मेरे पूर्वज
- "माता होती बड़ी भूमि से,
- पिता स्वर्ग से उच्च महान।
- यही सोच कर श्री गणपति ने
- की प्रदक्षिणा तज अभिमान।।
- एक दन्त गजबदन चतुर्भुज
- गणनायक विश्वेश सुजान।
- आदि पूज्य बन गए
- तभी से मंगलमय सुखप्रद भगवान।।"
मेरे पूज्य पिताजी। ऐसा सम्बोधन मैंने अनेकों बार, सद्गुरु कृपा से, अपने प्रभु के लिए भी किया है किन्तु न जाने क्यों आज अपने अंतर में एक ऐसी सुखद अनुभूति के दर्शन कर रहा हूँ जिसका वर्णन करने में ह्रदय के उद्गारों एवं भाषागत शब्दों में असंगति का बोध होता है। मेरे पित्ररत्न, मेरे जनक, मेरे ईश्वरतुल्य पिता स्वर्गीय चौधरी हरबख़्श राय जी ‘अधोलिया’, जिनका रक्त आज भी मेरी धमनियों में एक अनकहे व्यक्तित्व की कहानी कहते नहीं थकता, उन्हीं की सुखद कल्पना का मैं आकार हूँ, उन्हीं के स्वप्न का मैं सुफ़ल हूँ। मेरा अस्तित्व उन्हीं की पुत्रप्राप्ति की कामना* का प्रसाद है।
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THREE BIRTHS:
AITAREYA UPANISHAD
[Chapter II]
o1. "puruse ha va ayam adito garbho bhavati, yad etad ratas tad etad sarvebhyas' ngebhyas tejah sambhutam,atmany evatmanam vibharti, tad yatha striyam sincaty athainaj janayati, tad asya prathamam janma."
Explanation by Dr. S. Radhakrishnan : "In a person, indeed, this one first becomes an embryo. That which is semen is the vigour come together from all the limbs. In the self, indeed, one bears a self. When he sheds this in a woman, he then gives it birth. That is its first birth."
02. "tat striyd atmabhuyam gacchati, yatha, svam angam tatha, tasmad enam na hinasti sasyaitam atmanam atra gatam bhavayati."
Explanation by Dr. S. Radhakrishnan : "It becomes one with the woman, just as a limb of her own. Therefore it does not hurt her. She nourishes this self of his that has come into her."
03. "sa bhavayatri bhavayitavya bhavit, tam stri garbahm vibharti, so'bra eva kumaram janmano'gre'dhi bhavayati, sa yat kumaram janmano'gre'dhibhavayaty atmanam eva tad bhavayaty esam lokanam smitatya evam smtata hime lokah, tad asya dvitiyam janma."
Explanation by Dr. S. Radhakrishnan : "She being the nourish-er, should be nourished. The women wears him as an embryo. He nourishes the child before birth and after the birth. While he nourishes the child before birth and after the birth, he thus nourishes his own self, for the continuous of these worlds; for thus are these worlds continued. This is one's second birth."
04. "so'syayam atma punyebhyah karmabhyah pratidhiyate, athasyayam itara atma krta-krtyo vayo-gatah pariti, sa itah prayann eva punar jayate, tad asya trtiyam janma. tad uktam rsina."
Expiation by Dr. S. Radhakrishnan : "He [the son] who is one self of his [father] is made his substitute for [performing] pious deeds. Then the other-self of his [father's] having accomplished his work, having reached his age, departs. So departing hence, he is, indeed, born again. This is his third birth. That has been stated by the seer."
