मानस मंथन
परम पिता जी !
यह सेवक जैसा है, आपके चरणों में उपस्थित है। इसे समझ नहीं कि आपको कैसे जानें अथवा कैसे आपकी स्तुति करें एवं आपके गुण किस प्रकार गाये जायँ। हाँ, कभी-कभी अपनी चेतना पर गर्व होता है किन्तु सत्य तो यह है कि जिसे मैं अपना ज्ञान व उपब्धि समझता था, वह सारे का सारा व्यर्थ ही प्रतीत होता है क्योंकि जब परख की घड़ी आती है तो कुछ भी काम नहीं आता। अब तक की सारी छान-बीन का परिणाम यह निकला है और यह जान पाया हूँ कि 'कुछ नहीं जाना'।
यों संसार के हर भाग में ज्ञान का मानों प्रवाह सा आया हुआ है। अनगिनत प्रकाशन ; पुस्तकों, समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं के रूप में उपलब्ध हैं। इनमें प्रस्तुत सारे-के-सारे विचार ; ऐसा प्रतीत होता है कि पाठक के मानस-पटल पर उतर रहे हैं और उनके द्वारा मानों ‘आपको’ जानने और आपकी स्तुति करने, आपका गुणगान करने का साधन प्राप्त हो रहा है। किन्तु वहाँ इनका जमाव ऐसा अव्यवस्थित होता है कि कुछ दिन अंतस की इन कोठरियों में बंद रह कर फ़िर न मालूम कहाँ से कहाँ चले जाते हैं कि याद करने पर भी याद नहीं आते। और यदि याद भी आये तो बेसिर-पैर के कि कुछ किसी उपयोग के नहीं।
ये सारे विचार और उनसे सम्बद्ध दर्शन कहाँ से आते हैं और कहाँ समा जाते हैं ? क्या ये सब आप के नाम और रूप की गूँज और दृश्य तो नहीं हैं जो आपके ज्ञान के समुद्र से लहरों के रूप में उठते और फ़िर शान्त व मंद पड़ जाते हैं ? ज्ञान-अज्ञान, प्रकाश-अंधकार, विद्या-अविद्या, जड़-चेतन, मौत-ज़िन्दग़ी, शक्ति-दुर्बलता इत्यादि जितने भी द्वैत हैं, सब आपके और आपकी माया के क्रीड़ारत उपक्रम ही तो हैं। यह संसार एक रंगमंच है। प्राणीमात्र, इसमें अपनी भूमिका के अंतर्गत पात्र हैं एवं आपस में एक-दुसरे का खेल देखने वाले और दोहराने वाले हैं। कुछ लोग क्रीड़ामग्न हैं, कुछ इन क्रीड़ाओं को देख रहे हैं और अन्यत्र कुछ लोग इन की जा चुकी क्रीड़ाओं को दोहराने में व्यस्त हैं। यह चक्र ऐसा घूम रहा है कि इसके अंत का कोई निश्चय प्रतीत नहीं होता। संभव है कि महाप्रलय से जिस 'घड़ी' का आशय है, वही इस चक्र की अंतिम गति या ठहराव का दिन हो।
जो इस दृश्य से सिधार गए, मानों वे सभी मुक्त पुरुष रहे हैं जो अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह कर अंततः थक-थका कर एक कोने में बैठ रहे। ऐसा शांत व उन्मुक्त प्रयाण कि लौट कर दोबारा पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा। एक से एक नाम वाले ऐसे अनाम व विलीन हुए कि किसी की स्मृति भी शेष नहीं रही। क्या हुआ कि उँगलियों पर गिने-गिनाये कतिपय महापुरुष, ऋषि, मुनि, पीर, पैग़म्बर, अवतार, औलिया के रूप में आज भी अपनी झलक दिखला देते हैं।
यह छायारूपी नाम और रूप, जब तक निजीप्रकाश शेष है, स्थित रहेगा। यों छाया तो छाया ही है। वर्तमान का यह व्यक्तित्व, किसी पहले हो चुके व्यक्तित्व का प्रतिरूप तो अवश्य ही है। यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार चले कि अपने आप को अपने पिता की छाया या प्रतिरूप मान ले और अपने पिता को अपने दादा की, और इसी क्रम के सहारे अतीत में पीछे सरकता चला जाय, यहाँ तक कि उसको प्रतिरूप व छाया का क्रम समाप्त होता प्रतीत होने लगे और आधार मात्र के सिवाय कुछ समझ में न आये तो संभव है कि उक्त बिंदु, अंततः उस व्यक्ति का उद्गम स्थल हो।
