प्रकृति पुरुष दर्शन
- "उतैषां पितोत वा पुत्र एषामुतैषां
- जेष्ठ उत व कनिष्ठः।
- एको ह देवी मनसि प्रविष्टि प्रथमों
- जातः स उ गर्भे अन्तः।।"
- [अथर्व. 10 - 08 - 28]
- यह जीवात्मा कभी इन [बालकों] का पिता बनता है और कभी इनका पुत्र बन जाता है। कभी इनका ज्येष्ठ भाई और कभी कनिष्ठ भाई। एक जीवात्मा [मनसि] ज्ञान में प्रविष्ट रहता हुआ पूर्व शरीर को धारण करता है और तत्पश्चात गर्भ के अंदर रहता हुआ पुनः नवीन शरीर को प्राप्त होता है।
एक कहानी अनायास स्मरण हो आयी जो मेरे पिताजी ने, उनके साथ प्रातः घूमने जाते समय एक दिन हम दोनों भाइयों को सुनायी थी, आप सुनें - देवर्षि नारद को भगवान ने किस प्रकार कृपा कर ज्ञान प्राप्त कराया, इसी का वृत्तान्त इस कहानी में है -
देवर्षि नारद एक बार भगवान् कृष्ण के पास द्वारिका पहुँचे। उन्होंने बड़ी आव-भगत से उनका स्वागत किया - "आओ नारद ! कैसे आना हुआ ?" नारद ने याचना की - "भगवान मैं यह जानना चाहता हूँ कि प्रकृति या माया क्या है ? कृपया बतावें।" भगवान ने अत्यंत कृपा कर उन्हें बताया - "नारद, प्रकृति को बताया नहीं जा सकता। इसे अनुभव से ही जाना जा सकता है। मेरे साथ चलो।" कृष्ण और नारद यों द्वारिका से चले। और, वे चलते-चलते मरुस्थल में जा पहुँचे। नारद ने आश्चर्य से कहा - "कहाँ ले जाओगे मुझे ? भला मरुस्थल में माया का अनुभव कैसे होगा, देव ?" कृष्ण ने आगे बढ़ते हुए कहा - "धीरज रक्खो नारद।" पर्याप्त दूर चल लेने के उपरान्त कृष्ण अचानक रुक गए और अत्यंत ही अधीर भाव से बोले - "और नहीं चला जाता, नारद। मेरा कण्ड सूख रहा है।" अपना जल-पात्र उनकी ओर बढ़ाते हुए, आग्रह किया, "यह लो ---- और --- कहीं से जल लाओ।" नारद ने उन्हें सान्त्वना दी - "घबराओ मत कृष्ण ! मैं अभी जल ले कर आता हूँ।" और नारद जल की खोज में निकल पड़े। दूर कहीं उन्हें बस्ती दिखाई दी। संभवतः यही माया का स्थूल रूप था। आश्चर्यचकित भाव से उन्होंने देखा - "आह ! कुआँ।" एक सुन्दरी, जो युवा थी, कुँए पर अपनी गगरी भर रही थी। उनका मन चकित हो गया, "अहा कैसा देवी जैसा रूप है।" खोए-खोए तुरन्त ही उसकी ओर दोनों हाँथ बढ़ा दिए - "देवी, थोड़ा सा जल पिला कर मेरी प्यास बुझाओगी ?" युवती जितनी सुन्दर थी, उतनी ही विनम्र भी। अत्यंत ही भक्ति-भाव से बोली - "अभी लीजिये महाराज।" वह जल तो पी रहे थे किन्तु उनकी दृष्टि व मन दोनों ही उसके रूप लावण्य व उठते हुए यौवन के ज्वार में डूबने उतराने लगे। और नारद सुन्दरी के पीछे-पीछे उसके घर पहुँचे। वहाँ कोई पुरुष बैठा था। जिज्ञासावश, तुरन्त ही उसको सम्बोधित किया, "तुम इस घर के स्वामी हो ?" पुरुष, जो सम्भतः उस गाँव का ज़मींदार था, बोला - "घर का ही नहीं, सारे गाँव का। तुम्हें