Friday, 10 January 2020

15. मेरे आत्मज



                                               मेरे आत्मज

क्रम की दृष्टि से गृहस्थ-आश्रम द्वितीय आश्रम है, किन्तु महत्व की दृष्टि से इसका प्रथम स्थान है। गृहस्थ-आश्रम का आदर्श है - धर्म, अर्थ, तथा काम [त्रिवर्ग] के विषयों में पति-पत्नी का पूर्ण सामंजस्य तथा एक-दूसरे के प्रति उत्कट विश्वास।

भगवान वेदव्यास ने गृहस्थ-आश्रम को सब आश्रमों से अधिक महत्वपूर्ण और पावन बताते हुए कहा है कि -

सर्वाश्रमपदेsप्याहुर्गाहृस्थ्यं दीप्त निर्णयम।
पावनं पुरुष व्याघ्र यद्धर्म पर्युपासते ।।
[शान्ति 66/35]

सब आश्रमों में अधिक दीप्त और सशक्त संकल्प या कर्म का निर्णय जिस आश्रम में है, वह गृहस्थ-आश्रम है, वह अति पावन आश्रम है।

इस आश्रम में पार्वती - परमेश्वररूप पितरों के प्रतीक 'माता-पिता' शाश्वत सत्य-शिव-सुन्दर संकल्प से स्वर्ग की आर्य ज्योति को भूतल पर उतारते हैं। श्रुति का उद्घोष है -

"विदत स्वर्मनवे ज्योतिरार्यम"
[ऋ० 10/43/04]

अर्थात - यह पावन आर्यज्योति ही बालक है। बालक में मानव के सनातनरूप के नितनूतन दर्शन हुआ करते हैं।

ग्रहथ-आश्रम की सफ़लता एवं महत्ता पुत्रप्राप्ति में निहित है। समस्त साँसारिक सुखों के होते हुए भी यदि किसी व्यक्ति के पुत्र [संतान] न हो तो उसका जीवन निःसार ही है। संतान माता-पिता के पारस्परिक स्नेह-सूत्र को योजित कर उसे दृढ़तर बना देती है। बाल-भगवान गृहस्थ का सौभाग्य होते हैं। उनकी मनमोहक बाललीलाएँ किसका मन नहीं मोह लेतीं।

आलक्ष्यदन्तमुकु लाननिमित्तहासै -
ख्यक्तवर्णरमणीयवचः प्रवृत्तीन
अंकाआश्रय प्रणयिन स्तनयान वहन्तो
धन्यास्त डंकरजसा कलुषीभवन्ति।
  [अभिज्ञानशाकुंतलम 07 : 17]

 अर्थात - सर्वदमन की मनोरंजक बाल-क्रीड़ाओं को देख कर दुष्यन्त ने कहा था - "वह व्यक्ति सौभाग्यशाली हैं जो मुस्कराकर अपने छोटे-छोटे दांतों को दिखाते हुए तोतली बोली से  मनोहर बचनों वाले गोद में बैठने के लिए लालायित पुत्रों को उठाते हैं तथा उनके शरीर की धूल से मलिन होते हैं।

"धार्मिक दृष्टि से भी पुत्र परिवार की पूँजी होता है। पूर्वजों को 'पू' नामक नरक से त्राण कराने के कारण उसको पुत्र कहा गया है। इस दृष्टि से ही पुत्र की कामना की जाती है। पुत्र के स्वरुप पर अन्यथा अन्य दृष्टियों से विचार किया गया है यथा, आत्मा से उत्पन्न होने के कारण आत्मज, निजनाम का प्रकाशक होने के कारण निजनाम-सार, ज्ञान तथा विवेकशीलता की दृष्टि से ज्ञानमय एवं विवेकमय सुत। संत कबीर, संत दादू तथा शास्त्रोक्त युक्तियों में सम्बंधित सन्दर्भ यथास्थान प्राप्त होते हैं।

"निजनामसार - कह कबीर निजनाम बिनु, बूढ़ि मुआ संसार।"

"मृतामोहमयी माता जातो ज्ञानमयः सुतः"

 अर्थात - 'ज्ञानमय सुत' - जिसके उत्पन्न होने से मोहमयी माता मर जाती है।


दूतर तारै पार उतारै नरक निवारै नाउँ रे। [संत दादू]

अर्थात - सकामाशरीर रूपी नरक से उद्धारक।

संत कबीर ने, "पुत्र पिता का पिता होता है।" इस दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है तथा ज्ञान, वैराग्य, विवेक की दृष्टि से उसके स्वरुप का अवलोकन किया है -

"पहिला जनम पुत्र का भयउ,
बाप जनमिया पाछे।
पुनः अगवानी तो आइया,
ज्ञान, विराग, विवेक पाछे।
गुरु भी आएँगे,
सारे साज समेत। ।" 

सुत की इस व्यापक व्याख्या में वस्तुतः आध्यात्मिक सुत काम्य हो जाता है। प्रत्येक माता-पिता चाहता है कि उसको राम जैसा सुत प्राप्त हो या उसका सुत राम बन जाय। राम या राम जैसा सुत हमारे आदर्श और अपेक्षाओं की अधूरी कामना है जो हमारे जीवन की केंद्रबिंदु बनी रही और जिनको पूरा करने के लिए हम चलते गए, आगे बढ़ते गए, फिर भी पूरी न हो सकी और अधूरी छोड़ कर ही हमें अपने महाप्रयाण के लिए विवश होना पड़ा। इसी दृष्टि से आत्मज प्रत्येक माता-पिता की 'आत्मज्जन्य दर्शन', आध्यात्मिक साधना एवं उपलब्धियों की काम्यप्रस्तुति हुआ करते हैं।

ऋषियों का यह सनातन भाव अश्वघोष के उद्घोष में महायान युग के आशावादी दृष्टिकोण का भी प्रतिपादक रहा है -

"राज्ञामृषिणां चरितानि तानि कृतानि पुत्रैरकृतानि पूर्व।"
[बुद्धचरित 01/46]

राजाओं और ऋषिओं के पुत्रों ने अपने पूर्वजों के आकृतानि कर्मों को, जो उन्होंने अधूरे छोड़े अथवा जो उन्होंने नहीं किये, पूरा किया।

कभी ईश्वर कृपा से ऐसी स्थिति बन पड़े कि उस परमपितापरमेश्वर की इच्छा क्या है, वह अपने पुत्रों को कैसा बनाना चाहता है, तो वैसी ही कामना अपने पुत्रों को बनाने के निमित्त करें और अपना जीवन लगा दें कि उसकी इच्छानुसार हमारे अंदर जो कमियाँ रह गयीं उन्हें पूर्ण करने में हमारे पुत्र सहायक हों।

परमसंत महात्मा चरनदास जी की लिखी एक कहानी कहीं पढ़ने को मिली। प्रस्तुत सन्दर्भ में स्मरण हो आयी। एक नगर था। वहाँ की प्रथा के अनुसार एक वर्ष पूरा होते ही उस नगर के राजा को 'गद्दी' से उतार कर उसे नाव में बिठा कर नदी के उस-पार गहन बन में नितांत अकेला छोड़ दिया जाता था और नए राजा को 'गद्दी' पर बिठा दिया जाता था। अनेकों वर्षों से यही क्रम चला आ रहा था।

एक बार नियमानुसार एक मनुष्य को उस नगर की राज-गद्दी मिली। वह बहुत बुद्धिमान था। गद्दी पर बैठते ही उसने मंत्रिओं से प्रश्न किया - "यह कितने दिनों के लिए है?" मंत्रिओं ने उसे बताया - "एक वर्ष के लिए।" उसका दूसरा प्रश्न था - "उसके बाद क्या होगा?" उसको बताया गया कि - "एक वर्ष पूरा होते ही आपका इस राज-सत्ता से अथवा यहाँ की किसी भी प्रकार की सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध शेष न रह जाएगा। तत्पश्चात आपको नदी के उस पार एक बीहड़ बन में अकेले जाना होगा। नाव वाले आपको वहाँ उतार कर लौट आएँगे। यही यहाँ की सनातन प्रथा है।" ऐसा सुन कर उस राजा ने सोचा कि - एक वर्ष तो बहुत है। इतने समय में सब कुछ हो सकता है। उसने राज्य का कार्य-भार हाँथ में ले लिया और सावधानी तथा ईमानदारी से न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा परन्तु एक वर्ष की अवधि को नहीं भूला। उसने व्यक्तिगत सुखों की और कोई ध्यान न दिया। राज्योचित सभी भोग-विलासों का निषेध कर दिया और यह आदेश दिया कि “नदी के पार जंगल काट कर वहाँ बस्ती बसाई जाय। नगर बने ! प्रचुर मात्रा में साधन-सामिग्री तथा काम करने वाले योग्य पुरुषों को वहाँ भेज दिया जाय। वर्ष पूरा होने के पहले - पहले सारी व्यवस्थाएँ पूरी हो जायँ।" एक वर्ष की अवधि में वहाँ जंगल की जगह एक सुन्दर प्रदेश बस गया। सभी सामिग्रियाँ अब सुलभ थीं। राज्यावधि का एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद उसको वहाँ के नियमानुनसार 'गद्दी' से उतार दिया गया। इसकी उसे चिंता न थी, वह तो हंस रहा था। जब वह नाव में चढ़ कर हँसता हुआ नदी के पार जाने लगा तो नाविकों ने विस्मित हो उससे प्रश्न किया - "और तो जो लोग जाते थे, सभी रोते थे, आप कैसे हंस रहे हैं?" उसने कहा - "भाई ! वे लोग एक वर्ष तक राज-सुख भोगते रहे, विषयानन्द में निमग्न रहे। भविष्य की उन्होंने चिंता न की। इसी से रोते थे। परन्तु मैं निरंतर सावधान रहा। मै बराबर विचार करता रहा कि एक वर्ष के बाद तो यह राज्य तथा यहाँ का सभी कुछ छोड़ कर जाना होगा। इसलिए मैंने सारे व्यर्थ के कार्य रोक दिए, समस्त व्यक्तिगत आमोद-प्रमोद बंद कर दिए और एक वर्ष बाद की स्थिति संभालने के लिए प्रयत्न करता रहा। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं क्योंकि एक वर्ष की राजसत्ता [monarchy] का मैंने पूरा लाभ उठाया है, अतः मैं हंस रहा हूँ।"

