Thursday, 9 January 2020

14. मेरी सहधर्मिणी

                                               
                                             मेरी सहधर्मिणी 

मैंने श्रीमद्भागवत में गोपियों के चरित्र पढ़े हैं -

"जो गायों का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को पालनें में झुलाते समय, रोते बच्चों को लोरी देते समय, घरों में जल छिड़कते समय और झाड़ू-देने आदि कर्मों को करते समय, प्रेम भरे चित्त से आँखों में आँसू भर कर गदगद वाणी से कृष्ण का गान किया करती हैं, इस प्रकार सदा कृष्ण में ही चित्त लगाए रखने वाली ये ब्रिजवासिनी गोपियाँ धन्य हैं।"

गोपियों के इस लय-अवस्था के पावन चित्रों में अनायास ही खो जाता हूँ। और यों ही इन्ही गोपियों के मध्य लुकी-छिपी सी कहीं मुझे मेरी सती भी दिखने लगती हैं।

 जी हाँ उनका नाम भी 'बृजरानी' है।




वह भी गोपियों की भाँति निरंतर बृज में रमी 'कृष्ण-भक्ता', पावन चरिता हैं। मेरा सौभाग्य है कि इस जन्म में वह मेरी सहधर्मिणी हैं। उनकी अन्यान्य चारित्रिक उपलब्धियों से  मैं इतना प्रभावित रहा हूँ कि आज उनका उल्लेख करते हुए अपने अन्तःस्थल में श्रद्धा का भाव अनुभव कर रहा हूँ। पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं, वे सब के सब सती स्त्रियों के चरणों में विराजमान रहते हैं तथा समस्त देवताओं और मुनिओं का तेज भी सती स्त्रिओं में ही रहता है। "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।"

मैंने जीवन पर्यन्त उनके सभी चरित्रों में अगाध-प्रेम व श्रद्धा के मौन भावों को देखा है। उनका कोई भी कृत्य मैंने ऐसा नहीं देखा जिनमें उन्होंने पूर्णसर्वभाव समर्पण में अपने चिंतन का मुझे आराध्य न बनाया हो। मैं भी उन्हें अपनी इस 'दिव्य कहानी' की पूज्य नायिका बनाये बिना न रहूँगा। वह कितना भी क्यों न पीछे हटें, मैं यहाँ उनकी एक न सुनूंगा। मेरे प्रभु मेरी सहायता करें। मेरी हठ भी रह जाय और भगवान मनु के आदेशों का पालन भी हो जाय। मैं प्रारम्भ में ही अपना अनुभव व्यक्त कर चुका हूँ।

मानव जीवन यज्ञ के सामान है और इस यज्ञ में सहधर्मिणी की सहभागिता अपेक्षित ही नहीं अपरिहार्य है।

"वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः।
पति सेवा गुरौ वासो गृहार्थोsग्नि परिक्रमा।।"
[यजु0 02/67]

जो पुरुष कोई भी धार्मिक कृत्य अपनी पत्नी के बिना अकेला करता है, उसका वह कार्य अधूरा रहता है। गृहस्थाश्रम में विवाह एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान ही नहीं वह एक आदर्श संस्था भी है, परिवार जिसका स्थूल रूप है।

इस विषय पर मनुस्मृति सहित अनेकों धर्मग्रंथों में पर्याप्त लिखा जा चुका है और कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता। फिर भी मैं अपनी आत्मकथा की इस नायिका के परिचय व विधिवत चरित्र-चित्रण के सन्दर्भ में अपना अनुभव प्रस्तुत करूँगा किन्तु इससे पूर्व अपने पाठकों को एक सूफी संत के सत्संग में ले जाना चाहूँगा। हो सकता है कि भावों का जो क्रम चल रहा है, प्रारम्भ में उनका कुछ तारतम्य व उचित प्रवाह न प्रतीत हो। विद्वान पाठक-गण क्षमा करेंगे।

श्रीमन  ख़्वाजा मोहम्मद बाक़ीबिल्लाः साहिब* [उन पर ईश्वर कृपा हो], सूफी संतों की नक्शबंदिया शृंखला के एक महान स्तम्भ हैं। उक्त परम्परा की वंशावली में वह चौबीसवें आचार्य थे। उनके सत्संग में एक एक आध्यात्मिक पर्व पर एक नवयुवक जिनका विवाह अभी कुछ दिन पूर्व ही संपन्न हुआ था, उनकी सेवा में उपस्थित हुए। आचार्यप्रवर ख्वाजा साहिब ने उन पर ईश्वर की दयालुता व शुभेक्षा हो, उस नवयुवक की स्थिति पर अत्यंत कृपा की और बैठने का आदेश दिया। एक क्षण बाद आचार्यप्रवर ने यों अपना मुखारबिंदु खोला और फ़रमाया कि विवाह से तीन प्रकार की हानियाँ होती हैं।
__________________________________________________

पाद-टिप्पणी :
* हज़रत ख्वाजा बाकिबिल्लाह को हज़रत ख्वाजगी इमकिंनकी से रूहानी निस्बत हाँसिल हुयी थी। आपका शुभ जन्म काबुल में 971 [हिजरी] में हुआ था। बचपन में ही आपके चहरे से एक तपस्वी एवँ इन्द्रियनिग्रही महात्मा के लक्षण प्रगट होते थे। आप अधिकतर एकांत स्थान में बैठे रहा करते थे। आप ने उस समय के उत्कट विद्वान मौलाना मोहम्मद सादिक़ हवायी से सांसारिक विद्या ग्रहण की और थोड़े ही समय में आप अपनी तीव्र बुद्धि के फलस्वरूप अपने दूसरे सहपाठियों से बहुत आगे बढ़ गए। अभी आपने सांसारिक विद्या पूर्ण रूप समाप्त नहीं की थी कि इसी बीच आपने ईश्वर-भक्ति के मार्ग में कदम रक्खा और मावराउल नहर के बहुत से सद्गुरुजनों की सेवा में उपस्थित हुए, परन्तु कहीं भी उनको साधना में स्थिरता नहीं प्राप्त हुयी। एक रोज़ सूफी संतमत की एक पुस्तक पढ़ रहे थे कि उसी समय एक तजल्ली का ज़हूर हुआ [उनमे एक प्रकार का आत्मिक  प्रगट हुआ] और वोह बेचैन हो गए और उस समय ख्वाजा बहाउद्दीन नक़्शबंद की पवित्र आत्मा ने उनके अन्तःकरण में नामजप का अभ्यास करने की तौफ़ीक़ [सामर्थ्य/क्षमता] उत्पन्न की और ईश्वर-प्रेम के जज़्बात से उनके ह्रदय को भर दिया। इसी दशा में हज़रत बाकिबिल्लाह साहिब किसी कामिल शेख़ [पूर्ण समर्थ सद्गुरु] की तलाश में इतने परेशान रहते थे और इस तलाश में इतना परिश्रम व प्रयत्न करते थे, जो मनुष्य की शक्ति से बाहर है। अतः उनकी यह दशा देख कर उनकी पूज्य माता का ह्रदय करुणा से भर गया और उन्होंने ईश्वर से यह आद्र आराधना कि "या अल्लाह ! तू मेरे बेटे का उद्देश्य पूरा कर या मुझको मौत दे क्योंकि मुझमें इसकी बेचैनी की दशा देखने की शक्ति नहीं है।"

हज़रत बकीबिल्लाह फर्माया करते थे कि मुझे ईश्वर-भक्ति के मार्ग में जो सफलता प्राप्त हुयी वोह मेरी पूज्या माता जी की दिली दुआ से हुयी। अपने सदगुरु की तलाश में तमाम मावराउल नहर, बल्ख़, बदरूसा, लाहौर, कश्मीर बग़ैरह छान डाला और बड़े बड़े मशाइख़ [सद्गुरुजनों] की सोहबत से फ़ैज़याब हुए।

कहा जाता है कि जिस जमानें में आप लाहौर में थे वहाँ एक मज़ज़अब [अवधूत]रहता था। आप उसके पास जाय करते थे वोह कभी आपको गालियाँ देता और कभी पत्थर मारता और कभी आपसे भागता था। मगर आपने उसका पीछा न छोड़ा। आख़िरकार एक दिन उसको इनकी दशा पर दया आ गयी और अपने पास बुला कर उनके उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ईश्वर से हार्दिक प्रार्थना की। हज़रत ख्वाजा बकीबिल्लाह फ़रमाया करते थे कि यद्यपि कि मैने पुराने जिज्ञासुओं और साधकों की तरह इन्द्रियनिग्रह और तपस्या नहीं की लेकिन सद्गुरु की खोज एवं उनके मिलन की प्रतीक्षा में बड़ी व्याकुलता और बेचैनी का समय व्यतीत किया है। अंततोगत्वा हज़रत ख्वाजा बाकीबिल्लाह सद्गुरु की तलाश में मौलाना शेरगानी के पास पहुँचे और वहाँ समरकन्द को आये। रास्ते में आपने हिंदुस्तान [भारत] के अपने कुछ मित्रों को एक ख़त लिखा जिसमे यह शेर अंकित था -