हे परमात्मन ! यह सेवक भी ऐसे ही कितने, एक के बाद एक हो चुके व्यक्तित्वों के प्रतिरूपों का प्रतिरूप हो कर और अंततोगत्वा सत्पुरुष की किसी स्थिति के सत्य-रूप का प्रतिरूप और सत्यमार्ग के प्रारूप की सम्मिश्रित भूमिका बन कर आप की आशा-अपेक्षा के अनुकूल अपने दायित्व को निभाने का प्रयत्न कर रहा है। आप सबके ह्रदय को जाननेवाले हैं, इसलिए आप पर ही छोड़ता हूँ कि आप स्वयं निर्णय लें कि 'सेवक' अपनी भूमिका निभा पाने में कितना सक्षम है, एवं उसके द्वारा खेला गया खेल कितना सत्यार्जित अथवा कितना अन्यथा है, यदि वह किसी का प्रतिरूप है तो सत्पुरुष की किस स्थिति का सत्यरूप है ? मेरा दृढ़ विश्वास है कि आप की दया और कृपा की लहरों ने आप से दूर पड़े हुए इस शरीर को चारों ओर से इस दुनियां में पहले ही दिन से संरक्षण प्रदान किया, सत्यप्रकाश की प्रथम किरण मुझ पर मेरी परमभक्ता माँ की पवित्र गोद में डाली गयी तथा इस दिव्यप्रकाश की ऊष्मा में मुझे सात वर्ष तक पालित-पषित होने का सौभाग्य मिला।
हे परमदयालु ! आपकी असीम अनुकम्पा ने मुझे अधिक समय तक अपनी दिव्यधारा के प्रवाह से विलग नहीं रक्खा और अंततः, मेरी आयु के उन्नीसवें वर्ष के एक पावन दिवस को दया की साक्षात-मूर्ति, सत्यपथ के प्रदर्शक और ज्ञान-विज्ञान के दिव्यदीप को मेरे पथप्रदर्शक के रूप में भेज दिया एवं उन्हें मेरा सर्वस्व समर्पित करा दिया। इस सच्चे पथप्रर्दशक ने पहले ही दिन मेरे कान में यह मन्त्र फूँक दिया - "तेरा सत्य-रूप प्रारम्भ से ही सुपथ पर अग्रसरित है अतः तू अपने आप को स-आशय, सत्पुरुष का प्रतिरूप हो कर सत्य को सत्य करके दिखला। प्रतिरूप प्रक्रिया को सत्पुरष के ध्रुवपद तक पहुँचने का दिव्यमार्ग बना। अपनी भूमिका का निर्वाह करने में 'माया' को अपनी आवशयक सामिग्री बना किन्तु सहारा मात्र 'सत्यपद' का ही ले।"
मेरे पथप्रदर्शक ने ऐसा संकेत दे कर मुझे, मात्र मेरे ऊपर ही नहीं छोड़ दिया किन्तु स्वयं छाया की भाँति हर समय साथ रह कर सोलह वर्ष तक अपनी विशेष आतंरिक व वाह्य कृपा से मेरी देख-भाल की। पंथ के बाहरी आडम्बरों से विलग रहने के लिए प्रतिपल प्रेरित किया व अंततः अपने ही रंग में रंग कर यह आदेश दिया कि उनका 'दिव्यसंदेश' जिस तरह और जहां तक हो सके भू-पटल पर ऐसा बिखेर दे कि कोई भी प्राणी उससे अछूता न रहे। आपका निर्देश था कि गिरे हुए जीवों और भूले-भटके दुखी संसारियों को उभारा जाय और उनकी आतंरिक स्थिति को शक्ति [power] दी जाय। आपका अभिप्राय यह था कि जब तक व्यक्तियों की आतंरिक स्थिति न सुधारी जायेगी, उनमें जागृति न आ पाएगी, आत्मसाक्षात्कार न होगा तथा तब तक उनका बौद्धिक-स्तर ज्यों का त्यों बना रहेगा और जीव, अनेकों विकारों के मध्य दबा पड़ा रहेगा अर्थात किसी प्रकार के विकास की संभावना नहीं होगी। इस प्रकार आपने इस बात पर ही बल दिया कि जहाँ तक बन सके 'आतंरिक-अभ्यास' किया व कराया जाय और इसके साथ-साथ धार्मिक सिद्धांतों, यम-नियम, आसन, ध्यान-धारणा इत्यादि का कठोरता से पालन करते हुए चरित्र का सही दिशा में निर्माण किया जाय। अध्यन-अनुशीलन व स्वाध्याय से भी समय-समय पर लाभ उठाया जाय। आप का मत था कि 'आतंरिक-अभ्यास' करने वालों का 'सत्संग' किया व कराया जाय जिससे चरित्रगठन व समाज के विकास का मार्ग सुलभ हो सके। इसके विपरीत यदि संसार के उन सम्प्रदाइयों, पन्थाइयों का प्रतिरूप उतारा जाएगा जो पुस्तकों से पूर्वजों की उपलब्धियों को सुन-सुना कर संतोष प्राप्त करते हैं और किसी प्रकार का 'आतंरिक-अभ्यास' नहीं करते ; तथा जिनका 'सत्संग' थोड़ी देर पुस्तकों का पाठ करना भजन या कीर्तन करके 'शब्दों' को गा कर अपने चित्त को बहला लेना होता है तो अभीष्ट सिद्ध न होगा।
