जीवन वृत्त के प्रकाशन की सार्थकता
आज के इस उपयोगितावादी युग में मेरी 'जीवन-गाथा' के मध्य यदि उन्हें कोई मूल्य-आधारित उपलब्धि नहीं हुयी तो लोग, खाली समय व्यतीत करने वाली साधन-सामिग्री अथवा किसी अन्य उपन्यास की भाँति इसे पढ़ कर, इसको भी एक तरफ़ डाल देंगे और बाद में उसी प्रकार की अन्य पुस्तकों की भाँति इसका भी अभीष्ट किसी कबाड़ी की दुकान में निर्धारित कर दिया जाएगा। बहुत हुआ, तो इस पर चर्चे होंगे, पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षकों की राय छप जायगी। बस इसके बाद कुछ नहीं ; मानों, इसको भी मोक्ष-प्राप्ति हो गयी, जीवन-मरण के क्रम से मुक्ति मिल गयी।
एक प्रचलित वैदक सूत्र के अनुसार निर्देश यह है कि "जीवतां ज्योति रभ्येहि" - जीवन वाले लोगों से 'ज्योति' लो। जीवनवाले वे है जो सर्वदेशीय व सर्वकालिक हैं ; कल, आज और हमेशा उपस्थित रहने वाले हैं। किन्तु इसके साथ ही, सच यह भी है "आया है सो जाएगा।" तब ऐसा आदर्श कहाँ खोजा जाय कि जो सृष्टि की आदि से अंत तक हमेशा उपलब्ध रहने वाला हो।
मेरी सीमित बुद्धि के अनुसार "जीवन वाले" वे हैं जो श्रृंखलाबद्ध क्रमशः, कड़ी-दर-कड़ी, उत्तरोत्तर गतिमान हैं, जीवित हैं। इस दीन-हीन फ़कीर ने दर्शन व विभिन्न धर्मों के विश्वासों को, जहाँ तक मेरा विवेक सहायक हुआ है, छान-बीन की है और अंत में [मेरे] गुरुजनों के विश्वास व धारणा एवं तत्संबंधित ब्रह्मज्ञान को ही ऐसा पाया है कि जिस पर दृढ़तापूर्वक स्थिर रहने पर ही अंत समय तक सुरक्षित बने रहने की आशा की जा सकती है। आत्मसाक्षात्कार के कुशल निष्पादक चरित्रनिर्माण के अद्भुत शिल्पी व वास्तुकार, हज़रत शाह फ़ज़्ल अहमद खां साहिब [रायपुरी] रहमत उल्लाह अलेहि मेरे गुरुदेव ही नहीं, मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व के मालिक हैं। मैंने उनसे केवल दीक्षा ही नहीं ली है - मैं उनके गुरुदेव के हाँथों पर बयत हुआ हूँ, बिका हुआ हूँ। उन्होंने मेरे अस्तित्व को अपने व्यक्तित्व की ओढ़नी व अपना 'निज-स्वरुप' प्रदान किया है। इसलिए मेरे चाहने वालों को, उनके स्वरुप को और उनकी गुरु-परम्परा के 'इष्ट' और जनक को पहँचानना होगा।
दरूद लक्खी
शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा
मेहरबान, निहायत रहम वाला है।
ऐ अल्लाह रहमतकामिला नाज़िल
फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
साहब के, जो साहिबे ताज और मेराज और
बुर्राक़ व निशान के हैं।
दूर करने वाले सख़्ती और बवा और
क़हतसाली और बीमारी और दर्द के।
नाम उनका लिखा गया है बुलन्द किया
गया है, शफ़ाअत किया गया है, नक़्श किया
गया है, बीच लोह और क़लम के।
सरदार हैं अरब और अज़म के, जिस्म
उनका बहुत पाक, ख़ुशबूदा, पाक़ीज़ा,
रोशन बीच ख़ाना क़ाबा और हरम के,
आप आफ़ताब चाश्त के, माहेताब
अंधेरी रात के, मसनदनशीं बुलन्दी के,
नूर राहेरास्त के, पनाह मख़लूक़ात के,
चिराग़ तारीकियों के, नेक आदतों वाले,
बख़्शाने वाले उम्मतों के, साहबे बख़्शीश
और बुज़ुर्ग़ों के, और अल्लाह निगहबान है उनका,
और जिब्रील ख़िदमतगुज़ार है उनका,
और बुर्राक़ सवारी है उनकी और मेराज सफ़र है
उनका और सदरत मुन्तहा मुक़ाम है उनका
और क़ाबा कौसीन विसाल इलाही मतलूब है
उनका, और मतलूब और मक़सूद है उनका
और मक़सूद उनके पास मौजूद है।