"मन अज़ मुहीत मोहब्बत निशाँ हमी दीदम,
कि उस्तख्वाने अज़ीज़ां बसाहिल उफ़्ता दास्त।"

[मैं मोहब्बत की दरिया से यह निशनियाँ देख रहा था कि अज़ीज़ों अर्थात मोहब्बत करने वालों की हड्डियाँ उसके किनारे पडी हुईं हैं]

इसी यात्रा में आपको आत्मिक-प्रेरणा से यह ज्ञात हुआ कि हज़रत ख्वाजा अहरार फरमाते हैं कि मौलाना ख्वाज़गी इमकिनकी के पास जाओ और हज़रत मौलाना इमकिनकी को स्वप्न में देखा कि फरमाते है "ऐ फ़रज़न्द ! मेरी आंखें तेरी तरफ लगी हुयी हैं।" यह देख कर हज़रत ख्वाज़ा बाकीबिल्लाह बहुत ख़ुश हुए और यह शेर ज़बान से निकल पड़ा -

"मी गुज़ शतम जे ग़म आलूदा कि नाला जमगीन,
आलमे आशोब निगाहे सरेराहम बगिरफ़्त।"

[मैं दुःख से निश्चिन्त हो कर कर जा रहा था कि दुनियाँ में हलचल पैदा करने वाली एक दृष्टि ने मार्ग में मुझे अपनी ओर आकृष्ट कर लिया]

हज़रत ख्वाजा बाकीबिल्लाह मौलाना ख्वाजगी इमकिनकी की खिजमत में पहुँचे और वहां तीन दिन-रात एकांत में उनसे सत्संग किया और अपने तमाम बातिनी हालात उनको सुनाये। हज़रत मौलाना इमकिनकी ने हज़रत ख्वाजा बाकीबिल्लाह से फ़रमाया कि ईश्वर की असीम कृपा से आध्यात्मिक शिक्षा तथा इस सिलसिले के सद्गुरुजनों की साधना-पद्यति का अभ्यास तुमको पूर्णरूप से प्राप्त हो गया। अब तुम हिन्दुस्तान जाओ। तुमसे वहाँ एक साधना-पद्यति प्रचलित होगी। पहले तो हज़रत बाकीबिल्लाह ने अत्यंत विनम्रता एवं दीनता के साथ अपनी विविवश्ता प्रगट की परन्तु बाद को हज़रत मौलाना इमकिनकी के आदेशानुसार हिन्दुस्तान को रवाना हुए।

जब आप लाहौर पहुंचे, एक साल तक वहाँ रुके। वहाँ के सभी विद्वान् व संत-महात्मा आपसे प्रेम करने लगे। इसके बाद देहली के लिए प्रस्थान किया। वहां क़िला फिरोज़ी में रहने लगे और फिर अपने जीवन के अंतिम समय तक यहां से अलग नहीं हुए। आपकी समाधी

The first 'Naqshbandiya' Sufi Saint in India, from Afghanistan.
  मोहल्ला रामनगर में नई-दिल्ली स्टेशन से थोड़ी दूर अजमेरी दरवाज़े की तरफ स्थित है।  कहा जाता है कि एक बार आप अपने कुछ शिष्यों के साथ इस जगह पर आये थे। इस जगह को पसन्द कर यहीं आपने बुज़ू करके दो रक़ब नमाज़ पढ़ी थी। उस समय यहाँ की मिट्टी आपके दामन में लग गयी थी। आपने उस समय यह फाममाया कि यहाँ की मिट्टी दामनगीर होती है [दामन पकड़ कर रोकती है।]   
=================================
पहली हानि मन या अहम् को पहुँचती है क्योंकि मानस पटल पर इसका प्रवेश होते ही कामेच्छा-रूपी अनेक संकल्पों का जन्म होने लगता है।

सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम में यह प्रकृति का प्रथम दर्शन है। इसकी शरणागति में आकर ही संसार की जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे व्यक्ति के परिवेश में कार्य करने लगती हैं। इच्छा या वासना, शक्ति [power] का प्रथम स्वरुप है। इसे काम-शक्ति की संज्ञा इस कारण भी दी गयी है, क्योकि सृष्टि का प्रथम कृत्य उत्पत्ति ही है अथवा एक ऐसी अन्तर्निहित चेष्टा जो हमें आगे बढ़ने और एक से दो व दो से तीन हो जाने की ओर प्रेरित करती है। इस चेष्टा के फलस्वरूप शनैः शनैः नयी नयी कठिनाईयाँ उत्पन्न होती हैं, एवं हो गयी हैं। यही विभिन्न 'शक्तियाँ' हैं। विद्वान लोग इन शक्तियों की सामूहिक उपलब्धियों को 'चरित्र-गठन' की संज्ञा भी देते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि विभिन्न प्रकार के संकल्प बताये गए हैं। संकल्प से तात्पर्य इच्छा व निश्चय से है। सृष्टि की प्रथम इच्छा, काम - वासना की तृप्ति या विवाह ही है, जो उत्पत्ति के क्रम में सर्वोपरि है। अतः प्रकृति का प्रथम तत्त्व  अहंकार है।

हिन्दू, इस्लाम, पारसी, बौद्ध इत्यादि सभी संतों ने अहँकार की उपमा सर्प से दी है। भगवान कृष्णा की 'काली-देह' की कथा का तात्पर्य यही है कि अहंकार रूपी इसी नाग को काली-दह में उन्होंने नाथा था अर्थात उन्होंने अपनी योग - शक्तियों के द्वारा काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि अनेक वासनाओं को अपने वश में कर लिया था। अभीष्ट यही है कि इन सभी वासनाओं को सम-अवस्था के बिंदु पर लाया जाय।

अविवाहित या ब्रह्मचारी व्यक्ति का चित्त [अहम्] शीत का मारा हुआ सर्प जैसा है अथवा स्त्री की अनुपस्थिति भी सर्प-रूपी मन के लिए शीत जैसी ही है। जब विवाह हो गया तो मानो सूर्य की तीव्र ऊष्मा से उसका साक्षात्कार हो गया। इससे मानो उसके अंतर में दबी हुयी काम-शक्ति का उदय हुआ और संयमादि का सम्पूर्ण सुप्रभाव क्षीर्ण हो गया, विलीन हो गया।

इसका निदान यह कि हर समय काम-वासना में रत न रहें और संयम के नियंत्रण में आबद्ध बना रहे। इस सम्बन्ध में अपनी सम्पूर्ण आयु के अनुभव को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।

हर समय काम-वासना में मग्न रहने की स्थिति मुर्ग़ों व बकरों इत्यादि जैसी ही प्रतीत होती है। इस प्रकार के ध्यान में लीन व्यक्ति जानवर जैसा ही है, जिसका चित्त सम-अवस्था को कभी प्राप्त नहीं हो सकता और सर्वत्र चलायमान रहता है। वह संयम रूपी नियंत्रण को हमेशा ढील दिए रहता है। मेरे स्वजनों ! मानव तो सर्वत्र विवश है - "Man is born free but everywhere he is in chains". 'कामवासना' ऐसी विचित्र शक्ति है कि योगी एवं परमयोगी भी इसके समक्ष टिके नहीं। जिस घड़ी तक शीत का प्रभाव शेष है, काम रूपी सर्प चेष्टा-हीन पड़ा रहेगा। जिस क्षण उसे थोड़ी सी भी उष्मा मिली वह सचेष्ट हो जायगा। फ़िर भी जहाँ तक संभव हो यथोचित उष्मा या ताप उस तक पहुँचने न दें, इसके अतिरिक्त  कोई दूसरा उपाय प्रतीत नहीं होता। तात्पर्य यह है कि चित्त की अभीष्ट सम-अवस्था का उद्योग करें और एक सीमा का भी निर्धारण करें। यों यहाँ भी सारी साधनाओं का अनुभव यही है कि सीमा में बंधे रहना व चित्त को सम-अवस्था तक सीमित रखना न मात्र अत्यंत कठिन है प्रत्युत  असंभव जैसा ही रहा है

हाँ, एक और साधना ऐसी भी है जिसकी आशा दूसरे पक्ष अथवा स्रियों से की जाती है। संयोग से किसी संस्था विशेष में यदि स्त्रिओं के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों का निर्माण किया जाता हो तो उक्त दशा में एक सीमा तक सुरक्षा की संभावना है।

मेरे सद्गुरदेव के मिशन से सम्बद्ध सत्संग समाज में यद्यपि, स्त्रियों की संख्या अभी तक अधिक नहीं है। अतः इस प्रकार की विषेश कठिनाइयाँ सामने नहीं आ रही है, फिर भी मुझे परम्परा के आप्तजनों के आशीर्वाद पर पूर्ण विश्वास है कि जन-जन में इस दिव्य धारा का निरंतर प्रसार होगा। स्पष्ट है इस बिंदु को समस्या मान कर अभी से इस पर दृष्टि रक्खी जाय। जो मित्रगण व भाई जहाँ-जहाँ इस दिव्य मिशन के प्रचार प्रसार में आचार्य पद से कार्य कर रहे हैं, इस दिशा में उनका दायित्व और भी बढ़ जाता है।

