Saturday, 4 January 2020

06. निमन्त्रण

निमंत्रण


तुम जैसे भी हो,
जिस हाल में हो,
मेरे निमंत्रण को स्वीकार करो
और चले आओ।
मैं प्रतिपल तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ,
साहस करो और मेरे स्पर्श को छू लो ;
अंतर की तम अवस्था में समा जाओ,
मिलन के सुख को अङ्गीकार करो।
तो आओ। स्वागत है,
गंगा के दक्षिण तट पर, इस नगरी में
मेरा धाम फतेहगढ़ है -
यहीं आ जाओ, सिर्फ़ एक बार।
द्वार अब भी खुले हैं कुटिया के -
स्वागत को तत्पर हूँ
स्वयं प्रतीक्षारत हूँ।
आ जाओ, बस एक बार, बस एक बार।
आँखें उत्सुक हैं, अपलक चितवन है
खोज तुम्हारी अब भी जारी है।
एक बार, बस एक बार आ जाओ।
जैसे भी हो, एक बार, बस एक बार।
अभी तक तुम गीता और वेद पढ़ते रहे,
यज्ञ और हवन करते रहे,
और, जो दुर्गति होनी थी, होती रही।
तुम्हें फ़िर से अज्ञानी हो जाने की
हिम्मत जुटानी होगी।
अंतर में संग्रहीत ज्ञान से मुक्ति पानी होगी।
पूरी तरह से शून्य में जाना होगा
जिन विश्वासों से चिपके रहे हो,
नजात उनसे भी पानी होगी।
मैं सारी मानवता को, विश्व के इतिहास को,
उसमें निहित जो जीवन है, उस आभास को,
सभी में प्रेम और प्रेम के सच का संचार कर दूँगा।
यदि यही  क्रान्ति है, तो आओ, मैं तुम्हें भयहीन कर दूँगा।
आ जाओ, बस एक बार, बस एक बार, बस एक बार।

- फ़क़ीर राम चन्द्र 

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