सरदार रसूल के, ख़ात्मा सब नबियों के,
बख़्शाने वाले गुनहग़ारों के, ग़मख़्वार
मुसाफ़िरों के, रहमत जहाँ के लोगों के
मूजिब आराम आशिक़ों के, मुराद
मुश्ताकों के, आफ़ताब खुदा शनासों के,
चिराग़ राहे ख़ुदा चलने वालों के, चिराग़
मुक़र्रिबों के, दोस्त रखने वाले मोहताजों के,
और मुसाफ़िरों और मुफ़्लिसों के सरदार ;
जिन व इन्स के नबी, मक्का मुअज़्ज़मां
और मदीना मुनव्वर के पेशवा, बैतुल
मुक़द्दस और काबा के वसीले, हमारे बीच,
दुनियाँ और आख़रत के साहबे मर्तबा,
मिक़दार दो कमानों के, महबूब, परवरदिगार
दो मशरिकों और मग़रिबों के ;
नाना हमाम हसन और हुसैन के, मालिक हमारे
और मालिक जिन व इन्स के, क़नीत अबदुल
क़ासिम नाम मोहम्मद, बेटे अब्दुल्ला के।
नूर हैं अल्लाह के, नूर से ऐ आशिकों,
नूर जमाल और हज़रत के,
दरूद भेजो ऊपर उनके और उनके औलाद के,
और उनके दोस्तों के और सलाम भेजो
सलाम भेजना।।
x x x. x. x. x. x. x. x. x. x
शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो
बड़ा मेहरबान, निहायत रहम वाला है।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सरताज
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे
और मालिक हमारे मोहम्मद साहब के,
और ऊपर आला सरदार मोहम्मद साहब के,
बेशुमार रहमत अल्लाह के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे मालिक
हमारे मोहम्मद साहब पर और ऊपर आला सरदार
हमारे मोहम्मद साहब के बेशुमार बख़्शिश अल्लाह के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम नाज़िल
फ़रमा ऊपर सरदार हमारे मालिक हमारे मोहम्मद
साहब के, और आला सरदार हमारे मोहम्मद
साहब के, बेशुमार अख्लूक़ अल्लाह के ;
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के, बेशुमार इल्म अल्लाह के ;
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम नाज़िल
फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार मोहम्मद
साहब के बेशुमार क़लमों अल्लाह के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के, और ऊपर आला
सरदार हमारे मोहम्मद साहब के,
बेशुमार बुज़ुर्ग़ी अल्लाह के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
हमारे मोहम्मद साहब के
बेशुमार हसब-कलाम अल्लाह के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
हमारे मोहम्मद साहब के
बेशुमार बूंदों - बारिशों के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार हमारे
मोहम्मद साहब के बेशुमार पत्तों और दरख़्तों के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के बेशुमार रेग व रेगिस्तानों के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला
सरदार मोहम्मद साहब के
बेशुमार उन चीज़ों के कि पैदा की गयीं हैं दरिया में।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के बेशुमार दानों और फूलों के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला व सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के बेशुमार रात और दिन के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के बेशुमार चीज़ों के अन्दर हरेक चीज़
रात के और रोशनी डाली उन पर दिन को।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक
हमारे मोहम्मद साहब के और ऊपर आला
सरदार मोहम्मद साहब के