क्या काम है, महाराज !" नारद तो मानों सुंदरी के यौवनाकर्षण में अंधे ही हो रहे थे - "तुम्हारी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ।" बूढ़े ने भी इसका कुछ बुरा न माना और अपनी एक-मात्र कन्या के लिए उपयुक्त वर जान, बोला - "क्यों नहीं ? तुम नवयुवक हो। स्वस्थ हो, बलवान हो। परन्तु एक शर्त। मेरी पुत्री से विवाह करके, इस गाँव में, इसी घर में रहना होगा।" नारद मानों उसके रूप रस-यौवन में डूब ही चुके थे - "इतनी सी बात ! तुम्हारी बात मुझे स्वीकार है।" और यूँ दोनों का विवाह हो गया। विवाह के कुछ दिन बाद ज़मीदार की मृत्यु हो गयी। उसका सारा काम-काज नारद को संभालना पड़ा। नारद के चार संतानें हुयी। उनका अपना छोटा सा संसार बस गया। जब वह अपने एक पुत्र को गोद में उठाते, दूसरा हठ करता - "पिताजी, उसे उतारो मुझे गोदी लो।" नारद इसी को जीवन की सफ़लता का चरम सोपान समझ अपने सौभाग्य को सराहते न अघाते थे किन्तु तभी आंधी-तूफ़ान, वर्षा और बाढ़ के रूप में उन पर आपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। बच्चे भय से चिल्लाये - "पिताजी !” पत्नी ने उधर से पुकारा - “घर पानी में डूब जाएगा, कैसे जान बचाएँ ?" पत्नी और बच्चों को नौका में ले नारद हरहराते पानी में जान बचाने के लिए छटपटाने लगे, किन्तु नाव पलट गयी। नारद न तो पत्नी को बचा सके न बच्चों को। एक बच्चा पुनः सहायता के लिए चिल्लाया - "पिताजी" वह उसे झूठी सांत्वना देते पुकारते "कहाँ हो तुम ? घबराओ मत। मैं आ रहा हूँ।" डूबती पत्नी की गोद से दूसरा बच्चा चिल्लाया - "पिताजी !" बुरा हाल था नारद का। एक बड़ी सी लहर ने नारद को किनारे ला पटका। वह किनारे पर पड़े कराहते और आत्मग्लानि के भाव से विलाप कर रहे थे - "पत्नी गयी। बच्चे गए। मैं अकेला जी कर क्या करूँगा ?" तभी उन्हें सुनायी - "नारद मैं प्यासा हूँ। जल लाये क्या ?" यह वाणी कृष्ण की थी। नारद ने घूम कर देखा, सामने कृष्ण खड़े थे। दौड़ कर लिपट गए। "कृष्ण ! मेरी पत्नी ! मेरे बच्चे ! उन्हें फ़िर जीवित कर दो !" तब कृष्ण ने उन्हें सावधान किया "नारद, किस भ्रम में हो ? न कोई पत्नी थी, न कोई बच्चे थे। वह सब माया थी।" नारद को चेतना हुयी। उन्हें कृष्ण के पुरुष रूप में दर्शन हुए जो भृकुटि-विलास से प्रकृति को नचाते हैं।
"जीव चराचर बस कै राखे सो माया प्रभु सो भय भाखे।
भकुटि विलास नचावइ ताही
अस प्रभु छाँड़ि भजिय कहु काही।"
[मानस 01/199/05, 06]
वह गिड़गिड़ाए - "प्रभो ! मुझे ज्ञान दे कर आप ने मेरा बड़ा उपकार किया है। आप ने प्रकृति पुरुष दोनों के साक्षात दर्शन करा दिए। वस्तुतः जीवन ही स्वयं 'माया' है। उससे छुटकारा पाना बड़ा कठिन है। 'पुरुष' की कृपा हो देव ! तभी मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है, तभी आप को जान सकता है, अपने आप को पहँचान सकता है।"