हम भी इसी प्रकार हंस सकें। अपने आत्मजों के दायित्व का निर्वाह तटस्थ-भाव से कर सकें। अपने लक्ष्य पर हमारी दृष्टि बनी रहे, हम उससे विमुख न हों। लेकिन यह कितना कठिन है। एक दिन की बात है, मेरे पास उस समय एक सन्यासीजी बैठे हुए थे। सत्संग चल रहा था। उसी समय मेरी एक पुत्री जो पिछले कई दिनों से बीमार थी एवं उसकी हालत ठीक नहीं थी, चल बसी और मुझे उसी समय उसकी मृत्त्यु की सूचना दी गयी। मैं यों तो लेशमात्र भी विचलित अथवा दुखी नहीं हुआ तथा शान्त और अंतर्मुखी हो कर बैठा रहा। फ़िर भी कुछ क्षणोपरान्त मेरी आँखों से कुछ अश्रु-बिंदु 'तप-टप' करके नीचे गिर पड़े। इस स्थित पर सन्यासीजी ने जिज्ञासा की जिसका तात्पर्य था कि अपनी अच्छी से अच्छी स्थिति में भी 'संत' को अपनी संतान की मृत्यु पर दुःख होता है और आँसू बहाता हैं ? मैं कुछ देर और शांत बैठा रहा। अनायास पास पड़े किसी पेड़ के पत्तों को टुकड़े-टुकड़े करके तोड़ने [smash] लगा। उन पत्तों से निकलती 'चट-चट' की ध्वनि की ओर संकेत करते हुए मैंने उनकी शंका का समाधान किया कि जब मिले हुए तत्व अनायास ही अलग किये जाते हैं तो उनसे ध्वनि होना स्वाभाविक है, उनकी प्रतिक्रिया होना सहज ही है।

विवाह के पूर्व कन्या का अपने बाबुल के घर से अटूट अनुराग बना रहता है। वह रात-दिन गुड़ियों के खेल रचाया करती है। परन्तु जहाँ उसकी माँग [parting of the hair] में सिन्दूर [vermilion] पड़ा और प्राणनाथ के साथ गाँठ जुड़ी, उसके गुड़ियों के सारे खेल स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। सच्चे खेल प्रारम्भ होते ही झूठे खेलों से नाता आप से आप ही टूट जाता है। वह जानती है, और प्रतिपल अपने ह्रदय में अनुभव करती है कि उसका घर कहीं और है, जहाँ 'साजन का देश' है। अपरिचित देश की कल्पना से प्रथम तो एक सिहरन होती है किन्तु पुनः उसे ध्यान हो आता है - "अरे वह देश मेरे लिए अपरिचित कैसे, जहाँ मेरे प्राणाधार बसते हैं। मैं तो उनकी ही हूँ। वह मुझे जहाँ रक्खें, अपनी बनाये रक्खें।" बस यही परम सांत्वना उसे जीवन देती है। उसका एक ही लक्ष्य होता है - "उनके चरणों की शरण में जहाँ भी रहूँगी, वहीँ मेरा सच्चा सुख है, वही मेरा अपना देश है।"

"ज्यों तिरिया पीहर बसै, सुरति रहै पियु माहीं।
ऐसे जन जग में रहैं, हरि को भूलत नाहिं ।।”

मैं भी एक मुमुक्ष अपने प्रियतम में लीन न जानें कैसी-कैसी क्रीड़ाएं करता रहा। मैनें भी गुड्डे-गुड़ियों के अनेकों खेल रचाये। हम भी तो किसी के बनाये हुए गुड्डे-गुड़िया ही हैं। मैं गुड्डा, वह गुड़िया। यही क्रम हमने भी दोहराया। बड़े समय तक अपने बनाये गुड्डे-गुड़ियों में ऐसा लीन रहा, अपनी छोटी सी दुनियाँ में रमा [dalliance] रहा, कि सुध भी न रही कि उस-पार साजन के घर भी जाना है। पूर्ण युवा हो जानें पर भी मैं उन्हीं खिलौनों में ही मग्न रहा। और जब प्रियतम की सुिध आयी तो ऐसा लगा कि मानों यह सारा श्रृंगार, सारा यौवन, सभी-कुछ व्यर्थ है, यदि स्वामी [Lord] से भेंट न हुयी। सौंदर्य, श्रृंगार की सफ़लता तो तभी है जब साईं की दृष्टि इन पर पड़े, जब प्रभु से मिलन हो - नहीं तो यह सब व्यर्थ ही है -

"चूड़ी पटकौं पलँग से, चोली लागौं आगि।
जा कारन यह तन धरा, ना सूती गल लागि। ।"

यह शरीर धारण करने की सफ़लता तो साईं-मिलन में ही है, और यदि ऐसा न हो सका तो इन चूड़ियों और चोली में आग लगे। वह श्रृंगार ही कैसा जो अपने स्वामी के मिलन-सुख से वंचित रहे।

मुझे जब सुधि हुयी तो हड़बड़ा उठा। अपना सभी कुछ, जो जैसा था, अपने स्वामी की इच्छा के अनुकूल बनाने में लग गया। न जाने उसे क्या भा जाए। हो सकता है, मुझ दास से अनजानें में कुछ ऐसा बन पड़े जिससे वह रीझ जाएँ। मुझे अब एक घड़ी का भी अवकाश न रहता। मेरा एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाता। मुझे हर घड़ी यही चिंता सताये रहती है कि मेरी सन्तानों में से,  चाहें वे रक्तसम्बन्धी हों अथवा आत्मसंबन्धी, यदि एक में भी मात्र थोड़ी सी भी त्रुटि पायी गयी तो मुझे क्षमा नहीं किया जाएगा। सारा खेल ही चौपट हो जाएगा। ह्रदय बैठ जाता है, निराशा घिर आती है और प्राण सूखने लगते है, जब अपनी करनी पर कभी दृष्टि जाती है। एक क्षण के लिए चादर का पट हटा कर जब ह्रदय की नग्न छवि देखता हूँ तो अपनी त्रुटियों, पापों, दुराचारों को देखता हूँ और ऐसी आशंका होती है कि कहीं इनकी थोड़ी सी भी परछाईं मेरी संतानों पर न पड़ जाए। दिन-रात इसी चिंता की अग्नि में तपता रहता हूँ।

प्रभु की कृपा से मेरी संतानों में आठ पुत्रियाँ व दो पुत्र हुए। मेरे बड़े पुत्र  चिरंजीव  हरिश्चन्द्र थोड़े से ही संस्कार ले कर आये थे व अपना काम दो-तीन माह में ही बना ले गए। पुत्रियों के विवाह के लिए मैं परेशान रहता था। अपने हज़रत क़िब्ला [Spiritual Master]  को अवगत कराया। उनका जो उत्तर मिला, उसने मेरी समस्या का समाधान मात्र ही प्रस्तुत नहीं किया प्रत्युत मेरे विश्वास को वह दृढ़ता प्रदान की कि मेरा मन कभी नहीं डगमगाया। उस पत्र का एक-एक शब्द मुझे कण्ठस्थ हो गया है, मेरा मन्त्र बन गया है - "लड़कियों की शादी इन्शाअल्लाह अच्छी होगी। कोई ज़रूर सबब होगा। हमारी शर्म खुदा के हाँथ में है। इत्मीनान रखियेगा।" आगे सचमुच कुछ ऐसा बना कि बड़ी आसानी से मैंने पाँच लड़कियों की शादी कर दी।

