Wednesday, 8 January 2020

11. वात्सल्य विभा

                                          वात्सल्य विभा 


जब मैं [राम चन्द्र] अपनेवर्त्तमान स्वरुप में नहीं था, कहीं न कहीं मेरा अस्तित्व अवश्य ही पल रहा था। जिस प्रकार दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब सपष्ट दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार इस मनुष्य-देह में ही आत्मा के दर्शन होना संभव होता है और यदि जीवन रहते हुए ही शरीर का पतन होने से पूर्व ‘साधक पुरुष’ ऐसा न कर सका अर्थात उस सत्पुरुष के ध्रुवपद को न प्राप्त कर सका, ब्रह्म को न जान सका, उसमें स्थित न हो पाया तो सृष्टव्य प्राणियों की रचना की श्रेणी में आ जायगा, पृथ्वी आदि लोकों में शरीरत्व भाव को प्राप्त होने के क्रम में आ जायगा तथा शरीर ग्रहण कर लेगा। मेरे प्रभु की यही व्यवस्था है। प्रभु के दया और प्रेम के इस उन्मुक्त प्रवाह से अनेकों जन्मों में भी मेरा साथ नहीं छूटा। यह मेरे प्रभु का ही निमंत्रण था कि मेरे पिताजी का मन भी क्षुब्ध हो उठा -


  • "एक बार भूपति  माहीं। भै गलानि मोरे सुत नाहीं।।"

जहाँ मैं और मेरा सारथी, दोनों अपने भावी शरीर-रूपी रथ को पाने के लिए लालायित थे, मेरे जनक भी मुझे पाने के लिए व्यग्र व बेचैन थे।

मेरे पूज्य पिताजी सर्ववैभवसंपन्न थे। माना कि पूर्वजों की भोगविलासीय प्रवृत्ति से पर्याप्त संपत्ति नष्ट तो चुकी थी, फ़िर भी इतना धन अभी शेष था कि वह स्वयं अपना एवं अपनी पतिपरायणा व ईश्वर-भक्ता पत्नी का निर्वाह सुख-सुविधा पूर्वक कर सकते थे। मैंने अपने स्वजनों  से यह भी सुना कि पड़ोसी मैनपुरी के राजा से हमारे पूर्वजों की किसी बात को ले कर यों ही तना-तनी हो गयी थी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह विद्वेष निरंतर बढ़ता ही गया। 'लड़ाइयाँ' भी हुईं। भोगांव वाले अपना बड़प्पन बखानते हुए अभी भी कहते हैं कि एक सशस्त्र लड़ाई में हमने मैनपुरी के राजा को हरा दिया था और प्रमाणस्वरूप उनके क़िले का एक फाटक उखाड़ लाये थे जो अभी भी सुरक्षित रख छोड़ा गया है। इस प्रकरण को ले कर न्यायलयों में 'वाद' प्रस्तुत हुए। कहते हैं हमारे पूर्वज इसमें हार गए व भारी धनराशि दण्ड-स्वरुप उन्हें देनी पड़ी। कहने का तात्पर्य है कि इन तमाम क्षतियों के उपरांत भी आर्थिक-स्थिति पर्याप्त अच्छी थी। ज़मीदारी के वैभव व मान-मर्यादा के अतिरिक्त, पिताजी 'चुंगी' में अधीक्षक के जिस पद पर आसीन थे, उसका भी उन दिनों बड़ा मान-सम्मान था तथा अँगरेज़ अधिकारियों की दृष्टि में भी उसका समादृत स्थान था। हमारा कुटुम्ब व बिरादरी भी बड़ी थी। इसमें भी अभी उनका राजा-तुल्य मान व आदर था।

अनेकानेक सुख-सुविधाओं के साधन व मान-मर्यादा की उपलब्धि के होते हुए भी पिताजी के निर्मल मन को निरंतर एक बात कचोटती रहती कि उनके कोई संतान नहीं थी। दशरथ की भाँति यदि उन्हें भी सद्गुरुतत्व की उपलब्धि हो चुकी हुयी होती तो मेरी आत्मकथा में भी गोस्वामीजी की यह पँक्ति दोहराई जा सकती थी -


