाजिक और सोशल उमूर को भी कुछ साथ-साथ ले लेते हैं या खुद-ब-खुद उसका साथ आ जाता है, जैसाकि अब तज़ुर्बे से मुझको साबित हुआ है, लेकिन कस्दन इस मामलात को नज़रअन्दाज़ करता रहा और गुरेज़ किया। कुछ तो नौकरी की मसरूफ़ियत और दुनियावी मशाग़िल के वायस फुर्सत भी नहीं हो सकी, इसलिए ख़ालिस अंदरूनी सत्संग होता रहा, लेकिन जब ताल्लुक़ ज़्यादा बढ़ जाते हैं तब उसके साथ ही सोशल और सामाजिक ब्यवहारों की भी ज़्यादती होती जाती है।
[01] देखिए मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में मुख़्तलिफ़ लोग हैं। हर शख़्स अपनी-अपनी वाक़फ़ियत पैदा करने के लिहाज़ से और अपने हालात के जवाबात की ख़्वाहिश में खतो-किताबत का सिलसिला जारी रखते हैं।
[02] अगर इसी तरह यह जवाबदेही का भी सिलसिला जारी रहता है तो मुख़्तलिफ़ तौर पर ऐसी ज़रूरत महसूस होती है कि ताल्लुक़ात ज़बानी को तहरीरी कर दिया जावे ताकि वह एक सिलसिला और तरतीब में आ जावे। और जो लोग मज़बूर हैं कि 'सत्संग' में ज़्यादा वक़्त सर्फ़ नहीं कर सकते हैं और बाज़ बिलकुल नहीं आ सकते हैं। तो उनको तहरीरी हिदायत भी पहुँच जाय। बच्चों और औरतों के लिए एक ऐसा निसाब [पूँजी = capital] तालीम का मुन्तख़ब [संकलित] करके तैय्यार किया जाय और जिससे उनकी वाक़फ़ियत को मदद मिले।
वक़्तन फ़वक़्तन सिलसिले के साथ ऐसी तरकीब या पैम्फलेट जारी किये जायँ, जो छप कर हर मक़ाम पर वाक़फ़ियत में इजाफ़ा करने के लिए भेजे जा सकें। जो शायक़ीन [शौक़ रखने वाले = inclined, tending] और तालिब [तलाश करने वाला = investigator, desirous] रोज़ाना मेरे पास आते-जाते रहते हैं उनका सिलसिला मेरी फ़ुरसत ज़्यादा हो जाने की वजह से, अब ज़्यादा हो गया है।
उनके ठहरने और आसाइश [सुख-सुविधा या सहूलियत] के लिए मेरे पास काफ़ी मकान नहीं है, और अगर है तो वह इस ढंग का बनाया हुआ है, जो 'ज़नाना' [ज़नानख़ानः = जहाँ स्त्रियाँ रहतीं हों या अंतःपुर] में शामिल है। ख़ालिस अलहदा 'मर्दाना' [मर्दानखाना] नहीं है। अगर किसी तरहँ अब तक गुज़ारा भी किया गया तो मुतअब्बिद [साधना करने वाला] लोगों के लिए मुफ़ीद नहीं, क्योंकि उनको एकान्त चाहिए। 'सत्संग' के वक़्त यहाँ कभी एकान्त, जैसा चाहिए, नसीब नहीं होता। इसके लिए बिलकुल अलहिदा ही मकान होना चाहिए, चाहें वह एक 'खँडहर' ही हो। लेकिन 'चहारदीवारी' हो कुँवा हो, पाखाना हो और एक बड़ा कच्चा-पक्का छप्पर का कमरा हो। जहाँ सत्संग हो और उसके बाद लोग [बाहर के] ठहर भी जावें।
अगर यह मामला ज़्यादा वसीअ [विस्तृत = extensive] किया जावे तो जैसे कि सैकड़ों स्कूल जारी होते हुए भी हज़ारों स्कूल ज़ाहिरी तालीम के जारी किये जा रहे हैं, उसके बजाय एक इस किस्म की भी तालीमगाह करार दी जावे कि वहाँ दो-चार ख़ास लोग जो इस इल्म में बखूबी माहिर हैं ऐसे काम के लिए तलाश कर लिए जावें, ताकि एक ख़ास नज़ाम और बंदोबस्त के साथ चाहने वालों के लिए ऐसी तालीमगाह दस्तेयाब हो सके तो मुमकिन है कि इस किस्म के ख़ास लोग मिल सकते हैं और मेरी नज़र में रह सकते हैं। लेकिन जब तक कि उनके वास्ते ऐसा फण्ड न हो जिससे कि उनकी गुज़र-औक़ात का ज़रिया हो सके, किस तरह वह यहाँ रह सकते हैं और अगर वह अपने घरों पर भी तालीम दें - जैसा कि वह अब भी जारी किये हुए हैं, मगर ख़्याल कीजिये कि जब उनको रोज़ी के कमाने से फुर्सत और मौका मिलता नहीं। ऐसे लोग किसी से कुछ नहीं कह सकते, लेकिन मुझसे तो वह अपना हाल छिपाते नहीं। मुझको ऐसे चन्द वाक़ियात मालुम हैं। आप लोगों को क्या ख़बर है। मुझको उनका हाल देख-देख कर कलेजा मुहँ को आता है।
मेरे पास भी इतना नहीं कि उनकी इम्दाद कर सकूँ, इसलिए मैंने आप साहिबान से फण्ड काइम करने की दरख़्वास्त की। अपने वास्ते नहीं बल्कि उन कामों के वास्ते जो ऊपर दिखलाये गए हैं। लेकिन ख़ाली चंदे से यह काम नहीं हो सकते हैं जब तक कि वह तद्बीरें जो मैंने बतलायीं हैं, अमल में न लाई जावें।
मुश्किल से एक सौ आदमियों ने एक रुपया माहवारी चंदा लिखा है उनमें से चन्द असहाब ऐसे भी हैं कि जिन्होंने तौअन-व-करहन [बहुत ही कठिनाई से, विवश हो कर = with difficulty] मंज़ूर किया है। बल्कि बाज़ ऐसे हैं कि जिन्होंने इस क़दर बदमज़गी दिखलाई है गोया कि इनकम टैक्स दो सौ रुपये माहवार उन पर मुक़र्रर कर दिया गया हो। यह हालत ग़रीबों ने नहीं दिखलाई है बल्कि मालदारों ने, बाज़ असहाब ने तो मुझको इस क़दर डरा दिया कि अगर ऐसा फण्ड क़ाइम करोगे तो लोगों का आना बंद हो जायगा, तो लोगों का ऐतक़ाद ख़राब हो जायगा। दो-एक साहिब ने आ कर मुझसे खुद शिकायत की कि लोग बाहर ज़िकर करते हैं कि खूब खाने-कमाने का सिलसिला जारी कर दिया और हलके-हलके एक दुकान सी क़ाइम कर दी। ख़ैर, मेरी नियत दुरुस्त है और मुझे उनका ख़ौफ़ नहीं कि ऐसी बदनामी होगी। अगर सत्संगी साहिब कोई ऐसे ज़ईफ़ुल्ऐतक़ाद हों कि एक रूपये-पैसों पर बदगुमानी पैदा कर लें तो वह 'सत्संगी' होने के लायक कब हैं। बदनामी अगर करेंगे तो इस तरह कौन सी ऐसी 'संस्था' है जो इस माली-फण्ड से ख़ाली हो सकती है।
अमेरिका वालों का 'मिशन' का काम किस ज़ोर का चल रहा है। साहिबजी महाराज आगरा और हर जगह इसका कुछ-न-कुछ दख़ल है। मगर मुझे यह यक़ीक़ है कि यह 'एक रुपया' चंदा जो लिखा गया है वसूल होना निहायत दुश्वार है और चलेगा नहीं। इसलिए जो साहिब कि खुद चाहें इसी तरह जैसा कि जो साहिब कि चाहें मेरे पास फ़र्ज़ अपना समझ कर भेज देंगे और वह जमा कर लिया जायगा और जैसा मौका मुनासिब होगा ख़र्च किया जावेगा और हिसाब मुरत्तिब करा दिया जावेगा। अपने-अपने मुक़ाम पर खुद ही ऐसा इंतज़ाम कर लें और 'जमा-ख़र्च' रक्खें। अगर मुझको ज़रूरत होगी, मांग लिया करूँगा, लेकिन मैं खुद इस झंझट में न पडूँगा।
थोड़ी देर के लिए यह काम कर सकते हैं और अगर रोज़ी पूरी नहीं होती तो उनकी तबीयत घर-गृहस्थी और बच्चों की ज़रुरियात पूरी न होने की वजह से मुक़द्दर और परेशान हाल रहा करती है और जैसे सफाई के साथ तालीम होना चाहिए, नहीं हो सकती। अलावः इसके मोहल्ले और शहर के लोगों में उनका ऐतक़ाद नहीं होता और ऐतक़ाद न होने की वजह से शहर के मुक़ामी लोग उनसे फ़ायदा नहीं उठाते।
बाहर के लोग अव्वल तो अपनी मसरूफ़ियत की वजह से आ नहीं सकते और अगर कोई ख़ास बड़ी तबीयत-दार आदमी आ भी गया तो ठहर नहीं सकता। इसके अलावः जब खास एक मदरसे की निस्बत वाक़फ़ियत हो जाय कि इस किस्म की तालीम का वहाँ रोज़ इस जगह एहतमाम है तो लोग तलाश की दिक़्क़त और फ़िर इम्तिहान और इत्मिनान करने की पेचीदगियों से महफूज़ रहें।
