'सायुज्यता'
सायुज्यता का अर्थ है - ऐसा मिलना कि कोई भेद न रह जाय। सांसारिक रिश्ते तो नित्य बनते हैं, बदलते हैं, बिगड़ते हैं। आध्यात्मिकता अथवा आत्मा से संबंधित सम्बन्ध ही ऐसे हो सकते हैं जिनके लिए समस्त भेद मिट जाने की बात कही जा सकती है, किन्तु उनकी गहरायी भी अंतर की ही होती है और इंद्रियातीत भी है। भेद मिट जानें का तात्पर्य है - जैसे पानी में चीनी; पानी में तेल नहीं। कहने का मतलब है कि यह उन दोनों के गुण - धर्म पर निर्भर करता है कि उनके मिल जानें पर, उनके भेद मिट जायँगे या नहीं। केवल आध्यात्मिक गुरु ही ऐसा हो सकता है कि यदि वह समर्थ है तो शिष्य के अंतर बसता उसका 'मैं-पना' निकाल फेंके और अपने अन्तर की भागवत्सत्ता जो वहाँ विराजती है उसे, उसके स्थान पर रूपान्तरित करा दे। खेल सारा का सारा अन्दर का है, जिसे हम संचरण भी कह सकते हैं।
बहुत पुरानी बात है, ऋषि-प्रवर श्वेताश्वतर से यह प्रश्न पूँछा गया कि परमरहस्य [गुह्य] ज्ञान किसे दिया जाय और किसको न दिया जाय। उपनिषद् में इसका उत्तर यह मिलता है कि जिसका अन्तःकरण विषय-वासना से शून्य हो कर सर्वथा शान्त न हो गया हो ऐसे मनुष्य को इस रहस्य का उपदेश नहीं देना चाहिए; तथा जो अपना पुत्र न हो अथवा शिष्य न हो, उसे भी नहीं देना चाहिये। इसमें एक महत्वपूर्ण छिपी हुयी बात यह भी है कि पुत्र और शिष्य को अधिकारी बनाना पिता और गुरु का ही काम है; अतः वह पहले से ही अधिकारी हो, यह नियम नहीं है। इसी उपनिषद् में इसके आगे एक और बात यह है कि - जिस साधक की परमदेव परमेश्वर में परम भक्ति होती है तथा जिस प्रकार परमेश्वर में होती है, उसी प्रकार अपने गुरु में भी होती है, उस महात्मा मनस्वी पुरुष के ह्रदय में ही यह बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं। अतः जिज्ञासु को पूर्ण श्रद्धालु और भक्त बनना चाहिए।
इस सबको पा लेने अथवा उसकी योग्यता प्राप्त करने की, प्रारम्भ से अंत तक की साधना को सूफ़ी संतों ने 'सफ़र' की संज्ञा दी है, जिसके लिए एक विशेष प्रकार की तैयारी की आवश्यकता होती है। इस सबके लिए सबसे प्रारम्भिक आवश्यकता होती है - अच्छे से अच्छा आचरण, ऊँची से ऊँची सचरित्रता, निर्भयता, पूर्ण परोपकार भाव। योग के यम-नियमों में इनका समावेश है। वेदान्त के साधनचतुष्टय में भी इसका उल्लेख है; भक्ति-शास्त्र में, निष्काम-कर्म योग में, इन सबकी आवश्यकता पड़ती है, पर साधक बहुधा इन सद्गुणों की आवश्यकता और महत्व को न समझ कर, उनको एक-ओर छोड़ कर, प्रायाणायामादि साधनों में लग जाते हैं। इसी कारण उनकी उन्नति नहीं हो पाती। साधनचतुष्टय या यम-नियमों के पूर्ण-रूप से अपने में आ जानें से अपना विकास स्वतः ही पूर्ण हो कर, हमारी सुषुप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ आप से आप जाग उठतीं हैं और बिना योग साधना के भी हम उच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं। इन प्रारम्भिक सद्गुणों के बिना, योग सिद्धि प्राप्त हो जाने पर भी अधःपतन की संभावना बनी रहती है।
सच्ची आध्यात्मिकता तो उस दशा की पूर्ण प्राप्ति या पूर्ण अनुभूति है, जिसमें साधक स्वयं को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को स्वयं में देखता है। अर्थात अपने और दूसरों में, एक ही आत्मा का दर्शन करता है और उसमें द्वैत-भाव, लेशमात्र भी शेष नहीं रहता।