  • " धरहु धीर होइहहिं सुत चारी।"

और तुरंत ही शृङ्गी ऋषि को बुलावा कर उनसे विधिवत पुत्रकामेष्टि शुभ-यज्ञ कराया जाता।

वशिष्ठजी जैसे समर्थगुरु तो उन्हें प्राप्त नहीं थे और न ही शृङ्गी ऋषि जैसे याज्ञिक, फ़िर भी उनकी धर्मपत्नी जो पतिपरायणा तो थीं ही, ईश्वर की निरंतर व परमभक्ता भी थीं, स्वयं ही याज्ञिक बनी।

 प्रसंगवश एक बात और भी। मुझे गर्व है, अपनी जन्मभूमि फर्रुखाबाद पर जो आदिकाल से ही ऋषिकुल एवं ईश्वर-भक्तों की भूमि रही है।





 यहाँ तत्कालीन कपिलमुनि का आश्रम है। साथ ही 'कम्पिल' है। जहाँ 'जैन' भाइयों का तीर्थस्थल है। पास ही संकिसा है। भगवान बुद्ध की कहानी में इस स्थल की महत्वपूर्ण भूमिका बतायी जाती है। यहीं इसी क्षेत्र में राजा द्रुपद का क़िला है जिसके अवशेष अब भी उपलब्ध हैं। मैंने भी देखे हैं। यहीं पास एक ऐतिहासिक तालाब था, 'रुद्रायण'। 'रुदायन’, अद्यतन एक ग्राम, रेलवेस्टेशन भी है उसी का अपभ्रंश है। कहते हैं महाभारतकाल में राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी का स्वयंबर यहीं पर रचा गया था। अर्जुन ने अपनी असाधारण धनुर्विद्या का परिचय, ऊपर ऊँचे बाँस में टंगी मछली की परछाईं को नीचे रक्खे तेल-भरे पात्र में देख कर, उस पर सफलतापूर्वक निशाना लगा कर दिया था और इसी प्रकार उन्होंने यहाँ द्रोपदी का वरण किया था। यहीं पास 'जिजौता' नाम का एक ग्राम है। यह 'यज्ञौटा' का अपभ्रंश है। यहीं पाण्डवों ने यज्ञ किया था। इसके अतिरिक्त आस-पास और भी स्थल हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से कुछ दूर पर ही 'कन्नौज' है। यहीं पास ही विश्वामित्र का आश्रम है। कन्नौज से फतेहगढ़ आने वाली सड़क पर 'काली'  नदी के दोनों ओर दो महान ऋषियों के आश्रम थे। एक ओर उद्यालक ऋषि का आश्रम था। कठोपनिषद यहीं पर लिखा गया तथा मूँज से सींक निकाल कर 'अंगुष्ठ मात्र' पुरुष [अंतरमात्मा] का प्रायोगिक ज्ञान भी यहीं पर किया व कराया गया। नदी के दूसरी और श्रृंगीऋषि का ऐतिहासिक आश्रम था। उन्हीं के नाम पर यहाँ पर बसी बस्ती का नाम 'श्रंगीरामपुर' पड़ा।

अनायास ही यह संयोग बन पड़ा कि इसी 'श्रंगीरामपुर' में एक महान संत उन दिनों निवास किये हुए थे। इन महापुरुष का आना-जाना फर्रुखाबाद भी हुआ करता था। संयोगवश एक दिन यह महापुरुष हमारे पड़ोस में ही कहीं पधारे हुए थे। हमारी पूज्या माताजी भी, चाचा चौधरी उल्फत राय जी के साथ उक्त संत के दर्शनार्थ व सत्संग के लाभार्थ वहाँ गयीं। संतप्रवर उस समय कबीर साहिब की साखियों की व्याख्या कर रहे थे। माताजी को उसमें इतना आनन्द आया कि अपनी सुध-बुध खो बैठीं और अपार आनन्द विभोर हो गयीं। आँखों से प्रेम-अश्रु-धारा प्रवाहित होने लगी। एक रमणीय-समाधि जैसी स्थिति की सुखद अनुभूति में वह कुछ देर खोयीं रहीं। कुछ देर बाद आँखें खोलीं। एक अद्भुत आनन्द  का समुद्र लहरा रहा था। 'सत्संग' की समाप्ति पर जब वह घर चलने लगीं तो संतजी महाराज ने उनके सिर पर हाँथ रख कर आशीर्वाद दिया - "बेटी जाओ, परमात्मा करे फूलो-फलो और प्रभु तुम्हें अपने प्रेम से मालामाल कर दे।" इस आशीर्वाद ने अपना असर दिखाया। जैसे-जैसे दिन बीतते गए उनकी आत्मिक उन्नति होने लगी और ईश्वर-प्रेम दिनोंदिन बढ़ता गया -"रोम रोम नखसिख सब निरखत ललकि रहे ललचाय।" वाली मीरा उनमें प्रवेश करने लगीं।