वाक़या कानपूर के मदरसे - 'इल्म-इलाही' का -
अब अगर बाहर चल-फ़िर कर शायक़ीन और तालिबीन की ज़रुरियात को पूरा करते रहें तो भी घर के मामले से उनको इत्मिनान होना चाहिए और रास्ते के इख़राजात और कियाया वग़ैरह का इंतज़ाम होना चाहिए। मांग-मांग कर यह काम करना ज़रा दिक़्क़ततलब और दुश्वार है। यह काम सन्यासियों का है। अब फिर आप एक दूसरी मुश्किल ख्याल करें कि आप को तो वाक़फ़ियत नहीं है, चाहने वालों की मौत है। हमारे यहाँ सत्संगी भाइयों में से बाज़-ख़ास मी ऐसी नौबत है कि रोटी को मोहताज़ हैं, उनके बच्चों के पास कपड़ा नहीं, तालीम के लिए फ़ीस और किताब के लिए दाम नहीं। लड़कियां जवान हो रहीं हैं। पैसा न होने की वजह से शादी नहीं हो सकी। शर्म के मारे तलब कर नहीं सकते न इज़हार इस तंगी का कर सकते हैं।
"ॐ पूर्णमदाः, पूर्ण मिदाः, पूर्णस्य, पूर्ण समोच्चते।
पूर्ण मुदायाम, पूर्णातपूर्ण, पूर्ण मेवा वशिष्यते।।"
परिशिष्ट [घ]
परमपूज्य लालाजी साहिब के पार्थिव जीवन-काल के अंतिम वर्ष 1931 AD की डायरी की तिथि-वार प्रविष्टियों का मूल-पाठ -
THE DIARY EXTRACTS OF REVERED LAALAAJI SAHIB :
Thursday the 01st. January 1931:
आज बाबू कन्हैयालाल और उमाशंकर वापस चले गए। बृजमोहन कानपुर से आये। रुपया 25/- बाबू कन्हैयालाल ने दिए।
Friday the 02nd January 1931 :
बृजमोहन, रायसाहिब के यहाँ गए। गोवर्धनदास [श्रीमती भगवती देवी, धर्मपत्नी महात्मा जगमोहन नरायन के फुफेरे भाई] मय अपनी बहिन [श्रीमती भगवती देवी, धर्मपत्नी महात्मा जगमोहन नरायन] के एटा से रात के दो बजे आये।
Saturday the 03rd January 1931 :
आज गोवर्धन दास से सख्त ग़ुफ़्तगू की नौबत आयी।
Sunday the 04th January 1931 :
जगदम्बा प्रसाद [साक़िन - हरदोई उ0 प्र0] ने 01 जनवरी को बैअत ली।
Thursday the 08th January 1931 :
रूद्रसेन [परमपूज्य लालाजी साहिब के कोटा वाले दामाद, बाबू श्याम बिहारी लाल के सगे छोटे भाई] की हमराह [धर्मपत्नी] श्यामा और जगमोहन की दुलहिन [श्रीमती भगवती देवी] कोटा - राजस्थान को गयीं।
Saturday the 10th January 1931 :
कृष्णचन्द्र भार्गव ने रूपया 45/- भेजे।
Monday the 12th January 1931 :
आज 09. 00 बजे सुबह की गाड़ी से एटा को रवाना हुआ।
Wednesday 14th January 1931 :
मकर संक्रान्ति थी। बाबू अवधबिहारी लाल और उनकी बीबी ने बैअत ली। बाबू राधा रमन अलीगढ ने बैअत ली।
Thursday the 15th January 1931 :
एटा से रवानग़ी और शाम को घर पहुँच गया।
Friday the 16th January 1931 :
राम प्रसाद [वैद्य बलदेव प्रसाद के सगे छोटे भाई] की लगुन दिल्ली से आयी। बृजमोहन मय अपनी दुलहन के सिकन्द्राबाद [जिला बुलन्दशहर उ0 प्र0] से वापस आये।
Monday 19th January 1931 :
चटाइयाँ शाहजहाँपुर से आईं। बालकिशन के वालिद की बरसी थी।
Tuesday the 20th January 1931 :
नन्हें [परमपुज्य लालाजी साहिब के सगे छोटे भाई, महात्मा रघुबर दयाल - कानपुर] की दुलहन मय ज्योती [महात्मा रघुबर दयाल के सबसे छोटे बेटे, महात्मा ज्योतिन्द्र मोहन लाल ] के कानपुर से आये। आज से रमज़ान शुरू हुए।
Friday the 23rd January 1931 :
बृजमोहन लाल आज बुलन्दशहर को रवाना हो गए सुबह नौ बजे। बरात रात को दस बजे की गाड़ी से रवाना हुयी।
Saturday the 24th January 1931 :
सुबह 06.30 बजे फ़र्रुख़ाबाद रवाना हुआ। गाड़ी से दिल्ली की तरफ़ रवाना हुआ। किराया तीन रूपया दो आना था। शाम को 06.30 बजे दिल्ली पहुँचा। दरवाज़ा हुआ। स्वागत कराया गया।
Sunday 25th January 1931 :
आज 'दावत-भात' थी। बाबू भगवत प्रसाद के होटल में गया। वहाँ से 'श्रद्धानन्द भवन' गया। स्वामी आनन्दभिक्षु जी से मुलाक़ात हुयी। मुन्शी जीवाराम जी से मुलाक़ात हुयी और उनके समधी मुन्शी साहिब तखल्लुस ज़ौक़ से मुलाक़ात हुयी। बाबू जमुना प्रसाद के बरादरे निस्बती [साला या बीबी का भाई] बाबू भगवत स्वरुप को होटल में उपदेश दिया गया।
Monday the 26th January 1931 :
[*Mahatma Gandhi was freed from prison.]
आज 'दावत-बड़ाहार' थी। सायंकाल को आनन्दभिक्षु जी आये। मैं दावत में नहीं गया। आज गोया आज़ादी का बड़ा भारी जुलूस निकला*। तमाम दिल्ली में चहल-पहल और रोशनी थी। लीडर लोग रिहा किये गए थे। जगमोहन और मुन्शीजी [मुन्शी कालीसरन भोजपुर वाले] कोटा की तरफ़ रवाना हुए।
Tuesday the 27th January 1931 :
आज सुबह सात बजे 'श्रृद्धानन्द भवन' गया। स्वामी नारायण जी सरस्वती से मुलाक़ात हुयी। बहुत ख़ुल्क़ और ख़ातिर से पेश आये। फतेहगढ़ आने का वायदा किया और दो किताबें ----- उपनिषद् इनायत कीं। सुबह 09.30 बजे फतेहगढ़ की तरफ़ रवानगी हुयी।
Thursday the 29th January 1931 :
आज दो राज-मिस्त्री, दो मज़दूर अमानी [रोज़न्दारी] पर थे। दो बजे अजुध्यानाथ [जनाब लालजी साहिब की तीसरी बेटी, सुश्री श्यामादेवी के पतिदेव] कोटा से [वापस] आये।
Friday 30th January 1931 :
आज वक़्त सुबह बृजमोहन मय कुल औरतों के कानपुर की तरफ़ रवाना हो गए। मुब्लिग़ रुपया 04/- नज़राना बलदेव प्रसाद ने दिया।
Saturday the 31st January 1931 :
आज सवा छः रूपया चोरी हो गए। ईशावास्योपनिषद भवानीप्रसाद माँग कर ले गए। घी पाँच रुपये का आया।
Sunday the 01st February 1931 :
महाराज नरायन [परमपूज्य लालाजी साहिब की दूसरे नंबर की बेटी, कृष्णा कुमारी उर्फ़ 'बब्बन' के पति, अर्थात लालाजी के दामाद] 'उमरैन' को रवाना हुए। 'सिब्बा' [जनाब लालाजी साहिब के घर का पूर्णकालिक सेवक जो कि उमरैन का ही रहने वाला था] अपने घर को गया, मय 'भगोल' के। दिल्ली से डॉक्टर साहिब रुख़्सत कराने आये। एक रूपया नज़राना दिया।
Monday the 02nd February 1931 :
आज एक मज़दूर अमानी में है। मास्टर पुत्तूलाल - कमालगंज ने बैअत ली। केनोपनिषद मुंशी चिम्मनलाल के पास है।
Wednesday the 04th February 1931 :
आज मज़दूरों का हिसाब कर दिया गया। आज रात की एक बजे की गाड़ी से कानपुर और उरई की तरफ़ रवाना हुआ। स्टेशन पर बाबू गुरुप्रसाद तारबाबू से मुलाक़ात हो गयी। एक रुपया दो आना ताँगा का किराया और पाँच रुपया दस आना किराया रेल।
Thursday the 05th February 1931 :
आज आठ बजे कानपुर पहुँच गया। ओला और बर्फ़ पड़ने की वजह से निहायत सख़्त सर्दी थी। दस कानपूर से रवाना हो कर साढ़े बारह बजे उरई पहुँचा। रात में बाबू सूरज प्रसाद के यहाँ क़याम किया। रात में नन्हें कानपुर से आये।
Friday the 06th February 1931 :