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मेरी माँ की भाँति वह भी रामायण के भक्त थे। वह एक निष्ठावान कर्मयोगी एवं सच्चे अर्थों में कर्तव्यनिष्ठ थे। न जाने कितनी ही आसक्त कल्पनाओं के मध्य मेरा नाम उन्होंने 'राम चन्द्र' रक्खा होगा। संभवतः भगवान राम के मर्यादापुरुषोत्तम चरित्र की आकांक्षा मुझ से भी उन्होंने की होगी। गोस्वामी तुलसीदास जी की वाणी वह यदाकदा दोहराया करते थे -
" धन्य जनमु जगती तल तासू। पितहिं प्रमोदु चरित सुनि जासू।।
चारि पदारथ करतल ताके। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाके।।"
[इस संसार में उसी का जन्म धन्य है जिसके चरित्र को सुन कर पिता को आनंद हो। उस पुत्र के हाथों में चारो पदार्थ सुलभ समझने चाहिए जिसको माता और पिता प्राणों के समान प्रिय हों।]
अपने अभीष्ट की प्राप्ति में साधना-रत मैंने आजीवन अपनी जीवन-यात्रा में पिताजी की उपर्युक्त कामना को निरंतर अपने साथ पाथेय के रूप में पाया। यही कारण था कि जीवन-संग्राम में मैं कभी थका नहीं।
वे मेरे दशरथ और मैं उनका राम। मेरी प्रत्येक हठ को, मेरी प्रत्येक लालसा को, उचित अनुचित का विचार न कर निरंतर पूरा करते हुए आजीवन उन्होंने मुझे 'राजकुमार' बनाये रक्खा। और मेरी माँ, परमभागवत, परमभक्ता थीं। मेरी दृष्टि में वे मीरा भी थीं और सहजोबाई भी। प्रभु के प्रेम में छकी हुयी, प्रभु के आलिंगन में डूबी हुयी, प्रभु के रूप में भूले हुए उनके दर्शन हुए, मुझे गर्व है माँ के चिरस्नेही स्वरुप पर। उनके अपार वात्सल्य-प्रेम के कारण जीवन में प्रतिक्षण मैं यह अनुभव करता रहा कि मैं ममतामयी जननी के अंक में हूँ, वह मुझे सदा अपनी छाती में चिपकाए हैं और आँचल से ढांके हुए हैं, संसार की कुदृष्टि मुझ पर नहीं पड़ सकती। इतने दिन हो गए उनकी छवि ज्यों की त्यों अंतरमन में आज भी सजीव दृष्टिगोचर है।
‘रामचरितमानस’ का वह नित्यप्रति, सभाव पाठ करतीं। जब वे भावविभोर हो अपनी साधना में मग्न होतीं, हम दोनों भाइयों को सामने बिठा लेतीं। अपने प्रभु को नित्य नए चरित्र सुनाते हुए उनकी अविरल अश्रुधाराएं प्रवाहित होतीं जो हम दोनों भाइयों के मानस-पटल पर ऐसा गहरा प्रभाव छोड़तीं कि प्रभु से निकटतम संबंधों की स्थापना हो जाती और फलस्वरूप ऐसे संस्कार हमारे हृदयों पर अंकित हुए और ऐसे भक्तिभाव के अंकुर उगे जो सैकड़ों और हज़ारों वर्षों की तपस्या और योग-साधना के फलस्वरूप भी दुर्लभ थे। माँ की इस महान कृपा से मेरे सर्वस्व, मेरे स्वामी एवं मेरे पथप्रदर्शक प्रथम दृष्टि में ही अवगत हुए। प्रेमोद्गार में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सद्गुरुतत्व के प्रथम दर्शन मैंने अपनी माँ में किये हैं। फ़िर भी न मैं श्रवणकुमार बन सका न नचिकेता। मैं जैसा जो कुछ भी हूँ उन्हीं के पुण्-यप्रतापों का प्रतिफ़ल हूँ और उन्हीं के सहारे टिका हुआ हूँ। उनकी श्रद्धांजलि में मेरा सर्वस्व भी अर्पण हो जाय तो भी मैं उऋण नहीं हो सकता। अविस्मरणीय थे वे क्षण, पुनः ऐसा भाव जगे न जगे, एक दीप इनके भी नाम।