संकेत के रूप में कुछ शब्द यहां छोड़ रहा हूँ, आने वाली पीढ़ी को संभवतः कुछ मार्गदर्शन मिल सके।

विद्वानों का मत है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में काम - शक्ति की नौ गुनी ऊष्मा वास करती है, जो  शरीर से कुछ अनदेखी किरणों के रूप में स्फुटित होती रहती हैं। प्रसंगवश, उल्लेख करूँ कि हज़रत मोहम्मद साहिब को [उनपर ईश्वर की दयालुता हो], यह दिव्य सन्देश मिला कि 'स्त्री - पुरुष' के बीच विशेष सीमाओं का निर्धारण किया जाय तो उनकी ओर से तुरंत ही इसका प्रचार हुआ एवं उसका विधिवत पालन होने लगा। उसके कुछ दिन बाद, एक दिन जब हज़रत घर के अंदर गए तो वहाँ उनकी धर्मपत्नी के अतिरिक्त एक पुरुष भी उपस्थित था जो अँधा था। हुज़ूर महाराज ने अत्यन्त ही विस्मित भाव से उनसे प्रश्न किया - "बीबी, क्या तुम्हें अल्लाह का हुक्म नहीं मालूम?" उन महामहिला ने तुरंत ही उत्तर दिया - "हुज़ूर, यह तो नाबीना है।" हज़रत की पुनः संक्षिप्त सी जिज्ञासा थी - "बीबी तुम तो नाबीना नहीं हो ?" इस दृष्टान्त से मेरे पाठक गण उचित शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

अपने वक्तव्य को साहित्यिक अलंकारों का आवरण दिए बिना स्पष्ट ही कहूँगा कि स्त्रियाँ, कृपया ऐसे वस्त्रादि वेशभूषा एवं प्रसाधन प्रयोग में न लायें जिनसे दूसरे पक्ष की दबी हुयी काम-वासना' को उत्तेजित होने में सहायता मिले। शास्त्रों में मेरे मत की अनेकों प्रकार से पुष्टि की गयी है।

"मा वां ब्रको मा ब्रकीरादधर्षीनमा परिवर्तमुत मातिधक्तम।
अयं वा भागो निहित इयँ गीर्दस्त्राविमे वामं निधयों मधुनाम।।"
[ऋग्वेद 01 / 183 / 04]

संदर्भगत आशश है कि हे स्त्री पुरुषो ! तुमको न तो कुटिल, हिंसक स्वभाव वाला पुरुष सताये और न कुटिल और हिंसक वृत्ति वाली स्त्री सताये। तुम दोनों एक-दूसरे का कभी परित्याग न करो और न कभी मर्यादा का उललंघन करके एक दूसरे के हृदय को दुखाओ, तुम दोनों के लिए यह अनुपालनीय  है। हे दर्शनीयो ! एक-दूसरे के दुःख का नाश करने वाले यह मधुर अन्न-जल और फलों के कोष तुम-दोनों के लिए हैं।

"अधः पश्यस्व मोपारि सन्तरार पादकौ हर।
मा ते कशप्लकौ द्रशनस्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।।"
[ऋग्वेद 08 /33 /19]

अर्थ - हे नारी नीचे देख। ऊपर न देख। दोनों पैरों को सम्यक रूप से उठाकर चल। तेरे निम्न-अंग पीठ, पेट, नितम्ब, जांघें, पिंडलियाँ और टखनें दीख न पड़ें।

स्त्रियों को लज्जा व शालीनता का प्रतीक होना चाहिए। उन्हें हाव-भाव, चंचलता अपने अंगों का प्रदर्शन न करना चाइये, यह क्रियाएँ समाज को विनाश की ओर ले जानें वाली हैं।

सत्संगी देवियों से मेरा द्वितीय निवेदन है कि जब साधना के मध्य ध्यान-मग्न हों तो वे अपनी अन्य प्रार्थनाओं के मध्य अपने उन साधक भ्राताओं के लिए प्रभु से निवेदन करती रहें कि उनका भाव निरंतर उनके बीच भाई-बहन या माँ-बेटे जैसा बना रहे और वे एक दूसरे को शक्ति प्रदान करने वाली हों।

स्त्रियाँ जब पुरुषों के मध्य हों तो वे अपनी यौन-चेतना [sex/gender consciousness] को छोड़ कर स्वयं को पुरुष देह में प्रविष्ट मानें। यह मेरा तृतीय परामर्श है।

स्त्रिओं की एक भ्रान्ति भी दूर करना चाहूँगा। मैं समझता हूँ कि स्त्री की सौंदर्य साधना जो उसकी अभीप्सा होती है, उसकी अस्मिता समझी जाती है और जो उसकी चेतना का अवलम्ब बनती है, सौंदर्य प्रसाधनों अथवा अंगों के प्रदर्शन से संभव नहीं होती है। वह इन माध्यमों से जो कुछ लगे किन्तु सुन्दर नहीं लगती चाहें वह अपने आप को जितना सुन्दर समझती हो। तब सुन्दर कैसे लगेगी, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है।

तथ्य एवं वास्तविकता यह है कि यह मुख एवं यह शरीर, जिसे बाहरी प्रसाधनों से सजाने का प्रयत्न कर सुन्दर बनाने की कल्पना और कामना की जाती है, अंतर का प्रतिबिम्ब  है, दर्पण है। यदि आपका अंतर सुन्दर है तो आप बाहर अपनी मुखाकृति में, अपने शरीर की रचना में सुन्दर लगेंगे। यदि अंतर कुरूप है तो बाहरी सौंदर्य साधना ऐसा ही प्रयत्न है जैसे गन्दगी को ढाँकने के लिए ऊपर मिट्टी डाल दी जाय। तब अंतर का सौंदर्य कैसे प्राप्त हो, यह जिज्ञासा हुयी?

अंतर की सुंदरता प्राप्त होती है मन की निर्मलता से और मन की निर्मलता प्राप्त होती है ध्यान की एक-चित्तता, एकाग्रता एवं निष्ठा से। ध्यान की एक-चित्तता कैसे प्राप्त होगी, यह आगे अभ्यास और साधना के प्रसंग में स्पष्ट करूँगा। यहाँ यह अवश्य बता दूँ कि मन की निर्मलता की पहिचान यह है कि हमारा अपने आराध्य से, अपने इष्ट से, अपने प्रियतम से मानसिक सम्बन्ध स्थापित हो जाय, हम बिना कहे अपने प्रियतम के मन की बात को जान लें और तदअनुकूल आचरण करें। यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अपेक्षित है। पत्नी अपने पति की मन की बात को जानने लगे, पति अपने गुरुदेव, अपने माता-पिता अथवा इष्ट भगवान की मर्ज़ी जाननें लगें तथा तदानुकूल आचरण करें तो समझ लें कि मन की निर्मलता प्राप्त हो गयी है। पत्नी का पतिव्रत-धर्म यही है। पति के शरीर की सेवा करना एवं पूजा करना और मन से विमुख रहना पतिव्रत धर्म नहीं और कुछ भले ही हो। सीता जी के पतिव्रत धर्म की यही विशेषता थी जिसके कारण वह ऐसी पुण्यशीला हो गयी थीं कि अनुसुइय्या जी के आशीर्वाद की सुपात्रा बनीं -

"सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिव्रत करहिं"
[03 - 05 : रामचरित मानस]

सीता जी के पतिव्रत धर्म की यह अपेक्षा थी - पति के मन की बात जान लेना। यह उनकी अन्यतम उपलब्धि थी।

"पिय हिय की सिय जाननि हारी"
[02 - 10 : रामचरित मानस]

इसी रूप में पत्नी विमुखी से सुमुखि बन कर पति के सम्मान समादर की अधिकारिणी बनती है -

"तस मैं सुमुखि सुनावौं तोहि। समुझि परइ जस कारन मोही।
 [01 - 120 - 05 रामचरित मानस]

मुझे गर्व है अपनी चिरसंगिनी पर जिन्होंने इस क्षेत्र में मेरा कंधे से कंधा मिला कर सहयोग किया एवं उपर्युक्त प्रयोग के मध्य सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अध्यन व अनुशीलन में निरंतर मेरी सहायक रहीं और अभीष्ट तक पहुँचने में मेरी पथ-प्रदर्शक भी रहीं।

अपने विद्वान पाठकों को पुनः आचार्यप्रवर ख्वाजा साहिब [उन पर ईश्वर की कृपा हो], के सत्संग में ले चलता हूँ जहाँ वह अत्यंत कृपा एक नवविवाहित युवक को सम्बोधित कर रहे हैं।

"विवाह से दूसरी हानि ह्रदय या अन्तःकरण को होती है जो उसके विश्वास को भी प्रभावित करती है, क्योंकि इस मोड़ पर उसकी चेतना में एक मात्र सत्य के इस विश्वास में कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

ख्वाजा साहिब [ईश्वर की दयालुता उन पर हो] ने, विवाह से होने वाली पहिली हानि के अंतर्गत स्पष्ट किया कि स्त्री-पुरुष के संबंधों के मध्य वाँछित सीमाओं का निर्धारण व उनका पालन न करने के कारण यह हानि होती है कि मन बेलग़ाम घोढ़े की भांति अपने नियंत्रण में नहीं रहता। उसकी दूसरी हानि के अंतर्गत ह्रदय व अंतःकरण की निर्मलता आहत होती है। अतः सूफी संतों ने चेतना व समर्पण को अपनी साधना में प्रथम स्थान दिया है जिससे ह्रदय चक्र या अंतःकरण स्वच्छ रहता है।

