श्रद्धांजलि
मुंशी सूरजनरायन 'मेहर' - देहलवी[यह श्रद्धांजलि पूज्यपाद महात्मा ओंकारनाथ जी (भैय्याजी), कानपुर, के माध्यम से साभार प्राप्त हुयी है। उन्होंने यह भी बताया कि मुंशी सूरजनरायन 'मेहर' - देहलवी अपने समय के चोटी के शोहरा साहिबान में से एक थे एवं परमपूज्य लालाजी महाराज के जीवन-काल में उनसे मिलने आये थे और उनसे आध्यात्मिकरूप से लाभान्वित भी हुए थे।
वस्तुतः वे तत्कालीन ऋषिप्रवर स्वामी ब्रह्मानन्द जी, जो उन दिनों फतेहगढ़ में गंगा-किनारे 'धूमघाट' पर अपना आश्रम बना कर एकांतवास कर रहे थे, का नाम सुन कर उनके दर्शनार्थ आये थे और प्रथम-मिलन में ही स्वामीजी से प्रश्न कर बैठे कि "गँगा-स्नान का वास्तविक लाभ किस प्रकार प्राप्त किया जाय ?" इस पर पूज्यपाद स्वामीजी ने उन्हें बताया - "यदि गँगा-स्नान का वास्तविक भेद जानना है तो फतेहगढ़ में राम चन्द्र नाम के एक गृहस्थ संत मोहल्ला तलैया लेन में रहते हैं, उनके पास जा कर कुछ देर शांत बैठना। सारे आंतरिक भेद [चक्र] स्वयं ही संचालित हो जाएँगे।" प्रस्तुत नज़्म उनके प्रति श्रद्धाञ्जलिस्वरूप उन्होंने लिखी। बाद में यह 'चहल दर्वेश' नामक पुस्तक में छपी थी। - प्रकाशक]
खुदा इस जगह है : खुदा इस जगह है
करूँ जुस्तजू क्यों कर तेरी या खुदा या,
तुझे मैनें दुनियाँ में ढूंढा न पाया।
कभी सूए मसजिद, कभी सूए मंदिर,
कभी इनके बाहर, कभी इन के अंदर।
मिला आबिदों से, मिला जाहिदों से,
मिला आलिमों से, मिला फ़ाज़िलों से।
हर इक में, ता-आ-सुब्ब की रूहें ख्वा थी,
शरीयत जो देखी, दुकाँ ही दुकाँ थी।
कहीं मारिफ़त ने नहीं रुख दिखाया,
हक़ीक़त का कोसों पता तक न पाया।
मजाहिब के झगङो से तंग आ गया मैं,
बखेड़े जो देखे कि हैरान था मैं।
मजाहिब को छोड़ा, लिया फ़लसफ़े को,
वहाँ भी वो बहसें थीं, कि बस कुछ न पूँछो।
हर इक बाल की खाल ही खींचता था,
मा-आ-नी को अपनी तरफ़ खींचता था।
किताबें बहुत नग़्ज़ से नग़्ज़ देखीं,
बहुत कम मगर उनमें पुरमग्ज़ देखीं।
क़ुतुब महज़ सूखी हुयी हड्डियाँ हैं,
चबाये इन्हें कौन ये सख़्त जां हैं।
बहुत कम मिलीं मुझको ज़िंदा किताबें,
नसीबों से मिलती हैं ख़ालिस शराबें।
मैं बैठा था मायूस गर्दन झुकाये,
मेरा फ़िक्र जाए तो किस तरह जाए।
इधर तो तरक़्क़ी का मक़सूद रस्ता,
उधर मेरा हाले अजब जां शिकस्ता।
दुआ को उठा हाँथ यारब बे अकबर,
मुझे अपने दीदार से बहर बर कर।
दुआ करने वाले को यह फ़ायदा है,
दुआ रहमतो फ़ज़्ल का माहेबा है।
हकीकत ने अपनी जो यूँ रुख़ दिखाया,
फ़रिश्ता नज़र एक मुझको जो आया।
कहने लगा जुस्तजू है तुझको,
खुदा किस जगह है ?
चल दिखाऊँ मैं तुझको,
खुदा इस जगह है,
खुदा इस जगह है।
खुदा कर्म में है, खुदा ध्यान में है,
खुदा इश्क़ में और इरफ़ान में है।
करम हो वो जिसमें सिद्क़ो सिफ़ाँ हो,
न वो कर्म जिसमें, कि मक्रो रियाँ हो।
जो भक्ति है, बिल्कुल चढ़ावे की भक्ति,
वोह बेसूद है बस दिखावे की भक्ति।
जहाँ इल्म है महज़ बहसों की ख़ातिर,
वहाँ कब हुआ, नूरे हक़ आके ज़ाहिर।
खुला है मुझे राज़ इस दर से 'मेहर',
खुदा इस जगह है, खुदा इस जगह है।
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