अब मेरे प्रेमीजन थोड़ी देर इस बात पर ध्यान दें और विचार करें कि उपर्युक्त निर्देश मेरे पथप्रदर्शक ने मुझे दिए, उनकी आशा-अपेक्षाओं पर आधारित सिद्धांतों का किस स्तर तक अनुपालन हो रहा है। दुनिंयाँ के लोग चातक-नाटक, ऊपरी खेल-तमाशों और माया की झलक के भूखे हैं। उनके लिए केवल 'आतंरिक-अभ्यास' तक सीमित रहना एक भारी बोझ है। पुरानी आलसी आदतों को छोड़ कर धर्म-सम्बन्धी अनुशासन का पालन करना इतना बोझिल काम हो गया कि एक पग उठाना भी दुःसह्य है। यही कारण है कि हमारे प्रेमिओं की संख्या बहुत थोड़ी है। जो हैं वे गिरते-पड़ते-भागते और मुहँ छुपाते दिखलायी देते हैं। कितने भाग गए और जाने कौन-कौन भागने को तैयार हो रहे हैं। फ़िर भी यह थोड़ी से संख्या जो अभी तक शेष है वे कितने निष्ठावान व आतंरिक-रूप से कितने भरे-पूरे हैं। इसका निर्णय वे ही कर सकते हैं, जो स्वयं 'अंतर' के अभ्यासी हैं। क्या कारण है कि हमारी यह संस्था इतना समय व्यतीत हो जाने के बाद भी अभी तक जिज्ञासुओं के मध्य अपना उचित स्थान प्राप्त न कर सकी, न इसे उचित प्रसिद्धि प्राप्त हो सकी, न इसकी कोई लिखित नियमावली है, न कोई 'कोष' [funds] है तथा न ही इसकी कोई आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि है। इसका एक कारण तो यह प्रतीत होता है कि अब तक परंपरा के आप्तजनों की वाणी और संदेशों की आस्था के प्रति अव्यवहारिक कट्टरता रही है तथा लेशमात्र भी संशोधन या 'हेर-फेर' करना दुःसाहस समझा जाता रहा है। किन्तु अब ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि मेरे प्रेमी व संस्था के अन्य सदसय-गणों में से पर्याप्त संख्या में व्यक्ति, यह चाहते हैं कि 'माया' के स्थूल रूप की आकृति को भी इस परंपरा के 'सत्संग' में स्थान दिया जाय तात्पर्य यह है कि परंपरागत मूक संदेशों और अपेक्षाओं को नियमबद्ध किया जाय तथा पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकट व प्रस्तुत किया जाय।
'सेवक' का विचार अब तक यह था [और अब भी है] कि प्राचीन आर्ष ग्रन्थ, संत-महात्माओं के अनुभव व वाणियाँ, उपनिषद्, गीता, रामायण, रामचरितमानस, और संत कबीर साहिब के 'शब्द', साखी और रमैय्या, गुरुनानक साहिब के ग्रन्थ, हाथरस वाले संत तुलसी साहिब की 'घट रामायण' शब्दावली, परमसंत रायसाहिब सालिगराम के पत्र और कुल्लियात, महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थ, स्वामी विवेकानंद जी और स्वामी रामतीर्थ जी के उपेश इत्यादि से सम्बंधित पुस्तकें इस मार्ग के जिज्ञासुओं के निमित्त पर्याप्त है। यदि किन्हीं महानुभावों को ये पुस्तकें अपने चित्त पर उतारने में कठिनाई होती हो अथवा वे इन आर्ष ग्रंथों की आत्मा तक पहुँचने में असमर्थ हों, तो उनके लिए महर्षि शिवव्रत लाल जी ने महान कृपा करके कुछ पुस्तकें साधारण भाषा में लिखीं हैं ; जो सीधे साधकों के लिए उपयुक्त हैं तथा भाषागत कठिनाइयाँ भी उनमें नहीं हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि जब ऐसे-ऐसे रत्न उपलब्ध हैं तो नयी कृतियोँ के सृजन का अहम् और मोह क्यों पीछा नहीं छोड़ता प्रत्युत यह लालसा दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ती ही जाती है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जीवन की वर्तमान विषमताओं और दुर्बलताओं में उपर्युक्त उच्च कृतियाँ यथासम्भव सरल होते हुए भी दुरूह सी प्रतीत होतीं हैं तथा जनमानस और भी सहजमार्ग की अपेक्षा करता है। जिज्ञासा, मानव का प्राक्रतिक गुण है। निरंतर कुछ-न-कुछ जानने, नए प्रयोग करने एवं नए अनुभवों को प्राप्त करने की प्रक्रिया भी मानव का ही स्वभाव है। यों एक बार किसी प्रक्रिया के अनुभव के उपरांत फ़िर पुनः उसमें वैसी जिज्ञासा शेष नहीं रहनी चाहिए किन्तु यह सदैव आवश्यक नहीं होता कि एक बार की गयी किसी प्रक्रिया में कुछ उपलब्धि हो ही गयी हो। इस प्रकार सतत प्रयोगशीलता बनी ही रहती है।