"प्रकृति पुरुषं चैव विद्वयेनादी उभावपि।
विकरांश्च गुणांश्चैव विद्धिव प्रकृतिसंभवान।।
-[गीता 13/19]
हे अर्जुन ! प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को ही तू अनादि जान और रागद्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोsपि न स भूयोsभिजायते।।
[गीता 13 : 23]
- इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फ़िर नहीं जन्मता अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता है।
कहने को यह कहानी थी। किन्तु मैं आजीवन इस कहानी की व्याख्या करता रहा। वास्तव में हमारी सब की 'नारद' जैसी ही दशा है। भोगों की कामना और कामना की सिद्धि से सुख की प्राप्ति, यही भ्रम भटकाए रखता है। किन्तु यह कभी संभव नहीं। भगवान की कृपा से ही शरणागति या ज्ञान की प्राप्ति होगी। तभी दुःख का नाश और सुख की प्राप्ति संभव है। भोग-कामना की अग्नि प्रचण्ड है। विषयों के सेवन से, बहुत से भोगों के भोगने से शांति नहीं होती प्रत्युत अग्नि में जितना ही भोगरूपी ईंधन व घृत पड़ता है, उतनी ही अग्नि भड़कती जाती है। इसीलिए भगवान ने इस कामना को "महाशन" कहा - इसका पेट कभी भरता ही नहीं।
"बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी ते।"
इस माया-जाल को समझना आसान नहीं। विषय बहुत लम्बा व गहन है और दर्शनशास्त्र से समबन्ध रखता है। अपनी अपनी मान्यताएँ हैं, जिनमें मतभेद भी हो सकते हैं। हाँ तो बात चल रही थी - 'सुख' 'दुःख' क्या हैं ? यह भ्रमजाल क्या है ? इत्यादि इत्यादि। बात को आगे न बढ़ाते हुए, हम उपर्युक्त कहानी के 'नारद' को ही ले लें, एवं उनकी स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करें। जिस भ्रमजाल में वह फंसे उस पर उनका अपना क्या अधिकार था ? यह 'मन' और 'बुद्धि' भी ईश्वर के ही दिए हुए हैं। यह मायारूपी संसार इत्यादि जो कुछ भी हैं, उसी का ही तो है। हमारा किसी पर भी कुछ अधिकार नहीं। 'नारद' की भांति हम स्वयं ही अपने भावी दुःखों के कारण बनते हैं। यों मन समझाने के लिए हम कहते हैं - यह 'कालचक्र' है, यूँ ही चलता रहेगा ; इत्यादि किन्तु ऐसे अनेकों भ्रामक दर्शन हमारे किसी प्रयोजन के नहीं होते।
आत्मा और शरीर की स्थिति स्पष्ट करते हुए ऋषि-वाणी दिशानिर्देश करती है -
"अपाङ् प्राङ्ेति स्वध्या गृभीतोsमत्योँ मत्येँना सयोनिः।
ता शश्वनता विषूचना वियंता न्य न्यं चिक्य युरँ नि
चिक्यु रन्यम।।"
[ऋग्वेद 01. 164. 38]
जीवात्मा अपने कृत कर्मों के कारण निम्न और उत्कृष्ट योनियों को प्राप्त होता है। अमर आत्मा मरणधर्मा शरीर के साथ रहता हुआ, एक रूप हो जाता है। वह दोनों विविध योनियों में सदैव साथ रहते हैं। मनुष्य, शरीर को तो भली भाँति जान लेते हैं, किन्तु उसमे स्थित आत्मा को नहीं जान पाते।