सुबह 12.30 बजे झाँसी की तरफ़ रवाना हुआ। तीन बजे पहुँचे। रात में बाबू भवानी प्रसाद के साथ एक पंडित जी नायब मुहाफ़िज़ दफ़्तर [Record Keeper] आये और शारदाप्रसाद अहलमद [Junior Court Clerk] मिलने को आये।
Saturday the 07th February 1931 :
आज बाबू नारायण प्रसाद मुंसिफ़ जरीमः से मुलाक़ात हुयी। दिन में खाना बाबू सूरजप्रसाद के भाई के यहाँ खाया। दावत भात थी। पंडित जी नायब मुहाफ़िज़दफ़्तर को उपदेश किया गया। एक नाबीना लड़का साकिन - लखनऊ ने उपदेश लेने की दरख़ास्त की।
Sunday the 08th February 1931 :
आज दिन में बाबू बालाप्रसाद क्लर्क के यहाँ दावत थी। शाम को दावत बड़हार थी। आज सत्संग 'जनवासे' [Living quarters of the bridegroom's party, at the time of a wedding] में शाम को हुआ बहुत लोग शामिल थे।
Monday the 09th February 1931 :
सुबह बाबू भवानी शंकर के यहाँ गया। बाबू शिवदयाल को समझाया गया। उन्होंने अपनी तस्फीफ़ [condition] ज़ाहिर की। बाबू शारदाप्रसाद क्लर्क-जजी को जनरल तवज्जोः दी गयी, नतीज़ा मालूम नहीं क्या हुआ। दो रुपए बाबू मेवालाल और भवानीशंकर ने दिए। एक कम्बल पण्डित नाथूराम नायबमुहाफ़िज़दफ़्तर जजी ने दिया। डाक गाड़ी से उरई वापस आया।
Tuesday the 10th February 1931 :
आज रँगीलेलाल उर्फ़ खुनखुन नबीना साकिन लखनऊ को उपदेश किया गया। शाम को आम दावत लाला सुखवासी लाल के यहाँ थी।
Wednesday the 11th February 1931 :
सुबह छः बजे कानपुर की तरफ़ रवाना हुए। नन्हें [लालाजी के छोटे भाई] वहीं रह गए। शाम को पाँच बजे फतेहगढ़ पहुँचे। मेरठ में बाबू काशीराम के यहाँ शादी थी।
Thursday the 12th February 1931 :
आज बुद्धसेन [लाला मंगलसेन के बड़े भाई] सुबह ही आये और रोए-धोए।
Friday the 13th February 1931 :
आज फ़िर बुद्धसेन आये। उनको रु-बरु समझाया गया कि यह मर्ज़ मुश्किल से जाता है। मालुम होता है कि बुद्धसेन बहुत नाराज़ हो गए।
Saturday the 14th February 1931 :
लाला विशुनदत्त से 70 रूपये क़र्ज़ लिए गए।
Sunday the 15th February 1931 :
शिवरात्रि। आज 12 बजे फ़र्रुख़ाबाद से मैनपुरी की तरफ़ रवाना हुआ। 04 बजे पहुँचा। मन्दिर-चित्रगुप्त में ठहरा। रात में सत्संग हुआ। मस्तुरात [स्त्रियाँ] भी शरीक़ हुईं। श्रीपतिसहाय के वालिद भी आये। मुंशी चेतराम के यहाँ खाना खाया। गोपीनाथ अहलमद की निस्बत मालुम हुआ की उनकी सोहबत एक सन्यासी से रही और अब इस तरफ़ उनका ध्यान नहीं है। और न उनकी तबीयत सत्संग में लगी।
Monday the 16th February 1931 :
आज सुबह भी सत्संग हुआ। आनंदस्वरूप स्वरुप कुर्कअमीन भोगांव को उपदेश दिया गया। रात को आशाराम पंजाबी साकिन गुजरात इलाक़ा हुशियारपुर पंजाब को उपदेश किया गया। और एक लड़का तालिबइल्म [विद्यार्थी] साकिन खेड़ा [भोगांव - ज़िला मैनपुरी] को उपदेश किया गया। दिन में मुंशी हरनारायण मुख्त्यार के यहाँ गया। वहाँ एक रुपया चाची ने दिया। रात को फ़िर मय मस्तूरात [स्त्रियों] के सत्संग हुआ।
Tuesday the 17th February 1931 :
आज भजनलाल के यहाँ दोपहर को खाना खाने गया। वहाँ भजनलाल की हमशीरा [बहिन] को उपदेश किया गया। भजनलाल की दुल्हन ने एक रुपया नज़र किया। तीन बजे रेल से भोगांव की तरफ़ रवाना हुआ। रात को मय मस्तूरात के सत्संग हुआ। आज रात को मैं पाँच मर्तवा पेशाब को गया। सेवकराम 08.00 बजे की गाड़ी से अपने रिश्तेदार के घर मैनपुरी चले गए।
Wednesday the 18th February 1931 :
आज फ़िर सत्संग हुआ। बाग़ की हालत को जा कर देखा, निहायत बदतर हालत में पाया। तमाम दरख़्त कटे हुए पाए गए और दरख्तों की शाखें कटी हुयी थीं और जानवर चर रहे थे। श्याम लाल, मगन बिहारी लाल के रिश्तेदार हैं, उन्होंने अपने मुक़दमे की बावत कहा है। खां साहिब से मुलाक़ात हुयी। आनन्द स्वरुप सत्संग में शरीक़ हुए। भावज-रामकिशनलाल ने बावत बैअत कहा लेकिन जब उनको उसकी हकीकत समझाई गयी तब चुप हो गयीं।
Thursday the 19th February 1931 :
आज नौ बजे की रेल पर भोगांव से रवाना हो कर मैनपुरी पहुँचा। हमराह श्रीपतसाहाय के एटा की तरफ़ रवाना हुआ। रस्ते में मोटर बिगड़ा। शाम को एटा पहुँचा। राय साहब मय हरस्वरूप मौजूद थे। सत्संग हुआ।
Friday the 20th February 1931 :
क़ाज़ीजी वग़ैरह और दीग़र मौलवी साहबान मिलने को आये। आज नन्हें और बाबू सुखबासीलाल कानपुर से बराह [via] शिकोहाबाद आए।
Saturday the 21st February 1931 :
आज भी क़ाज़ीजी साहिब व दीग़र मुसलमान वग़ैरह आए। सत्संग हुआ। 'फ़ातिहः' [क़ुरान की पहिली सूरत] की गयी। बाबू उल्फ़तराय साहिब की तरफ़ प्रसाद तक़सीम हुआ। मुंशी सूरज सहाय मुख्त्यार की बैअत।
Sunday the 22nd February 1931 :
सत्संग हुआ। बाबू होतीलाल के चाचा साहिब को उपदेश किया गया। एक साहिब जो चुंगी में मुलाज़िम हैं को उपदेश किया गया। एक कहाँर हमराही मुंशी हुब्बालाल पटवारी भी सत्संग में बैठे।
Monday the 23rd February 1931 :
रायसाहिब के यहाँ गए। शाम को वापस हुए। आज एक पंडितजी साहिब आचार्य स्कूल-मास्टर एटा से गुफ़्तगू हुयी। उनको समझाया गया और वोह आमादा हुए। रूपया 11/- बाबू सूरज सहाय ने और 11/- रुपया राय साहिब ने पेश किए।
Tuesday the 24th February 1931 :
आज ग्यारह बजे कासगंज की तरफ़ रवाना हुआ। मोटर रस्ते में कई जगह बिगड़ा। शाम को कासगंज पहुँचा। दौरा दर्द का सिर में और दाढ़ में हुआ। मास्टर साहिब बाबू बसंतलाल से मुलाक़ात हुयी। मुंशी छेदालाल मामू - मुंशी उमाशंकर जो पेंशन पाते हैं, मय उनके लड़कों के मुलाक़ात हुयी। एक लड़का जो बाबू फतहलाल का रिश्तेदार है और एक स्कूलमास्टर है, मुलाक़ात हुयी। सत्संग में बैठा। रात को सिरदर्द और दांत में दर्द बहुत हुआ।
Wednesday the 25th February 1931 :
आज 12.00 बजे की गाड़ी से फतेहगढ़ की तरफ़ रवाना हुआ। शाम को अस्सिस्टेंट सर्जन मोहम्मद उमर साहिब तशरीफ़ लाये और बाबू माधव प्रसाद कम्पाउण्डर साथ में थे। उनसे मुलाक़ात हुयी और गुफ़्तगू हुयी। रात को हरारत हो आयी।
Thursday the 26th February 1931 :
आज बाबू कृष्ण नारायण सेन [जनाब लालाजी साहिब के पश्चिम दिशा में सटे हुए मकान के पड़ोसी] वक़ील सुबह को आये और ग़ुफ़्तगू निस्बत उपदेश लेने के की। आज नक्शा मकान का मन्ज़ूर हो कर आ गया। रात को मर्दुमशुमारी [जनगणना = census] हुयी। कानपुर से राम विशन मय बच्चों के स्याही फ़रोख़्त करने के वास्ते आये।
Friday the 27th February 1931 :
सुबह को बाबू कृष्ण नारायण सेन और उनकी बीबी को तवज्जः दी गयी। कोई फ़ायदा महसूस नहीं हुआ। रात को भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। राम विशन कानपूर रवाना हुए।