सत्यकाम ! मात्र एक कहानी ही नहीं - जीवन का समुचित दर्शन ही है। प्राचीन भारत में गौतम नामक एक महामुनि थे। सत्य की खोज में अनेकों साधक उनके पास आया करते थे। एक दिन आठ वर्ष का एक होनहार बालक उनके समक्ष उपस्थित हो उनकी सेवा  में प्रणाम निवेदन कर सम्बोधित हुआ - "मुनिवर ! मेरा नाम सत्यकाम है। आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।" प्रत्युत्तर प्रश्न था महामुनि का - "वत्स ! तुम किस कुल के हो ?" सत्यकाम ने निवेदन किया - "यह तो मैं नहीं जानता, न मेरी माता जानती है। मेरे पिता नहीं हैं। मेरी माता जावाल ने मेरा नाम सत्यकाम जावाल रक्खा है। मुझे अपना शिष्य बनाने की कृपा करें।" मुनिप्रवर कुछ कहते कि इसके पहिले ही उनका कोई पुराना शिष्य बोल पड़ा - "गरुदेव, केवल ब्राह्मण ही सात्विक-ज्ञान का अधिकारी होता है। सत्यकाम कदापि ब्राह्मण न हो।" ब्राह्मण की परिभाषा देते हुए महामुनि ने कहा - "जो निर्भय हो कर सत्य बोलता है वही ब्राह्मण है।" और इसके साथ ही अपना निर्णय सुनाया - "सत्यकाम, तुम्हें मैं शिष्य रूप में स्वीकार करता हूँ। बताओ तुम्हारा लक्ष्य क्या है ?" सत्यकाम ने निवेदन किया - "स्वामी, मैं ब्रह्म को जो परमसत्य है, प्राप्त करना चाहता हूँ।" महामुनि ने मन ही मन मंत्रणा की - "बालक सत्यवादी और निष्ठावान है। लक्ष्य की प्राप्ति में, मैं इसकी सहायता करूँगा।" और उसे आदेश दिया - "अच्छा आओ मेरे साथ।" वह उसे अपनी गौशाला में ले गए - "ये चार सौ गाय और बछड़े हैं। इन्हें कहीं दूर जंगल में ले जाओ। जब ये हृष्ट-पुष्ठ एवं सँख्या में हज़ार से अधिक हो जाएँ तब तुम इन्हें ले कर मेरे पास आना।" गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर होनहार शिष्य इस प्रकार गाय-बछड़ों को हाँकता चला किन्तु गहरी चिंता में मग्न - मैंने गुरूजी से कहा था कि मैं ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता हूँ। न जाने क्यों उन्होंने मुझे जंगल में भेज दिया। वहाँ ब्रह्म की प्राप्ति हो सकेगी क्या ? किन्तु जंगल में पहुँच कर उसने चिंता व अपने अंतर में उठने वाली भ्रामक शंकाओं का परित्याग कर दिया। वह वहाँ की परम शान्ति व चारों ओर बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य में अन्तर्मुखी हो गया। वह बड़े ही मनोयोग से सभी पशुओं की सेवा व देख-भाल करने लगा। संध्या समय जब पशु विश्राम करते तब वह पुनः सोचता 'ब्रह्म को कहाँ खोजूं, कहाँ है वह ?' उसकी निरन्तर देखभाल व सेवा से गायें कालान्तर में पुष्ट होने लगीं और उनकी सँख्या भी बढ़ने लगी। उसने एक मूक दृष्टि उन पर डाली - ये सब अब एक सहस्त्र से अधिक हैं। गुरूजी ने जो कार्य मुझे सौंपा था, वह पूरा हो गया। परन्तु जब वह लौटने को हुआ तो एक बछड़ा कम निकला। उसने उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सभी दिशाओं में खोजा और उसके लिए अत्यंत ही दुखी हो कर उसे पुकारने लगा - 'ओ नन्हें बछड़े, कहाँ चला गया तू ?'  अंत में ढूँढते-ढूँढते उसे वह बछड़ा मिल ही गया। उसे पाकर उसे अभूतपूर्व शान्ति की सुखानुभूति सी हुयी। तभी उसके  मन में एक चिंगारी सी छिटकी और विचार आया, क्या ब्रह्म की प्राप्ति भी जायेगी मुझे ? संध्या के समय एक बूढ़े बैल को देख कर उसे अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ। फ़िर उसे ऐसा लगा मानों बैल कहता है - 'ब्रह्म उत्तर में है, दक्षिण में है, पूरब में है, पश्चिम में है।' उसके मस्तिष्क में पुनः दामिनि चमकी - 'यह सत्य है। वोह सभी जगह है। फ़िर उसे खोजूं क्यों ?' उसी दिन वह पशुओं को ले कर गौतम ऋषि के आश्रम में लौट पड़ा। सूरज डूबने के समय उसने एक जगह ठहर कर आग जलायी। उसे लगा कि अग्निदेव बोल रहे हैं - 'ब्रह्म धरती में है, आकाश में है, वायु में है, सागर में है।' यह विचार उसके मस्तिष्क में घूमने लगा - 'ब्रह्म आकाश के सामान अनन्त है।' अगले दिन सूरज उगने पर उसने अपने आप से प्रश्न किया - सूर्य कैसा प्रकाशमान है, आश्चर्य। कौन देता है इसे यह प्रकाश ? उत्तर दिया उसे उड़ रहे एक हँस ने - 'ब्रह्म सूर्य में है, दामिनि में है, अग्नि में है।' उसे लगा कि उसका अन्तर्मन भी स्वीकार कर रहा है - 'निःसंदेह ! ब्रह्म ही सूर्य को प्रकाश देता है।' ज्ञानप्रकाश के इस प्रवाह से सत्यकाम के मन में विचारों का एक ज्वार [flood-tide] उमड़ पड़ा - 'किसके प्रताप से मैं श्वांस लेता हूँ,  देखता हूँ, सुनता हूँ, विचार करता हूँ ?' उत्तर किसी उड़ती हुयी चिड़िया ने दिया - 'ब्रह्म, ब्रह्म, ब्रह्म के प्रताप से।

सत्यकाम जब महामुनि गौतम के पास पहुँचा तो वह उसे देख कर आश्चर्यचकित रह गए - "सत्यकाम ! तेरा मुख ब्रह्म-ज्ञान के तेज से दैदीप्यमान है। कैसे प्राप्त किया यह ज्ञान ?" सत्यकाम ने उनके समक्ष अपने अनुभव निवेदन किये और पुनः याचना की - "जब तक गुरु, ज्ञान नहीं देते तब तक लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता। गुरुदेव, मेरा मार्गदर्शन करें। वह गद-गद [inarticulate from emotion] हुए - "अवश्य वत्स।" समर्थगुरु गौतम ने अपने सुयोग्य शिष्य को परमपावन ज्ञान दिया।

मेरा अस्तित्व एवं सामर्थ्य अति लघु व सीमित है। मेरी इन दस संतानों व अन्य भतीजे भतीजियों इत्यादि के अतिरिक्त प्रभु के दिए हुए लगभग 200 की संख्या में बन्धु-बान्धव व प्रेमीजनों के रूप में कुछ गऊयें व बछड़े हैं जो मुझे अपनी संतानों के समान आत्मीय व प्रिय हैं। इन्हीं सब की देख-रेख व सेवा में मैं निरन्तर लगा रहता हूँ।

महामना ईसा के कुछ निर्देश आज भी मेरा मार्गदर्शन करते हैं। ईशु की  वाणी है - "जीवन की खेती मैं हूँ। मेरे पास आने वाला कभी भूखा न होगा। मुझ पर विश्वास करने वाला कभी प्यासा न होगा। परन्तु मैं तुमसे कहता हूँ, यद्यपि तुमने मुझे देखा है, फिर भी विश्वास नहीं करते। फ़िर भी कुछ लोग मेरे पास आएँगे जिन्हें पिता ने मुझे दिया है, और मैं उन्हें कभी बाहर नहीं निकालूँगा। क्योंकि मैं यहाँ स्वर्ग से अपनी नहीं बल्कि पिता की इच्छा पूरी करने आया हूँ, जिसने मुझे भेजा है। और परमेश्वर की यही इच्छा है कि जितनों को उसने मुझे दिया है उनमें से एक को भी न खोऊँ। अन्तिम दिन अनन्त जीवन के लिए मैं उन्हें फ़िर जीवित करूँ। क्योंकि मेरे पिता की यह इच्छा है कि जो उसके पुत्र को देखे और उसपर विश्वास करे वह अनन्त जीवन पाए। अन्तिम दिन मैं उसे फ़िर जीवित करूँगा।"

मेरी समस्त सन्तानें [आध्यात्मिक व रक्तसम्बन्धी] समस्त जगत में अपना सानी नहीं रखतीं और जैसा कि मेरा विश्वास है वे सभी अपने-अपने समय व क्षेत्र में मेरे उत्तराधिकारी होंगे, उनमें से कुछ साधकों को, उनकी योग्यता व क्षमता के आधार पर, मैंने आचार्य व गुरु-पदवी से भी विभूषित किया है। इस विषय पर मेरे निकटतर व्यक्तियों से मेरा कुछ मतभेद भी रहा है। उनका कहना है कि उदारता पूर्वक ऐसी पदवियाँ देने से सत्संग-समाज में बटवारा होने का डर है। मेरा उनसे निवेदन है कि जिस प्रकार दुनियाँदारी में पिता की मृत्यु के बाद बड़े भाई [जिन परिवारों में] अपने नाबालिग़ भाइयों व भतीजों को अपने पुत्रवत रखते हैं वहाँ बटवारे नहीं होते। यही प्रक्रिया मैं अपने सत्संग-समाज में देखना चाहता हूँ कि इस शरीर में न रहने के पश्चात् जो मेरी आध्यात्मिक संतानें आचार्य पदवी ग्रहण किये हुए हैं, उनका प्रथम कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने भाइयों में जो अभी पूर्णता प्राप्त नहीं कर सके है और अपने शिष्यों व बेटों में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रक्खेंगें। इसी प्रयोग के अंतर्गत अपने 'वसीहतनामें' [Last Will] में मैंने चि0 बृजमोहन के पालनार्थ एक पार्श्व-टिप्पणी [Side-note] लिख दी है -

वसीयतनामः

"अल्लाह पाक हमारी नियतों को दुरुस्त फ़रमावे और हमारा अन्जाम हमारे पेशवाओं और पीरानेउज़्ज़ाम के तरीक़ पर उनके एतक़ाद के साथ हों। आमीन।। आमीन।।"

"ज़िंदग़ी का कोई भरोसा नहीं है। न मालूम किस वक़्त साँस वापस न आए। इस लिए चन्द बाँतें बतौर वसीयत के एहतियातन लिख कर इस उम्मीद पर छोड़ता हूँ कि मेरे बाद मेरी सुल्वी व रूहानी औलाद, अगर अल्लाहताआला उनको तौफ़ीक़ और हिम्मत अता फ़रमावे, तो उस पर कारबन्द हो और तौफ़ीक़ सिर्फ़ 'उस' ही के हाथ में है।

[दस्तख़त] फ़क़ीर राम चन्द्र
23 [तेईस] अक्टूबर सं 1930 [ईस्वी] 

वास्ते बरखुर्दार जगमोहन नरायन के -

[01] पहले जज़्ब और उसके बाद सुलूक के तरीक़ को तय करके तक्मील [पूर्ति, समाप्ति, किसी काम की पूर्ति में कोई कसर न रखना] के दर्ज़े तक पहुँचना चाहिए और यह काम सिर्फ़ तुम्हारे मुर्शद से ही निकलेगा।