यह शरीर 'पुर' [नगर] के सामान होने से 'पुर' कहलाता है। द्वारपाल और अधिष्ठाता आदि अनेकों 'पुर' सम्बन्धी व्यवश्था होने के कारण शरीर - 'पुर' है और जिस प्रकार सम्पूर्ण व्यवस्था सहित प्रत्येक 'पुर' अपने से असह्रत [बिना मिले हुए] स्वतंत्र स्वामी के उपयोग के लिए देखा जाता है, उसी प्रकार 'पुर' की सदृश्यता में यह अनेक व्यवस्था-संपन्न शरीर भी अपने से पृथक राजस्थानीय अपने स्वामी [आत्मा] के लिए होना चाहिए।

यह 'शरीर' नामक 'पुर' ग्यारह द्वारों वाला है। दो कान, दो आँख, दो नासारन्ध्र और एक मुख ; इस प्रकार सात मस्तक सम्बन्धी व तीन - नाभि, शिश्न और गुदा निम्नदेशीय तथा ब्रह्मरंध्र, सिर में स्थित, इस प्रकार इन सभी द्वारों से युक्त होने के कारण यह 'पुर' एकादश द्वार वाला है।
  • "पुरमेकादशद्व्वारामजस्यावक्रचेतसा
  • अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्च्यते।। एत द्वैतत।।"
  • कठ - 02/02/01

यह आत्मा का पुर है। और वह आत्मा गमन करने वाला है, आकाश में चलने वाला सूर्य है, बसु है, अंतरिक्ष में विचरने वाला सर्वव्यापक वायु है, वेदी [पृथवी] में स्थित होता अग्नि है, कलश में स्थित होता सोम है। इसी प्रकार वह मनुष्यों में गमन करने वाला है, आकाश, जल, पृथ्वी, यज्ञ और पर्वतों में उत्पन्न होने वाला तथा सत्यरूप और महान है।


मेरी ममतामयी जननी, मेरी माँ निरंतर सत्यरूप अपने प्रभु में लय होतीं जा रहीं थीं। उनकी उपासना, उनकी भक्ति, उनका तप ऐसे थे जिससे वह स्वयं भी प्रकाशित होतीं एवं अपने स्वामी को भी जिसके रस में निरंतर आनन्द-विभोर रखतीं।

भगवान् कृष्ण गीता के नवें अध्याय, श्लोक - 29 में कहते हैं -

"ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम" - “जो भक्त मेरे को भक्ति से भजते हैं वे मेरे हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।”  जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्याप्त हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ परमेश्वर भी भक्ति से भजने वालों के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है।