विश्वास की द्वन्द्वमय अवस्था राह का सबसे बड़ा काँटा है जो कार्य को संपन्न नहीं होने देता। हृदयरूपी दर्पण की स्वच्छता जितनी आवश्यक है, उसका ठहराव भी उतना ही आवश्यक है, क्योंकि गतिमान दर्पण में सही प्रतिबिम्ब नहीं दिखता। द्वन्द्वावस्था की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है।

भ्रम एक पाप है और यही द्वन्द्व है जो भाव की एकाकी स्थिति के विपरीत है। भ्रम क्या है? एक स्थान पर मात्र एक से अधिक भावों या विचारों का एकत्रित हो जाना और इसके साथ पूर्व स्थिति के विश्वास का मिट जाना। और, भ्रमरहित स्थिति होती है -  एक ईश्वर के अलावः दुसरे का विश्वास न होना; एक शक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति का आभास दृष्टिगोचर न होना। यही शक्ति [Power] है एवँ यही चित्त का ठहराव है। अब विद्वान पाठकगण कृपया ख्वाजा साहिब [ईश्वर की दयालुता उनपर हो], की वाणी पर ध्यान दें और उसका सूक्ष्म विश्लेषण करें।

पहले स्वयं एक था। एक के पोषण की चिंता थी। अब दो हो गए और आगे के क्रम को गति मिली। पोषण एवं व्यवस्था की चिंतारूपी कठिनाइयों की वृद्धि होने लगी। विश्वास का द्वंद्धीकरण क्या है? स्वयं अपना ध्यान व अपना विश्वास, दो के हो जाने पर विश्वास का बटवारा हो गया। विश्वास का बटवारा ह्रदय या अंतःकरण की क्षति है। पोषण व व्यवस्था की चिंता क्या है - मात्र विश्वास का एक से हट कर दूसरे में पैदा होना और ऐसी स्थिति में, "जो एक मात्र पोषक व व्यवस्थापक है" - उस सर्वशक्तिमान परमात्मा एवं उसके प्रति विश्वास में क्षति होना। ह्रदय जो एक स्थान पर जमा हुआ है, वह स्थिति अब नष्ट हो गयी।

 अब सुने कि विश्वास या समर्पण क्या है? ग्रामीण व क़ानून को न जानने वाले नगर-वासी भी अपनी टूटी-फूटी भाषा में, अपनी सारी स्थिति 'वकील' को सुना देते हैं व वकालतनामे पर हस्ताक्षर करने के बाद अपने पूरे मामले को उन पर भरोसा करके छोड़ देते हैं और स्वयं चिंता-मुक्त हो जाते हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि उनको विधि सम्बन्धी जानकारी कुछ भी नहीं, अतः स्वयं उसकी पैरवी नहीं कर सकते हैं। वे चिंताविहीन भाव से उस पर ऐसा भरोसा करते हैं कि वह जो चाहे या जैसा ठीक समझे करे।

इस प्रकार हमारा सभी का पालन पोषण करने वाला मात्र ईश्वर ही है और वही सच्चे अर्थों में हमारा वकील है। जो पुरुष सच्चे ह्रदय से उसको अपना वकील समझते हैं वे शांत हैं। अपने वकील के भरोसे अपने मान-सम्मान, जान-माल इत्यादि सब कुछ को छोड़ देना एवं स्वयं चिंता मुक्त हो जाना, यही सच्चे अर्थों में 'समर्पण' है। मानव अपनी जीविका की चिंता में रात-दिन बावला रहता है और समझता है कि वह स्वयं ही इसकी व्यवस्था करेगा। यह विश्वास की भावना या समर्पण के विपरीत है। इस प्रकार ईश्वर-आधीनता में अंतर आ जाता है, यह ह्रदय की हानि है। 


इसके बाद हज़रत ने फ़रमाया कि इसका निदान यह है कि जीविका के लिए प्रयत्न तो करें किन्तु परेशान न हों। इसका कारण स्पष्ट कि वह ईश्वर ही सारी सृष्टि का पालन करने वाला है, वह हमारी भी चिंता करेगा।

आप यह भी फरमाते हैं कि इस वक्तव्य का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ईश्वर को वकील बना कर अकर्मण्य हो कर बैठे रहें, क्योंकि यह ईश्वर-परायणता नहीं है। स्वामी की इच्छा यह है कि हाँथ-पैर हिलाना चाहिए। ईश्वर में क्रिया शक्ति है। वह समस्त चेतन सत्ता का स्वामी है। समष्टि चेतन की सत्ता में स्फूर्ति है, क्रिया है और कोई बाधा नहीं है। अतः मानव बिना कर्म व स्फूर्ति के कैसे रह सकता है; और यदि ऐसा करता है अर्थात कर्म से विमुख होता है तो अनेकों भावी दुखों का कारण स्वयं बनता है। धर्म-शास्त्र के अनुसार, जीविका होनी ही चाहिए। जीविका साधन-द्वार है, जिसे बंद करके बैठना नहीं चहिये।

इसी विषय पर भगवान कृष्ण गीता के दूसरे अध्याय के 48 वें श्लोक में अर्जुन को आदेश देते हैं -

"योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्त्व धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते"। ।
[गीता 02 - 48]

अर्थात - "हे धन्जय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला हो कर योग में स्थित हुआ कर्तव्य-कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है"  

विवाहोपरांत तृतीय कुप्रभाव आत्मा पर पड़ता है। कारण यह है कि आकर्षणशक्ति क्षीर्ण व हीन हो जाती है। सुरत [तवज्जः] उस मौलिक उद्गम स्रोत से सात्विक प्रकाश की धार को आत्मा की ओर निरंतर प्रवाहित कराती है। जब यही सुरत [तवज्जः] लौकिक आकर्षणों से अनुबंधित हो जाती है तो, उसका प्रवाह अभी तक जो ईश्वरीय स्रोत से जुड़ा हुआ था, मंद व क्षीर्ण पड़ जाता है। सत्य पद की धारा एवं किरणे सीधी आत्मा पर पड़ती व उसे चिर-आनंदित किया करती हैं। इस अपार प्रवाह का साधन, सुरत [तवज्जः] है जो एक प्रकार से परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। जब यही सुरत अपना सम्बन्ध उस सतपुरुष के ध्रुवपद से हटा कर प्रकृति के प्रकाशों को खींचने में लग जाया करती है तो अनायास ही उस वास्तविक प्रकाश [परमात्मा] के आने में कमी होने लगती है, आत्मा को यही तीसरी हानि पहुँचती है।

संभवतः मेरे भावी पाठकों के मन में कुछ संशय के बीज अंकुरित हो रहे होंगे कि अभी-अभी तो लालाजी अपनी 'सहधर्मिणी’ के बारे में वर्णन करने की भूमिका बाँध रहे थे कि अनायास ही यह उन्हें क्या सूझा कि नीरस दर्शन हमारे सामने खोल कर रख दिया। मेरा पुनः नम्र निवेदन है कि इन पृष्ठों को कृपया बार-बार पढ़ें। कारण स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा। जो नवयुवक अभी-अभी आपके सामने उपस्थित थे, उनकी कुछ दिन पूर्व ही शादी हुयी है और वोह एक अपरिचित महिला के संसर्ग में पधारे हैं। यदि आप एक साधक हैं तो यह कुछ विशेष बातें, जो अभी-अभी चर्चा के मध्य आईं हैं, किसी भी लौकिक रूप से सुन्दर व आकर्षक वस्तु के संपर्क के समय आपको एक समुचित मार्गदर्शन व चेतना देंगी। उन समस्त वस्तुओं का आकर्षण आपको साधना पथ से लेश-मात्र भी विचलित न होने देगा, यह मेरा निजी अनुभव है। ईश्वर आपका मार्ग-दर्शक हो।

मेरी छवि जो आपके मानस-पटल पर स्पष्ट है - एक ऐसा व्यक्तिव जो जन्म से हिन्दू किन्तु दिखने में सजीव मुसलमान। मझला क़द। गेहुआँ रंग। माथा चौड़ा, आँखे चमकीली। बाल पर्याप्त कोमल, केवल आगे का एक दांत शेष दांतों से कुछ बढ़ा हुआ। मूंछे व दाढ़ी दोनों बढ़ी हुयी। दाढ़ी छोटी सी घनी। कान न बड़े न छोटे। शरीर मामूली, न दुबला न मोटा। सभी कुछ अपने प्रियतम में खोया खोया सा।

किन्तु इसके ठीक विपरीत, वह जो मेरी धर्मपत्नी हैं, भयङकर हिन्दू-वैष्णव परम्परा व संस्कारों में पली एवं रोम रोम में पवित्रता से ओत-प्रोत, लौकिक भी व पारलौकिक भी। वह मेरी आत्मकथा की नायिका हैं।