Saturday the 28th February 1931 :
आज अलमारी-कमरा में किबाड़ लगाए गए। रात को बाबू कृष्ण नारायण सेन को तवज्जःदी गयी। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उनकी बीबी के तबीयत पर कुछ असर हुआ।
Sunday the 01st March 1931 :
आज वक़ील साहिब के यहाँ नहीं गया। रात को मसानः [पेशाब की थैली, मूत्राशय, मूत्रकोष] ढीला हो गया। ख़्वाब में जनाब क़िब्ला मौलाना साहिब को हालते नज़अ [मरते समय की दशा] में और निहायत ही परेशानी की हालत में देखा। कुछ वजह समझ में नहीं आयी।
Monday the 02nd March 1931 :
दो रोज़ से तमाम दिन अब्र [बदली छाई हुयी] है। बहुत बुरा मालुम होता है। किबाड़ रंगने वाला रंग चोरी करके भाग गया। ऊपर के जदीद [नए] कमरे में फ़ातिहः [प्रसाद चढ़ाया गया] की गयी।
Tuesday the 03rd March 1931 :
एटा से बाबू अवधबिहारी लाल का ख़त आया कि प्रेमबिहारी के यहाँ 28 फ़रवरी को सुबह साढ़े आठ बजे लड़का पैदा हुआ। नौ मार्च का दष्ठौन है। तलब किया [बुलाया] है। बाबू आनन्द स्वरुप कानपुर की बीबी का इंतक़ाल हो गया।
Wednesday the 04th March 1931 :
आज साढ़े सात बजे सुबह 'आखत' डाले गए। [होली] मिलने-मिलाने को लोग आये। बावजह दाँतों के दर्द की वजह से कुछ नहीं खाया गया।
Thursday the 05th March 1931 :
मुकुन्दीलाल का ख़त आया कि उनका विवाह नौ मार्च को है। 'मथन्नी' [लालाजी के चचेरे छोटे भाई - डॉ कृष्ण स्वरुप] का ख़त आया कि भगन्दर का फ़िर ऑपरेशन किया गया है और चारपाई से उठ नहीं सकते हैं। बुआ के जूतों का पार्सल आ गया। मनीआर्डर उरई से बीस रुपये का आया। मगनबिहारीलाल के यहाँ शाम का सत्संग हुआ। ख़्वाब में रातभर पाख़ाना फ़िरता रहा।
Friday the 06th March 1931 :
योगवशिष्ठ का हिस्सा अव्वल [part - first] पण्डितजी मुहाफ़िज़-दफ़्तर [जजी] ले गए। स्वामी रामतीर्थ वर्क्स का हिस्सा अव्वल [part - first] बाबू रघुबर दयाल अहलमद [कोटावार्डस] ले गए।
Tuesday the 10th March 1931 :
बाबू भगवत प्रसाद भटनागर चन्दौसी से आये। दाँत वाले को दाँत दिखलाया। बाबू कृष्ण नारायन सेन के यहाँ आज फ़िर गया। दावत पेशकार साहिब के यहाँ थी।
Wednesday the 11th March 1931 :
आज तबीयत ज़ियादह कमज़ोर रही। दाँत दिखलाने को इस ख्याल नहीं गया कि जाने कौन सा दाँत उखाड़ दें।
Thursday the 12th March 1931:
नौ रुपया बारह आना श्री कृष्ण ने और पाँच रुपये बलबीर सहाय [पूर्वोक्त श्री कृष्ण लाल के बहनोई] ने भेजे हैं। बहादुर सिंह सर्किल इन्स्पेक्टर [सवाई] जयपुर का ख़त आया है। बाबू राधारमन अलीगढ से आये। बलदेव प्रसाद के ससुर ने वक़्त दो बजे दिन इंतक़ाल किया, रात-भर पड़े रहे।
Friday the 13th March 1931 :
कोई शख़्स बिरादरी का सिवाय लालता प्रसाद के लाश उठाने को नहीं आया। पण्डित मानसिंह के लड़का पैदा हुआ।
Saturday 14th March 1931 :
भगवत प्रसाद ओवरसियर बैअत ली। राधा रमन अलीगढ को रवाना हो गए।
Tuesday the 17th March :
जगमोहन की दुल्हन के गर्भपात [miscarriage] का दर्द उठा। और पेशकार साहिब के घर में [उनकी पत्नी के] भी रात को दर्द उठा।
Wednesday the 18th March 1931 :
दस रुपये का मनीआर्डर रामसिंह मास्टर आगरा ने भेजा।
Thursday the 19th March 1931 :
दस रूपये सीताराम लखनऊ ने भेजे। बाबू भगवतप्रसाद रात को दिल्ली रवाना हो गए।
Friday the 20th March 1931 :
बाबू कन्हैयालाल का खत इलाहबाद [परिवर्तित नाम 'प्रयागराज'] से आया। पन्द्रह रुपये बाबू राजेंद्र कुमार ['प्रोफ़ेसर राजेंद्र कुमार'] ने भेजे हैं। आज वक़्त तीन बजे दिन के हरारत ज़ोर गयी। आज काम मरम्मत का बन्द रहा।
Monday the 23rd March 1931 :
ज़ोर से हरारत बुख़ार की आ गयी। सिर में दर्द ज़्यादः है। बाद को बुख़ार ज़ोर से आ गया। तीस रुपये इलाहबाद-सत्संग से आये। माताचरन आये।
Tuesday the 24th March 1931 :
आज दुल्हन [श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी - महात्मा जगमोहन नरायन] की फ़िर वही हालत हो गयी। तमाम दिन और तमाम रात दर्द रहा।
Wednesday the 25th March 1931 :
दो रूपये मुन्शीसिंह ने दिए हैं। मिसिस छोटेलाल [पॉपुलर नाम - "काली मेम] को दिखाया गया।
Thursday the 26th March 1931 :
आठ बजे दिन को [दुल्हन, श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी - महात्मा जगमोहन नरायन का ] लड़का मिसकॅरियज [गर्भपात] हो गया। पन्द्रह रूपये डॉ श्यामलाल ने भेजे हैं। कानपुर में झगड़ा [हिंदू-मुस्लिम] शुरू हो गया है।
Saturday the 28th March 1931 :
आज रात क़रीब एक घड़े के पेशाब हुआ। राम नवमी का दिन है आज बहुत गर्म खबर कानपुर के झगड़े की है। फर्रखाबाद और फतेहगढ़ में भी झगड़े का अंदेशा सुना गया है।
Sunday the 29th March 1931 :
कोई ख़बर कानपूर से दरियाफ़्त नहीं हुयी। कोतवाली के दीवानजी से अजीब क़िस्म की गुफ़्तगू दरपेश आयी। जिसकी कोई वजह अब तक समझ में नहीं आयी। कानपुर से एक लड़का ब्राह्मण का कानपुर आया। उससे मालुम हुआ कि ज्योति बाबू [महात्मा ज्योतींद्र मोहन, छोटे बेटे श्रीमन महात्मा रघुबर दयाल जी] को उसने नवाबगंज में देखा। बाबू लक्ष्मी दयाल के यहाँ दावत थी। फर्रुखाबाद में चित्तरगुप्त के मन्दिर में जलसा था, वास्ते मकान बनवाने के।
Tuesday the 31st March 1931 :
नवाबगंज, कानपुर को 'तार' [Telegram] दिया गया है। जवाब का 'तार' नहीं आया। अहिबरन सिंह के भाई से मालुम हुआ को वो [ ज्योति बाबू ] नवाबगंज में हैं।
Wednesday the 01st April 1931:
कानपुर से तार [टेलीग्राम] का जवाब आ गया कि सब लोग महफूज़ हैं। लड्डू [भण्डारे में प्रसाद वितरण हेतु] बनवाये गए।
Thursday the 02nd April 1931 :
कानपुर से सब लोग आये। रामदयाल अलीगढ से मय अपनी भावज के आये। किशन स्वरुप [डॉ कृष्ण स्वरुप - लालाजी महाराज के छोटे चचेरे भाई] अजमेर से आये।
Friday the 03rd April 1931 :
[वर्ष 1931 का 'जलसा-सलाना' The Annual Congregation दिनांक 03 अप्रैल से 05 अप्रैल 1931 तक]
आमद शुरू हो गयी।
Saturday the 04th April 1931 :
बाबूराम मझोला शाहजहाँपुर, भँवर पाल ब्राह्मण आगरा, मुन्शी सिंह जिला हरदोई [ग्राम नगरिया], काशीनाथ ब्राह्मण गोरखपुर, बाबू रघुबीर प्रसाद आगरा, पण्डित रेवतीराम आगरा, बाबू फतेहलाल कासगंज, बाबू शेवती प्रसाद कासगंज ने बैअत की। मौलवी साहिब [शाह मौलाना फ़ज़ल अहमद खान साहिब रहमत0] सिरसागंज से तशरीफ़ लाये।
Sunday the 05 April 1931 :
आज तीन बजे दिन के मौलवी साहिब वापस गए।