प्रभु के प्रताप से ऐसा संयोग हुआ कि एक कम्बलधारी अवधूत उन दिनों फर्रुखाबाद आये। उनका विशेष परिचय कोई नहीं जानता था क्योंकि न उन्हें इससे पहले किसी ने देखा था न उसके बाद किसी के देखने में आये। मानों अपने पूर्वनिहित कार्यक्रमानुनासर वह उस गली से निकले जहाँ हमारा मकान था। अनायास ही उन्होंने हमारे द्वार  पर दस्तक दी और भोजन की इच्छा प्रकट की। मेरी माताजी ने सादर उन्हें नमस्कार किया व पूरी, मिठाई इत्यादि जो उपलब्ध था, अत्यंत आदर-भाव से प्रस्तुत किया। इसे ग्रहण करने से पूर्व ही उन्होंने 'मच्छली' खाने की इच्छा प्रकट की। [परिशिष्ट - क] माताजी पूर्ण वैष्णव थीं अतः मांस-मछली का घर में होना संभव न था। उनके लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। गृहस्थ एक तपोबन है, जिसमें संयम, सेवा और सहष्णुता की साधना करनी पड़ती है। वह अपने प्रभु का आव्हान करतीं हैं - "शिष्यस्तेsहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।" [मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ] प्रभु तो प्राणिमात्र में वास करते ही हैं, मात्र दृष्टि उधर करने की देर है। वह तो स्वयं अपने भक्तों को अपने अस्तित्व में समेटने के लिए लालायित रहते हैं।
  • "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
  • अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुचः।।"
  •  [गीता 18/66]
उन्हीं के आशीर्वाद-स्वरूप अपने समय से ठीक दस माह बाद बसंतपंचमी के दिन सोमवार दिनांक 03 फ़रवरी सन् 1873 [ईस्वी] को सायंकाल 06 बज कर 14 मिनट पर

सम्पूर्ण धर्मों को [सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को] त्याग कर केवल मुझ एक सच्चिनन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिंता न कर।

कैसी है प्रभु की लीला। अपार प्रेममय उनके कृत्य। जिस राह वह भक्त को ले जाना चाहते हैं, स्वयं उसकी उंगली पकड़ कर साथ ले जाते हैं। राह कैसी भी दुरूह हो, प्रभु के सानिध्य में पल झपकते कट जाती है।


साधु की सेवा में जब माताजी आतिथ्यभाव से उपस्थित हुईं थीं, उनकी स्वामिभक्ता एक नौकरानी भी उनके साथ ही थी जो अभी भी उनके पीछे खड़ी थी। असमंजस की इस घड़ी में उन्होंने स-आशय युक्तियुक्त दृष्टि से उसकी ओर देखा। इससे पहले कि वह उससे कुछ कहतीं, उसने उन्हें सूचना दी कि 'शमसाबाद' प्रान्त [state] के नवाब साहिब के यहाँ से उपहार-स्वरुप पकी-हुयी दो मछलियाँ हमारे स्वामी के लिए आयीं थीं जो अतिथिगृह में ज्यों-की-त्यों रक्खीं हैं। यदि वह उसे आज्ञा दें तो साधु की इच्छा-तृप्ति कराई जा सकती है। माताजी ने तुरन्त ही वह मछलियाँ मंगवा कर उक्त साधु की सेवा में आदरपूर्वक उपलब्ध करा दीं, जिन्हें उन्होंने बड़े चाव से प्रेम-पूर्वक ग्रहण किया। प्रभु की लीला का एक और प्रकरण माँ ने अपनी आँखों से आगे देखा।

हमारी नौकरानी जो अभी भी माँ के पीछे खड़ी थी, यद्यपि पढ़ी-लिखी न थी किन्तु अत्यंत बुद्धिमान व स्वामिभक्ता थी। मछलियों को पान कर लेने के उपरांत साधु के मुखमण्डल के तुष्टि व प्रसन्नता-मिश्रित मगन भाव उसकी दृष्टि से छिप न सके। तुरंत ही अत्यंत भक्ति व अधीर-भाव से अवधूत-साधु को सम्बोधित करके निवेदन किया कि उसकी स्वामिनी के पास ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ उपलब्ध है, फ़िर भी 'गोद' अभी सूनी है। अतः ऐसा आशीर्वाद दें कि उनको पुत्र-रत्न की प्राप्ति हो।

नौकरानी की याचना व माताजी की मूक-भक्ति-भावना, दोनों का अवलोकन कर उक्त अवधूत संत ने एक गगनभेदी अट्टहास के साथ उसी स्वर में "अल्लाहोअकबर" का आव्हान किया और दोनों हाँथ उठा कर "एक दो, एक दो" कहते हुए वहाँ से चले गए। कहते हैं उसके बाद उन कम्बलधारी अवधूत संत को फ़िर कभी किसी ने नहीं देखा।