जीव और प्रकृति में भोक्ता और भोग्य का सम्बन्ध है। जीव चेतन होने के कारण भोक्ता है और प्राकृति 'जड़' होने से भोग्या।
"पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।"
[गीता : 13/20]
जीवात्मा सुःख - दुःखों के भोक्तापन में हेतु कहा जाता है। परन्तु कोई कोई अंतःकरण को भोक्ता मानते हैं। पर उनकी ऐसी मान्यता युक्तियुक्त नहीं। कारण यह है कि अन्तःकरण 'जड़' होने से उसमे भोक्तृत्व संभव नहीं। शुद्ध आत्मा भी भोक्ता नहीं है। जो केवल शुद्ध आत्मा भी मानता है, उसे भगवान ने 'मूढ़' कहा है। अतएव "प्रकृतिस्थ पुरुष" ही भोक्ता है।
ऐसे ही मुझ 'भोक्ता' की कहानी यहाँ अपने तीसरे चरण में है। मुझे नहीं मालूम मैं जब इस संसार में आया था तो मेरा क्या उद्देश्य था ? संसार-रूपी इस कर्मक्षेत्र में आने से पूर्व मेरी क्या कामना शेष थी अथवा क्या संकल्प-विशेष था, इस विषय में मेरी चेतना मौन थी। मेरी इस स्थिति पर यदि कोई कहे कि जब इसमें चेतना ही नहीं तो फ़िर क्रिया कैसे होती थी ?
समष्टि चेतन की व्यवस्था से चिंतन को दिशा मिलती है तथा स्थिति, व्यष्टिभाव से हट कर शुद्ध-चेतन में समाहित हो जाती है। समष्टि-चेतन की सत्ता में स्फूर्ति है, क्रिया है और कोई बाधा नहीं होती तथा व्यष्टि-चेतन की मौन-अवस्था समष्टि में मुखर हो उठती है। इनकी स्पष्ट व्याख्या आगे के अध्याओं में उपयुक्त स्थलों पर करने की चेष्टा की जाएगी।
संसार की गति एक सी नहीं है। इसका रंग हमेशा बदलता रहता है। इसके गर्म और सर्द हवा के झोंके जब लगातार कोई व्यक्ति सहन कर लेता है तब वह अनुभव-संपन्न बन जाता है तथा उसकी समझ में आता है।
"देह धरे का दण्ड है सब काहू को होय।
ज्ञानी भोगै ज्ञान से, मूरख भोगै रॉय।"
उन दिनों बाल-विवाह का प्रचलन था। अभी हम किशोर ही थे एवं अध्यनरत भी, एक के बाद एक हम-दोनों की ही शादियां कर दीं गयीं। ज़मीदार घराना जो था, अतः शादियाँ बड़े ही धूम-धाम से की गयीं। दूसरे पक्ष भी नामीं रईस व ज़मीदार ही थे। मेरे अपने अंतर में, अपने विवाह की स्मृतियाँ भी बचपन की अन्य स्मृतियों की भांति ही अंकित हैं, वैसी ही धुंधली व विस्मृत सी। ऐसा लगता है मानों वह भी एक कृत्य था जो, होना था, और हो गया। इसी प्रकार मेरे जीवन की और भी चाँदनी-रातें आईं और निकल गयीं। जीवन के वे बीते दिन अभी कुछ याद हैं, और कुछ याद करने पर भी याद नहीं आते। सारे-के-सारे सुदिन यों ही किसी चलचित्र की भांति आये और चले गए। ठीक ही तो है, समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।