Monday the 06th 1931 :
बृजमोहन फतेहपुर को वापस गए।
Tuesday the 07th April 1931 :
दाँत उखड़वाये गए।
Wednesday the 08th April 1931 :
नन्हे [लालजी के छोटे भाये, रघुबर दयाल] हमराह माताचरन के मैनपुरी चले गए।
Thursday the 09th April 1931 :
मुन्शी मनमोहनलाल, बाबू करुणाशंकर जिला शाहजहाँपुर, कुँवर राम सिंह सांगानेर - मनोहरपुरा जयपुर ने बैअत की।
Friday the 10th April 1931 :
कृष्ण स्वरुप भोगांव से वापस आये और फिर कानपुर चले गए। ग्वालियर को नौ रुपये का और उन्नाव तीन रुपये का मनीऑर्डर किया गया।
Saturday the 11th April 1931 :
आज तबीयत पाहिले के मुक़ाबिले अच्छी मालुम होती है। वक़ील साहिब [कुँववर कृष्ण नरायन सेन] ने आज फ़िर फ़ायदा हाँसिल करने के लिए कहा। कुँवर राम सिंह जयपुर वापस चले गए। और शाहजहाँपुर के लोग भी वापस गए।
Sunday the 12th April 1931 :
पण्डित रामेश्वर प्रसाद शाहजहाँपुर वापस चले गए।
Monday the 13th April 1931 :
जगमोहन को स्टीमबाथ दिलवाया गया। आज जगमोहन की माँ की तबीयत और दिनों के मुक़ाबिले ज़्यादः ख़राब है। डॉ मक़सूद अली साहिब को दिखलाया गया।
Tuesday the 14th April 1931 :
मुंशी मनमोहन लाल सिकन्द्राबाद को वापस गए। कृष्ण स्वरुप कानपुर से सुबह को वापस आ गए। आज डॉ मक़सूद अली साहिब से अपने पेशाब की जाँच करवाई। उन्होंने शकर का आना बतलाया।
Wednesday the 15th April 1931 :
कृष्ण स्वरुप अजमेर को और मुन्शी आत्मा राम कानपुर को वापस चले गए।
Thursday the 16th April 1931 :
आज मुशगिल [अत्तार] की दवा खाई है। चार-पाँच दस्त आये, तबीयत ज़्यादा साफ़ नहीं हुयी। तमाम घर - वाल्दा जग्गू [जगमोहन नारायन], बिट्टन, बब्बन, बीमार पड़े हैं।
Friday the 17th April 1931 :
आज से दवा डॉ सय्यद मसूद अली की इस्तेमाल की गयी। मगन बिहारी लाल के यहाँ बरसी की दावत है। माता चरन आये। बब्बन को आज बहुत ज़ोर से बुख़ार है। तमाम रात बेचैनी रही।
Saturday the 18th April 1931 :
मुझ को आज दौरा हरारत का फ़िर से हो गया। मगर हल्का। रात को बेचैनी रही और नींद नहीं आयी। राम किशन और राम गोपाल आये। राम गोपाल की बीबी चली गयीं।
Monday the 20th April 1931 :
राम किशन और राम गोपाल चले गए। कुछ खाना नहीं खाया गया। कुछ झगड़े की बातें घर के अंदर अंदाज़ से मालुम हुईं। हालाँकि मुझसे कहा नहीं गया। मगर ऐसा ख़याल हुआ।
Tuesday the 21st April 1931 :
दिल को निहायत सदमा है कि हमारे यहाँ इस क़िस्म के सवालात और बातें दरपेश हैं। जिनके हम लोग दूसरों के वास्ते मना करते हैं में अपनी कमज़ोरी है वर्ना अल्लाह पाक ने जुमला नियामतों से मालामाल कर दिया है । कमज़ोरी ज़्यादा है।
Wednesday the 22nd April 1931 :
बाबू राम चरन लाल एक्सपर्ट मुरादाबाद से अपना हाल कहा। बाबू दया शंकर वक़ील के यहाँ लड़के का मुण्डन था। आज दवा डॉक्टर साहिब की नहीं खाई। आज शाम को सात मिनट तक 'बाथ' लिया गया। बहुत फ़रहत [आनन्द] और ताक़त मालुम हुयी।
Thursday the 23rd April 1931 :
भजनी और उपदेशक लोग कमरे में आ कर ठहरे हैं।
Friday the 24th April 1931 :
आज मुंशी मनमोहन लाल साहिब और डॉ श्री कृष्ण आये। आज नगर कीर्तन था।
Saturday the 25th April 1931 :
आज सुबह पंडित रूद्र दत्त जी का व्याख्यान है। स्वामी सत्यव्रत जी से मुलाक़ात हुयी। मुंशी मनमोहन लाल शाहजहाँपुर गए। जलसा आर्यसमाज का था। जगमोहन की दुल्हन को एक दाई को दिखलाया गया। जो चुंगी की मुलाज़िम है।
Sunday the 26th April 1931 :
जलसा आर्यसमाज का था।
Monday the 27th April 1931 :
जलसा आर्यसमाज का है। श्री किशन सिकंदराबाद वापस गए। मुंशी मनमोहनलाल शाहजहाँपुर से वापस आये। जलसा ख़त्म हो गया।
Saturday the 02nd May 1931 :
आज 'गार्डलाइन' में दावत थी। मगर नहीं जा सका। सुना गया है कि नारायण स्वामी लखनऊ से आये हैं। पार्सलघर [के पास] गार्डलाइन में नारायण स्वामी का लेक्चर सुना गया।
Sunday the 03rd May 1931 :
आज शाम फतेहगढ़ में नारायण स्वामी का लेक्चर सुना गया।
Monday the 04th May 1931 :
आज सुबह 07.00 बजे बा हमराही मुन्शी मनमोहन लाल जी व सुशीला वग़ैरह के सिकन्द्राबाद [ज़िला बुलन्दशहर] की तरफ़ रवाना हुए। 11.00 बजे शिकोहाबाद पहुँचे। 01. 45 पर शिकोहाबाद से रवाना हए। 06.00 बजे शाम को शाम को पहुँचा। किसी क़िस्म की कोई तक़लीफ़ नहीं हुयी।
Tuesday the 05th May 1931 :
मुंशी मसूद आलम साहिब 'तबीब' को दिखाया गया। आज रोटी रग़बत से [दिलचस्पी ले कर] खाई गयी।
Wednesday the 06th May 1931 :
मुंशी महमूद अली 'तबीब' को दिखलाया गया। यूनानी [इलाज] भी शामिल किया गया।
Thursday the 07th May 1931 :
आज दिन में कई मर्तबा दौरा दर्द का, दाँत और सिर में हुआ। मगर हल्का। बाबू सूरज प्रसाद उरई का ख़त आया है कि अभी शादी की तारीख़ ठीक नहीं है। बलग़म और खाँसी का ज़ोर रहा।
Friday the 08th May 1931 :
आज शाम को वाल्दा-सुशीला [लालाजी की धर्मपत्नी] की दावत भजनलाल के यहाँ थी। वहाँ जा कर खाने की बेतरतीबी को देखा गया और एतराज़ किया गया। हक़ीम साहिब ने आ कर नब्ज़ देखी।
Saturday the 09th May 1931 :
आज से श्रीकृष्ण के यहाँ उठकर आ गया। और खाना खाया। इलाज 'टब' का शाम से बंद किया गया। आज भी हकीमसाहिब ने आ कर नब्ज़ देखी।
Sunday the 10th May 1931 :
आज पेट [stomach] यानि जिगर [liver] पर लेप [a medical plaster] रक्खा गया। दो-तीन दस्त पतले आये। रामायण समझाना शुरू किया गया।
Monday the 11th May 1931 :
आज सुबह आठ बजे दिल्ली को रवाना हुआ। रायसाहिब दयाशंकर के यहाँ गया। वहाँ से फ़िर तिब्बिया कॉलेज को गया। और विश्वास बाबू को दिखलाया गया। फ़िर होटल में जा कर मथुरा के ज़दीद [आधुनक] आदमियों और औरतों से मुलाक़ात हुयी। शाम को वापस आ गया। बाबू भगवत प्रसाद साथ आये।
Tuesday the 12th May 1931 :
आज जगमोहन का ख़त आया है। दिल्ली की दवा इस्तेमाल करना शुरू की। जगमोहन के ख़त जवाब दे दिया गया। बाबू श्यामलाल वापस गए।
Friday the 15th May 1931 :
आज पण्डित काशीनाथ मेरठ से और बाबू राजेंद्र कुमार आगरा से आये। आज खाना नहीं खाया गया।
Saturday the 16th May 1931 :
आज श्रीकृष्ण व महादेव स्वरुप व बाबू भजनलाल व डॉ श्यामलाल दिल्ली मोटर ख़रीद करने गए हैं। आज नहाया गया क्योंकि डॉक्टर साहिब दिल्ली इजाज़त का ख़त भेज दिया गया था।
Sunday the 17th May 1931 :
आज सुबह मोटर में मय शीला वग़ैरह के बिठला कर डॉ श्यामलाल ने शुरुवात की। और पाँच रुपया नज़राना दिया। मौलवी मुश्ताक़ अहमद हेडक्लर्क चंगी मिलने को आये। और अपनी एक किताब दे गए।