पार्श्व टिपण्णी [Side-note] : काश अगर तुमको मौका न मिले तो जब और जिस वक़्त इमदाद ग़ैबी तुम्हारी तबीयत को उभारे तो फ़िर तुम्हारे भाई, बृजमोहन लाल [अल्लाहतआला उसकी उम्र में बरक़त अता फ़रमावे] से ज़ियादह शफ़क़त करने वाला नहीं मिलेगा। लाज़िम है कि उसकी इताअत में फ़र्क़ न करना और दिल व जान से लग कर इस तरीक़ की तक्मील हाँसिल कर लेना। मुझ को भरोसा है कि वह अज़ीज़ तुम्हारे वास्ते कोई कसर नहीं रक्खेंगे।
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[02] जहाँ तक मुर्शदी व मौलाई जनाब हज़रत क़िब्ला का इशारा मुझको दिया गया है कि मेरी औलाद में बरखुर्दार जगमोहन का पैदायशी अख़लाक़ [सद्वृत्ति] दुरुस्त है और लातायफ़ में से लतीफ़ा क़ल्ब [ह्रदय चक्र, 17 वां नक्षत्र] तालीम से ही ज़ाकिर है, लेकिन मेरी दानिस्त [ज्ञान, जानकारी]  में जज़्बे [आत्मसात] की जिहत [दिशा, तरफ़] उसकी नातमाम [अपूर्णता] है। उसको हाँसिल करनी चाहिए।

वह्बी [ईश्वर प्रदत्त = hereditary spiritual propensity] अख़लाक़ और कस्बी [वह विद्या जो कमाने और परिश्रम करने से प्राप्त होती है = acquired conduct] अख़लाक़ में फ़र्क़ है। वह्बी [ईश्वर प्रदत्त] में ज़्यादह तालीम तल्क़ीन [दीक्षा देना, गुरु-मन्त्र देना या सदुपदेश देना] की की ज़रूरत नहीं होती। बरख़िलाफ़ इसके कस्बी [वह विद्या जो कमाने और परिश्रम करने से प्राप्त होती है] में बहुत तज़ुर्बों और मशक्कतों [कष्ट, दुःख, श्रम, दौड़-धूप, तपस्या इत्यादि] के बाद यह बात नसीब होती है, जिसमें अन्देशः गिरावट का भी रहता है। अल्हम्दिल्लिल्लाह कि वह्बी [ईश्वर प्रदत्त] अख़लाक़ के लिए  बुशारत [ख़ुशख़बरी, शुभसंवाद] हज़रत क़ब्ला ने फ़रमाई। पीरान-ए-उज़्ज़ाम के तुफ़ैल में अल्लाहपाक इस नियामत के साथ उसका अंज़ाम बख़ैर फ़रमावें।

अज़ीज़ मज़्कूर [कहा हुआ, चर्चा में या जिनका ज़िक्र हो रहा है - afore said] शुक्राना इस नियामत का अदा करते रहें, और अपने आप को हमेशा आजिज़ [निराश्रय, असहाय, बेबस, लाचार] समझें, क्योंकि नियामत का देने वाला मुख़्तार [स्वच्छंद] है कि जब चाहता है, अपनी दी हुयी नियामतों को वापस ले सकता है। 

[03] इस आजिज़ फ़क़ीर ने फ़ल्सफः [दर्शनशास्त्र] और मुख़्तलिफ़ मज़हबों के अक़ीदों की, जहाँ तक कि मेरे इल्म ने मुझको इम्दाद की, छानबीन की लेकिन आख़िर को पीरान-ए-उज़्ज़ाम के एतक़ादों और तरीकों को ऐसा पाया है कि जिन पर मज़बूती के साथ क़ाइम रहने से आख़िर दम तक सलामती की उम्मीद है।

मैं कह सकता हूँ कि इस वक़्त तक उन तरीकों और एतिक़ादों [faith] का पूरा पाबन्द जैसा कि चाहिए, नहीं रहा हूँ । लेकिन दिल से इक़रार ज़रूर रहा है। अफ़सोस कि अहबाब और मेरे साथ चलने वालों में से एक ने भी ऐसी हिम्मत नहीं की कि इन एतिक़ादों [faith] को क़बूल भी करता।

इसमें सरासर कसूर मैंने अपना पाया है कि अब तक तहरीरी बयान एतिक़ादों [faith] का उनके रु-ब-रु नहीं रक्खा; हालाँकि ज़ुबानी हमेशा मौके-मौके पर ज़िक्र करता रहा हूँ। मालूम नहीं कि किन-किन अहबाब ने उनको क़बूल और मंज़ूर किया।

ज़ाहिर है औलाद ताक़त और क़द-कामद में अपने बुज़ुर्ग़ों से नस्ल-बाद-नस्ल कमज़ोर ही होती चली आ रही है। इसी तरह रूहानयत और अखलाक़ी बातों में भी रोज़मर्रा गिरावट हो सकती है। मगर यह क़ायदा कुल्लिया नहीं है। अल्लाहताआला की क़ुदरत महदूद [limited] नहीं है। जब चाहे कभी ऐसा जवाँ मर्द, कमज़ोर माँ-बाप से पैदा हो सकता है कि पाँच सौ वर्ष पहले हुआ हो।

मेरे एक मात्र पुत्र चिरंजीव जगमोहन नरायन   व मेरी सबसे छोटी सन्तान के रूप में मेरी कन्या  सुशीला के कुछ रमणीय चरित्र मैंने छुप कर देखे हैं। आप भी मेरे साथ उसका आनन्द लें।मेरी अन्तिम व सबसे छोटी संतान के रूप में एक पुष्प मेरी पुत्री सुशीला। सबसे छोटी व सभी को प्रिय। सभी आने वाले भाइयों को वह उनकी बहन के रूप में अति प्रिय है। अभी वह बाल-रूप में है। अतः बाहर 'बैठक' में आती-जाती है। उसका शील व स्वभाव सभी के चित्त को मोह लेता है। देवी का रूप और देवी जैसे लक्षण देख सभी मुग्ध हो जाते हैं। कम बोलना व शिष्टाचार से बैठना, आये हुए भाइयों को जिस वस्तु की आवश्यकता हो उसे बिना कहे ही समझ जाना तथा चुपके से उसे उपलब्ध करा देना परन्तु चेहरे पर अहँकार का भाव न आना इत्यादि उसके दैवीय कृत्य यदाकदा मुझे देखने को मिले। रुपयों-पैसों और खिलौनों के बहुत से प्रलोभन दिए गए किन्तु सभी के प्रति अनिच्छा। उनके बाहर से आये हुए भाई उसके इन अनेकों गुणों पर मुग्ध हो उससे कहते - "बहन, खिलौना लोगी" - "नहीं" - "मिठाई लोगी" - "नहीं" - "पैसा लोगी" - "नहीं" - "धोती, साड़ी कुछ लोगी" - "नहीं"। पुनः "अरी बहन क्यों बोलती नहीं, कुछ तो बताओ, क्यों अप्रसन्न हो हमसे?" इस बार भी वही "नहीं"। वे कहते "हम भी तुम्हारे भाई हैं, कोई आवश्यकता हो तो बताओ, हम बाज़ार जा रहे हैं, ला देंगे। इस बार भी वही एक उत्तर - "भाई साहिब हमें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है"। प्रायः सत्संगी भाइयों का अपनी बहन से यही वार्तालाप होता।

अब वह कुछ बड़ी हो चली है। यद्यपि अभी उसकी अवस्था इतनी नहीं कि ऐसे परिपक्क्व व गम्भीर विचार प्रगट कर सके किन्तु फ़िर भी उसकी वाणी में ओज है, दिशा दिखाने की सामर्थ्य है और है अभूतपूर्व निर्भीकता। हमारे घर में उन दिनों प्यास-लहसुन खाया जाता था। जब कभी कोई बाहर वाला प्याज-लहसुन न खाने वाला भाई आ जाता, उस दिन रसोई में उसका [प्याज़-लहसुन इत्यादि] निषेध रहता। एक दिन सुशीला ने मुझे  प्रश्नवाचक स्वर में सम्बोधित किया - "क्यों पिताजी, जो प्याज़-लहसुन नहीं खाते उनके ह्रदय पर हमारी इस नीति का क्या प्रभाव पड़ता होगा कि हम लोग इसे असात्विक समझ कर इसका निषेध कर चुके हैं किन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं। यह दुरंगा प्रदर्शन ठीक नहीं। अतः उनके निमित्त हमें हमेशा हमेशा के लिए 'प्याज़-लहसुन' को छोड़ देना चाहिए। हम जैसे हैं वैसे ही दिखाई भी पड़ें जिससे आने-जाने वाले हमारे विषय में उचित धारणा बना सकें।" उसकी यह बात मुझे छू गयी। तब से आज तक हमारे घर में प्याज़-लहसुन का प्रयोग नहीं होता है। इस प्रकार की निर्भीकता व स्पष्टवादिता मेरे सभी बच्चों को अपनी माँ से संस्कार-रूप में प्राप्त हुयी है।

मेरे एकमात्र पुत्र चिरंजीव  जगमोहन नरायन के अतिरिक्त मेरे सभी भतीजे भी जिनके नाम क्रमशः बृजमोहन,  राधामोहन,  ज्योतींद्र मोहन,  नरेंद्र मोहन, राजेंद्र मोहन हैं, मुझे प्राणों  के समान अति प्रिय हैं एवं उन्हें अपने पुत्र से कम नहीं समझता। मेरे अन्य भतीजो के अतिरिक्त जो अभी छोटे हैं, चिरंजीव बृजमोहन लाल    मुझे इस लिए अति प्रिय हैं क्यों कि वह भी मुझ से अत्यंत ही प्रेम करते हैं और मेरे जीवन  की प्रत्येक आकाँक्षा को पूरा करने और अपने में उतारने की चेष्टा करते हैं और साथ ही अति उत्साही भी हैं। उनकी कल्पनाएं अनेक हैं। परमात्मा उन्हें बनाये रक्खे।