मेरे अंतर में, सुख-सुविधा की चरम-सीमा पर विराजता जो एक राजकुमार था, धीरे-धीरे अब उसकी आकृति भी धुंधली पड़ने लगी और ऐसा लगने लगा मानो अब वह विदा होना चाहता था। पुनः प्रकृति के चक्र ने अपनी गति ली और उसकी एक-और तस्वीर उभर कर सामने आयी। उसने तो जैसे मेरे अपने समूचे व्यक्तित्व को झकझोर कर ही रख दिया। वे दिन, जो कथित रूप से सुखद थे, स्वप्न की ही भाँति मेरी स्मृति में मेरा पीछा करते रह गए। यों उनका आकर्षण भी अपने ढंग का निराला था। किन्तु मैं लेश मात्र भी विचलित नहीं हुआ। मुझे विश्वास था कि यह कालचक्र रुकेगा नहीं, यह गतिमान है, और अभीष्टतः मुझे अपने अपने प्रभु की राह पर ही ले जाएगा।
और अंततः जीवन-सरिता की बीच मझधार में, नारद की ही भाँति मेरी भी नाव उलट गयी। अनेक संकटों व कष्टों के बीच में मैं एक ऐसे मोड़ पर खड़ा था जहाँ मुझे अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेना था। मेरे सुखद स्वप्नों एवं संकलपों के आश्रय, मेरे पूज्य पिताजी भी जिन पर हमारा छोटा सा संसार आश्रित था, स्वर्ग सिधार गए थे। माँ पहले ही स्वर्गवासी हो चुकीं थीं। मुझे अपनी आशाओं का संसार छिन्न-भिन्न सा होता प्रतीत हुआ। मुझे अपने भावी-जगत का चित्र बिगड़ता सा लगने लगा। सम्भतः यह भावी जीवन की कोई भूमिका थी।
ज़मीदारी की भारी सुख-सुविधा व वैभव पिताजी के साथ ही विदा हुए। मेरे प्रभु की यह कैसी विचित्र लीला थी। हमारी आय का अब कोई निश्चित स्रोत शेष नहीं रह गया था।
तमाम सुख-सुविधाओं से संपन्न अपना महल-जैसा मकान हमें छोड़ना पड़ा। जिस नगर में हमेशा हम घोड़ा-गाड़ियों व पालकियों में चलते थे उन्हीं मार्गों पर हमें अब नंगे-पाँव या लकड़ी की चट्टियाँ [wooden sandals] पहन कर चलना होता। मेरी अपनी कहानी का यह दुःखान्त भाग है। जीवन का यह प्रकरण मुझे कितना भी प्रिय क्यों न हो, किन्तु आपको अपने इस अतीत में ले-जाकर क्यों दुखित करूँ।
हाँ, मुझे अच्छी तरह से याद है, न जानें किस प्रसंग में मैं अपने 'हज़रत क़िब्ला', हुज़ूर महाराज को अपनी यह करूण कहानी सुनाने लगा। सुनते-सुनते वह इतने विकल हो गए कि बोले, "पुत्तूलाल बस करो, अब नहीं सुना जाता।"
फ़िर भी, विपत्ति की उन घड़ियों में भी, मैंने स्पष्ट अनुभव किया कि मैं बाहर-भीतर, सर्वत्र, भगवान की कृपा से घिरा हुआ हूँ। मुझपर चारों ओर से, भगवान की दया बरस रही है। मैं सर्वथा उसी का हूँ। मेरे प्रभु ने अपनी ही वस्तु की भाँति मेरी सदा देख-रेख की है।
"न कामयेsहं गतिमीश्वरात परा-मष्टदिर्धयुक्तामपुनर्भवं वा।
आर्ति प्रपद्येsखिलदेहभाजः - मन्तः स्थितो येन भवन्त्युदुःखा।।"
[श्रीमद्भागत 09/21/12]
रन्तिदेव का भाव प्रभु-कृपा से ही मुझमें भी उदित हुआ - "मैंने भी भगवान से आठों सिद्धियों से युक्त परमगति नहीं चाही। मैंने केवल यही चाहा कि सम्पूर्ण प्राणियों के ह्रदय में स्थित होकर, उनका सारा दुःख मैं ही भोगूँ, जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो।"
