मेरे रहनुमा मेरे हुज़ूर
मेरे मन व प्राण के देवता ! जो एक बार मेरे जीवन में आये तो रोम रोम में समाते ही चले गए। मेरा अपना जो भी था, तुमने हठात अपने अस्तित्व में समेट लिया। स्वप्निल आनंद की छटा के श्रोत ! मैं कैसे तुमसे निवेदन करूँ - देव ! एक बार तुम मेरी और निहारो, कुछ तो बोलो। मैं कैसे समझूँ, तुम्हारा संकेत क्या है? जब तक तुमसे परिचय न था, जब तक तुम्हें जाना न था, तब तक कोई बात न थी। रास्ता रोक कर, बलात हठ पूर्वक, तुम मेरे जीवन - पथ में आये, मेरी सारी अल्हढ़ता और नादानी पर मुस्कराहट की वर्षा करते हुए आये, मेरे अबोध ह्रदय में अपनी मोहिनी डाल कर अपने आकुल-स्पर्श से मुझे नहला दिया, मेरा रोम रोम उस स्पर्शजन्य आनंद में भीग गया। अर्ध चेतन, स्पर्श विस्मृत दशा में तुमने मेरी बाहें थाम लीं, मेरे सिर को, या मानों मेरे सारे अहंकार को अपनी विशाल छाती [जो मेरे लिए मानों समस्त श्रष्टि ही थी] में छिपा लिया और मेरे सारे शरीर को अपने मर्मस्पर्शी हांथों से सहलाया, मेरी समस्त कालिख और कुसंस्कार धो डाले।
तुम्हारी ही गुनगुनी ओढ़नी, तुम्हें भी याद होगा, तुम्हीं ने अपने ही हाँथों से उढ़ाई थी - इस काँपती हुयी काया को। क्यों, तुम दूर ही दूर रहे थे, मैं सुन रहा था अपने सीने में तुम्हारी धड़कनों को - आग ही आग, मैं लेकिन उससे झुलस जानें के बजाय, सो गया - अचेत। मेरे जन्म जन्म के पुण्य उदय हुए। तुम्हें देखा, साक्षात, हाँ बिलकुल वैसा - जैसा कि तुम हो किन्तु बाहर नहीं, अपने अंतर में। हाँ इन आँखों से नहीं, अंतर की आँखों से।
मेरी आध्यात्मिक यात्रा के प्रारम्भिक अध्याय की एक घटना जो कि उस समय की है जब मैं अपनी किशोरावस्था समाप्त करके युवावस्था की दहलीज़ पर था। मेरा विवाह बचपन लाँघते-लाँघते, किशोरावस्था में ही हो चुका था। उस समय तक मैं हुज़ूर महाराज के सम्पर्क में नहीं आया था, उनकी खुशबू से अनभिज्ञ था। माताजी के बाद पिताजी का पवित्र साया भी हमारे सिर से उठ चुका था। इसी बीच जहाँ एक ओर साँसारिक अभावग्रस्तता का ज्वार, वहीं दूसरी ओर परिवार-वृद्धि का नया मोड़। मेरी प्रथम सन्तान - चि0 हरिश्चन्द्र का जन्म के एक माह के उपरान्त ही स्वर्गवास, उसके ठीक एक वर्ष के उपरान्त एक कन्या [सौ0 पुष्पा रानी] का जन्म; इस सब ने मुझे झकझोर कर रक्खा हुआ था। नौकरी थी नहीं, पैतृक जमा-पूँजी भी समाप्त हो चुकी थी अतः अब तक 'फ़ाक़ःकशी' [भूकों मरने] की कगार पर हम थे। कई-कई दिन चूल्हा नहीं जलता था। इसी बीच बेटी पुष्पा रानी गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी। हालत नाज़ुक थी। घर से बाहर किसी डॉक्टर को लेने के लिए निकला। अचानक ही एक 'प्रकाश-पुञ्ज' के मध्य एक अति तेजस्वी महापुरुष के दर्शन हुए। [कालान्तर में जाना कि वह ही मेरे सर्वस्व, मेरे सदगुरुदेव, मेरे हज़रत क़िब्ला, 'हुज़ूर महाराज' ही थे]। स्वचालित ढँग उन्हें प्रणाम निवेदन किया। उन्होंने प्रश्न किया - "इतनी तेज़ी से कहाँ जा रहे हो ?" मैंने निवेदन किया - "घर में लड़की की तबीयत ज़्यादा ख़राब है, इसलिए डॉक्टर को लेने के लिए जा रहा हूँ।" 'महापुरुष' ने फ़रमाया "शुरू में मैंने कुछ 'तिब' [चिकित्सा-शास्त्र] पढ़ा था। चलो मैं तो देखूँ, शायद मरज़ [बीमारी] समझ में आ जाय तो दवा दे दूँ।" मैं उन्हें घर लिवा लाया। [अनजाने ही सही, "सेवक सदन स्वामि आगमनू।" की अवचेतना मुझे अनुभूत हो रही थी। .. . इत्यादि]। उन्होंने बेटी की नब्ज़ देखी और कहा "बेटी ठीक हो जायगी, चिंता मत करो।"
मेरे अवचेतन मन में उठ रहे भावों का सार संत तुलसीदास जी की वाणी में समाहित था -
"सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।
आयसु होइ सो करौं गोसाईं। सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई।।"
[मानस 02/03-04]
[ यद्यपि सेवक के घर स्वामी का पधारना मङ्गलों का मूल और अमङ्गलों का नाश करने वाला होता है, तथापि हे नाथ ! उचित तो यही था कि प्रेमपूर्वक दास को ही कार्य के लिए बुला भेजते, ऐसी ही नीति है। परन्तु प्रभु ने [आप] प्रभुता छोड़ कर [स्वयं यहाँ पधार कर] जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गोसाईं ! अब जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ। स्वामी की सेवा में ही सेवक का लाभ है।]
उन्होंने कुछ दवा ले कर दी और कहा कि "माँ के दूध में घोल कर दे दो।" पाँच मिनट बाद दरियाफ़्त किया - "कैसी हालत है ?" मैंने बतलाया कि "अब हालत ठीक है।" बस धीरे-धीरे उनके सामने ही बेटी की हालत सँभलने लगी। तब तक भोजन का समय हो गया था। मेरे यहाँ गत कई दिनों से खाना नहीं बना था, ऐसी तंगहाली थी। लेकिन बाज़ार में मेरी साख थी कि उधार सामान मिल सकता था। लिहाज़ा कुछ इंतज़ाम करने के लिए जाने लगा। उन्होंने फ़ौरन मुझे रोक दिया और फ़रमाया, बाज़ार से कुछ सामान लाने की ज़रुरत नहीं है, घर में जो कुछ हो ले आओ।" मैंने अन्दर आ आकर कहा "वह बाज़ार से कुछ लाने नहीं देते और बार-बार कह रहे हैं कि घर में जो कुछ हो तो ले आओ। "तो देखो, भुने हुए चने या और कोई चीज़ खाने लायक हो तो निकालो।" जवाब मिला कि "अगर कुछ होता तो फ़ांके [लँघन=starvation] क्यों होते ?" बड़ी मजबूरी दरपेश थी। वह 'महापुरुष' समझ गए, फ़रमाया "उस दिन जब हमारी बेटी [मेरी धर्मप्रिया - बृज रानी] ने रोटी बनायी थी तो एक टिकिया आटे की जो एक तरफ़ जल गयी थी, वह अब भी पड़ी होगी। वही ले आओ और उसके साथ किसी चीज़ का अचार लेते आना।" मैं अंदर गया, देखा तो वाक़ई चूल्हे पर एक तरफ़ जली हुयी रोटी की टिकिया पड़ी थी। मैंने उसे उठाया और अचार के एक टुकड़े के साथ उन फ़रिश्तेनुमा बुजुर्ग़ के सामने पेश किया। 'आप' खा कर उठे। इसी बीच मैंने कहीं से एक रूपया उधार ला कर चलते वक़्त आपको 'फ़ीस' पेश की। आपने फ़रमाया "बेटे ! देखो, इसकी ज़रुरत नहीं है, क्योंकि यह मेरा पेशा नहीं है।" चलते समय मैंने चाहा उन्हें 'इक्के' [one horse vehicle] पर बैठा दूँ। उन्होंने इन्कार कर दिया और कहा - "मैं रोज़ाना दो-ढाई मील टहलने निकलता हूँ, आज इधर ही निकल आया।" इस प्रकार वह पैदल ही घर के लिए वापस चले गए।
समस्त विश्व के सुखों के अम्बार की कल्पना से परे हट कर, सब कुछ भूल कर, उस चेतना की स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ, जो आज मेरे ह्रदय के कण कण में समायी हुयी हैं। उन अविस्मरणीय क्षणों का स्मरण मात्र भीतर बना हुआ है। उस स्पर्श की हलकी सी सिहरन भर रह गयी है। असीम व्याकुलता और आतुरता भरी ललक को ले कर, अपने भीतर डूब कर तुम्हें पकड़ना चाहता हूँ, तुममें पुनः समां जाना चाहता हूँ, तुम्हें बाँध लेने का विफल - प्रयास भी करता हूँ, और कभी कभी ऐसा बोध भी होता है कि तुम आ गए, किन्तु मत पूँछो, तुम्हारा ही छल तुम्हें कैसे बताऊँ। तुम्हारा यह तरसाना भी तो क्या है ? कैसे कहा जाय। जहाँ प्राणों में हाहाकार, अतृप्त उत्कट - लालसा है, वहाँ परछाईं के ही दर्शन हों - यह तुम्हारी कैसी निष्ठुर लीला है।
हे नाथ ! तुमसे कैसे निवेदन करूँ कि यह सम्बन्ध भी तो तुम्हारा ही स्थापित किया हुआ है। तुम्हारी ओर जीवन में एक ही बार दृष्टि उठी है, तुम्हें देखने का प्रयास किया है। और तभी मेरी समग्र चेतना, समस्त धमनियों व शिराओं ने एक स्वर में कहा था - यही तुम्हारी माँ है यही तुम्हारा स्वामी है और यही तुम्हारा सब कुछ है। किन्तु मैं कहाँ हूँ ? मेरे अस्तित्व का कण कण हँसा था मेरी बेवकूफियों पर - "अरे मूर्ख ! जिसे तू मैं मैं कहते थकता नहीं था, उसी का परिवर्तित रूप है यह।"
सुखद अनुभूति की आकण्ठ तृप्ति अनायास ही अभिव्यक्ति की पयस्वनी बन जाती है। प्रदर्शन और प्रकाशन इसका हेतु नहीं होता। होता है वस्तुतः वह आतंरिक आत्मियता एवं अपनत्व जिसके प्रेयस श्रेयस परिवेष में साधक अपने सभी अपनों को ले जाना चाहता है। इसी आशय से अपने प्रियतम, अपने सदगुरु स्वामी का वर्णन करके पाठकों को अपनी आतंरिक - चेतना की अनुभूति के दर्शन कराना चाहता हूँ व ऐसा कर पाने में पाठक कदाचित मेरी कठिनाई का आभास भी पा चुके होंगे।
विषयगत मुख्य - प्रवाह में जानें से पूर्व, पाठक यदि मुझे आज्ञा दें तो कुछ क्षणों के लिए उन्हें मैं "मानसलोक" में ले चलूँ। संभवतः कुछ दिशाबोध हो जाय, क्योंकि बात से बात निकलती है। कुछ इस प्रकार का प्रयास करूँगा कि मेरे अंतर्मन की अभिव्यक्ति तब तक मुखरित हो जाय।
'श्री रामचरित मानस' में अनासक्ति भक्ति योग के उपासक हैं - श्रीमन अगस्त मुनि के एक प्रिय शिष्य - सुतीक्ष्ण जी, जिनकी भगवान राम में अनंत प्रीति है। वोह मन, वचन और कर्म से उन्ही के सेवक हैं, उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं है। सूफी संतमत दर्शन की भी यही जान है। इन संतों का कहना है - "किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ" वे अपने इष्ट के दर्शनों की प्रतीक्षा में सारा जीवन लगा देते हैं और दूसरी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखते। यही हमारे यहाँ की साधना है।
उन्होंने [सुतीक्ष्ण जी] ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता से दौड़ पड़े - "हे विधाता ! क्या दीनबंधु - श्री रघुनाथ जी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेंगे? क्या स्वामी श्री राम जी, छोटे भाई लक्षमण जी सहित मुझ से अपने सेवक की तरह मिलेंगे? मेरे ह्रदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता; क्योंकि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान, कुछ भी तो नहीं है। मैंने न तो सत्संग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किये हैं और न प्रभु के चरण-कमलों में मेरा दृढ़ अनुराग ही है। हाँ, दया के भंडार प्रभु की आन है कि जिस किसी को दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है।"
भगवान की इस आन का स्मरण आते ही मुनि आनंदमग्न हो कर, मन ही मन कहने लगे - "अहा ! भवबंधन से छुड़ाने वाले प्रभु के मुखारबिंदु को देख कर आज मेरे नेत्र सफल होंगे।"