चिरंजीव बृजमोहन लाल बड़ी अवधि तक मेरे पास रहे हैं। उनमें व मेरे पुत्र   जगमोहन नरायन में अनेकानेक असंगतियों के होते हुए भी दोनों भाइयों में एक-दूसरे के प्रति जीवन्त प्रेम की आदर्श भावना वास करती है। चिरंजीव जगमोहन नरायन ऊपर से दिखने में राजसी ठाट-बाट में सजे सजाये एक संसारी राजकुमार किन्तु अंतर में एक सम्पूर्ण सन्यासी व त्यागी, ठीक इसके विपरीत चि0 बृजमोहन लाल ऊपर से आकार-प्रकार में एक विरक्त फ़क़ीर किन्तु अंतर में राजयोग का उच्च आदर्श तथा ममतामय संस्कार, सत्य चाहें जो भी हो, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं व दोनों मुझे मेरी दो आँखों के समान प्रिय व आत्मीय हैं।चिरंजीव जगमोहन नरायन, भाइयों के मध्य 'जग्गू बाबू' के नाम से पुकारे जाते हैं एवं अपने गुणों के आधार पर सभी में अति लोकप्रिय हो गए हैं। वह भारतीय मनीषा के अनन्य आराध्य व उच्चकोटि के कार्यकर्ता हैं। त्याग व सेवा का मार्ग उन्होंने अपनाया है और अब तो उस पर अग्रसर हो वह पर्याप्त आगे निकल गए हैं। बड़े ही निर्भीक व उत्साही हैं। उन जैसे कभी न थकने वाले अडिग व अटल स्वयंसेवक से अनेकों आशाएँ हैं। सभी की निगाहें उन पर लगीं हुयी हैं।

अनेकानेक गुणों की खान वह मेरे संकुल के दीपक हैं। हमारे भावी समाज के स्तम्भ-स्वरुप हैं। चित्रकारी   व अनेकानेक ललितकलाओं पर उनका पूर्ण अधिकार है।

अपना काम वह स्वयं अपने हाँथ से करने की क्षमता रखते हैं। इतने सारे गुणों की एकरस सम्पन्नता की  उपलब्धि का वह उदाहरण हैं, यही कारण था कि वह मेरे हज़रत क़िब्ला को भी भा गए। मेरा रोम-रोम कृतकृत्य हो गया। जो मेरे आराध्यदेव को लुभा सका उसकी सेवा व परवरिश अब मेरी आराधना बन गयी है। जिस जीव का गर्भाधान संस्कार महान उद्द्येश्य से होगा, उसी का जीवन महान होगा और उसी की सब प्रवृत्तियाँ, क्रियाएं एवं कर्म भी महान होंगे।

एक समय की बात है। मैं सपरिवार, अपने हज़रत क़िब्ला के श्रीचरणों में उपस्थित हुआ। हम सभी उनके प्रेम संयोग का लाभ उठा रहे थे। उनकी रूपमाधुरी झर रही थी। हम उसमें स्नान कर रहे थे, अतिमग्न व आत्मगम्भीर हो मानों अपनी सुध-बुध खो कर उन्हीं में लीन, उन्हीं के प्रेम में छके हुए, उन्हीं के आलिंगन में डूबे हुए, उस अभूतपूर्व प्रवाह में गोते लगा रहे थे। उधर मेरा लाल, ‘जग्गू’ मानों अपनी ही दुनीयाँ में खोया हुआ था। हुज़ूर महाराज के खणाउओँ [Wooden soled sandals] को जिन्हें वे अपने प्रयोग में लाते थे, उसने उन्हें एक रस्सी में बाँध रक्खा था और बड़ी ही तल्लीनता से उनकी देख-रेख में लगा हुआ था। घूमते घूमते हज़रत क़िब्ला उधर से गुज़रे, उस पर एक दृष्टि पड़ते ही, मुस्कराये और प्रश्न किया - "क्यों मियां यह क्या हो रहा है ?" अपनी ही तल्लीनता में मग्न मेरे लाड़ले का उत्तर था - "मेरे घोड़े बँधे हैं, भाग न जाएँ।" इस उत्तर से अनायास ही उस पर ऐसे मुग्ध हुए की चलते समय वह अपने ‘खणाऊँ’ उसे देना न भूले। वे खणाऊँ आज भी उसकी धरोहर हैं। जिसके लिए मैं अपना सर्वस्व और अपनी समस्त उपलब्धियाँ न्योछावर करने को तत्पर था किन्तु न पा सका और उधर मेरे लाल ने साधना के प्रथम चरण में ही उन्हें पा लिया।

"प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं।"

प्रथम आहुति में ही सम्पूर्ण जीवन-यज्ञ के फल की प्राप्ति हो गयी। मेरा रोम-रोम कृतकृत्य हो रहा था। जीवन प्राण परमानन्द की दिव्य चेतना के मध्य स्नान कर रहे थे।

"न जानें कौन से गुण पर दयानिधि रीझ जाते हैं।" मुझे अपने पुत्र के माध्यम से अपने सर्वस्व, अपने जीवन-प्राण, अपने सदगुरुदेव के जो दर्शन हुए, मैं सर्वथा उसका कोई अधिकारी नहीं था। कोटि-कोटि जन्मों से उन्हें देखता आ रहा हूँ परन्तु भर आँख देख न पाया। ह्रदय के मंदिर में जिनकी मनोहर मंगल मूर्ति विराजती, किन्तु मैं अभागा अपने ही ह्रदय के पट खोल कर वहाँ प्रवेश न कर सका। कभी कभी मुझे ऐसा लगता कि रु-ब-रु मेरे सामने खड़े हों पर मेरी आँख न उठती। कैसी कहूँ मन की विचित्र दशा; देखे बिना रहा भी नहीं जाता और देखते बनता भी नहीं। मेरी यह कभी न बुझने वाली पिपासा, अनेकानेक जन्मों में मेरी चिरसंगिनी रही है। मेरा रोम-रोम जिसकी रस-माधुरी में आकण्ठ डूबने के लिए हमेशा हमेशा से व्याकुल है, वह मेरे जीवन-प्राण वह ही मेरे अनेकों रूप व गुणों के स्वामी हैं, वही मेरे ह्रदय का मर्म समझते हैं। प्राणों की बेचैनी उकसाने में उन्हें भी एक आनन्द आता है। छेड़खानी ही तो है, उनकी ऐसी अनुकम्पाएँ हैं कि जिनका मैं सर्वथा अधिकारी नहीं। उनकी यह धरोहर मैं सम्भाल पाउँगा क्या ? एक ज्वलन्त प्रश्न है और मेरे भावी जगत की भूमिका भी है। उनकी अनेकानेक अन्य वरदानों के समान ही यह मेरा अंश भी, मेरे पास अब उनकी धरोहर है।

वह प्रेम क्या जो अघाना [contented] जानें। वह भक्ति  क्या जो समस्त विश्व को अपने में लय न कर ले। वह साधना क्या जो संसार के इस सघन पटल को हटा कर अपने प्राणेश्वर को प्रतिपल अखण्ड रूप में न देखे। वह भक्त क्या जो सदा सर्वदा केवल अपने उपास्यदेव को न देखे। बीच का पर्दा हटा देने से रह ही क्या जाता है ? संसार कहता है मैं बना रहूँगा, भक्त कहता है मैं तुझे मिटा कर ही छोड़ूँगा और जीत भी भक्त की ही होती है। कितनी सुन्दरता से भक्त इस संसार को मिटाता है, वह संसार से द्वन्द्व नहीं छेड़ता। वह जगत से लड़ने नहीं जाता। वह तो अपने भीतर प्रवेश कर अपने ह्रदय का पट हटा कर अपने प्रियतम की झाँकी पा लेता है। वह झाँकी उसकी आँखों में, उसके रोम-रोम में उतर आती है। अब वह इन आँखों से जो कुछ देखता है सभी में अपने प्रियतम को ही पाता है। यह संसार उसके सम्मुख, संसार नहीं रह जाता। यह तो प्रभु का मंगलमय परममनोहर दिव्य-विग्रह हो जाता है।

शास्त्रोक्त सिद्धांत है कि सूर्य और रात्रि दोनों एक साथ एक स्थान पर नहीं रह सकते, इसी प्रकार राम और काम भगवान और भोग एक साथ एक ह्रदय-देश में नहीं रह सकते।

"जहाँ काम तहँ राम नहिं, जहाँ राम नहिं काम।
तुलसी कबहुँक रहि सकै, रवि रजनी एक ठाम।"

अतः साधकों से अपेक्षित है कि भोगों को दुःख-दोषपूर्ण जान कर उनसे मन को हटावें। सत्यतः भोगों में सुख है ही कहाँ ? एक मात्र सुख तो सत्-चित-आनन्द स्वयं भगवान में ही है। विषय-सुख एक मीठे विष के समान है, जिसका एक बार सेवन करने से मीठा तो अवश्य लगता है किन्तु उसका परिणाम विष जैसा ही होता है। भगवान स्वयं गीता के पांचवें अध्याय में कहते हैं कि बुद्धिमान साधक इन दुःख-योनि संस्पर्शज भोगों से कभी प्रीति नहीं करते, वे अपना सारा जीवन बड़ी सावधानी से भगवान के भजन में बिताते हैं।