बरेली - लखनऊ रेलमार्ग पर स्थित एक प्राचीन स्थल है - शाहजहांपुर। इसी जनपद में एक स्थान है - 'कँवलनयनपुर'। यही मेरा 'जनकपुर' है, [ससुराल; in-laws' house] श्वसुरमंदिर है। मेरे श्वसुरजी यहीं के एक रईस थे, उनका सुनाम था श्री यदुनाथ सहाय कंचन।

इस क्षेत्र पर मुग़लिया सल्तनत की स्पष्ट छाप आज भी दृष्टिगोचर होती है। आम लोग भले ही समर्थ न हों किन्तु बाबू यदुनाथ सहाय कंचन जैसे यशस्वी ज़मीदार के घर-परिवार में मॉस-मदिरा का भरपूर चलन हैं, बड़े-बड़े लोगों के घर जो भी अच्छा-बुरा चलन में होता है, सभी की इफ्रात [प्राचुर्य] हैं । किन्तु मेरे हिस्से में आयी इस परिवार की 'लाड़ली' [सुश्री बृजरानी] की परवरिश इस वातावरण से बहुत दूर,  की एक रियासत, 'सकीट’, सँयुक्त-प्रान्त [United Province, - वर्त्तमान समय में यह उतरप्रदेश के बृज - क्षेत्र, जिला एटा के अंतर्गत आता है] के राजा के परिवार में अपनी 'ननिहाल' [Family-house of maternal grandfather] में हुयी थी। वहाँ की रहनी-सहनी और संस्कृति ठीक इसके विपरीत थी। मेरी धर्मप्रिया के अनुसार उनके ‘मामा जी’ [Maternal uncle] 

राव अवध नरायण

के परिवार में संतानें जन्म तो लेतीं थीं किन्तु अधिकतम, अल्पायु में ही परलोक सिधार जातीं।इसी कड़ी में उनके मामा जी अपनी भान्जी [बड़ी बहिन की बेटी - बृज रानी] को 'सकीट' ले आये और विवाह योग्य हो जाने तक वे यहाँ पर अपनी 'ननिहाल' में ही रहीं। 'राजासाहब' (राव अवध नारायण) के घर में समस्त प्रकार की राजसी सुख-सुविधाएँ थीं, कोई अभाव नहीं था। उनकी लाड़ली 'धेवती' [सुश्री बृजरानी] ने उन्हें ‘मामा जी’ कह कर कभी सम्बोधन नहीं किया, वे उन्हें "राजा साहिब" के सम्बोधन से ही स्मरण करतीं हैं। समस्त प्रकार की धन-दौलत के बावजूद भी राजासाहिब के घर का वातावरण और खान-पान अत्यंत ही साधारण और सात्विक था जिसका प्रभाव उनकी लाड़ली भान्जी [बृजरानी] के ऊपर पड़ा और उसी अनुशासन को उन्होंने अपनी संतानों पर लागू रक्खा, मैं स्वयं भी उसी में ढल गया। बाद में राजा साहिब को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुयी, जिसका शुभनाम
इन्द्रनरायन सक्सेना है। कालान्तर में उसी जागीर के वे भी राजा बने। वे भी बहुप्रतिभासम्पन्न और संयमी हैं। ब्रिटिश शासन की ओर से उन्हें भी 'रायबहादुर' के ख़िताब से नवाज़ा गया।       

वोह पवित्रात्मा, श्रद्धा व प्रेम दोनों की मानों मूर्तरूप, चिरसुहागन हैं। संसार की किसी भी महासती से उनकी यदि मैं तुलना करूँ तो अतशयोक्ति न होगी। उन सारे के सारे गुणों का जो एक पतिव्रता सती स्त्री में होने चाहिए ऐसा सुन्दर समन्वय, मैंने अन्यत्र नहीं देखा। वोह मेरी चिरसंगिनी, मेरे जीवन यज्ञ में हर आहुति पर स्वयं समर्पण की मूर्ति। सत्यमार्ग की ओर प्रेरित  करने वाली स्वयं सत्यता जिन्होंने मुझे सदा-सर्वदा सचेष्ट बनाये रक्खा।

"या पति हरिभावेन भजेच्छीरिव तत्परा।
हर्यत्मना हरेलोके पत्या श्रीरिव मोदते। ।
 [श्रीमद भागवत 7 - 11 -29]

अर्थात - जो लक्ष्मी के सामान पतिपरायणा हो कर अपने पति की उसे साक्षात भगवान का स्वरुप समझ कर सेवा करती है, उसके पतिदेव बैकुंठ लोक में भगवतसारूप्य को प्राप्त होते हैं। और वह लक्ष्मीजी के सामान आंनदित होती है।  

शुभा व सुकला के समान मेरी धर्म-रूपा अर्धांगिनी प्रेम-मुग्धा हैं तथा मुझसे दूर रह कर वह जीवित नहीं रह सकती हैं। मैं उनके ह्रदय को जानता हूँ। आदर्श पति-पत्नी के शीलयुक्त एवं प्रेम-पूर्ण अपने दाम्पत्य जीवन के कुछ संस्मरणों को सुनाने से पूर्व मैं एक रहस्योद्घघाटन करूँगा। आप सुनें।

"लछिमन गए बनहिं जब, लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता सन बोले, बिहँसि कृपा सुख बृंद।।"
 [रामचरित मानस 03 -23]

सुनहुँ प्रिया व्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करवि ललित नर लीला।।
तुम पावक महुँ करहुँ निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा ।।
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हिय अनल समानी।।
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसेइ सील रूप सुबिनीता।।
लछिमहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा  भगवाना।।"

राम कथा के इस प्रसंग में महात्मा तुलसीदास जी बताते हैं -

"जब लक्षमण जी बन में कन्द-मूल, फल लेने गए तब कृपा और सुख के समुद्र श्री राम जी जनक नन्दिनी से हँस कर बोले - हे सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशील प्रिया सुनो ! मैं कुछ ललित लीला करूँगा। अतः जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ तब तक तुम अग्नि में वास करो। जैसे ही श्री राम ने ऐसा कहा वैसे ही सीता जी प्रभु के चरणों का ध्यान कर अग्नि में समा गयीं। सीता जी ने वहाँ अपनी छाया-मूर्ति रख छोड़ी। उसका रूप, विनय तथा शील वैसा ही था। भगवान ने जो कुछ चरित्र रचा इस मर्म को लक्षमण जी ने भी नहीं जाना।"

भगवान राम के इस चरित्र की पुनरावृत्ति मेरी भी कहानी में हुयी। जैसे शक्तिमान अपनी शक्ति से, शरीर अपनी छाया से, चन्द्रमा अपनी चांदनी से, सूर्य अपनी प्रभा से कभी पृथक नहीं हो सकता, वैसे ही मेरा अभेद्य सम्बन्ध अपनी प्राणप्रिया से रहा है।

यह घटना उस समय की है जब मेरी अंतिम संतान के रूप में एक कन्या [जिसका नाम सुशीला है] का जन्म हुए लगभग एक वर्ष ही अभी बीता था कि मेरी धर्मपत्नी को एक रात्रि स्वप्न में सूर्य के सामान तेजस्वी, मुकुटधारी, श्याम शरीर, लाल वस्त्र पहने और हाँथ में पाश लिए एक पुरुष दृष्टिगोचर हुआ। वोह बोलीं "आप कौन हैं और यहां पधारने का आपका क्या आशय  है।" कांतिमान उस पुरुष ने प्रतिउत्तर में कहा - "मैं यमराज हूँ। तेरी आयु अब समाप्त हो चुकी है अतः तुझे मैं ले जाऊँगा।" उन्होंने पुनः उसको सम्बोधित किया - "भगवन ! मनुष्यों को लेने तो आपके दूत आया करते हैं ? यहाँ स्वयं आप ही कैसे पधारे?" यमराज ने उन्हें बताया - "आप स्वयं एक पतिव्रता देवी हैं एवं अनेकानेक दिव्य गुणों से संपन्न हैं। अतः मेरे दूतों द्वारा ले जानें योग्य नहीं हैं। इसी से मैं स्वयं आया हूँ।" इसके बाद यमराज मेरी प्राणप्रिया के शरीर से अंगुष्ठमात्र परिमाण वाले सूक्ष जीवात्मा को निकाल कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए।

प्रारम्भ से ही मेरी ब्रह्ममुहूर्त में प्रातः चार बजे जागने की आदत थी। प्रातः की पहली बैठक में सत्संग व संध्या हम एक-साथ ही करते रहे थे। अतः नित्य के आचरण के विपरीत जब मैंने उन्हें अपनी शय्या पर ही पाया तो कौतूहल वश मैंने उनके आवरण को उघार कर देखा तो देखता ही रह गया। वोह कांतिहीन एवं मृत थीं। मैं व्याकुल हो गया और मैनें प्रथम बार अनुभव किया कि मैं स्वयं पत्नि हूँ और वोह मेरी पति थीं। मेरा संसार मानों अब सूना हो गया। मुझे अब मेरा जीवन मिथ्या जान पड़ा।