बेशुमार लोगों के जिन्होंने आप पर दरूद भेजा।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के
बेशुमार लोगों के जिन्होंने आप पर
दरूद नहीं भेजा।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार मोहम्मद साहब के
बेशुमार साँसों मख़लूक़ात के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के
बेशुमार सितारों और आसमानों के।
ऐ अल्लाह ! रहमत कामिला और सलाम
नाज़िल फ़रमा ऊपर सरदार हमारे और मालिक हमारे
मोहम्मद साहब के और ऊपर आला सरदार
मोहम्मद साहब के बेशुमार कुल चीज़ों के जो दुनियाँ और
आख़िरत में मौजूद हैं, रहमत ख़ुदाए वाला की
और उनके फरिश्तों की और उनके नबियों की और
उनके रसूलों की और तमाम विलायत की। नाज़िल हों।
ऊपर सरदार रसूलों के और पेशवा
परहेज़ग़ारों के और खींचने वालों तरफ़ बातिन के,
रोशन पेशानियों और हाँथ पाँव वालों के,
और बख्शाने वाले गुनहग़ारों के, सरदार
और मालिक हमारे मोहम्मद साहब के, और
ऊपर आल उनके और यारों उनके
बीवियों उन्ही के, और औलाद उन्हीं के,
और घर वालों उन्हीं के, और अहलतात तेरे
इन सब पर जो लोग आसमानों और
ज़मीनों के हैं, साथ रहमत तेरी के।
ऐ निहायत रहम करने वालों के और
ऐ बख़्शिश करने वाले, परवरिश करने वालों के
और दरूद भेजो अल्लाह बरतर
ऊपर सरदार हमारे मोहम्मद और
उनकी आल और उनके यारों के सब पर
और सलाम भेजो
सलाम भेजना हमेशा वह्य
बहुत
सब तारीफ़ अल्लाह के वास्ते है
जो पालने वाला कुल जहाँ का है।
आमीन।
स्वरूपानन्द के आच्छन्न होने के कारण अज्ञान की विक्षेप शक्ति के प्रभाव से, सुख या आनन्द, समस्त जगत में बिखर गया है। जीव स्वरूपगत वैशिष्टय तथा विक्षेप-शक्ति के संसर्ग के कारण विक्षिप्तता में भी तारतम्य होता ही है। प्रत्येक जीव का स्वरूपानंद खण्ड-खण्ड हो कर अनंत विश्व में सर्वत्र - न्यूनाधिक भाव से फ़ैला हुआ है। जब तक ये बिखरे हुए आनन्द के कण समष्टि भाव में समवेत हो कर घनीभूत न हो जायेंगें तब तक जीव को अपने स्वरूपानंद की झलक नहीं मिल सकती। साधना का उद्देश्य है, आनन्द के इन कणों को संचित कर उन्हें एक आकृति प्रदान करना। इष्ट के साथ "गुरुप्रदत्त बीजमन्त्र' का अभेद्य सम्बन्ध है। 'गुरुप्रदत्त बीजमन्त्र' ही साधक के खेत [अंतःकरण] में गिर कर इष्ट-रूप में परिणित होता है। बीज के साथ वृक्ष का जो सम्बन्ध है, गुरुप्रदत्त मन्त्र के साथ इष्ट का ठीक वैसा ही सम्बन्ध है। बीज से जिस प्रकार, प्राकृतिक नियमानुसार, अपने आप ही वृक्ष प्रकट होता है, ठीक उसी प्रकार, गुरुशक्ति से, इष्ट का आविर्भाव हुआ करता है।
हम जो इच्छा करते हैं, उसकी प्राप्ति ही, हमारी साधना-लक्ष्य बन जाता है। जो इच्छा का विषय है ; वही सुख है। सुख की प्राप्ति ही इष्ट की प्राप्ति है। जाने-अनजाने सभी सुख की खोज में हैं। सच्चा और स्थायी सुख हमारे आत्म-स्वरुप से पृथक - अन्यत्र कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि सुख के अपेक्षाकृत कोई अन्य वस्तु अधिक प्रिय नहीं हो सकती। किसी को चाहे कोई भी वस्तु कितनी भी प्रिय क्यों न हो, वह आत्मा के लिये ही प्रिय होती है। अतः आत्मा, सुख और इष्ट, मूलतः एक ही वस्तु हैं। चाहें कोई किसी वस्तु की इच्छा क्यों न करे, अज्ञात भाव से, वह अपने आप को ही चाहता है, किसी अन्य को नहीं। परन्तु समझ में न आ पाने के कारण प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि उसकी इच्छित वस्तु उससे पृथक है और इसी अज्ञान के अंधकार में वह भागा-भागा फ़िरता है।