इस प्रकार मैं अपने जीवन-संघर्ष की कहानी तो प्रस्तुत कर रहा हूँ किन्तु अपने जीवन के दुःखान्त प्रकरणों को जो यों मुझे अतिप्रिय है, आपके लिए अप्रकट ही रखना चाहूँगा।अपने कर्मक्षेत्र में उतरने से पूर्व मुझे प्रभु का संकेत निरंतर याद रहा। यही कारण था कि मैं कभी विचलित न हुआ, पथभ्रष्ट न हुआ।
"निराशीनिऱर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।"
[गीता - 03/30]
"युद्ध करो, परन्तु तीन वस्तुओं से अलग रह कर - राजयभोगों की आशा छोड़ कर, देह तथा देह-सम्बन्धी सारी ममता छोड़ कर और कामना के ज्वर को उतार कर।"
नारद की ही भाँति मेरी भोग-रत आसक्तियों व मेरे अनेकों संकल्प की नाव को उलटने वाले मेरे प्रभु ही थे और तूफ़ान की लहर के साथ किनारे पर ला पटकने व चिताने वाले भी वही आनन्दघन - सच्चिदानन्द थे।
प्रकृति विरति की अपार व्यथा में नारद को पुरुष के दर्शन हुए। नारद ही क्यों, प्रत्येक ऐसे भाग्यशाली जीव को होते हैं जो सांसारिक दृष्टि से इस प्रकार दुर्भाग्य का मारा दिखलाई देता है। मेरे ऊपर जब इतनी विपत्तियाँ आईं, मेरी प्रकृति विरति की व्यथापूर्ण स्थित हुयी तो मेरे ऊपर भी प्रभु-कृपा हुयी।
आख़िकार एक दिन ऐसा आया कि उस [आजिज़ हक़ीक़ी] यानी परमपिता ने अपनी मेहर से मेरी तरफ़ निगाह की और अपनी महान शक्ति की ज़िन्दा इन्सानी सूरत को मेरी सच्ची हमदर्दी करने के लिए मुझ तक पहुँचा दिया। यह विश्वरूप दर्शन था जिसने आत्मदर्शन के रूप में आ कर मेरी हमदर्दी की और मेरा हाँथ पकड़ कर एक पलक मारते में मुझको कहीं-से-कहीं ले जा कर खड़ा कर दिया। यह वह जगह थी जहाँ दुनियाँ की हर चीज़ अपनी अज़्मत और जलाल के साथ चमकती है। मैंने जो देखा वह देखा और जो पाया वह पाया। आप लोग इसकी मिसाल श्रीभगवत्गीता के पहले अध्याय के उन मन्त्रों [श्लोकों] में पा सकते हैं जहाँ अर्जुन ने हताश होकर अपने हथियार रख दिए और मेरी तरह मायूस हो कर उम्मीद और ख़ौफ़ से मिली हुयी हालत में फँस कर अपने मन्सबी काम के करने से इंकार कर दिया था। अगर श्रीकृष्ण महाराज आनन्दकन्द उस मौके पर अपनी अज़मत और जलाल के साथ अर्जुन को उस मुक़ामिहू तक खेंच कर न ले जाते और फ़िर अर्जुन की दरख्वास्त पर अपनी जमाली सूरत उनके दिल में न बैठाल देते तो नतीज़ा ज़ाहिर था। ग़र्ज़ेकि मैं खैंच कर शाहिराय क़ामयाबी पर खड़ा कर दिया गया और मुझको मेरे काम करने के लिए अकेला ही न छोड़ा बल्कि अपनी छोटी सी मूरत धारण करके मेरे अँधेरे और नापाक दिल की कोठरी में हमेशा के लिए बैठक अख्तियार की।