"येहि संस्पर्शजा भोगा दुःख्योनय एव ते।
आद्यंतवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः। "
[गीता 05 : 22]

देवर्षि नारद, ब्रह्मवैवर्त पुराण के आठवें अध्याय में कहते हैं कि - "ऐसा कौन मूढ़ होगा जो अमृत से भी अधिक प्रिय-सुखमय श्रीकृष्ण सेवा [भजन] को छोड़ कर विषय रूप विष का पान करना चाहेगा ?" जैसे कीट-पतंगों की दृष्टि में दीपक की ज्योति बड़ी मनोहर मालूम होती है और बंसी में पिरोया हुआ माँस का टुकड़ा मछली को सुखप्रद जान पड़ता है, वैसे ही विषयासक्त लोगों को स्वप्न के सदृश्य असार, विनाशी, तुच्छ, असत्य और मृत्यु का कारण होने पर भी "विषयों में सुख है" ऐसी भ्रान्ति हो रही है।

मेरे हज़रत क़िब्ला ने अनेकानेक कृपा कर मेरे नन्हें शिशु चिरंजीव जगमोहन नरायन को अपनी पादुकाएँ दे कर मानों उस पतंगे और अनेकानेक धनधान्य व विषय-भोग रूपी सुन्दर और मनोहर प्रतीत होने वाले दीपक की लौ के बीच एक लम्बा पर्दा दाल दिया। उनका यह उपकार उसे आजीवन सांसारिकता के ताप से बचाये रहा। सहज सुहृद उन आनन्दघन सच्चिदानन्द ने दया करके मेरे नन्हें साधक को भोगों के भीषण दावानल से बचाने के लिए भोग-वस्तुओं का अभाव कर उनसे विछोह करा दिया। भगवान ने बलि के साम्राज्य वैभव का हरण कर लेने के बाद यही कहा था -

"ब्रह्मन यमनुगृह पाणि तद्विशो विधुनोभ्यहम।
यंमदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते।
 [श्रीमदभागवत 08/22/24]

अर्थात - “ब्रह्मा जी ! धन के मद से मतवाला हो कर मनुष्य मेरा [भगवान का] और लोगों का तिरस्कार करने लगता है, इससे वह परमार्थ के मार्ग से वंचित हो जाता है अतः उसका कल्याण करने के लिए उसपर अनुग्रह करके मैं उसका धन-वैभव हर लेता हूँ।”      

बड़ी घर-गृहस्थी के सभी सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए आवश्यक संसासाधनों और मेरे मासिक वेतन की कुल धनराशि के अनुपात में कोई तालमेल नहीं था। किन्तु फिर भी मेरी पूरी कोशिश यही रही है कि मेरी संतानों में से किसी की भी शिक्षा व्यवस्था में कोई कोर खाली न रह जाय। ब्रिटश-शासन में वास्तविक व जीवनोपयोगी शिक्षा का सर्वथा आभाव रहा है। ब्रिटश शासकों को भारतीय नवजवानों की वास्तविक शिक्षा की परवाह नहीं थी, प्रत्युत वे तो उन्हे मात्र एक क्लर्क या 'बाबू' की ज़िन्दगी के दायरे में क़ैद कर देना चाहते थे। किन्तु मैंने उनकी इस व्यवस्था को दरकिनार करते हुए अपने कुलदीपक चिरंजीव जगमोहन नरायन को फतेहगढ़ स्थित स्थानीय गवर्नमेंट हाईस्कूल से मेट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् उन्हें आगे की उच्च शिक्षा के हेतु आगरा कॉलेज आगरा में भर्ती कराया गया। जैसा कि पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, हमारे जैसे औरों की तरह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभाव का साम्राज्य था। किन्तु उन दिनों तक मेरा सम्पर्क कुछ ऐसे साधन संपन्न लोगों से हो चुका था जिन्होंने सिर्फ़ मेरी मदद ही नहीं की वरन हठपूर्वक मेरी इस कार्ययोजना को मूर्त्तरूप प्रदान करने में अपनी समुचित भूमिका का निर्वाह भी किया। चिरंजीव जगमोहन की माँ के सगे ममेरे भाई रायबहादुर इन्द्रनरायन सक्सेना [उर्फ़ राजा साहिब] की ब्रिटिश शासन में अच्छी पहुँच थी। उन्होंने उन दिनों हमारी बड़ी मदद की। उनके अतिरिक्त हमारे सत्संग समाज के कुछ विशिष्ठ नवरत्न - सर्वश्री डॉ चतुर्भुजसहाय [एटा], गंगा प्रसाद [आगरा], सूरज सहाय मुख़्तियार [एटा] और उमा शंकर मुख़्तियार [एटा] ने मेरे लाल की उच्च शिक्षा में मात्र सहायता ही नहीं की प्रत्युत साये की मानिन्द उस के साथ रह कर निरंतर मेरा प्रतिनिधित्व किया। हमारे चौधरी ख़ानदान के कुलदीपक जगमोहन नरायन ने आगरा कॉलेज से ऍफ़0 ए0 [इण्टरमीडिएट] और प्रथम श्रेणी में ग्रेजुएशन की परीक्षा पास कर लेने के पश्चात् बाबू दिलाराम साहिब के विशेष अनुरोध पर 'आगरा कॉलेज' की लॉ फैकल्टी में कानून की पढ़ाई के निमित्त उनका प्रवेश कराया गया। चि0 जगमोहन की रहनी-सहनी, उनका गेट-अप इत्यादि समय के हिसाब से विचित्र व अटपटा सा दिखता था जिसके हेतु वे मज़ाक के पात्र बनने लगे। उनका जनेऊ संस्कार तो बचपन में ही करा दिया गया था। बाद में 'चाणक्य महान' की ओर उनका अनुग्रह जागा और उन्होंने शीघ्र ही एक मोटी सी चोटी अपने सिर पर धारण कर ली। कॉलेज के लड़कों का मनोविज्ञान तदनुरूप नहीं था। उनमें से बहुतेरों ने उन्हें चिढ़ाने के लिए अक्सर उनकी 'छोटी' भरी महफ़िल में खींचने लगे। वे असहज से हो जाते। उनके साथ ही फतेहगढ़ के पढ़ने वाले लड़कों की पर्याप्त सँख्या थी और उन लड़कों को सबक सिखाने के लिए वे पर्याप्त सक्षम थे। चि0 जगमोहन के मित्रों ने, प्रमुखतः, मन्नी लाल दुबे, कश्मीर सिंह यादव, हरी मोहन सरन, कैलाश नाथ दास इत्यादि ने फतेहगढ़ आ कर मुझे यह सब सूचना दी। मैंने बग़ैर किसी छानबीन के निर्णय ले लिया कि जगमोहन की पढ़ाई छुड़वा कर उन्हें फतेहगढ़ वापस बुलवा लिया जाय। किन्तु मेरे इस निर्णय के क्रियान्वयन से पूर्व ही आगरा कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल के सहयोग से उनकी नियुक्ति वहाँ की इम्पीरिअल बैंक की राजामण्डी ब्राँच में करा दी गयी। उनकी ड्यूटी के प्रति लगन, ईमानदारी, मेहनत, कर्तव्यपरायणता और सत्यनिष्ठा के जन्मजात गुणों के बलबूते पर ठीक एक वर्ष बाद ही आगरा के प्रधान कार्यालय में उनकी प्रोन्नति एक प्रथम श्रेणी ऑफिसर [Class I Officer] के तौर पर कर दी गयी। 

चि0 जगमोहन की इतनी बड़ी सफलता पर अभी भी मेरी मानसिक स्थिति सहज नहीं थी। मेरे लाल को जो उपलब्धियाँ हो रहीं थीं मैं उनसे बेख़बर व उदासीन ही था, क्योंकि ये सभी उपलब्धियाँ उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य नहीं था, जिनके लिए उसका जन्म हुआ था। इसी उधेड़-बुन  में मैंने अधिक समय नहीं लगाया और अगली एक वर्ष की नौकरी पूरी होते-होते मेरी ही ज़िद पर मेरे एक-मात्र पुत्र जगमोहन नरायन को सफलता के उस सोपान से विरत मेरी ही पहल पर पुनः फतेहगढ़ वापस आना पड़ा और उसी अभावग्रस्त जीवन में अपने आप को दोबारा स्थापित करना पड़ा।  

यह वर्ष 1920 [ईस्वी] का ज़माना था। इसी वर्ष जलियाँवाला-बाग़ के ऐतिहासिक काण्ड ने जन-जन के ह्रदय को झकझोर कर रख दिया। गाँधी जी ने इसके प्रतिवाद में असहयोग-आन्दोलन चलाया, जिसके माध्यम से उन्होंने 'स्वराज' का कॉन्सेप्ट जनसाधारण के सामने रक्खा और लोगों के मन-मानस को इस बात के लिए तैयार किया कि अब, आज और अभी से अंग्रेज़ों की ग़ुलामी नहीं करनी है। मेरे द्वारा जगमोहन को जौकरी छोड़ कर आगरा से फतेहगढ़ वापस बुलाने के परोक्ष में गाँधी जी का यही आईडिया कार्यरत था। इसी योजना के तहत जगमोहन ही क्या उनके जैसे मेरे अनेक आध्यात्मिक पुत्र जो जहाँ भी कार्यरत थे अपनी-अपनी नौकरी छोड़ कर सपरिवार फतेहगढ़ आ गए। अब हमारा घर एक व्यवस्थित छात्रावास बन चुका  था। उन दिनों हमारे घर का आकार बहुत लहीम-शहीम न था। हमारे मकान में 12x 24 फ़ीट के आयताकार, मात्र दो ही किराए के कमरे थे। उसी में हम-सब मिल-बाँट कर रहने लगे। अब हमारे लिए सब-कुछ अनिश्चित और भगवान-भरोसे था। 