मेरे कुछ प्रगतिशील मित्रों की यह सलाह लगातार मेरा पीछा करती रही है कि रामायण, गीता, महाभारत, वेद, उपनिषद् इत्यादि आप्तग्रन्थ और ऐसे ही अन्य धर्मग्रंथों के पढ़ने से कुछ नहीं होगा, "तुहें अपनी रामायण, महाभारत और गीता की रचना स्वयं करनी होगी, राम या कृष्ण, तुम्हें स्वयं बनना होगा।" उनके इसी सिद्धांत के अंतर्गत मैंने हज़रत पैग़म्बर सलल्लाहो व् सल्लम [क्योंकि कि मेरी गुरु-परम्परा के समस्त संत, पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्रमशः उन्हीं की ज़ात-पाक में विलीन व शेष हैं, उनकी अलग कोई सत्ता है ही नहीं] के जीवनचरित्र की विषयवस्तु निम्नलिखित शीर्षकों में प्रबुद्ध करते हुए अपने स्वयं के जीवन में ढालने का प्रयास किया है और आजीवन मेरी यही साधना रही है और उन पर लगातार, इस सीमा तक दृष्टि रक्खी है, मनन किया है कि मुझे देख कर कोई 'उनके' बारे में अनुमान लगा सके कि वे कैसे और क्या थे।
"या इलाही अपनी अज़मत और अता के वास्ते।
नूरे ईमां दे मोहम्मद मुस्तफ़ा के वास्ते।।"
उन्ही की दया व कृपा का प्रतिफ़ल है कि मेरी जीवनगाथा लिपिबद्ध हो कर
इस स्तर तक संपन्न हुयी है कि उसका प्रकाशन सुलभ हो। इनमें से छन-छन कर मेरे इष्टदेव यदि पाठकों पर प्रगट हो सकें, उन्हें ‘मूल्य-आधारित’ आध्यात्मिक शिक्षा के मूलमन्त्र प्राप्त हो पायँ और सही अर्थों में जीवनप्राप्ति के उद्देश्य पूरे हों, तभी मैं इस कृति के प्रकाशन को सार्थक समझूँगा। मेरे जीवन में कई बार अँधेरे और काली रातें भी आईं हैं किन्तु प्रत्येक स्तर पर मेरी यही कोशिश रही है कि पाठकों पर उनकी छाया भी न पड़ सके। मेरा तो यही प्रयत्न रहा है कि जो भी मेरी जीवनगाथा को पढ़े, उसके मन, प्राण और शरीर में चिर-यौवन-ऊर्जा का सञ्चार हो और समस्त प्रकार के क्लेश व अभावों का सदा-सर्वदा के लिए नाश हो, 'चरित्र-निर्माण' उसका सम्बल बने और उसकी राह के समस्त कण्टक स्वतः ही दूर हो जायँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो भी निम्नलिखत सूत्रों पर मनन करते हुए अपनी जीवनयात्रा को गति देगा उसको, उसकी लक्ष्य-प्राप्ति के साधन सदा-सर्वदा उपलब्ध होते रहेंगे, और जीवन की राह आसान हो जाएगी। उनकी जीवन-शैली उस पथ के चलने वालों के हेतु 'संकेत दीप' [beacon] का कार्य करेगी।
जिन बिंदुओं पर दृष्टि रखनी है, उनका ब्योरेवार विवरण है -
[01] परिवार के सदस्य, मय बाल-बच्चों के उनकी सुख-सुविधा पर आने वाले व्यय के प्रबंध का उत्तरदायित्व का निर्वाह पूरे मनोयोग से करना।
[02] घर-गृहस्थी के दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं का प्रबंधन, निर्बाध रूप से करते जाना जिससे किसी को भी कष्ट या अभाव का सामना न करना पड़े। सभी को उनके पसंद की वस्तुएँ उपलभ्ध रहें, यहाँ तक कि, उनके शेष न रहने पर स्वाद, गुरुता या रूचि के मामले में कोई समझौता भी न किया जाय।
[03] (सँयुक्त परिवार में) अपनी पत्नी व बच्चों को अति साधारण जीवन-यापन का पाठ पढ़ाना और प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहने के लिए प्रेरित करना।
[04] (गृहस्थ-जीवन में) अपनी पत्नी/ पति के साथ पारस्परिक-क्रिया (interaction) किस प्रकार सहमति व एकधर्म-विश्वास वाले हो कर रहा जाय।