Monday the 18th May 1931 :
आज दिन भर खाना नहीं खाया गया और भूँख नहीं लगी । सुशीला को आज चौथा रोज़ बुख़ार का है कि नहीं उतरा है और गलासुए निकल आये हैं। मौलवी मुश्ताक़ अहमद मय एक हाफ़िज़ साहिब मिलने आये। कन्हैयालाल का ख़त इलाहाबाद [परिवर्तित नाम - प्रयागराज] से आया।
Tuesday the 19th May 1931 :
मुकुन्द स्वरुप के साथ दिल्ली गया। मुअज़्ज़मदार जी को दिखलाया गया। शाम को वापस आया। तेज़ हवा की वजह से बहुत तक़लीफ़ हुयी। खाना बिलकुल दो रोज़ से नहीं खाया जाता है। हेडमास्टर साहिब मेरठ वापस चले गए। बाबू श्यामसुन्दर भान्जा मुन्शी शिवशंकर लाल से मुलाक़ात हुयी।
Wednesday the 20th may 1931 :
तबीयत [state of health] निहायत [exceedingly] ख़राब [spoiled] है। डॉ शम्भू प्रसाद को दिखलाया गया। तमाम हालात उनसे दरियाफ़्त किये। दस्त साफ़ नहीं आया और न खाना खाया गया ।
Thursday the 21st May 1931 :
आज भी दस्त [motion = मल-त्याग] साफ़ नहीं आया और न खाना खाया गया। दिल्ली का इलाज तर्क [छोड़ना = बंद] कर दिया गया, और वक़्त शाम बुलन्दशहर आ गया। डॉ चुन्नीलाल को दिखलाया गया।
Friday the 22nd May 1931 :
आज इलाज डॉ चुन्नीलाल का शुरू किया गया। सिर्फ़ फ़ल और दूध बतलाया। आज तबीयत अच्छी रही।
Saturday the 23rd May 1931 :
बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर राजेंद्र कुमार] का खत आया कि आगरा आ जाओ। मगर वहाँ के डाक्टर साहिब और यहाँ के डॉक्टर की राय मुताबिक़ पडी। इसलिए जाना मुल्तवी [स्थिगित] किया गया।
Sunday the 24th May 1931 :
आज सुबह साढ़े पाँच बजे बहमराही महादेव स्वरुप कार पर रवाना हुए। अलीगढ़ में बाबू गौरीशंकर व केदारनाथ से मुलाक़ात हुयी फ़िर एटा रवाना हुआ। दस बजे एटा पहुँचा। सब से मुलाक़ात हुयी। दिन और रात में क़याम किया।
Monday the 25th May 1931 :
सुबह 05.30 बजे फ़तेहगढ़ की तरफ़ रवाना हुआ। सुबह 09.00 बजे फ़तेहगढ़ पहुँच गया। गुसाईंजी [गोस्वामी जी] व गँगाभारतीजी ठहरे हुए मिले। भोगावं में मौलवी आविद अली साहिब से और वैद्य जी से रास्ते में मुलाक़ात हुयी। दस बजे इलाहबाद [परिवर्तित नाम - प्रयागराज] से तीन औरतें और बाबू गंगासहाय याकूतगंज से आयीं। उनको उपदेश दिया गया।
Tuesday the 26th May 1931 :
आज 'गंगास्नान' [का पर्व] है। आज से 'टब-बाथ' लेना फ़िर शुरू किया गया। आज फिर वोह औरतें आईं, उनको उपदेश किया गया। बाबू रामकुमार सॉर्टर [sorter] आर ऍम एस - कासगंज, और बाबू भजनलाल मय असबाब के आये। इलाहाबाद की औरतों ने रूपया 04/- बब्बन [लालाजी की द्वितीय पुत्री - सुश्री कृष्णा कुमारी उर्फ़ बब्बन] को दिए।
Wednesday the 27th May 1931 :
कोई ताज़ा बात नहीं। रामकिशन लाल भोगावं से आये। आज कल गुसाईंजी, सुन्दरलाल, पुत्तूलाल, रामकिशन, उमाशंकर और भजनलाल मौजूद हैं।
Thursday the 28th May 1931 :
रामकिशन लाल वापस गए। मुंशी जीवा राम और रुद्रसेन जी मैनपुरी से आये। रात को थोड़ा दलिया [coarsely ground grain] खाया। महेश्वर सहाय उर्फ़ मस्सू भोगांव से आये और अपने घर का वाक़्या बयान किया। इलाज होम्योपैथिक बंद कर दिया।
Saturday the 30th May 1931 :
आज टब-बाथ गरमा [steam-tub bath] लिया गया। मुंशी जीवाराम और गुसाईंजी वापस गए। शाम को नन्हें वग़ैरह मय मस्तूरात के उरई से वापस आये। कानपुर में सोराइसिस [Psoriosis] फ़ैल गयी है इस लिए शहर में दखिल नहीं हुए।
Sunday the 31st May 1931 :
आज जगमोहन वास्ते शिरक़त शादी एटा - भोगांव हो कर गए ताकि मुंशी [लालाजी के सगे छोटे भाई महात्मा रघुबर दयाल जी साहिब के मझले बेटे - महात्मा राधा मोहन लाल] को कानपुर जाने से रोक देवें। बाबू हरप्रसाद फुलैरा [राजस्थान] से आये।
Monday the 01st June 1931 :
बाबू हरप्रसाद वापस गए। बरात एटा जगत नरायन पिसर [आत्मज] रामपूरन दास की है।
Tuesday the 02nd June 1931 :
नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] मय 'ज्योती' [महात्मा ज्योतिन्द्र मोहन लाल] के फतेहपुर हँसुआ [इलाहाबाद के पास] 'अनन्दे' [बाबू आनन्द बिहारी लाल] की बरात में गए। दोपहर में पेन्शन [Pension] लाया।
Thursday the 04th June 1931 :
आज स्टीम-बाथ लिया गया। जगमोहन एटा से वापस आये। ग्वालियर [संभवतः लालाजी के गुरुदेव के पुत्र के परिवार के लिए] को दस रुपये का मनीऑर्डर किया गया।
Friday the 05th June 1931 :
आज तीन मर्तबः टब-बाथ लिया गया। बारात अनन्दे की फतेहपुर से वापस आयी है। पार्सल उरई को किया गया।
Saturday the 06th June 1931 :
बीस रुपये का मनीऑर्डर उरई से आया। पिंडोल [ yellow or white soil used to smear or wash the walls of the houses] का प्लास्टर पेट पर किया गया।
Sunday the 07th June 1931 :
आज भजनलाल सुबह को वापस सिकन्द्राबाद [जिला - बुलन्दशहर] गए। आज रात को मुन्शी मनमोहन लाल साहब सिकन्द्राबाद से आये। बाबू रतनलाल [श्री आनन्दबिहारी लाल उर्फ़ अनन्दे के पिता जी, जो कि महात्मा श्याम बिहारी लाल - फतेहगढ़ के सगे बहनोई भी थे] के यहाँ 'गार्डन-पार्टी' [उनका यह बाग़, मौजूदा वक़्त की छोटी-जेल चौराहा और महात्मा श्याम बिहारी लाल जी की 'समाधि' तक उस समय में स्थित था] थी।
Monday the 08th June 1931 :
मैनपुरी से नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल जी] ने ख़रबूज़े भेजे हैं। मुन्शी सुखवासी लाल ने रूपये 10/- का मनीऑर्डर भेजा है। ख़ानबहादुर अब्दुल हमीद ख़ान साहिब तशरीफ़ लाये।
Tuesday the 09th June 1931 :
आज सुबह को कमज़ोरी ज़्यादः रही और वरम [सूजन] के स्थान पर छूने से कभी-कभी दर्द सा होता है, तबीयत गिरी-गिरी सी हुयी है । नन्हें [महत्मा रघुबर दयाल] मय बच्चों के और मुंशी आत्माराम के कानपुर तीन बजे रात को चले गए।
Wednesday the 10th June 1931 :
मुंशी मनोहन लाल सिकन्द्राबाद [जिला - बुलन्दशहर] वापस गए। अयोध्या नाथ सहाय [लालाजी के साले साहिब, जिज्जी श्रीमती बृजरानी के सगे छोटे भाई] बरेली से शिरक़त बारात बिश्वम्भर नाथ [उपनाम बिस्सू बाबू, उनके छोटे भाई के बेटे] के लिए आये। बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर साहिब] कानपुर से आये। बाबू शिवशंकर लाल की बारात बारात गए। मौलवी अब्दुलग़नी खां साहिब भोगांव [जिला - मैनपुरी] से तशरीफ़ लाये।
Friday the 12th June 1931 :