जीविका के तौर पर जगमोहन को परचूनी की एक छोटी सी दुकान रखवा दी गयी। जो दूकान कम, सत्संग की कार्यशालाओं की स्थली अधिक थी।

हमारे पूर्वजों में से एक अपने ज़माने के बहुत बड़े हक़ीम थे। उनके ईज़ाद किये हुए कुछ नुस्ख़े और पुरानी हिकमत की किताबें हमारे घर में पड़ीं थीं वह सब बाबू चतुर्भुजसहाय    के हवाले कर के और उनके वास्ते दवाख़ाने की एक मुनासिब जगह तज़बीज़ करके उनके सुपर्द कर दी गयी और इस प्रकार वे, जजेस-कोर्ट एटा के पूर्व 'कुर्क-अमीन' से 'डॉक्टर' बन गए।

इसी प्रकार सभी के लिए कुछ न कुछ प्रबन्ध मालिक की दया से होता चला गया।

मैंने एकांत में कई बार अपने अंतर में झाँक कर देखा है। अपने इन दोनों हाथों को बार-  बार उलटपलट कर देखा है। मैं आपसे सत्य ही कहूँगा कि इन हाथों में तो कुछ भी नहीं किन्तु जिन महान हाथों से  ये बँधे हुए हैं उनमें ऐसी अपार एवं अपूर्व शक्ति है कि जब चाहूँ सारी दुनियाँ की सम्पूर्ण सुख-संपत्ति अपने एक मात्र पुत्र के लिए उपलब्ध करा दूँ किन्तु अपने सदगुरुदेव की भविष्यवाणी पर मुझे पूर्ण भरोसा है। यही कारण है कि जब-जब उसे भीषण दुःख समूहों की अग्नि में तपता पाता हूँ तो कल्पना करता हूँ कि यह ईश्वर की अनुकम्पाएँ ही हैं जिससे उसके साधन-पथ में प्रकाश व अनेकानेक उपलब्धियों के पुञ्ज जाग उठेंगे। मुझे अपने प्रभु की वाणी पर पूरा भरोसा है।

ईश्वरभक्ता कुन्ती ने भी भगवान् से यही वर माँगा था कि -

विपदः सन्तु नः शाश्वत्तत्र तत्र जगतगुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भव दर्शनम।
[श्रीमद्भागवत 01/08/25]

हे जगतगुरो ! हमारे जीवन में सदा पग-पग पर विपत्तियाँ ही आती रहें, क्योंकि विपत्तियों में निश्चित रूप से आप के दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फ़िर अपुनर्भव अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। फ़िर जन्म-मृत्य के चक्र में नहीं आना पड़ता।

अतएव साधक जब ईश्वर कृपा से भोगों की अभाव-रूप यथार्थ सुख की स्थिति में पहुँचता है और उसके मन से भोग-शक्ति चली जाती है तब यह समझना चाहिए कि उसके सौभाग्य सूर्य का उदय हुआ है -

"रमा विलास राम अनुरागी। तजत बमन इव नर बड़ भागी"

सारी ममता और सारी आसक्ति अनन्य अनुराग के रूप में भगवान के चरणों में आ कर केंद्रित हो जाएगी। फ़िर वह साधक स्वयं कुछ नहीं करेगा, भगवान उसके ह्रदय-देश में विराजमान हो कर कर्ता होंगे, क्योंकि वही भगवान का अपना घर है -

"जाहिं न चाहिय कबहुँ कछु तुम सन सहज सनेहु।
बसहुँ निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।
[मानस 02. 131]

तीस जून 1928 [ईस्वी] को रिटायरमेंट के बाद से मेरा सम्पूर्ण समय अब सत्संग में ही व्यतीत होने लगा था। धीरे-धीरे एक ऐसा दौर भी आया कि हमारे घर में ही आने-जाने वालों का मेला सा लगने लगा। इस सब में उन सब की आव-भगत, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान और उनसे अंतरंगता, उनके सभी प्रकार के शंका-समाधान इत्यादि का सम्पूर्ण दायित्व चि0 जगमोहन नरायन का ही रहता और उनकी सहायिका बनती मेरी लाड़ली बेटी सुशीला उर्फ़ शीला, जो अभी तक अविवाहित थी।

यही सिलसिला अब बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक जा पहुँचा कि आने-जाने वालों के आग्रह पर मुझे उनके घर भी जाना होता। वहाँ कई-कई दिनों की महफिलें होतीं और मुझे पता भी न चला कि कब और कैसे मैं इस मकड़जाल में फँसता ही चला गया। लोक-हितार्थ ही कहिये अथवा सच्चाई जो भी हो मैं चलता रहा, यात्राएँ होती रहीं और व्यस्तता बढ़ती ही चली गयी। इस सब का नतीज़ा यह हुआ कि हर वर्ग के लोगों का रुझान अब आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगा जिसमें स्थानीय लोग कम किन्तु सुदूर क्षेत्र के लोगों का जमावड़ा अधिक बढ़ने लगा। 

हमारे तलैय्यालेन [वर्त्तमान में महात्मा राम चन्द्र मार्ग, फतेहगढ़] स्थित मकान [लालाजी निलयम] में अगस्त 1929 तक केवल दो आयताकार [12 x 24 वर्गफीट आकार के] कमरों के अतिरिक्त अंदर की तरफ एक बड़ा 'बरामदा' व रसोईघर और शेष पर्याप्त खुला मैदान था, जिसका अलग-अलग अवसरों पर आवश्यकतानुसार प्रयोग कर लिया जाता था। मार्च 1920 [ईस्वी सन] तक मकान का यही हिस्सा हमारे पास दो रुपया प्रति माह की दर से किराए पर था। बाद में रजिस्टर जिल्द संख्या [383] के सफ़ाहात 298 व 299 में नंबर 619 [registration No.] दिनांक 07.04.1920 को की गयी रजिस्ट्री के अनुसार इस दिन के बाद यही मकान हमारा अपना ‘निजी-निवास’   बन गया। अक्टूबर 1929 [ई0] में सड़क की तरफ़ दो कमरे और एक 'दालान' बन कर तय्यार हो गए।  दो माह से अधिक का समय इस निर्माण-कार्य में लगा। इसका सम्पूर्ण दायित्व चि0 जगमोहन नरायन पर रहा। मकानों के डिज़ानिंग [रूपांकन] में उसे महारत [निपुणता] हासिल है, जिसकी पूरी कार्ययोजना से ले कर 'मज़दूरी' [labor] व निर्माण-सामिग्री का पूरा-पूरा लेखाजोखा रखने तक के दायित्व का निर्वाह उसने बड़ी कुशलता से किया।    

उसके [चि0 जगमोहन नरायन] अन्य जन्मजात सद्गुणों के बारे में जैसा कि पहले ही स्पष्ट किन्तु नियन्त्रित भाषा में उल्लेख कर चुका हूँ कि उसमें अद्भुत चुम्बकीय क्षमता है। एक बार कोई मिल ले उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अपनी बात बहुत ही नपे-तुले और कम शब्दों में सामने रखने की अद्भुत क्षमता तो उसमें है ही इस के अतिरिक्त अनेक गुह्य व रहस्य्पूर्ण विषयों की व्याख्या बड़े ही सहजभाव से लोगों के बीच प्रस्तुत करने की योग्यता उसमें है। प्रस्तुतीकरण, युक्तियुक्त [convincing], लोगों के दिल-दिमाग़ को स्पर्श करने वाला और पूर्णरूप से क़ायल कर देने वाला [प्रत्यायनीय] होता है। इस सब को निरखने-परखने का अवसर मुझे अगस्त 1929 के 'कानपुर-प्रवास' में हुआ। चिरंजीव जगमोहन नरायन भी हमारे साथ में थे। इस प्रवास में वहाँ के विभिन्न उच्च-शिक्षा-संस्थानों के कुछ प्राध्यापक [Lecurers] हमसे मिलने को आये। उनमें से कुछेक के साथ सत्संग में बैठने का अवसर मिला। उनसे मेरी मुलाक़ात तो मात्र आतंरिक-सत्संग तक ही सीमित रही किन्तु बाद में उनका बात-चीत का सिलसिला 'जग्गू' [चिरंजीव जगमोहन नरायन] से ही जारी रहता था। उसी बात-चीत का परिणाम यह हुआ कि उनके [याख्याताओं] के ही आग्रह पर उनके कॉलेज में हम-दोनों को [मुझे व जगमोहन नरायन] जाना पड़ा। उन्हीं के आग्रह पर यहाँ मेरी उपस्थिति व संरक्षण में उसके [चिरंजीवी जगमोहन नरायन] दो 'लेक्चर' [याख्यान] भी करवाए गए जिनका कि अत्यंत ही गहरा प्रभाव वहाँ पर उपस्थित क्षात्र-क्षात्राओं व प्राध्यापकों पर पड़ा और उनका यह प्रयोग बहुत ही प्रभावी व सार्थक रहा।

इन्हीं दिनों सत्संग के इसी क्रम में राजपुताना कई बार जाना हुआ। मालवा-स्टेट में मथन्नी    [मेरे सगे चचेरे छोटे भाई चिरंजीव कृष्णस्वरूप] डॉक्टर हैं। उनके पास भी दो बार जाना हुआ। वहाँ पर भी लोगों से जुड़ाव हुआ। बाद में मालवा व गुजरात के क्षेत्रों में समयाभाव व स्वास्थ्य की गिरावट के कारण चिरंजीव जगमोहन नरायन को कई बार अकेले ही जाना पड़ा।