[05] अपने वंश व नातेदारों में यदि कोई ऐसी पीड़ा से ग्रसित हो जाय जिसकी चिकित्सा संभव न हो अथवा किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके घर जा कर शोक प्रकट करना और सहानुभूति में दो-शब्द कहना व कठिनाई की घड़ी में, उनके दुःख दर्द बाँटना।
[06] ह्रदय में दया और करुणा का भाव होना। हज़रत मोहम्मद साहिब की एक उपाधि - 'रहमते आलम' [अर्थात - संसार के लिए साक्षात ' दया' और 'कृपा'] भी है - यह हमेशा अपने अंतःकरण में जाग्रत रखना।
[07] प्रेम- अकारण, बदले में किसी भी प्रकार की इच्छा से रहित, सबके लिए और बिना भेदभाव के, अर्थात सर्वधर्म मैत्री भाव।
[08] पशुओं पर दया - उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखना और भावनात्मक स्तर पर उनसे सम्बन्ध बनाना। उनके दुःख-दर्द को समझना और अपने घर के ही एक सदस्य की भाँति उनकी सेवा करना।
[09] महिलाओं के साथ व्यवहार - सामान्य स्तर पर उनके साथ समादर, शिष्टाचार और उदारता पूर्वक सम्मुख होना।
[10] सेवकों पर दयालुता व करुणा करना।
[11] शत्रुओं के पक्ष में भलाई व शुभेक्षा।
[12] शत्रुओं को क्षमादान और उनके व्यवहार की अनदेखी।
[13] ग़रीबों के प्रति प्रेम व दया।
[14] यहूदी व ईसाइयों के साथ व्यवहार - धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठकर उनसे मिलना।
[15] नास्तिक व ऐसे लोग जो दूसरों को परमात्मा के बराबर सम्मान देते हैं उनसे दूरी बना कर रखना किन्तु उनसे घृणा भी न करना।
[16] दुश्मनों से ब्यवहार की शिष्टता और दीन-दुखियों की आर्थिक सहायता करना।
[17] परमात्मा की उपासना व बन्दग़ी और उस पर भरोसा करना।
[18] दिए गए वचन व संविदा के प्रति प्रत्येक स्तर पर अडिग रहना और उसका निर्वाह करना, उसको पूरा करना।
[19] परिणाम की इच्छा या भय के बग़ैर, सच बोलना।
[20] अपने संकल्प पर बहादुरी से दृढ़ [जमे] रहना। कष्ट और भय [ख़तरा] के समय में भी उत्साह, बहादुरी और चिरस्थायित्व के साथ स्थिर रहना।
[21] जिस परियोजना या कार्य को आरम्भ किया जाय उसकी सम्पूर्णता व निष्पत्ति तक उसे पहुँचाया जाय।
[22] यदि नीतिविरुद्ध नहीं है तो दूसरों की इच्छापूर्ति व उनके कार्य कर देना।
[23] दैनिक जीवन के समस्त कार्य, यथासंभव अपने हाँथ से करना।
[24] एक निश्चित दूरी बना कर रखने वाला सतर्क और लज्जावान व संकोची स्वभाव।
[25] आमने-सामने [अनावश्यक] प्रशंसा करने वालों को, ऐसा करने से उन्हें रोक देना।
[26] सब को एक जैसी बराबरी के अधिकार मिलने का पक्षधर होना।
[27] अधिनायकवाद व डिक्टेटरी की इच्छा अथवा उसके प्रति विरोध व उससे अलग रहना। विनम्रता और निरंतर सहज व साधारण वर्ग में बने रहने के प्रति झुकाव व इच्छा।
[28] सादग़ी का पक्षधर, अन्तरंगता एवं संकोचरहित व्यवहार। दिखावा, 'टीम-टॉम व बनावट के व्यवहार से दूरी।
[29] सम्बोधित व्यक्ति के आमने-सामने उसकी प्रशंसा और दूसरों की अनावश्यक आलोचना व बुराई इत्यादि का निषेध।
[30] ईश्वरोपासना के हेतु घर-गृहस्थी को न छोड़ना।
[31] अहिंसा।
[32] अहसान या कृतज्ञता अर्थात दयापूर्वक, पक्षपात करके की गयी अनुचित सहायता या समर्थन, जिसके कि हम हक़दार नहीं हैं उसको अङ्गीकार न करना। कोई भी ऐसा कार्य [अनुग्रह] जिसके लिए कृतज्ञ होना पड़े, उसको स्वीकार न करना। उपरोक्त को स्वीकार करना अथवा ऐसा किसी अन्य के पक्ष में किया जाना, दोनों ही का निषेध और अस्वीकार्य।