कहते हैं की एक बार किसी प्रेमोन्मादिनी गोपी को यह शंका हो गयी कि मैं जो श्री कृष्ण का ध्यान करती हूँ सो कहीं ध्यान करते करते स्वयं श्री कृष्ण न हो जाऊँ। और यदि ऐसा हुआ कि मैं श्री कृष्ण बन गयी तो फिर मुझे अपने प्रेमास्पद श्री कृष्ण के साथ प्रेमविलास का आनन्द कैसे मिलेगा। दूसरी गोपी ने उससे कहा - इसके लिए तू चिंता न कर, श्री कृष्ण के ध्यान में जब तू कृष्ण बन जाएगी तो श्री कृष्ण भी तेरे ध्यान में गोपी बन जायेंगे। प्रेमी-प्रेमास्पद का आनंद ज्यों का त्यों बना रहेगा। अतएव तू श्री कृष्ण के ही ध्यान में मग्न रह।"

मैं उनका पति, वोह मेरी पत्नी अथवा मैं उनकी पत्नी, वोह मेरे पति, सत्य जो भी हो, बिछोह की यह घड़ी मुझे अति भयंकर व दुःखदायी लगी। अंत में सद्गुरु कृपा से एक और आश्चर्य मैनें देखा। वोह पुनः जागीं - सजीव ! वोह जब उठ कर सचेत हुईं तो प्रथम नमस्कार के उपरांत उन्होंने अपना स्वप्न निवेदन किया।

उपर्युक्त पूर्व निवेदित स्वप्न में देखे दृश्य के बाद उन्होंने बताया कि, जहाँ उन्हें ले जाया गया वहाँ  प्रकाश ही प्रकाश था, कुछ अन्य नहीं। एक अभूतपूर्व शांति का अनुभव होता था। एक दिव्य वाणी की भांति उनकी चेतना ने अनुभव किया कि कोई कहता है - "तेरी आयु  तो अवश्य समाप्त हुयी किन्तु हमारा कार्य  शेष है, तू धर्मात्मा है अतः चिरसुहागन बन। सौभाग्यरत्न तेरा पति जो सत्पुरुष है, उसकी  सहायिका व पूरक बन। दिव्य आशीर्वाद तुझे प्राप्त है। तू पुनः मुक्त हो कर जा और शास्त्रोक्त कर्म कर। सतचेष्टा से तेरा मोहरूपी आवरण नष्ट कर दिया गया है। अब तू चलते-फिरते शव की भांति, स्वेच्छा से जब तक जी चाहे आसक्ति मुक्त हो कर पुनः जीवन प्राप्त कर और अंत में इच्छा-मृत्यु के सुयोग की भागी बन।" अपने स्वप्न को सुनाने के उपरांत उन्होंने एक लाल गोल चिन्ह भी मुझे दिखाया, जो उनकी कटि-प्रदेश के उत्तर-भाग में, उपर्युक्त दृश्य से विदा लेने से पूर्व, अंकित किया गया था। प्रभु की लीला अपरम्पार है। अतः आश्चर्य का प्रश्न ही नहीं। इस दिन के बाद से हम-दोनों के सम्बन्ध आपस में पति-पत्नी के अतिरिक्त कुछ और ही हो गए।

वोह अपने निष्कलंक चरित्र से हमारे सत्संग-समाज को पवित्रता प्रदान करने वालीं है। उनमे लोकोत्तर पतिव्रत, शील, करुणा, अनुपम क्षमा, वात्सल्यता, सहज सौंदर्य, सदाचार, अदम्य साहस, त्याग, संयमनियम एवं चरित्र की दृढ़ता इत्यादि गुण विद्यमान हैं। मैं जिस क्रांति की व्याख्या को जीवन देना चाहता हूँ, उसे वोह भली भांति समझती हैं  व मेरे हर कार्य में सहायक बनना चाहतीं हैं। वोह मेरी पत्नी के रूप में मेरे लिए भार या दुःखदायिनी नहीं बनना चाहती हैं। वह मेरे दुःखों को घटाने में समर्थ होती हैं एवं यथासंभव मेरा मन बहलाती हैं। मुझ साधक को उत्तरोत्तर सफलता के सोपान पर देखना चाहती हैं। तदन्तर उन्होंने एक समय नियम पूर्वक ब्रह्मचारिणी बन कर मेरी सहायिका बनने का वचन भी दिया एवं आज भी उस पर आरूढ़ हैं। मुझ फ़कीर की कुटिया में रहते-रहते प्रेमी प्रेमास्पद के आनंद में वोह निरंतर लीन हैं। अपने पिताजी के घर के राज्योचित सुख-वैभव इत्यादि को जो मैं आजीवन उन्हें न दे सका, मानों वह भूल ही गयी हैं।

अब वह पूर्ण योगिनी हैं। क्षमा का गंभीर समुद्र उनके विशाल ह्रदय में विद्यमान है। उनके चरित्र की दृढ़ता में हिमालय की अडिगता दृष्टिगोचर होती है।

अवस्था में वह मुझसे कुछ माह बड़ी हैं। वह अत्यंत ही गंभीर व पवित्रता के नाम पर मानों उसकी साक्षात मूर्ति हैं। अनेकों कर्मकांडी आचरण उनमें संस्कार से ही विद्यमान हैं। माँस-मछली का सेवन तो क्या, अनेक बनस्पतियाँ जिनमे किसी भी प्रकार उनकी समता का बोध होता हो, जैसे कटहल, शलजम व मसूर की दाल इत्यादि का सेवन भी उनके लिए संभव नहीं है। इस प्रकार उनकी गभीरता, पंथ के प्रति कट्टरता, आचरण में निर्भीकता एवं निर्द्वंद्वता इत्यादि असाधारण चारित्रिक गुणों के सन्दर्भ में पर्याप्त समय तक उनके पूर्ण समर्पण के उपरांत भी, मैं अपने अंतर में उनके प्रति संकोच के अंकुरों का पोषण करता रहा। यही कारण था कि वह तो अपनी बात मुझसे खुल कर कह लेतीं किन्तु मैं अभी तक अपने जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य उनसे छिपाये रहा। यह पाप था एवं उनके प्रति अन्याय भी।

मेरे हज़रत क़िब्ला मौलवी फ़ज़्ल अहमद खां साहिब रायपुरी मेरे सदगुरुदेव, मेरे पथ-प्रदर्शक एवं सर्वस्व हैं। मुझे एक घड़ी ऐसा भी बोध हुआ कि इन सारे भावों के साथ जिनमें चित्त आत्मानन्द में मग्न हो कर हिलोरें लेता है, न जाने कहाँ से एक असत्य प्रवेश पा गया। मैं उसे दिन-रात खोजता किन्तु उसका अस्तित्व समझ न पाता। मैं उसे खोजते-खोजते थक गया किन्तु उसका ठिकाना न मिला। मैं थक कर यों बैठ रहा मानों अब गया, तब गया। मुझे मेरी साधना व्यर्थ ही प्रतीत लगने लगी जिसका मात्र कारण था, मेरे अंतर में उस असत्य का पोषण। मुझे इस मझधार से निकालने वाली मेरी धर्म-प्रिया के अतिरक्त और कोई न था। मुझे लगा कि कोई मुझे धिक्कारता, मुझ पर चोट करता एवं मुझे आहत होते देख मुझ पर अट्टहास करता। मुझे लगा इस जगत में मुझसे अधिक दुर्बल अन्य कोई दूसरा नहीं। इसी ताड़ना के बीच मुझे ऐसा भी आभास हुआ मानो मेरे अंतर का चोर दूसरा और कोई नहीं किन्तु स्वयं मेरी एक हीन भावना थी, जो मुझे नहीं ज्ञात, कब और कहाँ से, एक झूटी साम्रदायिक-चेतना [pseudo-sect consciousness] के रूप में उदय हो गयी थी। मेरे मस्तिष्क के अचेतन पटल पर न जानें कहाँ से यह हीन-भावना प्रवेश पा गयी कि मेरे सदगुरुदेव जिन्हें मैं अपना सर्वस्व एवं पथप्रदर्शक मानता हूँ जिनपर अपने दीन व दुनियाँ दोनों का भार डाल चुका हूँ एवं लौकिक रूप से जिनसे दीक्षा [बयत] भी ले चुका हूँ वोह 'मुसलमान' भी हैं। यह विरोधाभास ही नहीं संसार का सबसे बड़ा पाप था।

मैं उस महामानव को जो समस्त साम्प्रदायिक व धार्मिक बंधनों से मुक्त थे, अपनी तुच्छ-बुद्धि के कारण मात्र एक मुसलमान ही समझता रहा - मुसलमान मात्र, एक साम्प्रदायिक ! उस समय तक मैं सही अर्थों में इस्लाम को समझ न पाया था। न मैं हिन्दू-दर्शन से ही परिचित था न इस्लाम से। मेरी पोल जब खुली तो मानों पल झपकते सारा दर्शन दृष्टिगोचर होता सा प्रतीत हुआ। जिन्हें मैं कट्टर साम्प्रदायिक समझता था उनके बारे में मेरे इस सम्पूर्ण असत्य आचरण को उतार फेंक कर मुझे नंगा कर देने वाली वह सती ही थीं जो सौभाग्य से मेरी धर्मपत्नी हैं।