 उन्हीं के आशीर्वाद-स्वरूप अपने समय से ठीक दस माह बाद बसंतपंचमी के दिन सोमवार दिनांक 03 फ़रवरी सन् 1873 [ईस्वी] को सायंकाल 06 बज कर 14 मिनट पर
 एवं तदानुसार लगभग ढाई वर्ष बाद गुरुवार दिनांक 07 अक्टूबर 1875 [ई0] को, एक के बाद एक, दो पुत्रों की प्राप्ति हमारे माता-पिता को हुयी। पहला व बड़ा मैं स्वयं [राम चन्द्र] व दूसरे प्राणो सामान मेरे प्रिय भाई - रघुबर दयाल।

शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिन-प्रति-दिन बढ़ते हुए हम-दोनों भाइयों का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग से होने लगा। माँ कहीं जातीं तो हमें ह्रदय से लगा ले जातीं। पिताजी हमें  कन्धों पर बिठा कर छलांगें भरते और हमें आनंदित होते देख कर स्वयं आनंदमग्न  जाते। वे दिन आज भी स्वप्न की भाँति सुहावने दृष्टिगोचर होते है।

विस्मृत एवं धुंधली स्मृतियों के झरोखे से झांकती एक घटना, आज भी मेरे मानस-पटल पर किसी स्पष्ट चित्र की भाँति अंकित है। अपने उस सुखद अतीत  में ले जाने से पूर्व, प्रसंगवश, मध्यकालीन कवि, चन्द्रवरदायी की अमर रचना - "पृथवीराज रासो" की कुछ पंक्तियाँ  आपको सुनाता हूँ। उक्त कवि अपनी रचना-अवधि के अंतिम भाग में, शहाबुद्दीन गौरी के  दरबार में थे। पृथ्वीराज चौहान जब शब्दवेधी वाण चलाने बैठते हैं, उस समय चन्द्रवरदायी उनको धर्मनीति का कुछ उपदेश करते हैं। एक छप्पय में वह बताते हैं कि विभिन्न जाति के लोग जब प्रधान बनते हैं तब किस प्रकार का व्यबहार करते हैं। छप्पय स्मृति से दे रहा हूँ - < https://youtu.be/GvT23VyAugg >
  • "खत्रि होय परधान खाय, खंडौ दिखरावै,
  • साहु होय परधान भरै घर, राज थंभावै,
  • कायथ होय प्रधान अहो निसि रहै पियंतो,
  • बम्मन होय प्रधान सदा रखवै निचिंतौ,
  • नाई प्रधान नहीं कीजिये, कवि चन्दविरद साँची चवै।
  • चहु आन-बान गुन सट्टवै, मत चुक्किस मौटे तवै।"

जी हाँ ! मैं भी कायस्थ कुलोद्भव हूँ। और मेरे पिताजी भी 'पीते' थे। 

उस दिन कुछ उत्सव था। संभवतः मेरा ही जन्मदिन था। पिताजी के कुछ मित्र व सरकारी अफ़्सर घर पर पधारे थे। रात्रि-भोज भी हुआ। उस साँझ मदिरा का विशेष दौर रहा। माताजी को यह सब अच्छा न लगता, फ़िर भी वह कुछ कहतीं नहीं थीं। भोज की समाप्ति पर जब सभी अतिथि विदा हो गए, पिताजी घर के अंदर पधारे। मेरी वह चौथी 'वर्षगाँठ' [birth-anniversary] थी। अब मैं गोद का बच्चा न रहा था। फ़िर भी पिताजी मेरे प्रति अपने अंतर में उठते हुए प्रेम के ज्वार को न रोक सके और मुझे अपनी गोद में बरबस उठा लिया। न जानें क्यों उस समय उनकी श्वाँस व मुख से कुछ विशेष प्रकार की गंध के कारण उनके प्रेम का वह प्रदर्शन मुझे अच्छा न लगा एवं उनकी इस निकटता से मेरा जी ऊबने लगा। एक सफ़ल चेष्टा के उपरांत मैं उनसे अनायास ही यह कहते हुए अलग हो गया कि - "आपके मुँह से बदबू आती हैं।" < https://youtu.be/HvAZI8lVDAs >  मेरे इस व्यवहार का उन पर मनोवैज्ञानिक रूप से गहरा प्रभाव पड़ा और स्वयं ही उन्हें अपनी उस स्थिति पर ग्लानि हुयी। मुझे ध्यान है, माताजी ने उनसे इतना ही कहा था - "बच्चे अब बड़े हो रहे हैं, इसका आपको ख्याल रखना चाहिए।" पिताजी उसके बाद वहाँ नहीं रुक सके थे और अपने शयन-कक्ष में  सो रहे। 