"दिसि अरु विदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउ कहाँ नहिं बूझा।
कबहुँ फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।
अविरल प्रेम भगति मुनि पायी। प्रभु देखे तरु ओट लुकाई।
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे ह्रदय हरन भव भीरा।"
इस प्रकार मन ही मन में मगन हो कर मुनि बीच रास्ते में स्थिर हो कर बैठ गए मानो प्रेम समाधि में निमग्न हो गए हैं। किन्तु -
"मुनिहिं राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा।
भूप रूप तब राम दुरावा। ह्रदय चतुर्भुज रूप दिखावा।
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसे। बिकल हीन मणि फणि गन जैसे।
आगे देखि राम तनु स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा।"
श्री राम जी ने मुनि को बहुत प्रकार से जगाया पर मुनि नहीं जागे, क्योंकि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख प्राप्त हो रहा था। तब श्री राम जी ने अपने भूप रूप को छुपा लिया और उनके ह्रदय में अपना चतुर्भुज रूप प्रगट किया। तब अपने इष्ट स्वरुप के अंतर्ध्यान होते ही, मुनि इस प्रकार व्याकुल हो उठे जिस प्रकार श्रेष्ठ मणिधर सर्प मणि के बिना व्याकुल हो जाता है। मुनि ने अपने सामने सीता जी और लक्षमण जी सहित श्यामसुंदर विग्रह सुखधाम श्री राम जी को देखा।
यहाँ पर समझनें योग्य बात यह है कि सुतीक्ष्ण जी के इष्ट हैं - दशरथ पुत्र राजा राम। किन्तु क्या वे सचमुच ही, 'राजा राम' अथवा 'मनुष्य' हैं ? वे तो समस्त सृष्टि के सृजक स्वयं परमब्रह्म ही हैं। इसी प्रकार मेरे हज़रत क़िब्ला प्रगट में तो एक सूफी संत मात्र हैं किन्तु मुझ पर उनकी ऐसी-ऐसी कृपाएँ हुईं हैं कि मैंने परमब्रह्म के रूप में उनके दर्शन किये हैं। वे जो हैं, उसका वर्णन तो जन्मजन्मांतर के प्रयास के बाद भी न कर पाउँगा किन्तु उनका स्वरुप जो सभी पर प्रगट है, उसका चित्रण भी कुछ कम रमणीय नहीं है।
प्रसंगवश एक बात और स्पष्ट कर दूँ। प्राचीन इतिहास के अध्यन से एक तथ्य उभर कर सामने आता है कि उन दिनों जो भी पीठासीन धर्मगुरु होता था वही शासनाध्यक्ष भी होता था। शासन में मुख्य-मुख्य विभागों के प्रभारी भी भिन्न-भिन्न स्तरीय धर्मगुरु ही हुआ करते थे। इसी व्यवस्था के अंतर्गत न्यायाधीश भी ऐसे ही धर्मगुरु ही होते थे। उदाहरणार्थ : 'काज़ी जी', फौज़डारी [criminal] के मुक़दमें और 'मुफ्ती साहिब', माल [civil] के मुक़दमें तय किया करते थे।
फतेहगढ़ जो कि उत्तर प्रदेश सरकार के नागरिक प्रशासन के हेतु यहाँ का जनपदीय मुख्यालय है, से फर्रुखाबाद जानें वाला मुख्य मार्ग, जो कि फर्रुखाबाद नगर के गर्भ से होता हुआ आगे तहसील की ओर जाता है। इसी सड़क पर जैसे ही फर्रुखाबाद नगर प्रारम्भ होता है - एक मोहल्ला पड़ता है, जिसका नाम है ‘नितगंजा’। इसी नितगंजा मोहल्ले में मुख्य मार्ग पर 'मुफ्ती साहिब का मदरसा’ के नाम से एक 'मदरसा' है जिसमें प्राइमरी स्तर के बच्चों के विशेष तौर पर उर्दू - फारसी के अतिरिक्त इस्लामी दर्शन एवं अनुशासन की शिक्षा दी जाती है। उन दिनों, मैं यह नहीं जानता था कि इसी मदरसे के परिसर से ही मुझे लगाव क्यों था।
पिताजी का शरीरांत हो चुका था। घर की आर्थिक- स्थिति अब ऐसी न रह गयी थी कि कुछ न कर के भी काम चलाया जा सकता हो। तत्कालीन कलेक्टर महोदय की कृपा से कचहरी में नौकरी मिल गयी। वहाँ वेतन कम होते हुए भी इतना था कि रोटी-दाल की कमी न रही। कम पैसों में किराए का मात्र इतना ही मकान था कि हमारे परिवार के लिए सोने - लेटने की व्यवस्था भर थी। इसके अतिरिक्त ले - दे कर थोड़ी सी अतिरिक्त जगह थी जो रसोई कही जा सकती थी। इन दिनों अतिरिक्त समय भी हमारे पास पर्याप्त बचता था जिस में धार्मिक व दर्शन से सम्बंधित पुस्तकें पड़ने का मुझे शौक था। पुस्तकों के रख-रखाव व एकांत में पढ़ाई की व्यवस्था इस छोटे से मकान में न थी। हम इस टोह में थे कि किसी ने बताया कि पास में स्थित 'मुफ्ती साहिब की पाठशाला' के परिसर में एक कोठरी [किराए की] उपलब्ध है।
यह भी एक संयोग ही था कि वह हमें मिल भी गयी। अगले दिन मैंने अपनी पुस्तकों व कुछ आवश्यक सामान ले जा कर उस कोठरी में जमा लिया और रहना प्रारम्भ कर दिया। हमारे पिता जी के समय में मकान की ऐसी व्यवस्था थी कि पुरुषों का आवास, महिलाओं से अलग रहता था। इस कोठरी के मिल जाने पर मुझे ऐसा लगा, मानों उसी पूर्व व्यवस्था की पुअरावृत्ति हो रही हो। अब मैं अपने मकान में जहाँ मेरी पत्नी इत्यादि रहते थे, विशेष आवश्यकता के समय, जैसे भोजन इत्यादि के लिए ही जाता था अन्यथा, कचहरी के समय के अतिरिक्त मेरी रहनी - सहनी इसी पाठशाला की कोठरी तक ही सिमट कर रह गयी थी क्योंकि व्यर्थ घूमना फिरना मुझे प्रारम्भ से ही अच्छा नहीं लगता था।
'मुफ्ती साहिब की पाठशाला' के मुख्य द्वार
Main Gate of The 'Madarssa-Mufti Sahib' |
से घुसते ही एक पक्की इमारत, मसजिद की है। इससे सटा हुआ ऊँचे चबूतरे से प्रारम्भ होने वाला पक्का विशाल भवन पड़ता है - यही 'पाठशाला' है। बायीं ऒर से किनारे- किनारे, छोटी-छोटी कोठरियों का चलता हुआ क्रम 'ऐल' शेप में घूमता हुआ, पुनः उसी मुख्य द्वार तक आता है। इन्ही कोठरियों की कतार के बीच से क्रम को तोड़ता हुआ एक छोटा द्वार है जो पाठशाला भवन के सहारे निकलती हुयी एक पतली गली में खुलता है। जहाँ पर कि, पूर्वलिखित एक छोटे से मकान के भाग में मेरे परिवार के अन्य सदस्य रहते हैं।
कोठरियों की कतार में फ़ाटक [मुख्य द्वार] से तीसरी कोठरी में [इसी इमारत के निकट 'पीपल-मन्दिर' के स्थान में समाहित, स्थान पर पूर्वी भाग में कोठरीनुमा एक कमरा जीने =stait-way के पास है] 'राम चन्द्र' नाम का यह सेवक, और अंतिम व 'पाठशाला भवन' से सटी हुयी कोठरी, जो मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही लगभग ठीक सामने स्थित है, इसी कोठरी में उन दिनों ‘मौलवी साहिब’ रहते थे जो इस पाठशाला में बच्चों को पढ़ाया करते थे। इन मौलवी साहिब में आकर्षण था या यों कहिये कि आकर्षण शक्ति स्वयं अवतरित हो कर वहाँ उनमें अभिव्यक्ति हो गयी हो। पौलवी साहिब पाठशाला से बाहर बहुत कम निकलते थे। बच्चों को पढ़ाने के समय के अतिरिक्त अधिकतर वे अपनी कोठरी में ही विराजमान रहते थे। जहाँ तक मुझे ध्यान है मैं पाठशाला परिसर या उसके भवन में पहले कभी नहीं गया था किन्तु जैसा कि पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, बाहर से इस परिसर के प्रति बहुत ही ज़्यादा लगाव था और इस कारण अनायास, यूं कहिये कि बिना कारण ही मैं इस पाठशाला के सामने हो कर बार बार निकलता था। यही क्रिया, पर्याप्त समय तक चली। जिस प्रकार आत्मा के दर्शन न होते हुए भी शरीर से आकर्षण होता है, उसी प्रकार, यह तो उन मौलवी साहिब की एक झलक मिलने के बाद ही ज्ञात हो सका कि यह तो वह गुलाब है जिसकी महक से समस्त वातावरण मस्त व सुगन्धित हो रहा है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि मैं निवेदन नहीं कर सकूँगा कि मैंने कब उन्हें देखा और कब नहीं देखा क्योंकि यह मेरी सामर्थ्य से परे की बात है।
अन्ततोगत्वा कुछ ऐसी लौ लगी कि जब तक बार बार देख कर उनकी छवि अंतर में इतनी न उतार कर उसी में बेसुध हो जाऊं, मुझे चैन न पड़ता था। अब तो यह स्थिति हो गयी है कि -
"प्रेम प्रीति की चुनरि हमारी, जब चाहों तब नाचौं महारवा।
ताला कुँजी हमैं गुरु दीनी, जब चाहीं तब खोलौं किवरवा। "
जब आँखें बंद होतीं हैं तो ह्रदय के रंगमहळ में, और जब आँखें खुलतीं हैं तो समस्त सँसार के बृंदाबन में, बस वोह ही वोह दीखते हैं।
कचहरी की मेरी नौकरी, कम वेतन में गृहस्थी की घिसटती गाढ़ी और न जानें क्या-क्या ; सभी कुछ एक ओर, और मौलवी साहिब, जो मुझ पर तो क्या, किसी पर भी प्रगट नहीं हैं, एक ओर। कुछ तो है, बात जो किसी से कहते नहीं बनती और कह भी नहीं सकता। देखे बिना रहा जाता नहीं और देखने में आता नहीं - इसी असमंजस में प्राण अटके हैं। वोह तो शीशमहल में बैठा बैठा मेरी ओर देख रहा है परन्तु मेरी इन अभागिन आँखों के लिए तो वोह पर्दानशीं ही बना हुआ है -
"तू मोहिं देखै, तोहि न देखूं - यह मति, सब बुधि खोई।
सब घट अंतर रमसि निरंतर, मैं देखन नहिं जाना।
गुन सब तोर, मोर सब अवगुन, कृत उपकार न माना।
मैं तय तोरि मोरि असमझि सौ हो, कैसे निस्ताना।
कहिं रैदास कृष्ण करुणामय, जय जय जगति अधारा।"
मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि पाठशाला - प्रांगण में स्थित मेरी कोठरी के पास ही एक छोटा द्वार है जो मेरे किराए के मकान [जहाँ मेरा परिवार था] के ठीक सामने ही खुलता था। किन्तु जानबूझ कर मैं, पहले मेन-रोड पर जाता, और पाठशाला के मुख्यद्वार से हो कर ही अपनी कोठरी तक पहुंचता जिसका कारण - मौलवी साहिब के आकर्षण के अतिरिक्त कुछ और न था। इस ‘परेड’ को करते, अभी बहुत अधिक समय भी नहीं बीता था कि मौलवी साहिब से किसी औपचारिक परिचय के आदान-प्रदान के बग़ैर ही "आदाब अर्ज़ हुज़ूर" का सिलसिला, संभवतः मेरी ही ओर से न जानें, कैसे प्रारम्भ हो गया, मुझे आज तक पता नहीं। पता तो मुझे यह भी नहीं कि प्रति-उत्तर में उधर से कब और कैसे कुछ ऐसा मूक आशीर्वाद स्फुरित होने लगा जिससे मेरा रोम रोम खिल उठता और ऐसी स्फूर्ति और चेतना प्राप्त होती कि उसकी मुझे लत ही लग गयी, मानों यह भी मेरा कोई ऐसा व्यसन हो कि जिस पर मेरा नियंत्रण ही न रह गया हो। इस प्रक्रिया में हुयी प्रेमानुभूति का वर्णन शब्दों में कर पाना भी मेरे बस की बात नहीं। किन्तु इतना होश बाकी था कि यही सिलसिला जल्दी ही मुझे ऐसे मुक़ाम पर ले आया कि लगता था कि मानों इन सबको छोड़ कर अब मेरी जीवन-ज्योति ही कहीं न बुझ जाय। घूँघट का पट खोल देने पर प्रियतम तो मिल गए। पर अब तो प्रतिपल उनके मधुर दर्शन के पीछे पीछे मन भागता है, बेचैनी ऐसे कि रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। प्रतिदिन एक ही पल की झांकी, दिन-रात के लिए आँखों का निरंतर व्यापार बन चुकी थी। अब तो सर्वत्र वोह ही दीखने लगे थे ; इस सहज समाधि का स्वरुप भी कुछ कम लुभावना न था।