[33] आधीनता पूर्वक दिए गए दान, भेंट व उपहारों को स्वीकार न करना।
[34] दान, उपहार व भेंट को [पूर्ण व यथोचित] सम्मानपूर्वक देना।
[35] पुण्यार्थ दिए जाने वाले दान को ग्रहण न करना।
[36] भीख माँगना और दीनतापूर्वक सहायता की याचना का निषेध।
[37] आतिथ्य-सत्कार ; पूरे मनोयोग से।
[38] "ईसार" [presenting = a gift or an offering] अर्थात दूसरों के हित के लिए अपना हित त्याग देना ; स्वार्थ-त्याग इस सीमा तक कि अपनी मौलिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ दे कर भी लोगों की सहायता कर देना।
[39] समाज की मुख्यधारा से विरत हो कर न्याय कर पाना आसान है व सरल है किन्तु सब के साथ सम्बन्ध बना कर रखते हुए तटस्थता व पक्षपात-रहित हो कर किसी विषय पर निर्णय व न्याय करना।
[40] मनुष्य जिस किसी भी मत को स्वीकार करे, उसके सिद्धांतों पर, इस सीमा तक, दृढ व अटल रहना कि मानों वह उसका स्वभाव या आदत ही बन जाय।
[41] 'तवक़्क़ुल' [complete trust] का अर्थ है - सांसारिक साधनों से भरोसा हटा कर समस्त कार्य भगवान [मालिक] की इच्छा पर छोड़ देना। मनुष्य को अपने प्रयासों के परिणाम और दुनियाँ भर की घटना-दुर्घटनाओं के परिणाम और उनका प्रभाव भी परमपिता परमात्मा के सुपुर्द व उन्हीं की मर्ज़ी पर छोड़ देना चाहिए।
[42] ईश्वर-प्रेम के वास्ते, उसके प्रति शंका अथवा किसी प्रकार का संदेह और डर, भय या त्रास का उपदेश न देकर उसके प्रेम की वास्तविक परिभाषा करते समय 'संदेह-रहित' और 'अनमोल' जैसे शब्दों का प्रयोग करना। उसकी उपासना में कोई कष्ट न होना और सुख, चैन व शान्ति की अनुभूति का होना और उसका कारण समझ में न आना कि हम उसकी आराधना क्यों करते हैं।
[43] "ख़शीयते एलाही।" अर्थात - उसके भय से काँप उठना। तात्पर्य यह है कि अपनी उपासना का भरोसा, बिलकुल न होना। बल्कि "ख़ौफ़े खुदा", अर्थात भगवान [मालिक] का भय बना रहना। ऐसी भावना बनी रहे कि "मेरी बारी आने पर न जाने क्या होगा"।
[44] 'मैदाने-जंग' अर्थात 'समर-क्षेत्र' अथवा कर्म करते समय ईश्वर [मालिक] की याद, निरंतर बनी रहे।
[45] 'दवाम ज़िक्रे-एलाही'। अर्थात - ईश्वर के नाम-जप की नित्यता। 'नाम-जप' की नित्यता की स्पष्टता के हेतु 'गीता' का निम्नलिखित श्लोक यहाँ पर विशेष महत्व का है -
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन।।"
[08/08]
अर्थात - हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य प्रकाश स्वरुप दिव्यपुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।
[46] "ज़ोको शौक़" अर्थात पूरी रूचि और रसिकता। ईश्वरोपासना पूरे मओनोयोग से। 'रूचि और रसिकता' से तात्पर्य है - "सात्विक प्रसन्नता"। "सात्विक प्रसन्नता" के हेतु आवश्यक है कि कर्मयोग के साधन से पापों का नाश हो गया हो। पापों का नाश हो जाने से अंतःकरण पवित्र हो जाता है और साधक को सात्विक या आध्यात्मिक प्रसन्नता मिलती है। इस प्रसन्नता के प्राप्त हो जाने पर वह क्षणभर की उस सुख और शान्ति का त्याग नहीं कर सकता। इस कारण उसके अंतःकरण की वृत्तियाँ सब ओर से हट जातीं हैं और उसकी बुद्धि शीघ्र ही परमात्मा के स्वरुप में स्थिर हो जाती है।