कहते हैं उसके बाद से उन्होंने 'पीना' छड़ दिया। इतना ही नहीं, उन्हें उससे घृणा भी हो गयी। उसके बाद आजीवन, मदिरापान क्या उसका नाम भी उनकी जिह्वा पर नहीं आया। उनके चरित्र के इस आमूल परिवर्तन की चिर-सुखद घटना को माँ बार-बार सुनाते नहीं अघातीं थीं।

माँ और पिताजी दोनों का ही मुझ पर अपार स्नेह था और मेरा बचपन बड़े ही लाढ़-प्यार एवं राजसी ठाठ-बाट में बीता। नौकर-नौकरानियों की पर्याप्त व्यवस्था थी। सैर-सपाटे के लिए सवारी घर की ही थी।

साथ के अथवा अपनी उम्र के बच्चों में खेलना मुझे कभी नहीं भाया। माँ जब तक जीवित रहीं, मेरी मित्र-सखा, जो कुछ भी थीं, वे ही थीं। जो वह करतीं, मैं भी करता। रामचरितमानस का दैनिक-पाठ मानों उनका जीवन ही था। हमारी मानसिक-चेतना अभी उन दिनों इतनी परिपक्व न थी, फ़िर भी हम-दोनों भाई उनके पास बैठ कर, मानस का पाठ, ऐसा मगन हो कर सुनते कि जैसे सब-कुछ समझ रहे हों। कभी-कभी किन्हीं प्रसंगों को वह विशेष चाव से पढ़तीं व प्रेम-विभोर हो अनायास ही उनकी आँखों से अविरल अश्रु-धारा प्रवाहित हो उठती। उन्हें रोते देख हम भी रोने लगते। जब वह हमसे पूछतीं - "क्यों रो रहे हो " तो हम-दोनों कहते - "क्योंकि आप रो रहीं हैं। हमें आप के साथ रोने में अच्छा लगता है।" बच्चों के इस प्रकार के उत्तर सुन कर वह हमें छाती से लगा लेतीं। वह अपने आँसू पोंछतीं एवं उसी गीले आँचल से हमारे पूरे मुँह को भी पोंछ डालतीं। उनके इस व्यवहार में हमें अपार 'आनन्द' आता।

उनका कण्ठ बड़ा ही मधुर था। गायन-विद्या का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान था। 'मानस' का पाठ भी वह सस्वर करतीं। उनकी संगति में जहाँ एक-ओर मेरी प्रवृति सत-चेतना व धार्मिक ज्ञान की ओर अग्रसर हुयी, दूसरी ओर गाने व कविता की ओर भी जाग्रत हुयी। उनकी कृपा से आत्मज्ञान का जो बीज मेरे अन्तर में पड़ा, वह आजीवन मेरा आश्रय रहा और मेरा जीवन उसके आध्यात्मिक पालन-पोषण का आधार बना।

आयु के सातवें वर्ष में प्रवेश करते-करते माँ ने संसार से विदा ली, वह स्वर्गवासिनी हो गयीं। अब वह जहाँ भी हों, परमात्मा उनकी आत्मा को पूर्ण शान्ति दे एवं उन्हें ऊँचे से ऊँचा आध्यात्मिक पद प्राप्त हो।

