चिरस्मरणीय सौभाग्य
इस दीपावली के 'ज्योति-महोत्सव' के अवसर पर जिस दिव्यज्योति की अनायास उपलब्धि हुयी, जिस महान अभीष्ठ की अप्रयास प्राप्ति हुयी, जिस काम्य-कृति की कमनीय कल्पना साकार हुयी, वह अद्भुत क्षण चिरस्मरणीय, सौभाग्य बन गया। आर्त पिपासु भक्तों को भगवान की वाणी मिल गयी, श्रुति स्मृतियों के साधकों को ब्रह्मविद्या की संहिता मिल गयी, आचार्यप्रवरों को साश्चर्य निर्देशिका मिल गयी, मैं क्या कहूँ मुझे तो वह सौभाग्य मिला, वह निःश्रेयस उपाधि मिली, वह श्रेय व प्रेय मिला जो सच ही उन परमसंत, परमपितापरमात्मा, प्रातःस्मरणीय मेरे दादा-श्वसुर, महात्मा राम चन्द्र जी [श्री श्री लालाजी] महाराज की पौत्रवधू के रूप में उनके परमस्नेही दया व करुणावतार साकार स्वरुप से प्राप्त होता है। मुझे विश्वास है कि यदि आज वह इस भू पर लीलारत होते तो, मुझे यह दायित्व सौंपते, मुझे यह धरोहर प्रदान करते। कदाचित उनकी वह ललक, वह भावविभोर कृपा-विलोकन, वह वरदा कामना की आकस्मिक रूप में ज्योति बन कर मेरे मनमानस को ज्योतित कर गयी, जिव्हा पर उनकी सरस्वती विराज गयी, नेत्रों में उनकी मन्द-मुस्कान समा गयी, श्रवणों में उनकी वाणी गूँज गयी, तब उनकी 'आत्मा-कथा', उनकी ‘दिव्य क्रान्ति की कहानी’ की सकल पाण्डुलिपि उनके पुराने पत्रों, पत्रावलियों, आलेखों, डायरी तथा पुस्तकों आदि से अनायास सुलभ हो सकी तो क्या आश्चर्य। शैली का प्रस्तुत प्रयोग उनके मनमानस को कहाँ तक अभिव्यक्त कर सका है और किस सीमा तक सफ़ल रहा है, यह तो विद्वान् पाठक स्वयं ही निर्णय करेंगे। मैं तो यह समझती हूँ कि मुझे उनका निर्देश मिला, उनकी आज्ञा हुयी और मैं अति विनम्रतापूर्वक उसका पालन कर सकी हूँ।
यदि इस प्रयास से किसी रूप में उनके प्रेमी भाइयों की किञ्चित सेवा हो सकी तो मैं अपने आप को धन्य समझूँगी।
मूल आलेखों को संकलित, क्रमबद्ध एवं वर्गीकृत करके पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत करने के उपक्रम में उर्दू में लिखी सामिग्री का हिन्दीकरण किया गया है। साथ ही यथास्थान कल्पना द्वारा समुचित सम्बन्ध-सूत्र योजित कर एकतारता प्राप्त की गयी है। मेरे इन प्रयासों के सन्दर्भ में संभावित भूलों एवं भ्रांतियों के लिए मैं अपने-आप को दोषी मानती हूँ और ह्रदय से क्षमा-प्रार्थना करतीं हूँ।
हिन्दीकरण में मुझे मेरे पतिदेव के एक बुजुर्ग़ दोस्त सहयोगी व शुभचिंतक श्री ज़हूर मोहम्मद खां, मुख्य-नियंत्रक, पूर्वोत्तर रेलवे, फतेहगढ़ से जो एक साधक संत हैं और श्री श्री लालाजी महाराज के प्रेमी हैं, विशेष सहायता मिली है। उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ। प्रेस-प्रति के संशोधन एवं संवर्धन में मुझे अपने शोध-निर्देशक डॉ बी बी लाल पूर्व कुलपति, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी [उ0 प्र0] से मार्गदर्शन मिला है, पितातुल्य उनका स्नेह मेरा सम्बल बना है। उनके प्रति सादर नमन कर अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। जिन सन्दर्भ-ग्रंथों से सहायता ली गयी है, उनके लेखकों एवं प्रकाशकों के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ। जिन महानुभावों ने अन्यथा मुझे प्रेरित-प्रोत्साहित किया है, विशेष कर हिंदी के उन मूर्धन्य विद्वानों के प्रति जिन्होंने कृपा कर अपनी सद्भावनाएँ एवं सम्मतियाँ प्रदान की हैं, हार्दिक आभार एवं सादर सद्भाव व्यक्त करती हूँ और उनके आशीर्वाद की कामना करती हूँ।