अब तक यह मेरा भ्रम था, मेरे जीवन का सबसे बड़ा असत्य, सबसे बड़ा पाप। मेरे अंतर का चोर यह कहता था कि तू जिस मार्ग का अनुगामी बना है, उसको दर्शाने वाला एक मुसलमान है। तेरी प्राणप्रिया संसार में जिसके अतिरिक्त तेरा कोई नहीं, कट्टर हिन्दू संस्कारों में पली व हिन्दू संस्कृति की अनुगामिनी है। जब उसे ज्ञात होगा कि उसका जीवनसाथी एक मुसलमान की शरण में जा चुका है तो उसके ह्रदय पर क्या बीतेगी। इन्ही हीन विचारों में घिरा मैं एक ऐसे दुराहे पर खड़ा था जहाँ कि मेरा विवेक मुझे कोई मार्ग-दर्शन करने में असमर्थ था।

संसार के सबसे बड़े कायर बने मैनें अपना सम्पूर्ण साहस जुटा कर अंतर में निश्चय कर ही लिया कि परिणाम चाहे जो भी हो, मैं अब इस भेद को भेद न रहने दूंगा। अपनी सारी कायरता को साहस में परिणित कर जब मैं अपनी सहभागिनी के समक्ष उपस्थित हुआ तो मेरी मानसिक स्थिति एक चोर से भिन्न न थी। चोर, एक ऐसा चोर जो मानों आत्मसमर्पण के लिए प्रस्तुत था। मैंने अपनी सारी कहानी उनसे कह डाली एवं उनके प्रति अपने अंतर् में पल रहे पाप का भी वर्णन बाल-भाव से कर डाला।

वह अभी भी वैसी ही शांत व गंभीर थीं। मुझ पर उस क्षण जो बीत रही थी, उस सबसे मानों वोह अनभिज्ञ थीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। एक विद्वान् न्यायाधीश की भांति मेरी सारी व्यथा सुन ली तथा तत्पश्चात अपना अत्यंत ही संक्षिप्त सा निर्णय सुना दिया - "यह तो आपने बड़ा ही अच्छा किया।" और एक चिर अनुगामिनी की भांति साग्रह निवेदन भी किया - "मुझे भी उन परम संत की सेवा में ले चलें। मैं आपके चरणों की दासी हूँ। मेरा जीवन भी सफल करें। एक नारी का धर्म तो उसका पति ही होता है, अन्यत्र कुछ नहीं। मुझ दासी के बिना आपका मनोरथ सिद्ध न होगा। शास्त्र की ऐसी मान्यता है।"

मैं अब अपने अंतर मन को भूल उन्हें आनंदित होते देख स्वयं भी आनंदित हो रहा था। उन्होंने मुझे मात्र डूबने से ही नहीं बचाया, प्रतुत मेरा मार्ग-दर्शन भी किया। उनका मूक किन्तु सजीव भाव मेरे चित्त में उतर रहा था - "संतों की कोई जात नहीं होती, उनका कोई वर्ण नहीं होता, वे तो सारे बंधनों से मुक्त होते हैं।"

अनेकानेक जन्मो में करोङो वर्ष की तपस्या के फलस्वरूप भी जो स्थिति दुर्लभ होती है, वह भगवतकृपा से पल झपकते यों ही प्राप्त हो गयी जिसका मैं अधिकारी नहीं था। सद्गुरुप्रताप से मेरा एक बहुत बड़ा संस्कार कट गया।

मैं उनकी हठ पर प्रातः जब उन्हें अपने सद्गुरु प्रासाद में ले गया तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए। अनजाने में मुझ दास से कुछ ऐसा बन पड़ा जो उन्हें भा गया। सारे दिन हमारी वहां आव-भगत होती रही। हर घड़ी वोह हमारी गुरु-माता से कहते न थकते - "अरे देखो घर में बहू आयी है। बच्चे आये हैं" और उनके अनेकानेक दिए गए निर्देशों का पालन कर दिए जाने के उपरांत भी वोह कहते - "हमारे आज कैसे पुण्य जगे हैं कि बेटियाँ भी हैं, बच्चे भी हैं। हमारा घर आज मालिक ने खुशियों से भर दिया है। इनके लिए चूड़ियां लाओ, पूड़ियाँ तलो। यह भी क्या याद  करेंगी कि हमारी सास का घर है।" वोह मानो प्रेम-विभोर हुए जा रहे थे। मैं भी उस उमड़ते हुए दया व प्रेम के सागर में डुबकियाँ लगाता रहा। ऐसा प्रेम-मग्न उन्हें इससे पहले कभी नहीं देखा था। मानवता - मानवता को गले मिलती। आत्मा अपने मूल तत्व में मिलने को उन्मुक्त  हो रही थी।

इसी प्रेममयी वातावरण में उनके पावन चरणों में अब हम दोनों आ गए। अब तक मैं अकेला ही था। यही जीवन यज्ञ का उपहार था। मेरे हज़रत क़िब्ला ने उन्हें भी बैत फ़रमाया। उन्हें भी दीक्षित किया। यह दिन हमारे जीवन में एक महा-पर्व के समान था। अविस्मरणीय - कभी न भूलने वाला।

राधा और कृष्ण का संयोग यही है। जहाँ राधिका की, भगवान कृष्ण आह्लादित [Elate]  करने के लिए, मुग्ध करने के लिए ही सारी चेष्टाएँ हैं। इसी प्रकार कृष्ण की भी सारी चेष्टाएँ राधा को मुग्ध करने के लिए हैं। दोनों की यह परस्पर चेष्टाएँ ही इनकी प्रेम-लीला हैं। पारस्परिक आमोद-प्रमोद और इस प्रेम की वृद्धि करने वाली लीलाओं, से प्रेम जागृत होता है। इन प्रेम लीलाओं का वर्णन न तो भक्त ही कर सकते हैं और न भगवान ही। यह वाणी के विषय-क्षेत्र से परे है। परस्पर प्रेम-साम्य होने के कारण यहाँ आदर सत्कार नहीं है। जब तक आदर-सत्कार का संकोच है तब तक प्रेम में कमी होती है। जहाँ दोनों का सम भाव है, एकी-भाव है, वही प्रेम भाव है। यहां उस एकी-भाव में कौन बड़ा है और कौन छोटा। ऐसे ऐकी-भाव में स्थित हो कर भगवान् का भक्त जो कुछ चेष्टा करता है, वस्तुतः वोह भगवान में ही क्रीड़ा करता है।     

मैनें भक्तों के अनेक चरित्र पढ़ें हैं। इसी परंपरा की श्रृंखला में एक आप्त जन ऐसे भी हुए कि जिन्होंने अपने प्रियतम, अपने सदगुरुदेव के मुखमण्डल को मात्र एक बार निहारा और निहारते ही रह गए। जब दर्पण देखा तो उसमें अपने प्रतिबिम्ब के स्थान पर उन्हें ही मुस्कराता पाया। मुझे गर्व है, अनेकानेक कृपा कर मेरे सदगुरुदेव ने मुझे भी इसी परम्परा की श्रृंखला में अपनाया।

मेरी अवस्था अभी लगभग बीस या इक्कीस वर्ष की ही थी, मैं निर्द्वन्द्व, निरंतर अपने प्रियतम में लीन, ऐसा अनुभव करता, मानों वह ही चलते-फिरते हैं, वह ही उठते-बैठते हैं, अनेकानेक जीवन की लीलाएं उन्हीं के द्वारा संपन्न हो रहीं हैं और मेरा यह अस्तित्व भी अब उन्हीं का है, मेरा नहीं।