[47] हज = यह मुसलमानों का एक धार्मिक कृत्य है जो मक्के [अरब] में जा कर अदा करना पड़ता है और धनाढ्य लोगों को जीवन में एक बार उसके करने का आदेश है।
[48] ज़कात। इस्लाम धर्म के अनुसार 02.50 % का दान, उन लोगों को देना पड़ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है जो कि अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों। पूरे वर्षभर जो रुपया या अन्य सामिग्री अपने उपयोग के बाद शेष रह जाय, उस पर ज़कात फ़र्ज़ अर्थात परमात्मा की ओर से लगाया हुआ, धार्मिक कृत्यों का आदेश हुआ है।
[49] संजः या उपवास।
[50] तिलावत, अर्थात किसी धर्मग्रन्थ का पाठ।
[51] दुआ-जो-नमाज़। नमाज़ ; मुसलामानों की ईश्वर-प्रार्थना है, जोकि दिन-रात में पाँच [पूर्वनिर्धारित समय पर] बार होती है और उसमें 42 रक़्अत नमाज़ पढ़ी जाती है। एक रक़्अत, एक बार खड़े हो कर बैठने तक ही होती है, जिसमें दो सजदे और एक रुकूअ होता है।
[52] हज़रत पैग़ंबर [ईश दूत] का सम्बोधन व उसकी बातचीत का स्वभाव और संभाषण की शैली।
सार्थकता जीवन की - एक बात है , और सार्थकता जीवनवृत्त [के प्रकाशन] की, ये दोनों भिन्न-भिन्न बातें हैं। "बड़े भाग मानुष तन पावा" अर्थात - बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। यह साधन का धाम और मोक्ष का द्वार है ; यह बात सर्वविदित है। बात, बन जाने वाली बात अथवा व्यक्तिगत मोक्ष को मेरे गुरुजनों ने अपना इष्ट कभी नहीं बनाया। उन्होंने तो जिस लक्ष्य को सामने रक्खा, वह है - "मोक्ष सभी के लिए", और वह इस सीमा तक कि जबतक, शिष्य-परंपरा की सीढ़ी - दर - सीढ़ी, अंतिम जांनिसार - भक्त और सत्य की खोज करने वाला व अनुयायी अपनी अध्यात्म-यात्रा के चरमबिंदु [तक्मील = जिसके आगे कुछ भी शेष न रह जाय] तक अपनी पहुँच बना कर, स्थित नहीं हो जाता, तब तक अपने व्यक्तिगत हितों व साधन-पथ की धुर-पद की ऊँचाई और ईश्वरत्व के चरमबिंदु की प्राप्ति के अधिकारी हो जाने के बावजूद [सत्यपि] भी उसे दरकिनार [अलग या दूर] रखना। मेरे हज़रत क़िब्ला इसी बात को साधारण भाषा में उदाहरण दे कर समझाया करते थे कि जिस प्रकार, रेलगाड़ी, बस अथवा किसी भी पुब्लिकट्रांस्पोर्ट में हम तब तक सवार नहीं होते अथवा आसन या सीट ग्रहण नहीं करते, जब तक हमारी पत्नी , बच्चे अथवा हमारे साथ व हमारे आधीन अन्य व्यक्ति उसमें प्रवेश [चढ़] कर जाने के बाद अपना समुचित व सुरक्षित स्थान ग्रहण करके बैठ नहीं जाते हैं। ऐसा कभी नहीं करते कि हम उसमें स्वयं चढ़ कर एक अच्छी सी सीट देख कर, उस पर आसन ग्रहण कर लें और अपनी पत्नी, बच्चे व अन्य को अपनी-अपनी सीट इत्यादि तलाशने के लिए, उन्हें उन पर ही छोड़ दें। इसी प्रकार गुह्य-विद्या के उत्कर्ष के मामले में भी वहाँ के चरम-बिंदु की प्राप्ति व वहाँ पर स्थित हो जाने के अधिकारी हो जाने के पश्चात भी, हम प्रत्येक ऐसे अंतिम व्यक्ति की वैसी ही उपलब्धि जैसी कि हमें सुलभ हो चुकी है, उनकी प्रतीक्षा करते हैं और आवश्यकता की प्रत्येक घड़ी में उसकी सहायता करते हैं, उसके पक्ष में स्वयं प्रार्थना भी करते हैं।
मेरे जीवनवृत्त के पुस्तकीकरण व उसके प्रकाशन की सार्थकता तभी सिद्धि को प्राप्त हो सकेगी जब उससे प्रेरित हो कर, इसी परंपरा का निर्वाह आगे आने वाली पीढ़ियां भी करें और पद्यति का आगे भी विस्तार हो, जो कि यहाँ पर पूर्व में निवेदन किया जा चुका है। अर्थात यही परंपरा हमारी संस्कृति बन जाय और उसका आगे और बहुत आगे तक विस्तार हो। श्रीगीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक से भी इस बात की पुष्टि होती है -
"यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तंतदेवेतरो जनः
स यत्प्रमाणं कुरुते लोक स्तदनुवर्तते।।"
अर्थात - श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वो जो कुछ प्रमाण देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।
जो संसार में अच्छे गुण और आचरणों के कारण धर्मात्मा विख्यात हो गया है, जगत के अधिकांश लोग जिस पर श्रद्धा और विश्वास करते हैं - ऐसे प्रसिद्ध माननीय महात्मा ज्ञानी का वाचक यहाँ श्रेष्ठ पद है। यहाँ पर भगवान् ने यह दिखाया है कि उपर्युक्त महात्मा यदि अपने वर्ण आश्रम के धर्मों का भली-भांति अनुष्ठान करता है तो दूसरे लोग भी उसकी देखा-देखी अपने अपने वर्णाश्रम के धर्मों का पालन करने में श्रद्धापूर्वक लगे रहते हैं, इससे श्रष्टि की व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहती है, किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। किन्तु यदि धर्मात्मा ज्ञानी महात्मा पुरुष अपने वर्णाश्रम के धर्मों का त्याग कर देते हैं तो लोगों पर भी यही प्रभाव पड़ता है कि वास्तव में कर्मों में कुछ नहीं रक्खा है, यदि कर्मों में ही कुछ सार होता है तो अमुक महापुरुष उन सब [कर्मों] को क्यों छोड़ते - ऐसा समझ कर वे उस श्रेष्ठ पुरुष की देखादेखी अपने वर्ण-आश्रम के लिए निहित नियम और धर्मों का त्याग कर बैठते हैं। ऐसा होने से संसार में बड़ी गड़बड़ी मंच जाती है और सारी व्यवस्था टूट जाती है। अतएव महात्मा पुरुष को लोकसंग्रह की ओर ध्यान रखते हुए अपने वर्ण आश्रम के अनुसार सावधानी के साथ यथायोग्य समस्त कर्मों का अनुष्ठान करते रहना चाहिए। कर्मों की अवहेलना या त्याग नहीं करना चाहिए। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि श्रेष्ठ पुरुष स्वयं आचरण करके और लोगों को शिक्षा दे कर जिस बात को प्रमाणित कर देता है, अर्थात - लोगों के अंतःकरण में विश्वास करा देता है कि अमुक कर्म मनुष्य को इस प्रकार करना चाहिए और अमुक कर्म इस प्रकार करना चाहिए, उसी के अनुसार साधारण मनुष्य भी चेष्टा करने लग जाते हैं। इसलिए मान्यनीय श्रेष्ठ ज्ञानी महापुरुष को श्रष्टि की व्यवस्था ठीक रखने के उद्देश्य से बड़ी सावधानी के साथ स्वयं कर्म करते हुए लोगों को शिक्षा दे कर उनको अपने-अपने कर्तव्य में नियुक्त करना चाहिए और इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि उसके उपदेश या आचरणों से संसार की व्यवस्था सुरक्षित रखने वाले किसी भी वर्ण-आश्रम के धर्म की या मानव-धर्म परंपरा को किंचित मात्र भी धक्का न पहुँचे, अर्थात उन कर्मों में लोगों की श्रद्धा और रूचि कम न हो जाय।
संसार में सब लोगों के कर्तव्य एक से नहीं होते। देश, समाज और अपने-अपने वर्णाश्रम, समय एवं स्थिति के अनुसार सब के कर्तव्य भिन्न-भिन्न होते हैं। श्रेष्ठ महापुरुषों के लिए यह संभव नहीं कि सब के योग्य कर्मों को अलग-अलग स्वयं आचरण करके बतलाते। इसलिए श्रेष्ठ महापुरुष जिन-जिन वैदिक और लौकिक क्रियाओं को वचनों से भी प्रामाणित कर देता है, उसी के अनुसार लोग आचरण करने लगते हैं।
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