"जहँ जहँ डोलौं सो परिकर्मा, जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवों तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा।
कहौं सो नाम, सुनोँ सो सुमिरन, खावौं - पिवोँ सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावोँ दूजा।"
और;
"खुले नैन पहिचानौं हँसि हँसि, सुंदर रूप निहारौं।"
वह घड़ी मेरे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घड़ी थी। ईस्वी सन 1891 की दिसम्बर की एक रात। उस दिन कचहरी में कार्य की कुछ असाधारण अधिकता, पैदल ही घर वापसी, अतः घर आते-आते दिन मुन्द गया था और रात अपने पैर पसारने लगी थी। वर्षा ऋतु तो न थी फिर भी घटाटोप बादल व वर्षा, घुप अँधेरा और बिजली रुक रुक कर कौंधती। वारिश थी कि रुकने का नाम ही न लेती थी। पूरी तरह से भीग चुका था और पानी मेरे ऊपर से गुज़रता हुआ लगातार नीचे गिर रहा था। मैं ही क्या कोई भी होता, उसका पूरा शरीर काँपता व दांत किटकिटाता होता। बुरी हालत थी। कोई भी अथवा किसी के लिए भी मैं दया का पात्र बन सकता था किंतु मैं इस सबसे बेखबर, आज भी नित्य की ही भाँति, दीवानों की तरह डगमगाते पग, पाठशाला में अपनी कोठरी की ओर बढ़ा चला जा रहा था कि इसी बीच, मौलवी साहिब की प्रेममयी कृपा द्रृष्टि ने सिर से पैर तक ढाँप लिया। मैंने स्पष्ट महसूस किया कि मेरे भीतर एक गुनगुना अहसास सक्रिय हुआ। जिस प्रकार लोहे का टुकड़ा, बड़े चुम्बक के पत्थर की ओर, स्वचालित गति से बढ़ा चला जाता है, ठीक उसी प्रकार खिंचा हुआ न जानें कैसे मैं उनके अति समीप पहुँच गया। आज का सलाम, आँखों आँखों में ही हुआ, अस्त व्यस्तता में, विक्षिप्तता में स्वप्नवत। उन्होंने मुझे देखा, मेरे अहोभाग्य। उनकी अमृतमयी वाणी मेरे कानों में पडी - "अरे ! इस तूफान में और इस समय आना।" मैं उनके प्रेमावेग के उफनते हए सागर में डूबनें उतराने लगा। सुधबुध जो शेष थी, धीरे धीरे वोह भी समाप्त हो गयी। अब क्या था, आँसुओं की अविरल झड़ी थी और अभेद्यता का आनन्द दिलाने वाली वर्षा ऋतु। ऐ वाणी ! तेरा होना भी आज सुफल हुआ। आँखों ! तुम भी आज धन्य हो गयीं। कानों ! तुम्हारा पुरुषार्थ भी पूर्ण हुआ। यह आनन्दमय मिलन मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो।
उनसे नज़र क्या मिली कि मेरे तो होश ही जाते रहे। तुरन्त ही पैरों की उँगलियों से ले कर, सिर की छोटी तक सारी देहराशि में बिजली सी दौड़ गयी। तन-मन में एक अजीब सी सिहरन भरी गुदगुदी व्याप्त हो गयी। ऐसा अनुभव होता था कि मानों एक दूसरी आत्मा मेरी आत्मा को अपने अस्तित्व में समेटने का प्रयास कर रही हो। मौलवी साहिब की मिश्री सी घोलती वाणी पुनः मेरे कानों में एक दिव्य संगीत की भांति पडी - "बेटे ! जाओ, जल्दी से भीगे कपडे बदल डालो और फिर मेरे पास आ कर थोड़ी देर को आग से हाँथ-पैर सेंक कर, तब घर जाना। मुझ अकिंचन ने तुरंत ही आज्ञा का पालन किया और उन हुज़ूर के श्री चरणों में आ कर उपस्थित हुआ। हुज़ूर महाराज ने इसी बीच एक मिट्टी की अँगीठी में आग बनायी थी जो अब खूब धधक रही थी। उन्होंने अपनी चारपाई पर ही मुझे लिटा लिया और अपनी रजाई भी उढ़ाई।
उस समय तल्लीनता, आनंद व प्रकाश की वर्षा का वेग इतना उत्कृष्ट व घनीभूत था कि पानी की वारिश और बिजली की चमक उस आवेग के समक्ष फींकी पड़ रही थी। ह्रदय व मस्तिष्क और सारे तन-मन में भीतर-बाहर, निरंतर एक गति की अनुभूति होती थी। एक दिव्य-प्रकाशमयी आनन्द का वातावरण था, जिसमें ऐसा लगता था मानो आत्मा, ह्रदय और ,मन-प्राण को, अपने में लीन कर लेना चाहती थी अथवा यों कहें कि ह्रदय और शरीर, आत्मा में लीन हो रहे थे और वोह समस्त सृष्टि को उसके सृजक की ओर खींच कर लिए जा रही थी। कभी कभी ऐसा भी अनुभव होता था कि सारा शरीर ही पिघल पिघल कर, परमाणु रूप में प्रकाशवान हो कर बहता चला जा रहा हो और मैं पूर्ण प्रकाशस्वरुप हो कर शेष रह गया हूँ।
इसी प्रकार लगभग पूरे दो घण्टे तक हुज़ूर महाराज के पावन श्रीचरणों में सत्संग का यह प्रथम अवसर था। जब वारिश कुछ थमी तो आज्ञा पा कर घर वापस आया। हज़रत क़िब्ला की कोठरी से निकल कर ऐसा लगता था कि पृथ्वी, आकाश समस्त जीव-जन्तु, पेड़-बनस्पतियाँ इत्यादि सभी, उस दिव्य प्रकाश में लीन थे, नृत्य-मग्न थे। प्रारम्भ से अंत तक के सारे आत्मिक चक्र स्वतः ही जागृत हो हो कर अपने प्यारे के गुण-गान में लीन हो रहे थे। यही नहीं, इस दलित-देह और रूप में अब इस 'राम चन्द्र' के स्थान पर समर्थ संत सद्गुरु हुज़ूर महाराज मौलवी शाह फ़ज़्ल अहमद खान साहिब रायपुरी, कायमगंजी, नक्शबंदी - मुजद्दिदी - मज़हरी समा गए थे।
घर वापसी हुयी तो किन्तु बरायनाम; खाना खाना इच्छा के विपरीत लगा। उधर मन ही नहीं गया। वोह तो अब उस पूर्ण तेजस्वी प्रभाव व लय अवस्था में डूबता जा रहा था। लेट गया सो गहरी नींद सी घिर आयी। बड़े सवेरे, लगभग चार बजे स्वप्न देखा : अपार जन समूह के मध्य कुछ तेजस्वी संत व महात्मा वहाँ पर उपस्थित थे। अकस्मात प्रकाशपुँज के मध्य, एक सिंघासन आकाश मार्ग से उतरा और उस भीड़ के सम्मुख एक अत्यंत दिव्य एवं मनमोहक सत्पुरुष उस पर विराजमान दिखाई दिए। इतने में मेरे हज़रत क़िब्ला जनाब मौलबी फ़ज़्ल अहमद खाँ साहिब क़ुद्ससिर्रहु ने बड़े ही विनीत भाव के साथ उन दिव्यरूप सत्पुरुष के समक्ष मुझ मुमुक्ष को प्रस्तुत किया। उन दिव्यात्मा ने इस नाचीज़ को स्वीकार किया और रु-बरु हुए - "तेरा झुकाव सत्य की ओर जन्म से ही है।" उनका शेष सम्बोधन शब्दों में न हो कर अन्तःसंचार के माध्यम से हुआ, अर्थात उन्होंने कहा, मैंने सुना - भीतर ही भीतर। उधर सुबह हुयी, नींद पूरी हुयी और अपने हज़रत क़िब्ला का यह मुरीद, दैनिकचर्या के अनुसार जब सायंकाल श्री चरणों में उपस्थित हुआ तब पूर्वनिवेदित स्वप्न मैंने उन्हें भी ज्यों का त्यों सुनाया। सुनते सुनते वे निहाल हो गए, रोने लगे। मुझे अपनी छाती से लगा लिया - तत्काल फ़रमाया "सचमुच तुम्हारा रुझान जन्म से ही सत्य की ओर है, इसमें कोई शक नहीं है। यह ख्वाब और यह फरमान तुम्हें मुबारक हो।" उसके पश्चात् कुछ क्षण शांत व मौन हो कर आँखें बंद करके बैठे रहे - ध्यानावस्थित थे। पुनः जैसे कुछ याद हो आया हो - "तुम सचमुच ही अज़ीज़ और दुलारे हो। मैं तुमको रोज़ ही आते-जाते देखा करता था और महसूस करता था कि हर रोज़ जब तुम सलाम पेश करते थे तो कितनी तैयारी के साथ। मेरा रोयाँ रोयाँ खिल उठता था। खुद-ब-खुद इतनी दुआएँ; ऐसा लगता था बेचैन हूँ तुम्हें छू लेने के लिए। मैं दिन भर तुम्हारा इंतज़ार करता था, रोज़ देखता था, जी भरता था, कितनी कशिश है, कितनी मोहब्बत है। हर रोज़ नए नए अरमान ले कर बैठता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी है, तुम्हारा ही है, जब चाहो ले लो आ कर, और न जानें क्या क्या पेशबन्दियाँ करता हूँ, मैं जानता था, यह इंतज़ार महज़ इंतज़ार न था और इस तरह रेशा रेशा, मैं तुम्हारे अंदर पैबस्त होता चला गया, मेरी अंदरूनी हालतें ज्यों की त्यों तुम्हारे भीतर उतरती चली गयीं। बेटे ! यह ख्वाब, महज़ ख्वाब नहीं है। तुम्हारे जैसे जीव ज़मीन पर कदाचित ही आते हैं जिनकी राह, मालिक के न जानें कितने बन्दे, संत महात्मा और दूसरे भूले-भटके लोग सैकड़ों और हज़ारों साल इंतज़ार करते हैं। हाँ बेटे ! वही हो तुम। उन्हीं की दुआओं का नतीजा है कि पहली ही बैठक में तुमने जो हाँसिल किया वोह बड़ों-बड़ों को बरसोंबरस की रिआज़त के बाद भी नहीं मिलता। मैंने महसूस किया जैसे कोई बच्चा जो दिन भर के बाद अपनी माँ के पास आया हो और जैसे उसने उसकी छाती से सारा दूध सूंत कर उसने पूरी भूँख मिटाई हो, ठीक उसी तरह मेरी ज़िन्दगी भर की रूहानी कमायी आसानी से पा ली। बेटे मैं बहुत खुश भी हूँ और नाज़ भी है अपने आप पर कि तुम मुझे मिल ही गए। 'फनफिलशेख शेख' होना तो बहुत मामूली बात है, इन्शाअल्लाह, ‘फनाफिलमुरीदी’ तुम पर नाज़ करेगी।"
मेरे हज़रत क़िब्ला
![]() | |
HUZUR MAHARAJ, |
हुज़ूर महाराज का जन्म, यहीं फर्रुखाबाद जनपद [उत्तर प्रदेश] की तहसील - कायमगंज, जिसके अंतर्गत क़स्बा - रायपुर आता है, में हुआ था। यहीं आपका पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा संपन्न हुयी। जीविकोपार्जन हेतु फर्रुखाबाद गए और बाद में पुनः रायपुर वापस आ गए। आपके पिताश्री का शुभनाम जनाब ग़ुलाम हुसैन साहिब था जो सूबा कश्मीर के महान सूफी संत हज़रत मौलाना वली उद्दीन [रहमत उल्ला अलै] के मुरीद थे और उनके खलीफ़ा भी थे। वोह तत्कालीन फ़ौज में निशानवरदार के पद पर कार्यरत थे। हुज़ूर महाराज की माता जी हज़रत मौलाना अफज़ल शाह नक्शबंदी से बैत थीं। हज़रत मौलान शाह साहिब जो मौलाना अबुल हसन नसीराबादी के मुरीद व खलीफा थे, बड़ी ही मोहब्बत से हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी के विषय में फरमाते थे "मेरी बेटी मशीयते एजदी तब्दील कर देती है। " [अर्थात वह ईश्वर की इच्छा और उसका विधान बदलने की क्षमता रखती है] पूज्य माताजी के स्वभाव के अलौकिक गुणों के बारे में हुज़ूर महाराज के गुरुभाई हज़रत मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब की अपनी एक घटना है कि एक दिन हुज़ूर महाराज के छोटे भाई हज़रत मौलवी विलायत हुसैन खां साहिब और हज़रत मौलाना अब्दुल ग़नी खां साहिब दोनों एक ही परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए जाने लगे तो दोनों ने अलग अलग, पूज्य माता जी से अपने अपने पक्ष में सफलता हेतु प्रार्थना किये जाने का निवेदन किया। उन्होंने हामी भर दी। वापस आने पर उनसे दोनों बच्चों ने अपनी अपनी जिज्ञासा रक्खी और उनकी सफलता हेतु प्रार्थना किये जाने का परिणाम जानना चाहा। वे चूँकि