वहीं के एक बड़े राजमिस्त्री साहिब 
 [श्री जगन्नाथ प्रसाद] के वृत्तान्त के अनुसार बग़ैर किसी परिचय के ही जगमोहन की चाल-ढाल व उसकी महवियत [महबूब = प्रेमपात्र ; होने का भाव] से वहाँ के राजा साहिब ऐसे मन्त्रमुग्ध हुए कि कुछ न पूँछिये। हुआ यूँ कि जग्गू बाबू [चिरंजीव जगमोहन नरायन] जब राजमिस्त्री साहिब के घर पहुँचे तो पता चला कि वोह स्टेट के किसी बड़े क्लब के उद्घटानोत्सव में गए हुए थे अतः इन्होंने [चिरंजीव जगमोहन नरायन] सोचा, चलो वहीं चलते हैं और वह तुरंत ही अपने निर्णयानुसार चल पड़े। वही उनकी मनपसंद पोशाक़ [शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और सिर पर अपनी मनपसंद रंग की पगड़ी] में मस्त झूमते हुए चले जा रहे थे। साथ में कोई था नहीं, राजमार्ग था अतः अन्य कोई मानसिक तनाव इत्यादि भी नहीं था। ऐसे में उनका यह सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व अपने चुम्बकत्व के पूरे उरूज पर था।

मिस्त्री साहिबअपने ही अंदाज़ में सब कुछ सुनाते रहे और मैं एकटक हो कर बाल-भाव से उस समय मानों कहीं खो सा गया था। उन्होंने अपने वृत्तान्त को गति देते हुए बताया "जब राजा साहिब की शाही-सवारी निकल रही थी  वहाँ के प्रचलित रिवाज़ के अनुसार सड़क पर दोनों ओर के लोग एक-किनारे हट कर आँखें झुकाये हुए सिर को भी हल्का सा नीचे करके बड़े अदब से खड़े होते जाते थे। शाही-सवारी क्लब में चल रहे समारोह के सम्पन्न हो जाने के पश्चात् जबकि 'राजमहल' वापस जा रही थी तभी सबकी नज़र उसी राजमार्ग पर  पिपरीत दिशा से आ रहे भाईसाहिब श्रीमान जगमोहन जी पर पड़ी।

 'शाही-सवारी' को रास्ता देने के लिए वे एक ओर हट तो गए किन्तु चूँकि अपनी ही धुन में इतने मस्त और मगन थे कि उन्होंने राजसहिब के सम्मान में न तो मार्ग के एक ओर खड़े हो कर सवारी आगे बढ़ जाने की प्रतीक्षा की और न ही दूसरे व्यक्तियों की तरह अपनी आँखें नीची कीं। राजासाहब ने भी उन्हें बड़े ही विस्मित भाव से निहारा। चूँकि क्लब का भवन-निर्माण कार्य मेरी ही देख-रेख में सम्पन्न हुआ था और वे मेरी कार्य-कुशलता पर सन्तुष्ट व प्रसन्न थे अतः सम्मान देने के लिए उन्होंने उस समय मुझे भी अपनी ही कार में स्थान दिया हुआ था। राजासाहब के अन्तर्भावों से मैं अनछुआ न रह पाया था। कुछ ही आगे बढ़ने के बाद उन्होंने सवारी मय-काफ़िले के वापिस [उसी दिशा में जिस ओर भाईसाहब श्रीमान जगमोहन नरायन जी आगे बढ़ रहे थे] मोड़ने का हुक्म फ़रमाया।  'शाही-सवारी' मय-लावलश्कर के कुछ दूर तक आगे बड़ी। उस समय चूँकि भाईसाहब जगमोहन नरायन जी पर 'जज़्ब' [आत्मसात] की हालत ऐसी तारी [ढाँपे हुए] थी कि उन्होंने उसका कुछ भी नोटिस [सुध] नहीं लिया। कुछ क़दमों तक सवारी उसी दिशा में आगे बढ़ने के पश्चात पुनः उसको वापस पीछे की दिशा में पूर्ववत महल की ओर चलने का हुक्म हुआ। मैं राजासाहब के अंतर में पल रही उत्कण्ठा को स्पष्ट भाँप रहा था।  शाही-सवारी को बार-बार क्लब से 'राजमहल' की ओर और पुनः उसको वापस क्लब की ओर ले जाने के क्रम को तीन बार दोहराया गया। अगली बार 'शाही-सवारी' को भाईसाहब श्रीमान जगमोहनजी के समीप ला कर रोक दिया गया। राजसहिब ने बग़ैर समय गँवाये ही कार का दरवाज़ा स्वयं ही खोला और भाई साहिब के सम्मुख संभ्रममिश्रित [Bewildered] भाव से खड़े होकर अनेक प्रश्नों की झड़ी लगा दी - 'आप कौन हैं, हाव-भाव व वेश-भूषा से तो कहीं के जागीरदार या राजकुमार लगते हैं, किन्तु वोह आप हैं नहीं। क्योंकि यदि ऐसा होता तो कोई अंगरक्षक इत्यादि साथ में होते, लेकिन आप अकेले हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ। विदेश में रह कर पर्याप्त उच्च शिक्षा प्राप्त की है। आप के मुख-मण्डल पर विराजमान एक अलौकिक आभा, मस्तक की रेखाएँ और उनके परोक्ष में एक असामान्य चुम्बकत्त्व इत्यादि सभी कुछ इस बात का इशारा करते हैं कि मैं यहाँ पर एक बहुत उच्चकोटि के योगी के सम्मुख खड़ा हूँ। अपनी भरपूर कोशिश के बावजूद मैं आप को अनदेखा करके आगे बढ़ पाने में अपने आप को असमर्थ पा रहा हूँ। कृपया आप अपनी वास्तविकता का परिचय दें’ “। अब मिस्त्री साहिब सचमुच भावुक हो रहे थे। उन की आँखें नम थीं, कण्ठ रुँध रहा था। बड़ी मुश्किल से बता पाए कि किस प्रकार उन्होंने उन दोनों का परस्पर परिचय कराया।

चिरंजीव जगमोहन नरायन, मेरे एकमात्र पुत्र के रूप में मेरे साकार स्व्प्न हैं। सारे सत्संग-समाज को उनसे अनेकानेक आशाएँ हैं। अथाह शक्ति की ज्योति उनके अन्तर में निरन्तर प्रज्वलित होती रहती है। बड़ी ही सूझ-बुझ के साथ मेरे सदगुरुदेव की लगाई बाटिका को हरा-भरा रखने में वह मेरे अभिन्न सहायक भी हैं व भावी आचार्यपद की भूमिका वहन करने  के लिए सक्षम हैं, क्योंकि वह एक आदर्श साधक भी हैं। सारे सत्संग समाज के दिशा निर्देशन में वह समर्थ हैं। बाहर से आये हुए जिज्ञासुओं व साधकों की सेवा में वह ऐसे तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें अपनी स्वयं की भूख-प्यास, नींद की या अन्य सुख-सुविधाओं का ध्यान ही नहीं रहता। सत्संग के 'वार्षिकोत्सवों' व 'साधना- शिविरों' के अवसर पर तीन-तीन दिन तक दिन-रात जाग उन्हें सेवा-परायणता में तल्लीन रहते हुए देखा गया है। यदाकदा बाहर से आये हुए भाइयों के निमित्त अपने बिस्तर इत्यादि दे कर स्वयं 'टॉट' [sacking] पर रात बिताते रहे हैं पर कानोंकान किसी को भी इसकी सूचना नहीं। उनके अनेक चरित्र हैं।

संयोग की बात है कि मेरी पुत्रवधु भी निरन्तर उसकी अनुगामिनी व अभिन्न सहायिका है। कठोर कष्ट उठाकर भी भाइयों की सेवा इत्यादि में तन्मय रह कर गौरान्वित  होती रहती है।

चिरंजीव जगमोहन नरायन की दो पत्नियाँ क्रमशः उर्मिला देवी [पटियाली के ख़ुसरिया परिवार से] व दूसरी पत्नी एटा के एक समृद्ध परिवार से, जिसका नाम सुश्री जमुना देवी था, पहिले ही परमार्थगामी हो चुकीं हैं तथा यह उसकी तीसरी पत्नी [सुश्री भगवती देवी, सुपुत्री श्री मिही लाल, रईस - जलालपुर ज़िला एटा] उन्ही  की ही भाँति शील, लज्जा व सेवा की  मूर्ति है। परमात्मा इसे बनाये रक्खे। उसके अभी तक कोई सन्तान जीवित नहीं है। पहली पत्नी सुश्री उर्मिला देवी से एक पुत्री उत्पन्न हुयी थी, जिसका नाम मैंने ही बड़े चाव से 'विभा' रक्खा था किन्तु लगभग तीन माह पश्चात ही वह चल बसी।  दूसरी पत्नी से कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुयी क्यों कि विवाह के लगभग एक वर्ष के अन्दर ही उसका भी अचानक किसी अनजान बीमारी से निधन हो गया। तीसरी पत्नी [सुश्री भगवती देवी] से वर्ष 1926 में एक पुत्र हुआ व जिसका नाम चि0 गुरुदत्त  रक्खा गया। किन्तु विधाता की गति कोई नहीं जनता। मेरा यह एक मात्र पौत्र भी एक वर्ष का पूरा नहीं हो पाया और वह भी चल बसा।  ईश्वर की लीला अपरम्पार है कोई नहीं जानता न जाने कब उसकी असीम  कृपा इस  दम्पति पर हो एवं अपनी कृपा से मालामाल कर दे। 

2 comments:

  1. अत्यन्त सुन्दर लिखा गया है।

    धन्यवाद

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  2. पुरातन वंशगत इतिहास पौराणिक सुगंध के साथ विस्तार पूर्वक मृदु एवं सरस भाव एवं भाषा में लिखा गया है जो हम सबको तृप्त करती हैं क्योंकि इसके अधिकांश और उपयोगी विवरण हम सबको अज्ञात थे।

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