फ़िर कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं कि जिनके माध्यम से जो दर्शन पाठकों को उपलब्ध होता है उसका पूरा-पूरा लाभ उनको नहीं मिल पाता। इसका एक कारण यह है कि जो 'विचार' या 'दर्शन' उसमें निहित होते हैं वे लेखकों के अनुभवों के आधार पर उनके अपने निजी न हो कर कहीं से सुने-सुनाये हुये होते हैं या मानक-ग्रंथों की भ्रांतिपूर्ण प्रस्तुति होती है। कभी-कभी उनके उद्देश्य, जनसाधारण के निमित्त कल्याणकारी मार्ग की उपलब्धि न होकर अन्यथा विभिन्न प्रकार के निहित स्वार्थ हुआ करते हैं। यही कारण है कि ऐसी पुस्तकों व प्रकाशनों से जिसमें अच्छी भाषा, छपाई इत्यादि कितने भी आकर्षण होते हुए भी, जितना लाभ जिज्ञासुओं और साधकों को मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता।
अपने अंतर में मैं अभी तक विचारों के इस तूफ़ान को दबाये रहा हूँ। मेरे प्रेमी भाइयों की व्यग्र दृष्टियाँ मेरे ऊपर पड़ीं, और उनका अनुरोध हुआ कि उपर्युक्त कठिनाइयों को दृष्टिगत रखते हुए मैं भी लिखूँ।उन्हीं के चिरस्नेही मौन निमंत्रण पर 'दिव्य क्रान्ति की कहानी' अपनी आत्मकथा के रूप में आपके करकमलों में प्रस्तुत है। यों मुझे एक आशंका ने इस प्रयास के लिए अपनी ओर से भी प्रेरित किया है और 'आत्मकथा' की शैली अपनाने के लिए आग्रह रहा। वह आशंका रही है, मेरे प्रेमी-भाइयों की अपार श्रद्धा और भक्तिजन्य असामान्य धारणायेँ, जिनके परिप्रेक्ष में भविष्य में कहीं वे मुझे देवता न बना दें, मेरी मानवीय दुर्बलताओं, जनसामान्य जैसी साधारण लालसाओं को कहीं ओझल न कर दें, मुझे कहीं अवतारी पुरुष न सिद्ध करने लगें जैसाकि प्रायः हुआ करता है जिससे साधारण साधक निराश हो जाता है और अपनी दुर्बलताओं से हताश होकर साधन-मार्ग से ही विमुख हो जाता है।
मेरी चेतना पूर्ण स्वस्थ है। फ़िर भी मेरी शैक्षणिक योग्यता इतनी परिपक्व नहीं कि कोई त्रुटिशून्य रचना आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ। इसमें भाषागत व अन्य तकनीकी त्रुटियाँ रहना स्वाभाविक है तथा अन्यत्र कहीं-कहीं ढेर सारे असंगत प्रसंग भी आपको मिलें क्योंकि मैं इस कला में प्रवीण नहीं हूँ।
इस कार्य में अपनी अह्यमन्यता की तुष्टि का मेरा लेशमात्र भी प्रयास नहीं है, अपने स्वजनों, गुरुभाइयों व जिज्ञासुओं की सेवा के प्रयास स्वरूप ही मेरी यह रचना है। अतः अनेकों भूलों - त्रुटियों एवं असंगतियों पर मुझे लाज नहीं है।
आप प्रभु को प्रिय हैं। आपकी प्रार्थनाओं में जीवन है। उन्हीं प्रार्थनाओं के मध्य, भूले-बिसरे, कभी एक घड़ी मेरे लिए भी आप रखने की कृपा कर सकें, यही इस रचना से मेरी अपनी अपेक्षा है और यही मेरी कामना है।
"जमाले हमनशीं दरमन असर क़र्द।
वगर्ना माहुमा खाकम कि हस्तम।।"
[मेरे प्रियतम के जमाल ने मुझमें असर कर दियावरना मैं तो वही खाक़ का पुतला जो पहले था, वह अब भी हूँ ।
निरन्तर आपका सेवक,
- फ़क़ीर राम चन्द्र
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