इतनी सीधी सच्ची थीं कि प्रतिउत्तर में उन्होंने सच- सच बता दिया कि अपने बेटे अर्थात हुज़ूर महाराज के छोटे भाई के लिए प्रार्थना हेतु जब-जब हाँथ ऊपर उठती थीं हर बार उसका [जनाब अब्दुल गनी खां साहिब] चेहरा सामने आ जाता था। और यह भी बता दिया कि इस प्रकार वे अपने स्वयं के बेटे के पक्ष में प्रार्थना नहीं कर पायीं। हुज़ूर महाराज, पढ़ाई लिखाई में सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए - मिडिल स्कूल की परीक्षा अथवा क्या - नार्मल ट्रेनिंग की परीक्षा। अरवी - फ़ारसी की शिक्षा, हज़रत ख़लीफ़ा जी साहिब [जनाब अहमद अली खां साहिब - रहमत उल्ला अलेहि] से प्राप्त की जो उनके अध्यात्म दीक्षा-गुरु भी थे। आप ने सदैव आध्यात्मिक शिक्षा और अपने सदगुरुदेव की निकटता को दुनियावी जीवनवृत्ति से ऊपर रक्खा। इसी क्रम में अपना एक संस्मरण सुनाया करते थे - "एक बार मैं बेकार हो गया था और दिसम्बर महीने की दसवीं तारीख़ थी। आपने [पूज्य गुरुदेव खलीफा जी साहिब] मुझसे दरियाफ़्त किया कि किस क़दर तन्खाह में [कितने वेतन में] तुम्हारी गुज़र हो जाएगी ? मैंने अर्ज़ किया कि हज़रत, पाँच रुपया माहवारी अलावः खुराक़ के वास्ते दुआ कीजियेगा। हज़रत ने ज़रा से तअम्मुल [विचार] के बाद फ़रमाया कि तुम पहली दिसंबर से इस तनख़ाह पर नौकर हो गए। यह सुनकर मुझे यक़ीन न हुआ। फ़िर हज़रत ने फ़रमाया कि तुझे यह बात झूटी मालूम हुयी? मैंने अर्ज़ किया कि हज़रत सच होगी, मगर दसवीं तारीख़ तक मुझे ख़बर न हो, यह कैसी बात है। उस वक़्त हज़रत ख़लीफ़ा जी साहिब ने बन्दे को नसीहत की, अपने मश्क़ूफ़ात को [गुप्त बातों को जो आध्यात्मिक साधना से प्रगट होने लगती हैं] सब लोगों से छिपाना चाहिए। देखो तुमसा मुरीद मुख्लिस [निष्ठावान] भी यक़ीन नहीं करता तो फ़िर औरों से क्या उम्मीद हो? जब मैं हज़रत से जुदा हुआ तो उसी वक़्त अपनी नौकरी का हाल मालूम हो गया कि मुंशी बद्री प्रसाद वकील ने ज़राद नौकर करा दिया है। उसी वक़्त अपने काम पर गया और बीस रोज़ बाद पूरी तनखाह पायी [पहली दिगम्बर से इकत्तीस दिसम्बर तक का पूरा वेतन प्राप्त किया]।
अपने सद्गुरु भगवान के श्री चरणों में, अभी अधिक समय न बीता था कि मेरे जीवन की अविस्मरणीय व महत्वपूर्ण घटना, एक बार पुनः घटित हो गयी। उस सायं मैं, अपने रहनुमा हुज़ूर महाराज के साथ, उसी मार्ग जो फर्रुखाबाद नगर के गर्भ से निकलता हुआ, फतेहगढ़ की ओर हमें लिए जा रहा था, धीरे धीरे चलते हुए हम आगे बढ़े जा रहे थे। मार्ग में चलते समय, मैं अपने अतीत में, क्या-क्या खो चुका था, उन्हें अपने ही अंदाज़ में निवेदन करता जा रहा था। राजघराने जैसे ठाट-बाट से ले कर, जूतियों से खटपुलिओं, कीमती वेश-भूषा से ले कर मारकीन के तहबन्द और आधी-आस्तीन के कुर्ते और बड़े ही भव्य आलीशान महलों से लेकर, तत्कालीन पाठशाला की कोठरी के प्रवास तक की आप-बीती, मैं नहीं बता सकता, कि क्या समझ कर और किस भावावेश से, उन्हें सुना गया था। इसी बीच नगर की बस्ती हमसे पर्याप्त पीछे छूट चुकी थी - यहाँ पर 'बढ़पुर' नामक ग्राम है जो मुख्यमार्ग के किनारे पर ही बसा है, एक छोटी सी पुलिया है,
-यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते मेरे हज़रत क़िब्ला द्रवित हो उठे थे। दुःख व दुआ का मिला-जुला भाव उमड़ कर उनके भीतर से तूफ़ान की तरह उठा और उसी आवेग के साथ अक्समात उन्होंने मेरे दाहिनें कंधे पर अपना बायाँ हाँथ रख दिया और इस क्रिया के साथ ही हम दोनों यन्त्रवत पीछे की ओर घूम गए। मुझे सम्बोधित करके वोह फ़रमानें लगे - "बस भाई बहुत हो गया। अब नहीं सुना जाता। आइये अब वापस चलें।" कुछ क्षण वोह शान्त रहे व मौन उन्हीं ने तोड़ा - "भाई ! बड़े खुशकिस्मत हो। बड़े होनहार हो। शुक्र अदा करो उस परमात्मा का कि तुमने बहुत ही सस्ते दामों में, वोह दौलत हाँसिल की है जिसका कोई मोल नहीं हो सकता। ... .... . "
उस समर्पण के मध्य भी मेरी चेतना पूर्ण स्वस्थ थी। मैंने स्पष्ट अनुभव किया कि जिस समय उक्त पुलिया तक मैं अपने दुःख भरे उदास अतीत को उनसे निवेदन कर रहा था, वह चुपके - चुपके सुनते जा रहे थे। उस समय तक दुनियाँ का स्थूल रूप मेरे भीतर था किन्तु जैसे ही उनके आदेश पर वापसी हुयी, मैंने एक ऐसी चौखट में प्रवेश किया, जहाँ मात्र दीन और परमार्थ ही था। सारी चिंताएँ और दुःख के भाव ह्रदय से सदा-सदा के लिए सिधार गये थे। मुझे ऐसा लगा मानों मेरा सारा भार, किसी ने उठा लिया हो और उसके स्थान पर अनन्त शांतिमयी प्रेम की प्रतिमा के प्रवेश की अनुभूति मेरे अंतर में हुयी। यह एक आश्चर्यजनक अनमोल सहायता का सम्बल था जिसनें पलक झपकते मुझे कहाँ से कहाँ ले जा कर खड़ा कर दिया।
इस घटना के बाद, मैं नित्यप्रति दोनों प्रहर, सेवक भाव से हुज़ूर महाराज की सेवा में लगातार उपस्थित होता रहा और उनके सत्संग से लाभान्वित होता रहा। बाईस जून ईस्वी सन 1896 के मुबारक दिन इस सेवक की अर्ज़ी मंजूर हुयी -
"मुदित नाथ नाथ नावत, बनी तुलसी अनाथ की ;
परी रघुनाथ सही है।" - विनय पत्रिका [279]
मेरे जीवन के सर्वाधिक पवित्र इसी जून माह की बाईसवीं साँझ [05 बजे सांय काल] इस अधम राम चन्द्र का हाँथ मेरे हज़रत क़िब्ला ने थामा और अपने सद्गुरुदेव जी महाराज हज़रत मौलवी अहमद अली खां साहिब [रहमत उल्ला अलैहि] के मज़बूत हांथो में थमा कर सिलसिला-ए-आलिया नक्शबंदिया - मुजद्ददिया - मज़हरिया में ‘बैत’ फ़रमाया। दीक्षा दी। मेरी असंख्य जन्मों की साध पूरी हुयी। उन्होंने मुझे अपने श्री चरणों में आश्रय दिया, मुझ अधम को अपनाया। उनके अपार वात्सल्य से, प्यार से मैं नहा रहा हूँ। इस अप्रत्याशित दुलार से मैं विमूढ़ सा हो रहा हूँ - कहीं इसका ओर छोर नहीं मिलता।
मैं आपसे क्या कहूँ ; अब तो चलाचली का समां है। हो सकता है, आगे आने वाली पीढ़ियों को मुझ से सम्पर्क या साधन, बस मेरा यह बयान ही रह जाए। आज से 35 वर्ष पहले मैं एक ऐसी जगह खड़ा हुआ था, जहाँ पर मेरे सामने अनगिनत राहें खुली हुयी थीं। मैं निस्तब्ध था कि इन में से किस पथ पर चल निकलूँ। विवेक और दो वस्तुओं में अंतर समझ सकने की बुद्धि तो थी, किन्तु वोह सब कुछ काम नहीं आया क्यों कि प्रत्येक मार्ग पर कुछ न कुछ लोग, किसी पर काम और किसी पर अधिक, चल रहे थे और उन सब से टोह लेने पर प्रत्येक गिरोह [संप्रदाय] अपने साथ ले चलने पर राजी था। राजी ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार दलीलें प्रस्तुत करके कोशिश करता था कि मेरी तबीयत का झुकाव उनकी तरफ हो जाय, पर किसी की दलील, मेरे दिल को लगती हुयी न मिली क्योंकि मेरी दृष्टि चकाचौंध हो रही थी और निर्णय करने की क्षमता इस खींचातानी के सबब से एक बात पर जम जानें के लिए तैयार न हुयी। परिणामतः मैं एक बार तो थक कर बैठ ही गया।
आखिर एक दिन ऐसा आया कि परमपिता परमात्मा ने अपनी दया करते हुए मेरी तरफ निगाह की और अपनी महान शक्ति का साक्षात स्वरुप मनुष्य देह में मेरी सच्ची हमदर्दी करने के लिए मुझ तक पहुँचा ही दिया। यह विश्वरूप दर्शन, जिसने आत्मभाव दर्शन के रूप में आ कर मेरी हमदर्दी की और मेरा हाँथ पकड़ कर पलक झपकते, मुझको कहीं से कहीं ले जा कर खड़ा कर दिया। यह वोह जगह थी, जहाँ दुनियाँ की हर चीज़ अपने प्रताप और तेज से चमकती है। मैंने जो देखा वह देखा और जो पाया सो पाया। आप लोग भी इसकी मिसाल श्री भगवत गीता के पहले अध्याय के श्लोकों में पा सकते हैं, जहाँ अर्जुन ने निराश हो कर अपने हथियार रख दिए थे और मेरी तरह मायूस हो कर आशा और भय की मिश्रित हालत में अपना कर्तव्य पालन करने से इंकार कर दिया था। यदि श्री कृष्ण जी महाराज आनंदकन्द भगवान अपनी महात्म्य और प्रताप के साथ अर्जुन को उस केंद्र तक खींच कर न ले जाते और अर्जुन ही की प्रार्थना पर अपनी दिव्यज्योति, उनके दिल में स्थापित न करा देते तो परिणाम स्पष्ट था। तात्पर्य यह है कि सफलता के राजपथ पर ला कर खड़ा कर दिया गया और मुझ को मेरे काम करने के लिए अकेला नहीं छोड़ा। अपनी छोटी सी सूरत धारण करके मेरे अँधेरे और नापाक दिल की कोठरी में हमेशा के लिए बस गए। वोह मोहिनी सूरत दिल में ऐसी बसी कि मै अपना आपा खो बैठा और यह समझने लगा कि मैं नहीं हूँ, वह ही वह हैं। हलके-हलके, हर रोंगटे-रोंगटे में उसने ऐसा रंग जमाया कि फिर मैं नहीं वह ही था और अंततः यह कि न वह और न मैं, दोनों मौजूद और ग़ैर मौजूद हो गए। जैसा था वैसा रहा।
मेरे मालिक और हाँथ-पकड़ने वाले का उच्च कोटि का साहस और उत्साह तथा स्वाभाविक दया-कृपा, लगातार हर हालत में इस प्रकार व्यस्त और ध्यान देने वाली रही कि सम्प्रदाय और धर्म का कोई भेद-भाव न रखते हुए ईश्वर कृपा की अमृत वर्षा हर प्राणी मात्र पर करते रहे। उनकी हर अंदर आने वाली साँस लोगों के दिलों की कालिमा को साफ़ कर बाहर फेंक देने वाली थी और हर बाहर जानें वाली साँस दिल, दिमाग़ और हर रगों-पट्ठों में ईश्वर कृपा की अमृत-धार को भर देने वाली थी। वोह शरीर में रह कर अपना काम कर गए और अब आज़ाद हो कर उसी काम में तल्लीन हैं। जो जान सके वह जानें, और जो देख सकता है वह देखे।
मैं पहले भी निवेदन कर चुका हूँ और अब पुनः बताता हूँ कि मेरे मालिक क्या चाहते थे - अब पुनः दोहराता हूँ कि उनका हर ख्याल और हर कृत्य, जीव-मात्र के उद्धार के लिए होता था और अब यह उनका स्वाभाव ही बन गया था। उनकी प्रत्येक प्रार्थना फलीभूत होती थी और हर कार्य, परिणामपरख था। जो उनको जानते हैं, वोह जानते होंगे कि उनके व्यक्तित्व से, प्रगट तथा अप्रगट रूप में, जानें क्या-कया लाभ हमको पहुँचे हैं। अत्यंत संक्षेप में यह है कि हमारे हर पारमार्थिक कार्य को प्रारम्भ करने, उसको जारी रखने और परिणाम तक पहुँचाने के लिए जो उपाय प्रचलित हैं, उसमें आज-कल की आवो-हवा का रंग देख कर आसानी की एक ताज़ा और दिलचस्ब मगर धर्म का हर पहलू लिए हुए जान फूंक दी।