मेरा शैशव [infancy] विफ़ल हो गया। ऐसा लगा कि ममतामयी मात्र-अंक [mother's-embrace] की छाया दूर हो गयी और मैं निराश्रित हो गया हूँ। किन्तु मेरे पूज्य पिताजी ने अपने अपार प्रेम एवं स्नेह से माँ के अभाव की पूर्ति की। माँ की मृत्यु के बाद पिताजी का उत्तरदायित्व अब बढ़ गया था। उन्होंने माँ के दायित्व को स्वयं संभाल लिया था। उन्हें हर समय हमारी ही चिंता लगी रहती थी। यों वह अब स्पष्टतः गंभीर व उदासीन हो गए थे फ़िर भी निरंतर इसी चिंता में रहते कि उनके लाड़लों को किस प्रकार एक सफ़लतम  व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया जाय। वह हमें सफ़लता की चरम-सीमा पर देखना चाहते थे।

सुबह-शाम टहलने की उनकी  प्रारम्भ से ही आदत थी। अपने इस कार्यक्रम में वे हमें साथ ले जाने लगे। मार्ग में वह अपने जीवन के अनुभवों की व्याख्या करते। हम-दोनों भी उनसे अपनी कोई बात छिपाते नहीं थे। इसी बीच, जब वह मौज में होते तो हमें ऐतिहासिक, जीवंत एवं अन्य अनुभवी कहानियाँ भी सुनाते। कभी-कभी इन कहानियों को सुनाने के उपरांत वह हमसे पूंछते - "क्या समझे ?" उसके बाद वह स्वयं अनेक व्याख्याएँ करते और इसी बीच हमें अनेकों निर्देश भी दे डालते। कभी-कभी हमसे पहले सुनायी गयी कहानियाँ सुनीं जातीं। मेरे छोटे भाई नन्हें [हम-दोनों के घर के  नाम, क्रमशः - 'पुत्तू' व 'नन्हें' हैं] इसमें विशेष रूचि लेते। इस प्रकार कुछ समय के लिए मानों उनका अपना बचपन लौट आता। हम कम  आयु के होते हुए भी इन शिक्षाप्रद कहानियों के द्वारा जीवन के गहनतम अनुभवों के अधिकारी होने लगे। मानसिक विकास की दूरी व अंतर होते हुए भी दोनों ही पक्ष लाभान्वित होते। हम शिक्षा ग्रहण करते, वह आनन्द-विभोर होते। इस कार्य-कलाप में हमारी स्मरण-शक्ति  का अच्छा व्यायाम होता रहा।

पिताजी अपने अनुभवों को सुनाते समय अपनी सेवा-काल के दौरान उनके द्वारा कृत विशेष योगदानों की चर्चा वे विशेषतौर पर करते और हमें क्रमबद्ध अनुच्छेदों-वार समझाते कि 'जनगणना' के दौरान उन्होंने किस-प्रकार एक नयी तकनीक का अन्वेषण करके ब्रिटिश प्रशासन के प्रशंसा के पात्र बने थे। काल-चक्र ने गति ली और मेरे भी जीवनवृत्त में उनकी इस उपलब्धि की पुनरावृत्ति हुयी। वर्ष 1901 [ई0] में जब मैं 'अलीगढ़' तहसील [जिला - फर्रुखाबाद] में कार्यरत था, मुझे भी ठीक वैसा ही 'कार्यभार' [assignment] तत्कालीन कलैक्टर द्वारा सौंपा गया।







उसके निष्पादन में मुझे पिताजी के सुनाये गए उनके [अपने] उपरोक्त अनुभव बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुए। फ़लस्वरूप मेरी तत्कालीन 'शासन' द्वारा प्रशंसा की गयी एवं एतदर्थ मुझे भी इनाम के तौर पर प्रशाति-पत्र दिए गए। 