एक बार की घटना है कि मैं प्रेमास्पद प्रियतम में लीन, बनस्पति-विक्रय केंद्र में कुछ बनस्पतियाँ क्रय कर रहा था। बिक्री केंद्र की स्वामिनी एक कुँजड़िन थी जिसके पास, मैं कुछ क्षण बनस्पति [सब्ज़ी] लेते हुए रहा। उसके निकट ही लगभग पंद्रह-सोलह वर्षीय उसकी युवा पुत्री थी जिसे मैंने अभी तक न देखा था, किन्तु वह मुझमें मेरे प्रियतम को अपलक निहार रही थी और निहारती ही गयी। मेरी तन्द्रा तो तब टूटी जब उसने अनुरक्त हो, मेरी ओर संकेत करते हुए अपनी माँ को सम्बोधित किया - "अम्मा मैं शादी इनसे ही करूंगी।" देखने वाले उसके इस निष्कपट भाव पर स्तम्भित से रह गए। मैनें उसकी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और घर चला आया। किन्तु उस सुकुमार्या ने एक घड़ी जिस छवि के दर्शन किये थे, उसी में लीन हो गयी। घर जा कर अपनी माँ से उसने वही हट पुनः दोहरायी और यह भी निवेदन किया कि वह अब उनके [इस सेवक] बिना जीवित नहीं रह सकती। घर वालों ने उसे भरसक समझाने का प्रयास किया, किन्तु उस पर कोई असर न पड़ा। वह निरन्तर विरह की अग्नि में तपती, बिलखती रहने लगी। एक दिन दिन उसके घर वालों ने ऐसा अनुभव किया कि अब यह जीवित न बचेगी।  इसकी सूचना मुझे दी गयी। उसकी माँ ने बड़े ही विनीत भाव से मुझसे याचना की कि उसकी एक मात्र पुत्री की जीवन-रक्षा के लिए मैं उससे विवाह कर लूँ। एक घड़ी मुझे ऐसा लगा कि उसकी जीवन-रक्षा मेरा धर्म है और इसके लिए यदि मैं उससे विवाह कर लूँ तो इसमें हानि भी क्या है। अपने अंतर के इस उभय-सङ्कट [dilemma] को मैंने अपनी चिर-सहयोगिनी से भी निवेदन कर दिया। कुछ क्षण शान्त रहने के पश्चात् उन्होंने मुझे पुनः सुपथ की राह दिखाई और कहा - "इसका सही उत्तर तो वह ही दे सकते हैं जिनकी यह लीला है। आप सारा वृत्तान्त हुज़ूर महाराज की सेवा में उपस्थित हो कर निवेदन करें और जो आज्ञा हो उसका अनुपालन किया जाय।" मैनें ऐसा ही किया। मेरे सम्पूर्ण वक्तव्य के निवेदन पर प्रथम तो वह मुस्कराये फिर गंभीर मुद्रा में बोले - "बेटे पुत्तू लाल ! कैसी बातें करते हो। तुमने यह भी सोचा होता कि मेरे बहू व बच्चों का क्या होगा ? तुम्हारी दलील बेबुनियाद है। तुम इस झंझट में न पड़ो। यह तुम्हारे लिए किसी प्रकार भी उचित नहीं है। और यदि वह लड़की मर भी जाती है तो तुम इसकी चिंता क्यों करते हो। तुम जैसे अपने प्रियतम में लीन व अत्यंत पवित्र व्यक्ति की याद में यदि अपना शरीर छोड़ देती है तो उसके हित में इससे उत्तम और क्या हो सकता है।" और ऐसा ही हुआ।

मेरी धर्मप्रिया की दिखाई युक्ति से पुनः कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रेमी मूक रहते हुए भी भाषण देता है। मानों उसका अंग-अंग बोलता है।  उसके सभी अवयवों से मानों एक शुद्ध संकेत, एक निर्मल ध्वनि निकलती है।

क्षमा का भी गंभीर समुद्र उनके विशाल ह्रदय में विद्यमान है। जगत जननी के रूप में उन्होंने अनेकों बार मुझे क्षमा किया है। माँ के रूप में उनकी मर्यादा अभेद्य रही है। वात्सल्य रस के अपार भण्डार के दर्शन उनके अन्तःस्थल में अनेकों बार मैनें अपने दाम्पत्य जीवन के आमोद-प्रमोद भरे अविस्मरणीय क्षणों के मध्य किये हैं।

मेरे स्वामी ने, मुझ दास को कुछ ऐसा कार्य सौंपा हुआ है कि जिसकी तल्लीनता में, मैं हर क्षण कुछ ऐसा व्यस्त रहता हूँ, ऐसा खोया रहता हूँ कि कुछ भी तो दृष्टिगोचर नहीं होता। अपने सर्वस्व, अपने जीवन-प्राण अपने स्वामी के उक्त कार्य के लिए कुछ विशेष प्रकार के व्यक्तिओं को मैनें चुना है। मै रात-दिन उन्हीं की चिंता में लीन रहता हूँ। मुझे पूर्ण ज्ञान है कि इस निर्माण-कार्य में थोड़ी सी भी त्रुटि के फलस्वरूप मुझे क्षमा न किया जायेगा। मैं अत्यंत कठोर परिश्रम करता हूँ, निरंतर लीन, किन्तु इसके उपरांत भी संतुष्ट नहीं हूँ। समय बहुत थोड़ा है और कार्य अत्यंत गहन व विशाल है।

एक समय अपनी साधना के मध्य मैंने एक साधक को ऐसा पाया कि मानों वोह मेरा सारा खेल ही चौपट कर देगा। मैं निरंतर उन्हें ताड़ना देता, समझाता किन्तु वह राह पर न आये। मेरा सारा परिश्रम मिथ्या जान पड़ा। मैं थक गया। मुझे ऐसा आभास होने लगा, कहीं इसका कुप्रभाव दूसरों पर भी न पड़े। एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है। इन्हीं सारे विचाओं के मध्य मैंने निर्णय ले लिया कि इन्हें अपने समाज से वहिष्कृत कर दिया जाय। संभवतः यही इनके लिए उचित हो।

मैंने ऐसा ही किया। वह निकल तो  गए किन्तु दूसरे द्वार से घर के अंदर प्रवेश पा गए। उन्होंने सारा वृत्तांत मेरी चिर-अनुगामिनी धर्मप्रिया से कह सुनाया। यहाँ वह माँ हैं ! जगत जननी हैं !! विशाल हृदया हैं !!! यहाँ संसार की समस्त धाराएँ आश्रय पाती हैं। उसकी सब सुनी गयी, मेरी एक भी नहीं। मैं वहाँ था ही कहाँ ? उससे कहा गया, "यहीं बैठो और चाहो तो अंदर कोष्ठ में जा कर विश्राम करो।" उसके समान अब कौन भाग्यशाली था।

सत्संग की समाप्ति पर मैं अंदर पहुँचा। अभी मेरा आक्रोश समाप्त न हुआ था। मैंने गृहस्वामिनी से भी कह डाला - "मैंने अमुक व्यक्ति को 'सत्संग' से निकाल दिया है। अब वह पुनः प्रवेश नहीं पा सकते।" मेरी बात को आगे बढ़ाते हुए बिना मेरी मुख-मुद्रा का निरीक्षण किये ही, उन्होंने मानो एक अट्टहास सा किया।

एक सुखद व्यंग था - "आप पिता हैं, आप निकाल सकते हैं, आपको अधिकार है। मैं माँ हूँ, मैं ऐसा नहीं कर सकती।" उनके इस वर्चस्व में जब मैंने उन्हें देखा और, उनकी जो अद्वितीय आभा व चिर सुखद कांति दृष्टिगोचर हुयी, उससे एक बार कुछ लज्जित सा हो गया।

"सिय सुन्दरता वरनि न जाई।" उनका ऐसा अपूर्व सौंदर्य ! ऐसी अपूर्व शांति !! मुझे इसका ज्ञान न था। उन अपार श्रृद्धा की पात्रा का पद निश्चय ही बड़ा है। मेरा विचार ही परिवर्तित हो गया; मैंने कहा - "अच्छा तो उनसे कहलवा दें कि वह कल से आया करें।" उनका शुष्क विनोद अभी भी मुखरित हो रहा था - "वोह गए ही कहाँ हैं।" माँ की ममतामयी गोद से जिस प्रकार एक अबोध बालक निकल कर आता है, उसी प्रकार वह निकले और  आ कर वोह मुझसे लिपट कर बिलख-बिलख कर रोनें लगे। और मैं भी। इस अविरल अश्रु-धारा के मध्य उनका सारा विकार, सारा मल ऐसा धुल गया, मानो था ही  नहीं। उनका निर्मल मन अब मुझे अति प्रिय है। वह मेरे इस विशाल परिवार के अंतरंग सदस्य बन गए  हैं।

मुझे स्मरण हो आया जो एक दिन ईशु ने कहा था - "एक आदमी के पास एक सौ भेंड़ें थी, उनमें से, एक खो गयी। तब उसने शेष निन्यानवे भेंड़ों को पहाड़ी पर चरने के लिए छोड़ दिया और उस भेंड़ के लिए परेशान हो गया और स्वयं वह उस खोयी हुयी भेंड़ को ढूंढने चला गया। जब उसने उसे पा लिया, तब वह उस भेंड़ के मिल जाने पर इतना प्रसन्न हुआ जितना कि अन्य निन्यानवे भेंड़ो से नहीं हुआ, जिसने उन्हें नहीं खोया था।" तब ईशु ने कहा - "तुम्हारा पिता परमेश्वर जो स्वर्ग में है ऐसा ही है।"

इस रूप में अपने प्रेमी भाइयों के प्रति अपेक्षित व्यवहार की शिक्षा ले कर मैं अनुग्रहीत हुआ। मन ही मन मैंने अपनी सहधर्मिणी के इस इस उदार गुरु-स्वरुप के प्रति अपनी अपार श्रद्धा निवेदन की। मेरे हज़रत क़िब्ला, किस प्रकार घर-बाहर मेरा मार्गदर्शन कराते हैं, यह देख कर गदगद हो जाता हूँ। उनके निर्वाह कर लेने से ही बात बनती है -

"वचन - करम हिय कहौं राम सौंह किये,
तुलसी पै नाथ के निबाहेई, निबहैगो।”
 [विनयपत्रिका 259] 











3 comments:

  1. मैने पूरी पढ़ी।रोने लगा।अद्भुत कथा है। हमें भी जगत माता की गोद मिले।उनका आशीर्वाद रहे।हम तो इस लायक नहीं पर वह तो मां हैं ना।सादर कोटि प्रणाम।

    ReplyDelete
  2. सादर नमन -अभिवादन

    ReplyDelete