'रामाश्रम संसथान' फतेहगढ़ [उ0 प्र0] के अधिकारी एवं प्रकाशन विभाग के निदेशक ने कृपा कर इस कृति के प्रकाशन का संकल्प कर मुझे विशेषरूप से प्रोत्साहित किया है। मैं 'संस्थान' के महा-मंत्री श्री बनी माधव जी अग्रवाल के प्रति जो सच्चे अर्थों में श्रेष्ठजन हैं और अपनी धार्मिक उदात्तता के साथ मुक्त हस्त से सेवा, दान एवं आर्थिक सहायता के लिए सुविख्यात हैं, तथा श्री रमेश चन्द्र जी माथुर के प्रति जो लब्धप्रतिष्ठित पत्रकार एवं अन्यान्य उच्चकोटि के पत्रों तथा 'आकाशवाणी' के क्षेत्रीय प्रतिनिधि हैं और अपने उदात्त चरित्र तथा अपनी सामाजिक सेवाओं के लिए सुविख्यात हैं, सादर अपनी कृतज्ञता प्रस्तुत करती हूँ और धन्यवाद देती हूँ।
प्रिंटिंग सेंटर, जयपुर के प्रबंधको को मैं विशेष रूप से ससम्मान स्मरण करते हुए धन्यवाद देती हूँ। उन्होंने अपने सीमित साधनों के होते हुए भी बड़े उत्साह और सद्भाव से इस कृति के मुद्रण कार्य को पूरा किया है।
नमन की इस सुखद बेला में मैं अपने आराध्य अपने सर्वस्व, अपने प्राणाधार पतिदेव परम श्रद्धेय श्री दिनेश कुमार जी को समर्पण की सर्वभावभंगिमा में अति विनीत कृतज्ञता ज्ञापन हेतु स्मरण करती हूँ। वह इतने अपने हैं कि आशंका है कि उनके प्रति यह भाव ही कहीं औपचारिकता के सन्दर्भ में दूरी का द्योतक हो कर अपराध न बन जाय। यह सोच कर ही हृदय काँप उठता है और धन्यवाद की औपचारिकता नहीं बन पा रही। मैं यहाँ यह रहस्य अवश्य प्रकट करना चाहूँगी कि मुझे लेखनी उठाने के लिए प्रेम-विवेश करने वाले वही हैं और वस्तुतः उनके प्रेम, प्रेरणा और आग्रह के सन्दर्भ में ही यह कृति प्रतुत हो सकी है। मैं उनसे जितना सम्मान समादर प्राप्त कर रही हूँ वह अधुना अभूतपूर्व है। वस्तुतः यह मेरा परमसौभाग्य ही है। सौभाग्यकांक्षिणी कन्या को राम जैसा वर प्राप्त करने एवं सुख-स्वप्न सँजोने की सुखद कामना भारतीय संस्कृति की सांस्कृतिक-धरोहर है किन्तु वर्त्तमान परिस्थियों में आज ऐसी कितनीं भाग्यशाली महिला हैं जिनकी यह कामना पूर्ण होती है। मेरे साथ कुछ बात ही और है। पूर्वजन्मों के पुण्यप्रताप से तथा गुरुजनों के अमोघ आशीर्वाद के फलस्वरूप मुझे तो अपने राम मिले हैं किन्तु मेरी अपनी आत्मवेदना यह है कि मैं उनकी सीता कहाँ बन पायी। इस कृति के माध्यम से सहृदय साधक समाज के समक्ष अति विनम्रतापूर्वक उनके इसी आशीर्वाद की कामना से उपस्थित हुयी हूँ कि "अपने राम के रंग में रंग जाऊँ, उनकी सीता बन जाऊँ और मीरा के शब्दों में गाऊं।"
"पचरंग चोला पहन सखी री, मैं झिरमिट रमवा जाती।"
डॉ [श्रीमती] सुमन सक्सेना
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