अपनी नौकरी के दौरान वर्ष 1896 से अप्रैल 1903 तक तहसील 'अलीगढ़' में नायब-नाज़िर के पद पर रहा, इस दौरान तहसील के 'मवेशी-खाने' [पशु-गृह] का कार्यभार भी मुझे ही देखना होता था। गुरु-कृपा से इस 'मवेशी-खाने' का दायित्व पूरी सूझ-बूझ व ईमानदारी से निभाया। वर्ष 1903 [ईस्वी0] में मेरा स्थानान्तरण तहसील 'अलीगढ़' [ज़िला फ़र्रुख़ाबाद] से इसी ज़िले की तहसील - क़ायमगंज के लिए 'स्याह-नवीस' के पद पर कर दिया गया। प्रारम्भ से ही वर्ष 1898 [ईस्वी0] तक मेरा व मेरे सहोदर-भाई नन्हें जी [महात्मा रघुबर दयाल] का परिवार एक-साथ, एक ही मकान में सँयुक्त-परिवार के तौर पर रहता था। इन्ही दिनों औरतों [लालाजी की पत्नी - सुश्री ब्रिज रानी व चच्चा जी की पत्नी - सुश्री जय देवी ; देवरानी-जिठानी] में अक्सर मनमुटाव हो जाया करता था। अतः दिन-रात की 'चख़-चख़' [wrangling] के निदान-स्वरुप, आपसी सहमति से यह निर्णय लेना पड़ा कि 'खाना-पकाना' व 'रहना-सहना' पृथक कर लिया जाय। संयोग से उन्हीं दिनों क़स्बा अलीगढ में तहसील मुख्यालय की इमारत के निकट ही दो छोटे-छोटे किराए के मकान जो कि एक साथ जुड़े हुए थे, ख़ाली हुए और हम तत्काल उन्हीं मकानों में रहने लगे। वर्ष 1903 [ईस्वी0] में अपने स्थानान्तरण के समय मैं सपरिवार क़स्बा अलीगढ के इस मकान को ख़ाली करके क़ायमगंज आ गया।
अपने क़ायमगंज के प्रवास के दौरान यह मेरा नित्यप्रति का नियम था कि साँझ के समय दफ़्तर बन्द हो जाने के बाद क़ायमगंज से क़स्बा- रायपुर हुज़ूर महाराज के दर्शनों के लिए जाता था और लगभग 10-00 बजे देर-रात घर वापस आता था। क़स्बा-रायपुर और क़ायमगंज [नगर] के बीच लगभग चार मील की दूरी है। एक दिन की घटना है कि क़स्बा-अलीगढ़ से मुंशी चिम्मन लाल साहिब 'मुख़्तियार' क़ायमगंज तशरीफ़ लाये थे। नित्य-प्रति की भाँति जब हम क़स्बा रायपुर की ओर अभी-अभी चले ही थे कि चारों-ओर काले बादल छाने लगे और शीघ्र ही तेज़ वारिश शुरू हो गयी। हाँथ को हाँथ नहीं सूझता था। आगे जाना बिल्कुल असंभव हो गया था। विवश हो कर हम लोग एक पेड़ के नीचे बैठ गए। पेड़ में पत्ते भी नहीं थे जो वर्षा के पानी से बचाते। मैंने उनसे निवेदन किया कि हज़रत क़िब्ला का ध्यान करो और उनसे दया की भीख मांगो। हम लोग थोड़ी ही देर में ऐसा अनुभव करने लगे कि अब हम पानी में नहीं उनकी दया की वारिश से भीग कर उसी में सराबोर हो रहें हैं। धीरे-धीरे पानी की ठण्डक की जगह अब हमारे एहसास में उनकी दया की गुनगुनाहट अनुभूत होने लगी। कुछ देर बाद जब आँख खुली तो क्या देखते हैं कि चारों ओर पानी-ही-पानी भरा हुआ था लेकिन जिस स्थान पर हम बैठे हुए थे वह जगह बिलकुल सूखी थी। जब हम-लोग 'रायपुर' पहुंचे तो सबसे पहिले हुज़ूर महाराज ने प्रश्न किया कि "तुम-लोग भीगे तो नहीं ?” मैनें सारा हाल निवेदन किया। हुज़ूर महराज ने फ़रमाया कि जिस पर परमात्मा की कृपा होती है, प्राकृतिक शक्तियां भी उस पर कृपा करतीं हैं ; फिर फ़रमाया "तुम-लोग इस वर्षा और तूफ़ान में भी आ गए, वर्षा और तूफ़ान भी तुमको मेरे पास आने से न रोक सके। तुम्हारा विश्वास और प्रेम अथाह और अलौकिक है। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। परमात्मा तुम पर सदा अपनी विशेष कृपा-दृष्टि बनाये रक्खे।" हुज़ूर महाराज कुछ देर ख़ामोश रहे, उसके बाद दोनों हाँथ ऊपर करके कुछ मूक प्रार्थनाएं पढ़ीं और आँखें बंद कर लीं। लगभग एक घण्टे तक वे अपनी इसी मुद्रा में अवस्थित रहे। इस बीच एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति में हम सराबोर रहे। सम्पूर्ण वातावरण मानों राधा और कृष्ण की 'रहस्य-लीलाओं' में मग्न और बेसुध था। हमें पता ही नहीं चला कि इतनी जल्दी दो घण्टे कब और कैसे निकल गए। आज उनका यह मूक-प्रवचन था। जब उन्होंने आँखें खोलीं तो स्निग्धता के छोटे-छोटे रश्मि-बिंदु, उनके अस्तित्व से किरणों के मानिन्द प्रवाहित हो रहे थे। बड़ी देर तक यही समां रहा। इस सब में पूरी-रात उन्हीं के श्री चरणों में व्यतीत हुयी। भूख-प्यास का कहीं नामों-निशान न था।
अगले दिन रविवार की छुट्टी थी। वहीं पर जल्दी-जल्दी सभी ने दैनिक-क्रिआओं से निवृत्ति पायी। 'बेबे' [हमारी गुरु-माता] ने हमारे लिए खाने का प्रबंध किया। और हम शीघ्र ही छोटे-छोटे बच्चों की भाँति पुनः हुज़ूर महाराज के चारों ओर दोनों हाँथ बाँध कर बड़े अदब से बैठ गए। हम सोच रहे थे वे कुछ फरमाएंगे। किन्तु ठीक उसके विपरीत उन्होंने बड़े ही मनमोहक अंदाज़ में फर्माया - "हमें तो, जो भी सुनना-सुनाना था, अपना काम कर चुके अब आप में से कोई साहबान कुछ फ़रमावें तो बेहतर होगा। अब मैं कुछ सुनने का मुन्तज़िर हूँ।"
मुंशी चिम्मन लाल साहिब उर्दू-अदब [उर्दू साहित्य] के जानकार हैं, एक जाने-माने शोहरा [कवि] हैं।
![]() |
MUNSHI CHIMMAN LALL 'MUKHTIYAR' |
“हे कृपा सिंधु दयालु गुरु केहि भाँति तव गुण गाऊं मैं ;
तुम्हरे चरित्र पवित्र केहि विधि नाथ कहि के सुनाऊँ मैं।
जिह्वा अपावन है मेरी गुरु नाम कैसे लीजिये ;
संसार सागर में फँसा गुरु-ध्यान कैसे कीजिये।
मन फंस रहा भाव-जाल में वह किस तरह प्रभु दीजिये ;
धन-धान्य माया रूप हैं क्यों कर निछावर कीजिये।
तन कैसे अर्पण कर सकूं यह तो महाँ पापी अधम ;
धन और तन-मन दे के गुरु तुमसे नहीं उद्धार हम।
श्रृद्धा सुमिरिणी भेंट कर मैं दीं हो चरणों पड़ा ;
मैं पतित हूँ तुम पतित पावन आपका है आसरा।
भव सिंधु में हूँ फँस रहा गुरु देव मुझे उठाइये ;
गहि बांह दीनानाथ अपराधी को पार लगाइये।
जो दीन हो चरणों पड़े हे नाथ वे सारे तरे ;
तेरा भिखारी तुम बिना प्रभु आसरा किसका करे।
मैं दीन हूँ तुम दीन बंधू मैं अधम तुम नाथ हो ;
मैं हूँ अनाथ कृपा निधान तो तुम अनाथों के नाथ हो।
माता पिता सुत भ्रात भार्या कोई साथ न जाएंगे ;
उस पाप कुम्भी नरक में कोई न हाँथ बढ़ाएंगे।
स्थूल में है दास प्रभु सूक्ष्म तुम्हारा रूप है ;
गुरुदेव इसको निकालिये सेवक पड़ा भवकूप है।
धन और धरणी सब प्राकृत वस्तु इक दिन छोड़ना ;
संसार से चित मत लगाना सब से है मुहँ मोड़ना।
हे मुर्ख मन परिवार के है मोह में क्यों फंस रहा ;
तू उनको या वह तुझको त्यागें इसमें है संदेह क्या।
धन क्या इकट्ठा कर रहा यह सब यहीं रह जायगा ;
सब छोड़ दे ऐ मन्दमति क्यों उसका लोभ बढ़ घेरता।
धन और कुटुंब का प्रेम अंतिम समय दुखदायी बड़ा ;
यह जगति है ठगनी बड़ी क्यों इसकी ओर निहारता।
जो अन्त में दुःख दे अभी से उसको मूरख छोड़ दे ;
जो मर गए खाली गए क्या साथ अपने ले गए।
बालक अवस्था खेल में तरुणाई में भार्य्या प्रिया ;
जब बृद्धता व्यापक भई अत्यंत भय पैदा हुआ।
भ्रमित फिरा संसार में काहू ने हाँथ गहा नहीं ;
मैं हूँ अधर्मी जगत में कोई मेरा साथी नहीं।
गिर कन्दरा बन और उपवन नग्र नग्र फिर किया ;
भव जाल से जो पार कर दे ऐसा कोई मिला नहीं।
एक रायपुर बस्ती में दीना नाथ संत मुझे मिले ;
गहि बाहँ मोहिं सनाथ करि सब पाप मेरे हर लिए।
श्री राम के दर्शन कराये उनकी भेंट मुझे किया ;
उनकी अनुग्रह दृष्टि से तन मन मेरा निर्मल हुआ।
आनन्द से मेरा दिन उन्हीं के ध्यान में हूँ लग रहा ;
भव जाल से मैं छूट गया जम दण्ड का भय मिट गया।
जो राम सब में रम रहा मन बुद्धि वाणी से परे ;
स्थूल में हूँ देखता दिन रात अपने सामने।
गुरु देव जी यह प्रार्थना मेरी स्वीकार कीजिये ;
हो मृत्यु की मोहिं मूर्छा श्री राम के चरणों तले।
अब ऐ फ़क़ीर आनन्द अपना कैसे सब को दिखाऊँ मैं ;
मैं मुक्त जीवन हो गया गुरु देव पर बलि जांऊ मैं।”
हुज़ूर महाराज ने [मुंशी चिम्मनलाल साहिब द्वारा लिखित] हमारी प्रार्थना बड़े ध्यान से सुनी। संयोग से उस समय [इस दास सहित] हुज़ूर महाराज के सभी ख़लीफ़ा साहिबान [जिनकी की लिस्ट निम्नलिखित है] वहां पर मौजूद थे। -
[01] मौलवी विलायत हुसैन खां साहब;
[02] मौलवी यूसुफ खां साहब;
[03] मौलवी हुरमत अली खां साहब;
[04] मौलवी दीन मोहम्मद साहब;
[05] हाफ़िज़ नूर मोहम्मद साहब;
[06] मोहम्मद इब्राहिम साहब [urf - बाली]
[07] मौलवी अब्दुल गनी खां साहब;
[08] मुंशी जहूर अली खां साहब;
[09] नवाब साहब;
[10] सय्यद ऐवाज़ रज़ा साहिब;
[11] मुंशी राम चंद्र साहिब; [यह सेवक]
[12] मुंशी चिम्मन लाल साहब;
[13] मौलवी मुहम्मद इस्माइल खां साहब;
[14] मौलवी अली शेर खां साहब;
[15] काज़ी मुहम्मद इरदत उल्ला साहिब;
[16] मुंशी अब्दुल रहमान खान साहब;
[17] हकीम समद आशिक अली साहब;
हुज़ूर महाराज एक चमत्कारी रहस्याचार्य थे। एक बार की घटना है कि जब वे कायमगंज से रायपुर जा रहे थे, रास्ते में एक गांव पड़ता था। वहां पर बहुत से आदमी खड़े थे। हुज़ूर महाराज चाहते थे कि उन लोगों से बच कर निकल जायँ लेकिन कुछ लोगों ने जो आपके 'इल्म-रूहानी' से रू-ब-रू हो चुके थे, उन्हें देख लिया और बड़ी विनम्रता पूर्वक बुलाया। अतः आपको विवश हो कर उन लोगों के पास जाना पड़ा। वहां पर एक सुन्दर युवती खड़ी थी और कह रही थी - "मैं जिन्न हूँ और इस सुंदरी पर आसक्त हूँ। इसे ले कर ही जाऊँगा।" कुछ लोग झाड़ा-फूंकी कर रहे थे और कुछ अन्य विभिन्न दवाइयों का प्रयोग कर रहे थे। लेकिन सब बेकार साबित हो रहा था। सभी जन बहुत ही परेशान थे और समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। मेरे हज़रत क़िब्ला को देख कर सभी लोग उनसे प्रार्थना करने लगे कि उस स्त्री की सहायता करें और इस मुसीबत से उसको छुटकारा दिलाएं। हुज़ूर ने पहले तो मना किया क्योंकि वह झाड़-फूंक व तावीज़ इत्यादि के क़ायल नहीं थे और न कभी इन सब विश्वासों को प्रोत्साहित ही करते थे। लेकिन जब लोगों ने हद से ज़्यादः ही अनुग्रह व विनती की तो आपने एक कागज़ के पुर्ज़े पर कुछ इबारत लिखी, उसको लपेटा और उसके एक सिरे को जलते हुए लैंप पर रख दिया। काग़ज़ जलना था कि युवती चिल्लाने लगी "मुझको मत जलाओ मैं जाता हूँ, अब कभी नहीं आऊंगा।" जिन्न, हुज़ूर महाराज की खुशामत करने लगा। आपने कागज़ बुझा दिया ; युवती अपनी सामन्य दशा में लौट आयी और फिर कभी उसकी वह पूर्वलिखित पुनरावृत्ति नहीं हुयी।
