श्रद्धा सुमन
साधना साधिता दिव्या राम चन्द्र महात्मना।रक्षितव्या स्मृतिः तस्य सर्व भावेन साधकैः।।
- सोम
[महामना श्रद्धेय डॉ मुन्शी राम शर्मा 'सोम' जी ने 'दिव्य क्रान्ति की कहानी' के पाठकों के लिए जो दिव्य दिशा-निर्देश दिए हैं, उनके पीछे श्री 'सोम' जी की साधना के अपने अनुभव एवं जीवमात्र की कल्याण-कामना क्रियाशील है। प्रस्तुत कृति से साधक, पाठक क्या लाभ उठा सकते हैं और किस रुप में अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकते हैं, यह और इस प्रकार के व्यावहारिक निर्देश साधक पाठकों के ही नहीं प्रत्युत सामान्य अध्येता के लिए भी दिशानिर्देशक हैं। मान्यनीय श्री 'सोम' जी के एतदर्थ हम हार्दिक आभारी हैं। - प्रकाशक]
डॉ मुन्शी राम शर्मा 'सोम'
ऍम ए, पी-एच डी, डी लिट्
निदेशक, वैदिक शोध-संस्थान, कानपुर उ0 प्र0
जीवन-चरित्र और वह भी एक उच्चकोटि के साधक संत का, हम साधारण मनुष्यों के लिए अतीव शिक्षाप्रद एवं लाभदायक होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ ऐसे ही एक साधक की उन्नयनकारिणी जीवन-गाथा है। वंश-परिचय, अध्यात्म के प्रसंग, साधना के स्तर और उनका सुखद अवसानमय शिखर सभी पाठकों को प्रभावित करेंगे।
जीवन और मृत्यु के बीच त्रिशंकु बना हुआ यह व्यक्तित्व यदि सार्थक हो सकता है, तो केवल भौतिकता के चक्र से निकल कर शतऋतु इन्द्र बन कर। हम सभी इसी चक्र में पड़े हुए भटक रहे हैं। हमारे भीतर 'देवता' भी हैं और 'दैत्य' भी, उदात्त गुण भी हैं और अधम अवगुण भी। 'शुभ' और 'असुभ', नीति के क्षेत्र के दो विचित्र पक्ष हैं। इनमें से शुभ का ग्रहण और अशुभ का परित्याग, देवों का वरण और दैत्यों का निवारण करना है। यदि हम इस क्रिया में सफ़ल हो जाते हैं, तो दिव्यता की उपलब्धि हमें उस परमप्रभु के चरणों में उपस्थित कर देगी, जिसकी लालसा अब तक के हमारी जीवन-यात्रा के क्रम में हमारे साथ लगी रही है। दिव्यता का आँचल हमारे लिए, हमारे लालन-पालन के लिए, हमारी वृद्धि और पोषण के लिए, हमें ऊँचा उठाने के लिए, मानवता के शब्दार्थ को सिद्ध करने के लिए मनोरम सोपान हैं। यही सोपान एक के बाद एक, ऊपर चढ़ता हुआ हमें उस स्थिति को पहुँचा देता है, जहाँ जा कर समतलता है, सन्तुलन है, समरसता है और है सम्प्राप्ति। फ़िर उतार-चढ़ाव नहीं हैं, जो हमें भटकाने वाले हैं।
कहते हैं - चौरासी लाख योनियों के चक्र से निकल कर जीव, मानव-योनि प्राप्त करता है। यदि यह योनि 'भटकाव' से अलग रही, पुण्य-पथ का अनुगमन करती रही और निरन्तर अपने सखा, भ्राता, माता-पिता-रूप परमेश्वर को याद करती रही, तो इस योनि की सत्ता निश्चितरूप से उस परमसत्ता में विलीन हो सकती है। संतों ने इसी को 'सायुज्य' कहा है. पर 'सायुज्य' की प्राप्ति के लिए हमें 'सालोक्य', 'सामीप्य' और 'सारूप्य' तीनों श्रेणियाँ चढ़नीं पड़तीं है। संतों ने इन श्रेणियों के लिए भी अनेक सदुपाय बताये हैं। प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ कर पाठक इन उपायों से अवगत हो कर, जान और समझ-बूझ कर आचरण करने लगें तो श्रीमन महात्मा राम चन्द्र जी के समान वे भी सद्गति प्राप्ति के अधिकारी बन सकेंगें। परमप्रभु हमें साधना के इस सत्पथ पर अग्रसर करें। इसी रूप में उनकी दिव्य-साधना के प्रति हमारी श्रद्धानिवेदन का उपक्रम तथा उनकी पावन स्मृति को सुरक्षित रखने का शुभ-संकल्प संभव हो सकेगा।
साधना साधिता दिव्या राम चन्द्र महात्मना।
रक्षितव्या स्मृतिः तस्य सर्व भावेन साधिकैः।।
- मुंशी राम शर्मा 'सोम'
[मान्यनीय डॉ हरवंश लाल जी शर्मा, हिंदी-जगत के मूर्धन्य विद्वान् हैं। वह अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में भी उच्चकोटि की स्थिति प्राप्त किये हुए हैं तथा गृहस्थसंत के रूप में समादृत एवं सम्मानित हैं। बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय का बड़ा सौभाग्य है कि कुलपति के रूप में उनकी कुशल प्रशासनिक सेवायें सुलभ हुईं हैं। उनके श्रद्धासुमन प्राप्त कर हम 'संस्थान' को गौरान्वित समझते हैं तथा उनकी इस कृपा के लिए 'संस्थान' की ओर से हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। - प्रकाशक]
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी
डॉ हरवंशलाल शर्मा
कुलपति दिनाँक 04. 04. 1982
संतप्रवर महात्मा राम चन्द्र जी द्वारा लिखित 'दिव्य क्रान्ति की कहानी' शीर्षक आर्ष पुस्तिका के अनुशीलन का सौभाग्य बंधुवर डॉ बृजवासी लाल जी के सौजन्य और सौहार्द से प्राप्त हुआ। यद्यपि कहानी आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत की गयी है परन्तु यह सर्वथा समाधि-क्षणों में लिखित आत्मानुभूति की कथा है। महात्माओं और संतों की स्वान्तःसुखाय रचना ही लोक-कल्याण का साधन बनती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का रामचरितमानस स्वान्तःसुखाय होते हुए भी लोक-कल्याण के अमोघ साधन के रूप में लोक में प्रचलित है। वास्तव में लोकमंगलकारी सच्चिदानन्दस्वरुप भगवान भी तो 'स्वानुभूत्यैक भान' है। इसी प्रकार महात्माजी [लालजी महाराज] की यह 'आत्मकथा' लोकमङ्गलकारिणी है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यथार्थ के माध्यम से आदर्शोन्मुखता ही संतों के जीवन का लक्ष्य है। वेद, उपनिषद्, स्मृति, रामायण तथा महाभारत जैसे सभी ग्रंथों के अमूल्य रत्नों से यह मणिमाला ग्रथित है। पाठक को प्रेय से श्रेय की ओर ले जाने का यह अनुपम साधन है।
मुझे विश्वास है कि सुधी पाठक इससे लाभान्वित होंगे। मैं महात्माजी [लालाजी महाराज] के श्रीचरणों में नत हो कर अपनी श्रद्धासुमनांजलि अर्पित करता हूँ।
हरवंशलाल शर्मा
04. 04. 1982
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