रायसाहिब इन्द्रनारयण - सकीट [लालाजी की धर्मपत्नी के सगे ममेरे भाई, जिनके घर पर रहकर वे बचपन से शादी तक पलीं-बढ़ीं थीं] रात को मिलने को आये। सुबह को शशि मुकुट नारायन पटियाली से [लालाजी के बेटे महात्मा जगमोहन नरायन की प्रथम पत्नी के पिताजी] मिलने को आये।
Saturday the 13th June 1931 :
राम गोपाल [लालाजी की पत्नी के भाई के दामाद, जो कि उनके बैअतशुदा शिष्य भी थे] छिबरामऊ से आये और वापस गए। अयोध्या नाथ सहाय वापस गए। बाबू राजेंद्र कुमार आगरा को वापस गए। ठाकुर तेजसिंह आये।
Sunday the 14th June 1931 :
जगमोहन बारात वास्ते शामिल होने नन्हेंबाबू के लड़के की गए। महाराज नरायन [लालाजी की द्वितीय पुत्री कृष्णाकुमारी के पतिदेव] बुलन्दशहर [अपने घर] गए। दीनानाथ आये और उनके हमराह पिसर रघुनन्दन लाल सबइंस्पेक्टर साकिन मौजा भवानीप्रसाद वास्ते हुसूल [प्राप्ति] तालीम के आये । आज रात में बवासीर ज़ोर कर आयी है।
Monday the 15th June 1931 :
आज शिव वरन को तवज्जः दी गयी, असर हुआ। शाम को भी तवज्जः दी गयी, असर अच्छा हुआ।
Tuesday the 16th June 1931 :
आज फ़िर तवज्जोः दी गयी। आज रातभर निहायत दर्द रहा। तमाम रात नींद नहीं आयी और तबीयत बेचैन रही । तौला [copper or earthen vessel for measuring out liquids] में भरकर आया।
Wednesday the 17th June 131 :
जगमोहन बरात से वक़्त शाम वापस आये। आज तबीयत ठीक रही और दर्द नहीं हुआ।
Thursday the 18th June 1931 :
बाबू कन्हैया लाल [लाला जी के साढ़ू = co-brother, wife's sister's husband] मय-बच्चों के मैनपुरी से आये। बाबू शम्भूनाथ वकील की लड़की जो जमुनास्वरूप की सास है, मय बच्चों के फ़र्रुख़ाबाद से आयी। बाबू अवधबिहारी इलाहाबाद वाले अपने घर से आये। श्रीगोपाल ढर्रा से आये।
Friday the 19th June 1931 :
बाबू कन्हैयालाल वापस चले गए। श्रीगोपाल दास गए। स्टीम-बाथ लिया।
Saturday the 20th June 1931 :
पण्डित शिवनारायन उर्फ़ गाँधीजी कानपुर से आये।
Sunday the 21st June 1931 :
आज खाना बहुत कम खाया गया।
Monday the 22nd June 1931 :
पण्डित शिवनरायन मास्टर [गाँधीजी] कानपुर दस बजे सुबह वापस गए। फ़र्रुख़ाबाद की लड़की यानि जमुना स्वरूप की सास वापस चली गयी। खाना नहीं खाया गया। दिमाग़ी तक़लीफ़ ख़ानगी [निजी, घर-गृहस्थी से सम्बंधित] से हालत मेरी कमज़ोर [mental-boggling] है।
Tuesday the 23rd June 1931 :
आज बाबू राम चन्द्र शाहजहाँपुर से आये और फ़ल [fresh-fruits] लाये । आज फ़लों का इस्तेमाल ज़ियादा किया गया। दोपहर में गरम पानी और कपड़े से सेंका [fomenting] गया। एटा से एक ख़त गोवर्धनदास [लालाजी की पुत्रवधू सुश्री भगवतीदेबी के फुफेरे-भाई ] का निस्बत रुख़सत [दुल्हन की विदाई से सम्बंधित] आया और जवाब फ़ौरन दिया गया।
Wednesday the 24th June 1931 :
आज सुबह को पेशाब जर्द [पीले रंग वाला] रंग का आया जिसमें सुर्ख़ी और हरारत कम थी । दोपहर को पिण्डोल की गरम-पट्टी इस्तेमाल की गयी। रात को तीन बजे पंडित रामनरायन गार्ड बुलन्दशहर से आये। पार्सल लीची [litchi] का देहरादून से आया और [एक] पार्सल फ़लों का लखनऊ से आया ।
Thursday the 25th June 1931 :
माता चरण, राम चन्द्र, राम नरायन गार्ड, श्यामा मौजूद हैं। आज फ़िर गरम पानी से सेंका गया। दस रुपये का मनीऑर्डर सीताराम लखनऊ ने ख़ैरात फण्ड का भेजा है। बाबू राम गोपाल बरेली से आये।
Sunday the 28th June 1931 :
आज से शरबत तुख़्म काशायी [a Tibbiya medicine] का इस्तेमाल किया गया। माता चरन वापस गए। एक ख़त रियासत रामपुर को वास्ते 'सवालहै उमरी' [A Persian Book] के रवाना [dispatched] किया गया।
Wednesday the 01st July 1931 :
आज बाथ [टब-बाथ] का नाग़ः [ग़ैरहाज़िरी = adjourn] किया गया। बाबू अवध बिहारी लाल इलाहबाद जाने के वास्ते अपने घर से आये।
Thursday the 02nd July 1931 :
[Went, himself to draw His last pension during life-time.]
पेंशन वसूल [collect] करने गया। आज शाम को टहलने गया। रास्ते आँधी-पानी आ गया। अब्दुल रहमान खान साहिब वक़ील के यहाँ नौ बजे रात तक बैठा रहा। बाबूराम वग़ैरह फ़र्रूख़ाबाद से आये। जगमोहन की छत [roof-top] पर [लालाजी के पुत्र जगमोहन के कमरे के सामने खुली जगह में] रात को सोया।
Friday the 03rd July 1931 :
खूब ठण्डा रहा। बावज्अ [जो अपनी वज्अ का पाबन्द हो = के कारण ीi. e. on account of] कमज़ोरी के टहलने न जा सका। ग़ालिबन [probably] पेशाब में 'रेशः' [तंतु = fiber] आ रहे हैं। इस वजह से कमज़ोरी है। बाबू उमाशंकर और बाबू बसन्त लाल कासगंज से आये हैं। कालेश्वर प्रसाद की लड़की आयी हुयी है। बारिश खूब हुयी।
Saturday the 04th July 1931 :
आज भी कमज़ोरी ज़्यादः है। पेशाब निहायत सुर्ख़ आता है। बारिश खूब हुयी। बाबू भजन लाल कानपुर से आये। कालेश्वर प्रसाद की लड़की [भगवती] को उपदेश किया गया। मगर उनको कोई असर नहीं हुआ।
Sunday the 05th July 1931 :
बावज्अ बारिश के दोनों वक्त टहलने न जा सका। लखनऊ से फ़ल रामेश्वर प्रसाद ने भेजे हैं I
Monday the 06th July 1931 :
आज भी सुबह को बारिश हो रही है। बाहर नहीं जा सका। श्यामलाल के 03 जुलाई को लड़का पैदा हुआ। और पेशकारसहिब के लड़का पैदा हुआ। रात में मुझको बुख़ार बहुत ज़ोर से आ गया और पेट नफ्ख [फूल] हो गया कि तमाम रात किसी तरह चैन नहीं पड़ा।
Tuesday the 07th July 1931 :
आज भी बुख़ार है। सच्चिदानन्द ने ‘टब-बाथ’ अपने हाँथ से मुझको दिया। बीस रूपये उरई से आये। शाम को पाखाना पतला आया और साफ़ आया। रात में बुख़ार बहुत पसीना आ कर उतर गया।
Wednesday the 08th July 1931 :
आज कमज़ोरी बहुत ज़्यादः है।
Thursday the 09th July 1931 :
आज कोई ख़ास बात नहीं हुयी। पेट की हालत ऐसी रही कि जिससे साँस लेने में तक़लीफ़ रही। शाम को थोड़ा टहलने गया।
Friday the 10th July 1931 :
आज सवानिहे-उम्री [जीवनी] - हज़रत नुजद्दिद अल्फसानी रहमत0 की दो रुपये सात आने की आयी। बीस रूपये का मनीऑर्डर बाबू दिलाराम ने भेजा और दस रूपये ख़ैरात [charity] के भेजे हैं। आज पेशकार साहिब के यहाँ 'छठी' [the sixth day after the birth of a child, when ceremonial observances, including the naming of the child are performed] थी। रात को सब औरतें वहाँ गयीं थीं।
Saturday the 11th July 1931 :
आज टब-बाथ नहीं लिया गया।
Sunday the 12th July 1931 :
आज भी टब-बाथ नहीं लिया गया। बाबू उमाशंकर कासगंज और पण्डित रामेश्वर प्रसाद शाहजहाँपुर से आये। लाला गोवर्धन दास [लालाजी की पुत्रवधू - सुश्री भगवती देवी के फुफेरे भाई] एटा से वास्ते रुख़सत कराने आये। रात को [उन्होंने भी] खाना खाया। शाम को नुस्ख़ा-यूनानी इस्तेमाल किया गया।