हुज़ूर महाराज अपनी इस उपरोक्त घटना को सुनाने के पश्चात हमें अतीत के उस गर्भ में ले गए जहाँ पर कि इस नाचीज़ को उनके दिव्य-स्वरुप के प्रथम दर्शन हुए थे। वे उससे जुड़ी हुईं अनेक रहस्यमयी बातें बतलाने लगे। आप ने फ़रमाया - "बेटे तुम्हारा ‘मदरसा मुफ्ती साहिब’ में आ कर रहना कोई साधारण घटना नहीं थी। क़ुदरत का यह इंतज़ाम बहुत पहले से मुक़र्रर था।" उस समय वे पूरे जज़्ब में थे। उस मदरसे के बारे में उन्होंने बहुत से रहस्योद्घाटन किये। उनके अनुसार, 'मदरसा मुफ़्ती साहिब' की स्थापना करने वाले सूफ़ी संत, हज़रत अलहाज़ मुफ़्ती वली उल्लाह साहिब का जन्म क़स्बा 'साण्डी' ज़िला हरदोई [उ प्र] में शुभदिन शुक्रवार दिनांक 11 अगस्त 1752 [ईस्वी0] को आपके वालिद सय्यद अहमद के परिवार में हुआ था। आपका शुमार भारत के मशहूर जैयिद-आलिमों [धुरन्दर विद्वानों], दान-हक़ीमी [सुपात्र मीमांसक] और उस समय के हरदिल अज़ीज़ मुन्सिफ [जस्टिस] के तौर पर भारत से भी बाहर अरब दुनियाँ तक होता था। आपके पूर्वज, जद् अमजद, तिरमीज़ [ईरान] के रहने वाले थे। आप का 'शज्रः शरीफ़' [वंशावली] हज़रत मोहम्मद सल्लम0 के दामाद हज़रत अली [रजि0] से मिलता है। आपके पूर्वज 'तिरमिज़' से लाहौर, और उसके बाद कन्नौज [भारत] आये। वह शाह मुरादुल्लाह साहिब [रहमत0] जो कि हमारी 'आध्यात्मिक-वंशावली' [शिज्रः शरीफ़] में 14वें रहस्याचार्य हुए हैं, के नवासे [मुत्री के पुत्र] थे। मेरे हज़रत क़िब्ला फ़रमाते थे कि शाह मुरादुल्लाह साहिब [रहमत0] ने अपने शरीरांत से पूर्व अपनी अध्यात्म साधना से सम्बंधित सभी वस्तुएँ [पुस्तकें, लेख, पत्र तथा वस्त्रादि] हज़रत मौलाना सैय्यद अबुल हसन साहिब नसीराबादी [क़ु0 सि0] को सौंप दिया और आपको अपने सामने ख़लीफ़ा के पद पर सुशोभित किया। परन्तु हज़रत मौलाना सैय्यद अबुल हसन [रहमत0] ने हज़रत वलीउल्लाह साहिब [रहमत0] को जो आपके विद्यार्थी, मुरीद व 'ख़लीफ़ा' थे ; वह सभी उपरोक्त वस्तुएं उन्हें प्रदान कर सतगुरु की पदवी पर बैठाया और 'नज़र' [भेंट] दे कर फ़रमाया कि हमको हमारे हज़रत 'पीर' [धर्मगुरु] की मोहब्बत काफ़ी है और जो-जो भेंटें आपको मिलतीं सब-की-सब हज़रत वलीउल्लाह साहिब [रहमत0] को प्रदान कर देते थे, बावज़ूद इसके कि हज़रत वलीउल्लाह साहिब [रहमत0] आपके ख़लीफ़ा और मुरीद थे। कालान्तर में आप साण्डी [जिला हरदोई] में जा कर बस गए। आपके वालिद मोहतरम ने आपकी बेहतरीन तालीम का इंतज़ाम किया। आपने आला तालीम [उच्च शिक्षा] 'ख़ैराबाद' [ज़िला सीतापुर] से हाँसिल की। जो उस ज़माने में तालीम का उच्च मर्क़ज़ [केन्द्र] था। कन्नौज के मशहूर आलिमे-दीन [धर्म-विद] मौलाना अब्दुल वासित कन्नौजी से भी आपने तालीम हाँसिल की। उनके निर्देशानुसार ही आप रहमताबाद [आंध्र प्रदेश, भारत], हज़रत ख़्वाजा रहमतुल्लाह के पास उच्च तालीम के लिए गए। पहिली बार आप 1189 हिज्री [वर्ष 1775 ईस्वी] में हज के लिए मक्का व मदीना शरीफ़ पैदल हिन्दुस्तान से गए। यूँ तो आपने पयादःपा [पदयात्रा] सात हज फ़र्रुख़ाबाद से किये। आख़री हज के बाद आप सात वर्ष वहाँ रह कर शेख़ अहमद सफ़रू के शाग़िर्द रह कर इल्में दीन [ब्रह्मविद्या] की उच्च-शिक्षा हाँसिल करते रहे। हिजरी सं 1194 [1780 ईस्वी] में हिन्दुस्तान आने के बाद आपने अपने बुज़ुर्ग़ों के बेहद इस्रार [हठ] पर एक बेवा [बिधवा] से निकाह [पाणिग्रहण] भी किया था। लेकिन परिवार में अधिक समय न दे कर केवल तालीम पर ही वक़्त देते थे। आपने इल्मेबातिन [गुह्य-विद्या] हाँसिल करने के बाद अपना तख़ल्लुस 'वासिती' [वासित इराक़ में बसरे और बग़दाद के बीच का एक नगर जहाँ का कलम बहुत अच्छा होता है, का रहने वाला] रक्खा था।
आप एक अच्छे तबीब [उपचारक, चिकित्सक] थे। हज़ारों मरीज़ रोज़ाना शिफ़ा [रोगमुक्ति] हाँसिल करते थे। आपने इसके लिए एक शिफ़ाख़ानः [चिकित्सालय], मद्रिसः [पाठशाला], ख़ानक़ाह [फ़क़ीरों और साधुओं के रहने का स्थान, आश्रम] और मस्जिद तामीर [निर्माण] करवाई। आप ने इस इमारत को 1224 हिज्री [1809 ईस्वी] में बनवाना शुरू किया [इसी समय उन्हें 'शहर-क़ाज़ी' और 'और मुफ़्ती-आज़म' नियुक्त किया गया था। इस पद पर वह तीन वर्ष तक कार्यरत रहे।] 18 साल बाद 1242 हिज्री [1827 ईस्वी] में यह इमारत बन कर तैय्यार हुयी। इस इमारत की तामीर व जगह के लिए आपने साण्डी [हरदोई] और दाईपुर [कन्नौज] की ज़ायदाद भी बेंच डाली। 'मद्रिसः मुफ़्ती साहिब' में उस समय की हर तरह की तालीम का इन्तज़ाम था। क़ुरान का फ़िक़ः [वाक्य], हदीस के साथ इल्मे तिब [चिकित्साशास्त्र] भी पढ़ाई जाती थी। आप के द्वारा लिखी किताबों से यह बात साबित होती है कि उस समय ईरान तक से तालिब-इल्म [विद्यार्थी] इस मद्रिसः में इल्म हाँसिल करने आते थे। मद्रिसःकी इमारत के ऊपर मुर्दे चीरने [anatomy] लैब आज भी बनी है। एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी [ मुफ़्ती वलीउल्लाह लाइब्रेरी] इसी मद्रिसः में थी। मुफ़्ती वली उल्लाह सदरुल सुदूर का इन्तक़ाल 84 वर्ष की उम्र में रविवार 18 नवम्बर 1833 को फ़र्रुख़ाबाद में हुआ।
हूज़ूर महराज इस्लामिक दर्शन के अतिरिक्त 'वेदान्त' दर्शन के भी अच्छे जानकार थे। इसी इसी बीच उन्होंने बतलाया कि 'जिन्न' भी मनुष्य की भाँति एक प्राणी है ; 'मनुष्य' - 'क्षिति' = पृथवी, जल, पावक = अग्नि, गगन = अन्तरिक्ष, अवकाश और समीर = वायु, नामक पाँच तत्वों से बना है किन्तु चूँकि 'जिन्न' की उत्पत्ति केवल 'अग्नि' से मानी गयी है अतः वे [साधारण मानव चक्षुओं से ] दिखलाई नहीं देते हैं।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा ; जीवन जिन तत्वों से मिल कर बना है, वे हैं पृथवी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। तीन तत्व स्थूल हैं और दो सूक्ष्म। प्रथवी, वायु व जल से देह बनी है, अग्नि यानि ऊर्जा है, मन अथवा विचारशक्ति, और आकाश में ये दोनों स्थित हैं। शास्त्रों में परमात्मा को आकाश-स्वरुप कहा गया है, जो सबका आधार है। परमात्मा के निकट रहने का अर्थ हुआ - हम आकाश की भाँति हो जायँ। आकाश किसी का विरोध नहीं करता, उसे कुछ स्पर्श नहीं करता, वह अनन्त है। मन यदि इतना विशाल हो जाय तो उसमे कोई दीवार न रहे, जल में कमल की भाँति वह संसार की छोटी छोटी बातों से प्रभावित न हो, सब का सहयोगी बने तो ही परमात्मा की निकटता का अनुभव उसे हो सकता है। मन की सहजावस्था का प्रभाव देह पर भी पड़ेगा। 'स्व' में स्थित होने पर ही वह भी स्वस्थ रह सकगी। मन में कोई विरोध न होने से सहज ही संतुष्टि का अनुभव होगा। वे 'जिन्नात' के बारे में अनेकानेक सारगर्भित ऐतिहासिक और दार्शनिक बातें बताते रहे, साथ ही उन्होंने उस 'जिन्न' विशेष के बारे में भी कुछ रहस्योद्घाटन किये, जिनका कि विवरण आगे के समुचित अध्यायों में देने का प्रयास करूँगा।
हुज़ूर महाराज ने उपरोक्त सत्रह 'ख़लीफ़ा' साहिबान के अतिरिक्त कुछ अन्य भाग्यवान जिज्ञासुओं को भी बै'अत [दीक्षा] फ़रमाया था। दरअस्ल उनका तरीक़ यह था कि वह किसी भी जिज्ञासु को एकबारग़ी 'बै'अत [दीक्षा]' नहीं फ़रमाते थे। आमने-सामने तवज्जोः [प्राणाहुति] देने की क्रिया को 'बैठक' कहा जाता था। प्रथम 'बैठक' की क्रिया स्वयं अथवा किसी अन्य समकक्ष / सम्मानित बुजुर्ग़ के द्वारा और उसके बाद द्वितीय के पश्चात् तृतीय 'बैठक' की आनुष्ठानिक औपचारिकता स्वयं 'पीर' [आध्यात्मिक-गुरु] के द्वारा सम्पन्न कराई जाती थी। उनके द्वारा हमारे वर्ग में जिन ग़ैर-मुस्लिम साहिबान को उन्होंने बै'अत [दीक्षा] फ़रमाया उनका विविरण निम्नलिखित है -
[01] राम चन्द्र -
[i] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी,
[ii] बैठक - फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी,
[ii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
टिप्पणी - मौलाना फ़ज़ल अहमद खां साहिब । [आचार्य पद की कुल-इजाज़त दी गयी]
[02] अहलियः [भार्या] राम चन्द्र [सुश्री बृज रानी] -
[i] बैठक - राम चन्द्र ,
[ii] बैठक - राम चन्द्र,
[iii] बैठक - फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
[03] रघुबर दयाल बरादर राम चन्द्र -
[i] बैठक - इज़ान [as above],
[ii] बैठक - फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी नीज़ [और] राम चन्द्र,
[iii] बैठक - फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
टिप्पणी - मौलवी अब्दुल गनी खां साहिब व नीज़ [और] अज़ [से] राम चन्द्र - इजाज़त बैअत व इजाज़त तालीम।
तौफ़ीक़ - ब्रादरे तरीक़त।
[04] अहलियः [भार्या] रघुबर दयाल = सुश्री जय देवी -
[i] बैठक - इज़ान [as above],
[ii] बैठक - रघुबर दयाल,
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
[05] कृष्ण स्वरुप बरादर राम चन्द्र -
[i] बैठक - इज़ान [as above],
[ii] बैठक - चन्द्र,
[iii] बैठक - फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
तौफ़ीक़ - ब्रादरे तरीक़त।
[06] राम कृष्ण बरादर राम चन्द्र -
[i] बैठक - कृष्ण स्वरुप,
[ii] बैठक - राम चन्द्र + कृष्ण स्वरुप,
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
[07] मुन्शी चिम्मन लाल मुख़्तियार -
[i] बैठक - राम चन्द्र,
[ii] बैठक - राम चन्द्र,
III- मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी नक़्श0 मुजद्दिदी।
- टिप्पणी - अज़ मौलाना साहिब [हुज़ूर महाराज] बज़रिये तहरीर खत बनाम राम चंद्र। [संभवतः आचार्य पद की इजाज़त दी गयी]
[08] बाबू कृष्ण सहाय हितकारी वकील साकिन - फ़तेहपुर [हाल - कानपुर]
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - [इजाज़त द्वारा] मौलवी अब्दुल गनी खां साहिब व नीज़ राम चन्द्र। [ब्रादरे तरीक़त]
[09] मुंशी कालका प्रसाद मोहर्रर जुडीशियल।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र।
[iii] मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त। [Permission to conduct Satsang].