मेरी वंशावली व मेरे पूर्वजों का इतिहास बहुत पुराना है। मेरी माँ ने जैसा कुछ मुझे बताया आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। देहली प्रदेश के निकटस्थ ही कहीं 'अध्योली' गांव है - यही हमारे पूर्वजों का निवास था, इस स्थान के नाम पर हमारी 'अल्ल' [sub-division of a community = family line ] - 'अध्योलिया' पड़ी। जो भी वंशावली उपलब्ध हो सकी उसके अनुसार हामारा वंश चौधरी मंतोखराय से प्रारम्भ होता है। कहते हैं कि तत्कालीन मुग़ल सम्राट अकबर ने उनकी वीरता, कर्तव्यनिष्ठा व कार्य-कुशलता से प्रसन्न एवं प्रभावित हो कर ससंपत्ति 555 गाँव व 'चौधरी' की उपाधि प्रदान की। यह पूरा क्षेत्र आज संयुक्तप्रदेश [अद्यतन - उत्तर प्रदेश] के ज़िला मैनपुरी के ‘भोगावं’, व इसके चारों ओर स्थित है, जो उन दिनों ‘भूमिग्राम ‘कहलाता था, बाद में बिगड़ कर उसका नाम भोगावं पड़ा। चयधरी मंतोखराय के तीन पुत्र हुए -
[01] श्री सेवाराम,
[02] श्री भुवनदास,
[03] चौधरी हेम चन्द्र।
इन्हीं तीसरे पुत्र चौधरी हेम चन्द्र से हमारी मुख्य वंशावली की शाखा निकली।
हमारे पूर्वजों की वंशावली के अनुक्रम में चौधरी नरपर राय, चौधरी हुलास राय, चौधरी मक्खन लाल व चौधरी चुन्नी लाल हुए, जो हमारे परदादा थे। चौधरी चुन्नी लाल जी के पुत्र चौधरी बृंदावन लाल थे, जो हमारे दादाजी थे। मेरे पिताजी - दो भाई थे [01] चौधरी हरबख्श राय व [02] चौधरी उल्फ़त राय। दोनों भाइयों के दो-दो संतानें हुईं - हमारे पिताजी के हम दो भाई ; मैं राम चन्द्र व मेरे छोटे भाई, श्री रघुबर दयाल [नन्हें] व मेरे चाचाजी, चौधरी उल्फ़त राय जी के भी दो ही पुत्र हुए - श्री राम स्वरुप व डॉ कृष्ण स्वरुप [दोनों मेरे चचेरे भाई]। मेरे पिताजी दोनों भाइयों में ज्येष्ठ थे। उनके पर्याप्त लम्बे समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुयी थी अतः अपने छोटे भाई [चौधरी उल्फत राय] के आग्रह पर उनके बड़े बेटे श्री राम स्वरुप को गोद ले लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम क्रान्ति हुयी जिसकी लपटों की चपेट में उक्त भूमिग्राम क्षेत्र भी आया। फलतः हमारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। हमारे पूर्वज, आसपास या दूर, जहाँ जिसे स्थान मिला, बस गए। मेरे पिताजी भी फर्रुखाबाद आ कर बसे व नौकरी करने लगे। यहीं पर चुंगी के अधीक्षक पद पर वह नियुक्त हुए। वह आजीवन यहीं रहे। वह बताया करते थे कि अपनी सेवा-काल में उन्हें पूरे क्षेत्र की 'जनगणना' का एक अतिमहत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट दिया गया था जिसका निर्वाह उन्होंने पूरी तल्लीनता व ईमानदारी से संपन्न कराया। शासकों को वह इतना परिशुद्ध लगा कि बाद में अन्य क्षेत्रों में कराये गए इसी प्रोजेक्ट [जनगणना] के लिए आधार और आदर्श बनाया गया ।

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