श्रीकृष्ण- स्वरुप अपने हज़रत क़िब्ला का आश्रय पा कर मैं भी अर्जुन की भाँति "युध्यस्व विगत ज्वरः" के लिए सन्नद्ध हो गया और सांसारिक आपत्तियों का साहस, और निर्भीकता के साथ सामना करने की शक्ति मुझे प्राप्त हो गयी। यों मुझे अपनी सांसारिक परेशनियाँ उन्हें लिखने में संकोच होता था किन्तु उनके अपार शील, स्नेह और सौजन्य से मेरा यह साहस भी होने लगा। उन्होंने एक बार मुझे इस प्रकार की तकलीफ़ों से भी उनको अवगत कराने के लिए प्रोत्साहित करते हुए लिखा था -
"आप बहुत खुशी से अपनी पूरी क़ैफ़ियत लिखिए, मुझे खुशी होगी। तकलीफ़ क्यों होने लगी। भाई, मैं तो आख़िरत में भी, इन्शाअल्लाह, साथ होऊँगा। तुम दुनियाँ में मुझे तकलीफ़ से बचाते हो। मैं तो तुम्हारे वॉइस जो तकलीफ़ हो उसको राहत जानता हूँ। तुम लोग मेरे लख्तेजिगर हो। तुम्हारी थोड़ी भी तकलीफ़ मुझे ग़वारा नहीं।"
उन दिनों, फतेहगढ़ स्थित कलेक्टर महोदय हमारे स्वर्गीय पिताजी के दोस्त थे। हमारी स्थिति के उतार-चढ़ाव उनसे छिप न सके। उन्होंने एक दिन मुझे बुलवा भेजा। उन्हीं की कृपा से मेरी नियुक्ति उनके कार्यालय में हो गयी। प्रारम्भ में, मैं 'सवेतन लिपिक-प्रशिक्षु' [paid apprentice] रहा। बाद में कुछ समय बाद मुझे स्थायी कर दिया गया। मेरा वेतन उन दिनों मात्र 10/- रूपये मासिक था। इसी अल्प धनराशि से हम-दोनों भाइयों के सँयुक्त परिवार का, प्रभु-कृपा से, भरण-पोषण होता था।
अपने सेवा-काल में, मैं अधिकतर, फ़र्रुख़ाबाद जनपद के मुख्यालय, फतेहगढ़ में ही रहा। बीच-बीच में दो-तीन बार तहसील अलीगढ व कायमगंज में भी रहा। अपने सेवा-काल व गृहस्थ-जीवन में अनेकों बार, भगवतकृपा का मुझे सौभाग्य मिला।
ऐसी ही एक घटना है। उन दिनों मैं फतेहगढ़-कचहरी में 'रिकॉर्ड-रूम में मुहाफ़िज़-दफ्तर [मुख्य-लिपिक] के पद पर कार्यरत था। अगले दिन आयुक्त महोदय का मेरे कार्यालय में निरीक्षण था। किन्तु उस आगामी दिवस की पूर्व-सन्ध्या में ही कुछ प्रेमी व सत्संगी-भाई मेरे निवास पर पधारे। उनके साथ काफ़ी देर गए-रात तक भगवतचर्चा चलती रही। अगले दिन भी भागत्कृपा व प्रभु-चर्चा का कुछ ऐसा दौर रहा कि संकोच-वश वहाँ से निकलना ही न हो सका। अपने नियत समय पर ठीक दस बजे कचहरी पहुँच जाता था किन्तु आज दोपहर का एक बज गया और मैं अपने कार्यालय न पहँच सका।
आयुक्त महोदय के आगमन एवं उनके निरीक्षण का ध्यान आते ही मैं यकायक हड़बड़ा गया। किसी प्रकार भागा-भागा 'राम-राम' करता कार्यालय पहुँचा। मेरे दिल में यही डर था कि अब ख़ैर नहीं।
कार्यालय पहुँचते ही धीरे से डरते-डरते मैं कुर्सी पर जा बैठा तथा विचार करने लगा कि आयुक्त महोदय के निरीक्षण के समय मेरी अनुपस्थिति का उनके ऊपर बड़ा ही बुरा प्रभाव पड़ा होगा और कलेक्टर साहिब सहित अन्य अधिकारियों को भी मेरे कारण क्या-क्या सुनना पड़ा होगा। यों अनेकानेक अनहोनियों की कल्पना से ही मेरा जी घबराने लगा।