[10] मुंशी कुञ्ज बिहारी लाल निवासी - तहसील घौसी, जिला - आज़मगढ़।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व नीज़ मौलाना साहिब।
[iii] मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
[11] बाबू गोपाल सहाय [क्लर्क] मुंसिफ़ी ज़िला - बिजनौर।
[i] बैठक -रघुबर दयाल।
[ii] अब तक किसी का सत्संग नहीं किया है।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
[12] बाबू खुशी राम वक़ील साकिन - कुरावली [हाल - मैनपुरी]
[i] बैठक - कृष्ण स्वरुप।
[ii] बैठक - कृष्ण स्वरुप व मुन्शी चिम्मन लाल व राम चन्द्र।
[iii] बैठक - मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब।
[13] बृज मोहन लाल पिसर [पुत्र] रघुबर दयाल।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[14] जगमोहन नरायन पिसर [पुत्र] - राम चन्द्र।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[15] राधा मोहन लाल पिसर [आत्मज] रघुबर दयाल
[i] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[16] पुष्पा रानी दुख्तर [पुत्री] - राम चन्द्र - बुलन्दशहर।
[i] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - मौलाना अब्दुल गनी खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[17] ज्वाला प्रसाद, मोहल्ला - काज़म, गली - सीकलगरान, कायमगंज।
[i] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[18] तोता राम, मोहल्ला - काज़म, गली - सीकलगरान, कायमगंज।
[i] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - अक़ीदत [श्रृद्धा, विश्वास]
[19] मंगू लाल सुनार - काज़म, गली - सीकलगरान, कायमगंज।
[i] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व मुन्शी कुञ्ज बिहारी लाल।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - अक़ीदत [श्रृद्धा, विश्वास]
[20] चित्तर कहार - साकिन मौजा कुतरा, फतेहगढ़।
[i] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[ii] बैठक - राम चन्द्र।
[iii] बैठक - मौलाना फ़ज़्ल अहमद खां साहिब।
टिप्पणी - ब्रादरे तरीक़त [सत्संग कराने की इजाज़त]
[21] पण्डित प्यारे लाल मुदर्रिस [अध्यापक] साकिन - मौजा मेहरापुर, सदर तहसील, ज़िला - फ़र्रुख़ाबाद।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[22] डॉ चतुर्भुज सहाय कुलश्रेष्ठ - एटा।
[i] बैठक - राम चन्द्र।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
इजाज़त बैअत व इजाज़त तालीम। राम चन्द्र।
[23] मुंशी सूरज सहाय मुख्त्यार। साकिन -एटा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[24] पण्डित गँगा प्रसाद - साकिन अमरोहा ; साकिन हाल एटा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल व डॉ चतुर्भुज सहाय।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[25] बाबू मेहर सिंह साहिब - साकिन मौजा बड़ोला ज़िला एटा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - राम चन्द्र व रघुबर दयाल।
[iii] बैठक - चतुर्भुज सहाय।
[26 ] ठाकुर भाल सिंह मुख्त्यार - साकिन मौजा बड़ोला ज़िला एटा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - चतुर्भुज सहाय।
[iii] X X X X X X
टिप्पणी - छोड़ गए।
[27] पण्डित गङ्गा प्रसाद। - आगरा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[28] शिव नंदन लाल - एत्मादपुर जिला आगरा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[29] लाला मुसद्दी लाल - एत्मादपुर जिला आगरा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[30 पण्डित राम भरोसे - एत्मादपुर जिला आगरा।
[i] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[ii] बैठक - डॉ चतुर्भुज सहाय।
[iii] बैठक - राम चन्द्र।
[सम्पादकीय टिप्पणी - उपरोक्त प्रकार से 150 [एक सौ पचास] प्रेमीजनों की लिस्ट परमपूज्य लालाजी महाराज की 'हस्तलिपि' में प्राप्त हुयी थी। उसके प्रथम पृष्ठ पर ही उसके अपूर्ण होने की बावत इंद्राज़ था। काग़ज़ बहुत ही पुराना जीर्ण-क्षीर्ण व पतला [thin] होने की वजह से बहुत कुछ पढ़ने में नहीं आ रहा है ; प्रारम्भ के 30 [तीस] नामों का व्योरा ही दिया जा पा रहा है। असमर्थता के लिए कृपया क्षमा करें।]
मेरे गुरु-भाइयों में से एक नौजवान ऐसे थे जो हुज़ूर महाराज के सत्संग के अलावः एक वेश्या की सोहबत में भी शरीक़ होते थे। कुछ दोस्तों ने इस बात की सूचना हुज़ूर महाराज को दे दी। आप ने फ़रमाया - "अब जब भी वोह, वहां जायँ, मुझे बतलाना" . अगली बार जब वोह महाशय वैश्या के घर की ओर मुड़े तो उनके दोस्तों ने गुप्त रूप से इसकी इत्तला, हुज़ूर महाराज को दे दी। हुज़ूर महाराज ने स्नान किया। धोबी का धुला कुरता - पाजामा निकाला, उस पर इत्र वगैरह लगा कर उसको पहना। आँखों में सुरमा लगाया और उस वेश्या के घर की ओर चल दिए। बस्ती छोटी थी अतः उस वेश्या ने भी उनके बारे में सुन रक्खा था और वह उनके प्रति सम्मान भी रखती थी। वह उनको देख कर हैरान रह गयी कि ये हज़रत, इधर कहाँ और कैसे आ गए। हुज़ूर महाराज के वह शौकीन शाग़िर्द वहाँ मौजूद थे और वह उन्हें देख कर घबराये भी। वैश्या ने बड़ी ही विनम्रता व शालीनता के साथ, सम्मानपूर्वक आपको बैठा कर निवेदन किया - "क़नीज़ के लायक क्या खिदमत है जिसके लिए आप ने यहां आने की ज़हमत फ़रमाई ? इस लौंडी से जो खिदमत हो सकती, आपके दौलतखाने पर बजा लाती।" आपने फ़रमाया - "हम गाना सुनना चाहते हैं। कोई गाना सुनाइये।" वेश्याओं को तो हर प्रकार के दो-चार गानें याद ही रहते हैं। उसने अपने विवेकानुसार, आपको कुछ गाने सुनाये। गाने सुनने के बाद आपने फ़रमाया - "तुम्हारी एक रात की क्या उजरत होती है ? हम आज रात तुम्हारे यहाँ ही ठहरेंगे।" वैश्या सकते में आ गयी। जो अन्य शिष्य-गण हुज़ूर महाराज के साथ गए थे सब के सब अचम्भित हुए कि वोह क्या फ़रमाँ रहे हैं। साठ साल से अधिक की आयु, चांदी सी सफ़ेद दाढ़ी व सिर के सफ़ेद बाल और चोटी के सूफी-फकीर इस पर भी आप वैश्या के घर रात बिताएंगे। ख़ैर ; उसने अपना पारिश्रमिक बताया, बात तय हुयी। आपने अपनी जेब से रुपये निकाल कर दिए और साथ में गए शिष्यों से फ़रमाया - "भाई, तुम-लोग अब जाओ, हम आज यहीं ठहरेंगे।" उसके बाद उस वैश्या से मुखातिब हुए - "आज रात के लिए अब तुम मेरी हो गयी हो। अब जो मैं कहूँगा, वह तुमको मानना होगा। मेरा पहला कहना यह है कि तुम्हारे यह गहने बिलकुल पसंद नहीं हैं, इन्हें उतार डालो और जा कर ग़ुस्ल [स्नान] कर लो।" उसने गहने उतार दिए और नहाने चली गयी। आप अपने साथ में अपनी पत्नी के वस्त्र ले गए थे, जब वह स्नान कर के वापस आयी तब आपने उन वस्त्रों को दे कर फ़रमाया - "इस पोशाक को पहन लो।" उसने आदेश का पालन किया। तब इस बार वोह उनकी लायी हुयी पोशाक पहन कर, उसके वापस आने पर आपने फ़रमाया - "अच्छा अब तुम मेरे साथ पाँच रकअत नमाज़ पढ़ो।" अब वोह परेशान थी कि यह मैनें क्या परेशानी मोल ले ली, उसने निवेदन किया कि - "नमाज़ तो न मैंने पढ़ी और और न ही मेरी माँ ने पढ़ी। मैं तो जानती भी नहीं कि नमाज़ कैसे पढ़ी जाती है।" हुज़ूर महाराज ने तब उस-पर दया कर के फ़रमाया "अच्छा देखो, तुम्हें नमाज़ अदा करनी नहीं आती तो फिक्र मत करो। जैसे जैसे मैं उठूँ - बैठूँ, तुम भी वैसा ही करती जाओ। तुम्हें मेरी नक़ल भर ही तो करनी है। घबराओ मत।" मजबूरी थी। वैश्या भी हुज़ूर महाराज की नक़ल करने लगी। इस प्रकार जब हुज़ूर महाराज सिज़दे में गए, तो वेश्या ने भी उन्हीं की तरह अपना भी माथा टेका। उसी सिज़दे में हुज़ूर महाराज ने अल्लाह से प्रार्थना की "या खुदा ! तेरे फ़ज़्लो-क़रम से इसको यहाँ तक ला दिया, अब तू जानें और यह जानें।" इसके बाद हुज़ूर महाराज उठ कर अपने घर वापस पधार गए किन्तु [बताते हैं कि] वह वेश्या सिज़दे में ही बेहोश पड़ी रही। सुबह होने पर जब उसकी माँ और अन्य घर वाले उसे होश में लाये तब वह उठी। पहले तो भौंचक्की हो कर, इधर-उधर देखती रही। उसके बाद अपनी माँ से बोली - "मुझसे अभी तक जो कमाई हो सकती थी वोह मैनें की और सब की सब, वोह तुम्हें दे भी चुकी हूँ। तुम्हारे दिए हुए गहने भी यह रक्खे हैं। ये कपड़े और पोशाक जो मैं पहनें हुए हूँ वोह तुम्हारी नहीं है। बस अब मै चली।"
लगभग दस-ग्यारह बजे दिन का समय था, वह लड़की [वेश्या] हुज़ूर महाराज के घर के सामने स्थित नीम के पेड़ के नीचे आ कर बैठ गयी। वे उसकी प्रतीक्षा में ही थे, अतः अपनी पत्नी [हम लोग उन्हें 'बेबे' कह कर सम्बोधन करते थे] को बुला कर इस लड़की [जिसका नाम अमीरन था] को ससम्मान अंदर ला कर खाना खिलाने इत्यादि का निर्देश किया। इस सबसे निवृत्त हो कर अमीरन से हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया - "उस घिनौनी ज़िन्दगी से निकल कर पाक और बाइज़्ज़त ज़िन्दगी बसर करने का इरादा रखती हो तो बताओ।" अमीरन उनके इस अंदाज़ पर खुशी से फूली न समायी और वह उनके कहे अनुसार तुरन्त रज़ामन्द हो गयी। तब हुज़ूर महाराज ने उससे गुनाहों के लिए दिली तौबा कराई और अपने उस शिष्य [जो उसके पास जाया करता था] को बुला कर बड़े अपनत्त्व भाव से समझाया कि "यदि तुम्हें अमीरन पसंद है तो इससे निक़ाह [विवाह] करके पाक ज़िन्दगी बसर करो।" उसी समय आप ने अपनी उपस्थिति में इन दोनों का विवाह संपन्न करा दिया। बाद में उन दोनों को अपनी शिष्य-परंपरा में आपने ‘बैत’ भी फ़रमाय
![]() |
IDGAH - Qasba Raipur, Kaimganj, District - Farrukhabad UP 209502. |
हुज़ूर महाराज अपने विसाल [देवलोक गमन] के समय तक अपनी पूर्ण मानसिक चेतना में रहे। जिस समय विसाळ हो रहा था आप कलमा-शरीफ़ [प्रार्थना] में तल्लीन थे। प्राणान्त के अंतिम क्षणों में वह फर्माते जा रहे थे - "मेरी रूह पैरों से खिंच गयी, घुटनों से खिंच गयी, कमर से खिंच गयी।" अंत में फर्माया - "अब सब लोग अल्लाह की तरफ रुज़ू हो जाइये। मेरी रूह अब क़ल्ब [ह्रदय] से भी खिंचने जा रही है।" सब लोग उस समय फैज़ की धार में ग़र्क़ [डूबे हुए] थे। आँख खोलने पर देखा कि हुज़ूर महाराज की आत्मा, पार्थिव शरीर त्याग कर उस परम सत्ता में लीन हो चुकी थी, उस समय तीसरे प्रहर तीन बज चुका था, तीस नवम्बर 1907 ईस्वी। आपकी मज़ार शरीफ़ क़स्बा रायपुर,
तहसील - कायमगंज, पश्चिम दिशा में ईदगाह [दक्षिण मीनार] की तरफ स्थित है।
Dargah Sharif - Hazrat Maulana Fazl Ahmad Khan Sahib Naqshbandi [RA] |
हुज़ूर महाराज के महत्वपूर्ण पत्र -
[01 ]भाई जान ! मद्द उम्रकुम [चिरायु हो] - बाद दुआ के वाज़े शरीफ [ज्ञात] हो कि मैं घर से बा-ग़रज़ ज़ियारत [तीर्थ यात्रा के मक़सद से] क़बूर [कब्र का बहु-बचन] औलिया अल्लाहे क़राम [परम संतों की] निकला। और कन्नौज - मकनपुर - लखनऊ में एक-एक क़याम किया। जो-जो अनावारो [प्रकाश] बरकात महसूस हुयी उनके बयान से जवान क़ासिर है [असमर्थ है] - तुम्हारी सेहत के वास्ते भी दुआ की है।