Monday the 13th July 1931 :
सुबह को मुन्शी गोवर्धन दास और बाबू उमाशंकर वापस चले गए। रुख़सत [पुत्रवधू की विदा] नहीं हुयी। आज सुबह भी नुस्ख़ा यूनानी लिया गया। रामकिशन लाल भोगावं से आए।
Tuesday the 14th July 1931 :
पेशकार साहिब के घर में [उनकी पत्नी] ज़्यादह बीमार हैं। तमाम दिन खाना नहीं खाया गया क्योंकि यूनानी नुस्ख़े मेदा फुला दिया। रामकिशन लाल वापस चले गए। पुत्तू लाल मुदर्रिस [अध्यापक] आये।
Wednesday the 15th July 1931 :
पुत्तूलाल और अहिबरन सिंह वापस गए। आज पिंडोल की पट्टी रक्खी गयी। डॉ. चतुर्भुज सहाय व बाबू अवधबिहारी लाल एटा से आये।
Thursday the 16th July 1931 :
आज दोनों वक़्त टब-बाथ लिया गया। शाम को बाथ के बाद ताक़त आ गयी। बाबू अवधबिहारी लाल वापस चले गए।
Friday the 17th July 1931 :
आज से डॉ चतुर्भुज सहाय ने होम्योपैथिक दवा इस्तेमाल कराई। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] कानपुर से, मुंशी मदनमोहन लाल तिलहर से व बाबू बिशन दयाल मुख्त्यार तिलहर से व करुणाशंकर शाहजहाँपुर से आये। कमज़ोरी कल के मुक़ाबिले आज ज़्यादः है। रात को पेट नफ्ख [फूल] हो गया।
Saturday the 18th July 1931 :
बाबू महाराज नारायण अग्रवाल कानपुर से आये। और शाम को वापस चले गए। दिल्ली से फ़ल आये। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] फ़र्रुख़ाबाद चले गए।
Sunday the 19th July 1931 :
आज डॉ चतुर्भुजसहाय और जगमोहन मय अपनी दुल्हन [पत्नी] के एटा को गए। रात भर नींद नहीं आई। पेट फूल गया। आज कमज़ोरी बहुत ज़्यादः है। श्यामलाल बुलंदशहर से आये। पेशकार साहब के यहाँ दष्ठौन है। मुंशी मदनमोहन लाल और बिशुनदयाल वापस शाहजहांपुर गए।
Tuesday the 21st July 1931 :
जगमोहन मय दुल्हन व डॉ चतुर्भुजसाय की बीबी के एटा से वापस आये। रात को और दिन में कई मर्तबा पेट फूला। रात को पानी बहुत बरसा।
Wednesday the 22nd July 1931 :
रामप्रसाद दिल्ली से वापस आये और 'टब' सिकन्द्राबाद से लाये । रात को बेक़रारी [बेचैनी] बहुत रही। और मच्छरों ने बहुत काटा। तमाम दिन पानी बहुत बरसा है। मनीऑर्डर ग्वालियर उन्नाव और सिरसागंज के लिए किये गए।
Thursday the 23rd July 1931 :
आज तमाम दिन नफ्ख [पेट फूलता] रहा। रामेश्वरप्रसाद शाहजहाँपुर वापस चले गए। रात को नींद 12.00 बजे तक काम आयी। फिर नफ्ख [पेट का फूलना] काम हो गया। और सुबह तक सोता रहा।
Friday the 24th July 1931 :
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The last treating Physician to Rev. Laalaaji. |
आज छोटेलाल डॉक्टर की बीवी [Popularly named as 'Kaalee mem'] देखने को आईं। उन्होंने वर्म-जिगर [जिगर की सूजन] तज़बीज़ किया। तमाम रात निहायत दर्ज़ा गर्मी रही। बहुत बेचैनी रही। रात भर नहीं सोया और मच्छरों ने काटा।
Saturday the 25th July 1931 :
खाना बहुत कम खाया गया है। पेट की सूजन बहुत ज़्यादः है। रात को नींद नहीं आयी।
Sunday the 26th July 1931 :
आज मैनपुरी का एक लड़का जो बोर्डिंग [छात्रावास] में रहता है आया। सुबह को कमज़ोरी ज़्यादः है, टहलने को नहीं गया। बाबू उमाशंकर और उनके रिश्तेदार सॉर्टर [sorter in RMS] और चले गए। करुणाशंकर वापस शाहजहाँपुर गए। नन्हें [महात्मा रघुबर दयाल] रात को तीन बजे कानपुर चले गए। तमाम रात गर्मी की वजह से नींद नहीं आयी।
Monday the 27th July 1931 :
डॉक्टर साहिब बाबू पुरुषोत्तम दास [डॉ वत्सल] फतेहगढ़ व बाबू जगन्नाथ प्रसाद वकील देखने को आये। आज हवा अच्छी चलती रही। और रात में नींद भी अच्छी आयी। उन्होंने [डॉ वत्सल] 'गोमा' तज़बीज़ [diagnosed] किया है।
Tuesday the 28th July 1931 :
बाबू श्रीकृष्ण [डॉ श्रीकृष्ण लाल - सिकन्द्राबाद वाले] व श्याम लाल [ डॉ श्याम लाल - ग़ज़िआबाद वाले] शाम को एटा से आये।
Wednesday the 29th July 1931 :
आज सुबह 05.00 बजे कार पर मय [together] श्रीकृष्ण व श्याम लाल के रवाना हुआ। 09.30 बजे कानपुर पहँचे। बाबू राजेंद्र कुमार [प्रोफ़ेसर साहिब] मुक़ीम [साथ में ठहरे] हुए। बाबू हरिकृष्ण प्रोफ़ेसर - फ़ारसी [Persion] से मुलाक़ात हुयी। क़याम कानपुर रहा। माताचरन व प्रसाद [राम प्रसाद] रेल से आये।
Thursday the 30th July 1931 :
आज सुबह 07.00 बजे लखनऊ को रवाना हुआ। कानपुर से ही बारिश शुरू हो गयी। और लखनऊ तक बराबर बारिश हुयी। तमाम भीग गए। राम प्रसाद और माताचरन व ज्योतिबाबू रेल आये। आज डॉ ग़ुप्ताजी को दिखलाया गया।
Friday the 31st July 1931 :
पेशाब का इम्तहान कराया गया। डॉ प्यारे लाल जी को दिखलाया गया। धर्मशाले से उठ कर आ गए। आज रात को पेट नहीं फूला।
Saturday the 01st August :
डॉ प्यारे लाल जी सुबह को फिर देखने को आये। और दवा आज से शुरू की गयी। आज सुबह ही से पेट फूला है। 'Syphilinum' 200 एक डोज़ दी गयी। बाबू राम चन्द्र, रामेश्वर प्रसाद व बाबू श्री राम शाहजहाँपुर से आये।
Sunday the 02nd August 1931 :
Antimonium Tartaricum 200 एक डोज़। आज रात में अफ़ारा ज़्यादः रहा। और नाभि के नीचे दर्द रहा। आज सुबह से नफ्ख [पेट फूला] है और पेट बहुत फूला है। तमाम दिन और तमाम रात निहायत तक़लीफ़ रही। रयाः खारिज नहीं हुए और पेट फूल गया। रात को दो गोइयाँ जुलाब की दी गयीं। मगर कोई दस्त सुबह को नहीं आया। और पाख़ाना बिलकुल सख़्त हो गया। बाबू श्रीपत सहाय और बृजबिहारी लाल मैनपुरी से आये।
Monday the 03rd August 1931 :
आज सुबह को पाख़ाना बिलकुल खुश्क हो गया। और दस्त साफ़ नहीं आय, बावजूद जुलाब की गोलीयों के। दर्द बहुत कसरत [abundance] से हुआ। पेट फूल गया। साढ़े दस बजे दिन सवारी कार लखनऊ से कानपुर को रवाना हो गया। शाम को बक्शी जी को दिखलाया गया। आठ बजे रात को पट्टियों का लेप चढ़ाया गया। रात को आराम रहा। खाना बिलकुल नहीं दिया गया। श्याम लाल वग़ैरह मय कार के चले गए।
Tuesday the 04th August 1931 :
सुबह को कुछ खाना नहीं दिया गया। सुबह बर्फ़ और सिरके के पानी से नहलाया गया। और उसके बाद रात वाली पट्टियाँ चढ़ायीं गयीं। इसके बाद नफ्ख [पेट फूलना] हुआ और पेन्डु में दर्द बहुत शिद्दत के साथ हो गया। तमाम दिन बहुत बेचैन और बेताब रहा। जब गरम पानी से फलालेन से सेंका गया तब दर्द बंद हो गया। और रियाह भी ख़ारिज़ हो गया। पण्डित छोटे लाल वैद्य को दिखलाया गया। उन्होंने 'जलन्धर' की शुरुवात बतलाई। मगर तहक़ीक़ नहीं।