अंत में डरते-डरते अपने निकटस्थ एक लिपक से मैंने धीरे से पूँछा - "कहो भाई, निरीक्षण ठीक प्रकार तो हो गया ? कोई अनहोनी घटना तो नहीं घटी ? भाई मैं बड़ी विचित्र स्थित में फ़ंसा था, मैं विवश था। कुछ अतिथि घर पर आ गए थे, अतः आने में इस प्रकार इतना विलम्ब हो गया। अपनी अनुपस्थिति में निरीक्षण की कल्पना से ही जी घबरा रहा है। जीवन में पहली बार ऐसी त्रुटि हुयी है। न जाने आप लोग मेरे बारे में कैसी-कैसी धारणाएँ बना रहे होंगे। कलेक्टर साहिब तो मुझसे बड़े ही रुष्ट होंगे। उन्होंने कहीं उन्होंने मुझे बाद में बुलवाया तो नहीं ?" एक ही सांस में अपराधी की भाँति कहता गया। मेरे चेहरे की हवाइयाँ उड़ रहीं थीं। लगता था मानों चोरी करते, मैं 'रंगे-हाँथों' पकड़ा गया था। कार्यालय में बिना पूर्व-सूचना देर से उपस्थिति का यह मेरा पहला अपराध था। अतः मैं कुछ अधिक ही घबरा गया था।
मेरी इस दयनीय स्थिति पर उक्त लिपिक आश्चर्य से हँसने लगा और उलाहने भरी भाषा में कहने लगा - "क्यों बड़े बाबू ! इस बुढ़ापे में, मैं ही बचा हूँ इस प्रकार के मज़ाक के लिए। अभी-अभी साहिब लोग मुआइना करके गए हैं। आपने स्वयं ही तो इस कुशलता से पूरा मुआइना कराया कि वे सब अचम्भे में पड़ गए थे। पूरे रिकॉर्ड-रूम से जो-जो भी फाइल वे माँगते थे, आप एक झटके से निकाल कर प्रस्तुत कर देते थे। और अब यूँ मुझसे मज़ाक कर रहे हैं। पहले तो कभी ऐसी हरकत आप ने नहीं की।" उसके इस उत्तर से मानों मेरे मुँह पर एक ज़ोर का भरपूर तमाचा-सा पड़ा। मैं तिलमिला उठा।
मुझे यह समझते देर न लगी कि यह लीला किसकी थी। स्वयं मेरे प्रभु ने आ कर मेरी अनुपस्थिति में पूरा मुआइना करवाया। उन जैसा कुशल और कौन हो सकता है। मुझ अकिंचन दास के लिए उन्हें इतना कष्ट उठाना पड़ेगा, मुझे आशा न थी।
मैंने आत्मग्लानि से कातर हो कर निश्चय कर लिया कि अब सेवा-अवधि-बृद्धि की शासकीय अनुकम्पा के प्रति उदासीन हो जाऊँगा और अविलम्ब नौकरी छोड़ दूँगा, और उसी दिन सेवा-निवृत्ति के लिए प्रार्थना-पत्र दे आया। शीघ्र ही उसकी स्वीकृति हो गयी। 30 जून 1928 का दिन सरकारी सेवा का मेरा अन्तिम दिन था। अब मैं सेवा-निवृत्त हूँ ? जी नहीं। सरकारी नौकरी छोड़ कर अपने प्रभु की चाकरी कर ली है और उन्होंने भी महान कृपा करके मुझ दास को अपनी सेवा में ले लिया है। मैं 'पुरुष' के दर्शन कर धन्य हो गया हूँ।
अनुपम अलौकिक । कोटि कोटि नमन वंदन ।।
ReplyDeleteशब्दातीत। हम जैसे जीवों पर अहैतुक कृपा ।
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरणादायक है, धन्यवाद
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