बचपन में मेरा स्वास्थ्य अच्छा था, पढ़ाई की ओर रूचि भी थी, किन्तु पिताजी ने पर्याप्त बड़े हो जाने पर भी मुझे स्कूल नहीं जाने दिया जिसका एक-मात्र कारण उनका वात्सल्य प्रेम ही था। 'विद्यारम्भ संस्कार' माँ के जीवन काल में ही बड़ी धूम-धाम से हो गया था। उसके बाद घर पर ही उर्दू, फ़ारसी पढ़ाने के लिए एक मौलवी साहिब की नियुक्ति कर दी गयी थी। उक्त मौलवी साहिब ने मुझे कविता करना भी सिखाया था।

माँ के स्वार्गावासी होने के समय हम-दोनों भाइयों की अवस्था क्रमशः सात व पाँच वर्ष थी। दोनों ही छोटे बच्चे थे। अतः पिताजी ने हम लोगों के लालन-पालन के लिए एक अन्य महिला को नियुक्त कर दिया था, जो मुस्लिम थीं। यह महिला तीन-चार वर्ष हमारे घर रहीं। वह बड़ी अनुभवसम्पन्न व सांसारिकता में प्रवीण थीं। हम दोनों को ह्रदय से प्यार करतीं। उन्होंने एक दिन के लिए भी हमें अपनी माँ का अभाव न खटकने दिया। हम-लोगों ने भी उन्हें समुचित आदर व भरसक प्यार देने का आजीवन प्रयास किया। उन्होंने लम्बी आयु भोगी। हमारे सभी भाइयों व मेरे मुत्र-पुत्रियों व भतीजों आदि सभी की शादियों में वह बराबर आतीं तथा बड़े-बूढ़ों के योग्य जो रस्म होती उनका वह निर्वाह करतीं। अंतिम बार वह मेरे पुत्र चिरंजीव जगमोहन नरायण की शादी में आईं एवं उसकी बहू [सौ0 भगवती देवी] को आशीर्वादस्वरूप एक रुपया मुहंदिखाई [present given to the bride by he female relative-in-laws] दे कर गयीं। उनके व्यक्तित्व व सद्शिक्षा का मेरे व्यक्तित पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा।

 लगभग दस वर्ष की अवस्था में मेरा प्रवेश, फ़र्रुख़ाबाद नगर के स्थानीय 'मिशन हाईस्कूल'  में कराया गया। 



 यहाँ से 18 वर्ष की आयु  में मैनें वर्ष 1891 [ई0] में "मिडिल क्लास एंग्लो वर्नाकुलर एग्जामिनेशन" द्वितीय श्रेणी में  पास किया। उक्त परीक्षा का प्रमाणपत्र प्रदान करने वाली संस्था का नाम "एजुकेशन डिपार्टमेंट, नार्थ - वेस्टर्न प्रॉविन्सेस एंड अवध" था।

मिशन स्कूल के अध्यन-काल की अवधि में अपने अध्यन के अतिरिक्त मेरी जो  उपलब्धि थी, वह थी - ईसाई  धर्म व उक्त मिशन से मेरा निकटस्थ परिचय।  महामना ईसा के इस महावाक्य का मेरे हृदय पर बहुत ही गहरा व अमिट प्रभाव पड़ा - "यह संभव है कि सुई के 'नकुए' से ऊँट निकाल दिया जाय किन्तु यह कभी भी संभव नहीं कि धनवान व्यक्ति उस [ईशु] का कृपापात्र बन जाय।"  < https://youtu.be/mXi5s8lRVF0 > यही कारण था कि जीवन की कितनी ही अभावग्रस्त स्थितियों का सामना करने में मुझे कठिनाई नहीं हुयी। 

कालचक्र ने मुझे राजसी ठाट-बाट एवं सुख-सुविधाओं की चरम सीमा से पल झपकते जीवन की कठोरतम एवं दुरूह कठिनाइयों के अंधकार के बीच ला पटका किन्तु सद्गुरु-कृपा से प्रभु-प्रेम में मेरी आस्था अडिग रही और प्रभु के प्रति भक्तिभाव में किञ्चितमात्र भी कभी कमी नहीं आयी।           

3 comments:

  1. सुन्दर लेख और भावविभोर करने वाला

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  2. भाव समुद्र में डुबाने वाला विवरण । अहैतुक कृपा ।

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  3. बहुत सुन्दर भावपूर्ण , भावुक करने वाला लेख

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