[02] भाई जान - मद्देउम्रकुम [चिरायु हो] . बाद सलाम के वाज़े शरीफ़ हो [ज्ञात] कि गिरामीनामा [कृपापात्र] सादिर हो कर बाइसे [कारण] मसर्रत [खुशी] हुआ। आप बहुत खुशी से अपनी पूरी कैफ़ियत [ब्यौरे-वार हाल] लिखिये, मुझे खुशी होगी। तक़लीफ़ क्यों होनें लगी। भाई मैं आख़िरत [परलोक या क़यामत] में भी इन्शाअल्लाह साथ होऊँगा। तुम दुनियाँ में मुझे तक़लीफ़ से बचाते हो। मैं तो तुम्हारे वायस जो तक़लीफ़ हो उसको राहत जानता हूँ। तुम लोग मेरे लख्ते-जिग़र हो। तुम्हारी थोड़ी भी तक़लीफ़ मुझे ग़वारा नहीं।
[03] अज़ीज़ अज़ जान मद्द उम्रकुम। बाद दुआए तरक़्क़ी मदारिज़ के वाज़े शरीफ़ हो कि मैं 11 मुहर्रम को देहली से वापस आया। जो-जो इनामों-बरक़ात महसूस हुए उनका बयान नहीं हो सकता। और ग़ालिबन आप लोगों को भी उसका हिस्सा महसूस हुआ होगा। अपनी सेहत का हाल इरकाम [लिखिए] कीजिये। 'या सलामो' अक्सर जबानी पढ़ना सेहत को बहुत मुफीद है। मेरा सारा घराना तुम्हारे तमामी खानदान को दुआ और सलाम कहते हैं। मेरा इरादा था कि तुम लोगों के पास हाज़िर होऊं मगर अभी चंदे-मुल्तबी रहा।
[04] भाई साहब उम्रफय्यूज़कुम। बाद सलाम के वाज़े शरीफ़ है कि आपका कार्ड मौसूल हुआ। लड़कों व नीज़ अपने ज़ुकाम वग़ैरह के वाइस जवाब में तसाहुल हुआ। मुआफ़ फरमाइयेगा। मेरी ऐसी किस्मत कहाँ जो मेरी बेटियाँ आएँ। कहीँ आँखों पर पलकें भारी होती हैं। मुझे तो बसरोचश्म मँज़ूर है, मगर तुम लोगों की तक़लीफ़ का ज़रूर ख़याल है। इसका यह मतलब नहीं कि मैं तुमको मना करता हूँ। नहीं हर्गिज़ नहीं। बल्कि सचमुच मौसमें सरमा में सफर मुश्किल ख़याल करता हूँ। मैं तो तुम लोगों से अज़हद खुश हुँ और शबोरोज़ दुआ करता हूँ। नज़दीकोदूर यकसाँ हूँ। मुझसे ऐसे अमर में इस्तिफ़सार की ही क्या ज़रुरत थी। अज़ीज़ान रघुबर दयाल और लाला चिम्मन लाल को दुआ।
[05] अज़ीज़मन - बाद दुआ के वाज़े हो कि आपके दो ख़तूत और मनीऑर्डर मौसूल हो कर वइसे इंशरार हुए। अल्लाह ज़ल्लेशानहू तुमको सलामत बकरामात रक्खे। मैं दशहरे के अय्याम में इंशाअल्लाह घर पर रहूँगा। आप लाला चिम्मन लाल पर मेहनत कर के तकमील करा दीजिये। ताकि आपके बाद आपकी जानशीनी करें। मेरी तबीयत नासाज़ थी। इस सबब से जबाब में भी ताख़ीर हुयी।
[06] अख्वीअर्शदी मद्दउम्रक़ुम। बाद दुआ के वाज़ेशरीफ हो कि दिनों से आपका हाल मालूम नहीं हुआ। बिंदी सबब मुत्तफ़क्किर हूँ। तुमने रुख्सत ली या नहीं। रमज़ानशरीफ आया। इरादा है कि रात को बक़द्रे ताक़त जागूँ। और खुदा की याद करूँ। और अहबाबों में से जिस को तौफ़ीक़ हो तो वोह भी ऐसा करें तो ज़हेसआदत वर्ना नहीं। गो मैं हरतरह बेसामान हूँ मगर इरादा क़वी है। तुम भी दुआ करो।
[07] अज़ीज़अज़जान मद्दउम्रक़ुम। बाद दुआएदराज़ी उम्रोदरज़ात के वाज़े शरीफ हो कि आप के दो कार्ड मौसूल हुए। वाक़ई पीराने उज़्ज़ाम की मुहब्बत मुसमिरे बरकात है। आतिशे दुनियाँ तो क्या है, आतिशे आख़िरत भी सर्द है। अल्लाह जल्ल-ए-शानहू तुम को अलुद्द्वाम [सदासदा] अपने हिफ़्ज़ओ अमन में रक्खे। अज़ीज़ी चिम्मन लाल साहब का दिनों से कोई खत नहीं आया मुझे ख़याल है। उनसे मेरा सलाम ज़रूर कह दीजियेगा। मैं सख़्त अलील रहा हूँ और अभी हूँ। दुआ करो कि अल्लाह-ता-आला रूहानी और जिस्मानी सेहत आता फरमाएं।
[08] मख़दूम भाई मद्द ज़िल्ल्हूउलआली। बाद सलाम मसनूनानं कि आपका करामतनामा सादिर हो कर इफ़्तिख़ार का बाईस हुआ। मेरी तबीयत अच्छी नहीं। वही सर घूमता है, नकीह [निर्बल] हूँ। भाई आज-कल तो पीरी - मुरीदी तो नाम को भी बाक़ी नहीं रही। लोगों का कसूर भी नहीं। हमारी ही बुरायिओं का नतीज़ा है। लोग जहाँ और खेल खेलते हैं वहाँ पीरी-मुरीदी भी करते हैं। सादिक़ मुरीद मिलाना उनका [एक अस्तित्त्व-हीं पंक्छी] की तरह न-पैद है। और यही हाल पीरों का भी हो गया। इल्ला-माशा अल्लाह [अतिरिक्त पुरुष जिसकी ईश्वर रक्षा करें], बहुत थोड़े मुरीद फिदायी [समर्पित] होते हैं। और बहुत थोड़े पीर भी। पस अब क्या किया जाय। 'जमानां बातो साज़द, तू बा जमानां ब साज़' . पस आप से अगर हो सके तो पीराने उज़्ज़ाम को बदनाम न करो। और ख़ल्के खुदा [सारी श्रिष्टि] से मेहरबानी खुशखुलकी [सुन्दर व्यवहार] और तलीफ़ क़लबी से [दिलजमई प्रेम] से पेश आओ। और इस पर भी अगर वोह लोग नफ़रत करें तो उनके वास्ते दुआ करो कि शैतान नें उनको मंगलूग कर लिया है। वाज़िबउलरहम [दया के पात्र] हैं। और अगर न कर सको तो खुद दिन-रात यादे-खुदा में मसरूफ़ रहो। और खुद को अपनी जमीय मुरादात [सभी इच्छाओं और अरमानों को] नेस्त नाबूत समझो। और अपनी दीद में महब रहो। उम्र ज़ैद से कोई सरोकार न रक्खो। अपना सरकारी काम किया और यादे-खुदा में मसरूफ़ रहो। जो वोह चाहेगा वोह होगा। अगर कोई आया तो ख़ातिर की और जो न आया तो कुछ शिकायत नहीं। बेहमा और बाहमा यही है। हमारी जानिब से खैर ख्वाही में कोई कसूर न हो कि जिन्होंनें हमारा हाथ पकड़ा कहीं उनको शैतान न छीन ले। उसके वास्ते दुआ और हिम्मत से मदद लो। मैं तो तुम को अपना क़ायम मुकाम ख़याल करता हूँ। और मेरी हिम्मत ऐसी आली है कि मैं किसी अमर को अनहोना नहीं ख्याल करता हूँ। जिस बात पर हिम्मत करता हूँ, वोह ही होती है, उसी का ज़हूर होता है। फिर तुम क्यों पस्तहिम्मत होते हो। हाय, मेरी कमज़ोरी ने तुम में सरायत किया है। ऐसा न हो कि जलसा ख़राब हो जाय। सब अहबाब को बुला कर फिर हिम्मत करो और खुदा से तौबा करो और मेरे वास्ते दुआ करो। और कामिल मोहब्बत से एक-दूसरे की ख़ैरख़्वाही करो। एक-दूसरे में फ़ानी होओ। और भाई, मुझे मुर्दा ख्याल करो। मेरे बाद जो करते वोह अब करो।
[09] 31. 05. 1899 : अखबी अइज़्ज़ी सल्लम कुम अलेकुम। बाद सलाम और दुआ आँकि आपका कार्ड मौसूल हो कर मसर्रत का वाइस हुआ। अल्लाह जल्ले शानहू। आप को दीनी और दुनियाबी मुरादात पर सरफ़राज़ करे। आमीन। मैं दोनों उमूर में हिम्मत और दुआ करूंगा। और उम्मीद है कि दोनों मुस्तशिब होंगे। मैं देखता हूँ कि पीराने उज़्ज़ाम की अरवाह की तवज्जहआत आप की जानिब मूतवज्जह है। ऐसी सूरत में कोई मुश्किल नहीं जो आसान न हो। और क्यों न हो, तुम मोहब्बत और ऐतक़ाद में अपना सानी नहीं रखते। चिम्मन लाल साहब को दुआ।
[10] अज़ीज़ मुंशी राम चंद्र साहब मद्दउम्रक़ुम। बाद सलाम के वाज़े शरीफ कि भाई तुम औरतों को सलाहे कुल की तवज़्ज़ुह दो। और उनको अपने ख़याल से नेक बनाओ। और नज़र खुदा पर रख्खो। खुदा ने तुमको वोह हिम्मत दी है कि जो ख़याल करोगे, इंशाअल्लाह वही होगा। मुशी चिम्मन लाल साहब को सलाम। यादे ख़ुदा से ग़ाफ़िल न होना। और इस कज़ीए [झगड़े] को अक्ल से फैसिल [निबटारा] कराना चाहिए।
[11] 22. 10. 1899 : अखवी अइज़्ज़ी मद्दउम्र कुम। बाद सलाम के वाज़े शरीफ़ हो कि आपका करामातनामा सादिर हो कर वायिसे इंशराह हुआ। अल्लाह जल्ले शानहू बा मुराद रक्खे। आमीन। पीरान की नज़रे इनायत [कृपा दृष्टि] तुम्हारी जानिब मुलताफिस [लगी हुयी] है। तुम्हारे मुब्तदी [साधक] औरों के मुन्तही [सिद्ध] से कहीं बढ़ कर हैं। ख्वाज़ा नक़्शबंद फरमाते हैं -
"अव्वले माँ आख़िरे हर मुन्तहीस्त।
आख़िरे माँ जेबे तमन्ना तिहीस्त। "
जब खुदा चाहता है मुब्तदी मुन्तही हो जाते हैं। उम्मीद की अपनें हालात ज़ाहिरी और बातिनी से जल्द-जल्द मुत्तले फरमाते रहा करोगे।
[12] ब्रादरम अज़ीज़ मदद मद्दउम्रकुम। आपका कार्ड मौसूल हो कर वाईसे तमानियत [इत्मीनान, तसल्ली] और इंशराह हुआ। अल्लाह जल्लएशानहू आपको दारेन [दोनों लोकों में] शादकाम [खुश] और सुर्खरूह [मुँह उजला] रक्खे। आमीन। लड़कों के बुखार का सुन कर सख्त अफसोस हुआ। अल्लाह ता आला उनको बहुत जल्द शिफाये कुल्ली [पूर्ण स्वस्थ] अता करे। आमीन।जैल में ताबीज दोनों के वास्ते दो लिखता हूँ। उनको काट कर उनके गले में बाँध देना। यह नाम पाक हैजा व चेचक और ग़ालिबन ताऊन को अज़हद मुफीद है। तुम को इसकी इजाज़त है जिसको चाहो लिख दिया करो। इन्शाअल्लाह ज़रूर फ़ायदा होगा। अज़ीज़ी रघुबर दयाल का खत आया था और उसमें कुछ शिकायत लिखी थी, फिर उसके बाद कोई खत नहीं लिखा कि उसका क्या अन्जाम हुआ। इस अम्र को को जरूर लिखना चाहिए। उस अज़ीज़ से बाद सलाम के कह दीजियेगा। और अज़ीज़ी बाबू चिम्मन लाल साहब को बाद सलाम के वाज़े हो कि तुम भी इन ताबीजों की नक़ल कर के अपनें बच्चों के गले में डाल दो। और तुम सब यादे इलाही में शामिल और मसरूफ़ रहो।
[13] 02 . 04 . 1900 : मुंशी चिम्मन लाल साहब का हाल मालूम हुआ। अल्लाह जल्लेशानहू जल्द उनकी मुख्तारी चमका दे। मैं उनसे बहुत ख़ुश हूँ। अल्लाह ताला आप को और उनको दारैन में सुर्ख़रू और कामयाब रक्खे।
अल्लहमदो लिल्लाह कि मैं उर्स शरीफ [अजमेर शरीफ] से फ़ारिग़ हो कर बख़ैरओखूबी अपनें मकान पर आया। जो इनायत इस ज़र्राएबैमिकदार [तुच्छतितुच्छ] पर हुयी उसका बयान कभी जबानी करूँगा। इस इनायत के काबिल मेरा मुँह न था। आपके वास्ते और अज़ीजों के वास्ते दुआ कर दी है।
[14] 13 . 11 . 1901 : बाद सलाम आंकि आपका करामतनामा आया। अहवाल मालुम हुआ। आपने तो अब लिखा और मैं दिनों से फ़ितूर देख रहा हूँ। अल्लाह जल्ले -शानहू के दस्ते कुदरत [समर्थ हाँथ] में हिदायत और जलालत, दोस्ती और दुश्मनी है। जिनको चाहता है मेहरबानियां देता है और जिनको चाहता है नामेहरबान कर देता है। इसी तमाशे का नाम दुनियाँ है। इसी में गिरफ्त रहना मना है। आप यह नामेहरबानीयाँ देखो और खुश रहो। देखिये अंजाम हो। अल्लाह ता आला की जाते मकद्दस के सिवा हर एक से नाउम्मेद हो जाओ। सब फानी हैं। सब की दोस्ती और दुश्मनी की इन्तेहा है। इस में दिल लगाना बेजा है। खैरियत मिजाज़ से गाहे ब गाहे मुत्तिले फरमाते रहियेगा। फलाहेदारैन के वास्ते दुआ गो हूँ I
[15] 26. 02 . 1902 : अखवियम मद्दउम्रकम। बाद सलाम आँकि आपका लिफाफा पहुंचा। बदरज़ा ग़ायत सुरूरो इनविसात [खुशी] पैदा। अल्लाह ता आला आपकी ज़ात से आलम को मुनव्वर करे। सब अज़ीज़ों से कह दो कि दुनिया चन्दरोज़ा है। जो वक़्त यादे खुदा में गुज़रे ग़नीमत है। आप ज़रूर लाला मदन मोहन लाल को लिखिए, इंशाअल्लाह फ़ायदा होगा। यह शख्स भी बहुत अलैह [अधिकारी] आदमी है। अज़ीज़ी कृष्ण सहाय वाक़ई मस्त हैं। लड़कियों की शादी इंशाअल्लाह अच्छी होगी। जरूर कोई सबब होगा। हमारी शर्म खुदा के हाँथ में है। इत्मीनान रखियेगा।
Huzur Maharaj Sahab ki Laalaa ji Maharaj ke liye koi vasiyat ( Wii and instructions) ho to usko bhi prakashit karne ki kruppa karen.
ReplyDeleteB.S.Srivastava, Delhi M: 9013241026, e-mail: bs_s@hotmail.com
he prabhu aanand daata sharan me hamako Lee jiye , bhav sagar me hu pada mukt kar sammelan kijiye....
ReplyDeleteTransports in a mysterious (रहस्यमय) world where pure love and mercy prevails.
ReplyDelete