उपरोक्त दशा में साधक, दूसरे भूखे की भूख का, पतित के पाप का, दुखी के दुःख का स्वयं अनुभव करता है। इस प्रकार की आध्यात्मिकता का मूल स्रोत है, 'प्रेम'।
एक तत्व को जानना, उसकी चेतना का बनें रहना, उसका सदैव अनुभव होता रहना, यह आध्यात्मिकता है। संत कबीर की वाणी है - 'न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पिया से'।
मेरे हज़रत क़िब्ला [परमपूज्य गुरुदेव] चूँकि एक लम्बे अरसे तक बच्चों को पढ़ाने का कार्य करते रहे थे अतः उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा से सम्बद्ध तरीक़त की सभी बातों को क्रमबार समझाया और उनका आदेश रहा कि उनके द्वारा दी गयी शिक्षाओं को मैं अथवा मेरे गुरुभाई भी लिख लिया करें। यदा-कदा वह इन संगृहीत आलेखों को देखते व बहुत प्रसन्न होते। उन्ही उपदेशों को जो मुझे अपनें जीवन में भी उतारने पड़े हैं। आपके भी समक्ष रखता हूँ, संभवतः कुछ लाभप्रद हो सकें।
आपका कहना था कि प्रारम्भ में स्थूल-शरीर की और मन के भावों की अच्छी प्रकार सफ़ाई हो जानी चाहिये। किसी भी प्रकार का नशा अथवा उत्तेजक पदार्थ हमारे सिलसिले के अभ्यासियों के लिए विष से भी अधिक ख़तरनाक हैं। साधना के प्रारम्भ करने के कम से कम एक वर्ष पूर्व से ही इनका त्याग कर देना आवश्यक है। हाथ, पैर, नाखून, सभी स्वच्छ रहें और समस्त समूची देहराशि, हर प्रकार से पवित्र व स्वच्छ रहे। पहनने, बिछाने-ओढ़ने इत्यादि के वस्त्र अति स्वच्छ होना चाहिए। विचार व मनोभाव साफ-सुथरे व शान्तिमय हों। शरीर की देखभाल और उसका रखर-खाव भी पूरे मनोयोग से करना चाहिये और उसमें लापरवाही नहीं बरतनी चाहिये, जहाँ तक हो सके रोग-मुक्त रहें व शरीर का कोई भी भाग छिन्नभिन्न या विकृत न होने पावे। जूते का ध्यान रक्खें कि वह तंग न हो। साथ-साथ सोना जागना इत्यादि पूरे दिन-रात की दिनचर्या बहुत ही नियमित व नियंत्रित होनी चाहिए।
अभ्यासियों को अपनी साधारण बुद्धि का उपयोग जारी रखना चाहिये। कोई भौतिक विचार, श्वाँस अथवा किसी भी अंग विशेष पर ध्यान लगाना भी ठीक नहीं है। सभी का रास्ता एक ही है। जीते जी, शरीर और शरीर की चेतना दोनों अलग-अलग महसूस हों। इस शरीर के भीतर ठीक इस शरीर जैसा ही सूक्ष्म शरीर भी है। यह भी ठीक इस शरीर जैसा ही है। किन्तु अत्यंत सूक्ष्म कणों से निर्मित है, सुकुमार और सूक्ष्म। उस शरीर के बाहर भी निकलने का उपाय है और तब जो अनुभव होगा वह अतीन्द्रिय अनुभव अथवा अशीरी अनुभव होगा। अतः अपने अभ्यास के सहारे उसके अंदर वाले शरीर [सूक्ष्म व कारण] जहाँ जुड़ते हैं अथवा संपर्क करते हैं उन्ही संधि-बिंदुओं का नाम ही 'चक्र' या 'लतीफ़ा' है। अतः 'चक्र' या 'लातायफ़' इस शरीर के हिस्से नहीं हैं; सिर्फ स्पर्श-क्षेत्र हैं। सामान्य पुरुषों व स्त्रियों में यह दोनों शरीर कई स्थानों पर एक दूसरे को स्पर्श कर रहे हैं। अथवा जिन पाँच बिंदुओं पर इनका सम्पर्क या स्पर्श होता है यदि वहाँ अथवा कहीं भी यदि इस [स्थूल या अन्नमय वाले] शरीर को काटा जाय तो इन चक्रों का कोई पता नहीं चलता। इन्हें जोड़ने वाली एक चुम्बकीय शक्ति है; वह आपस में जुड़ जानें पर कुण्डलिनी का अनुभव होने लगता है, वह जाग्रत होने लगती है। अर्थात इनके अलग अलग स्थानों पर सम्पर्क से जो शक्ति संचित होती है वह 'कुण्डलिनी' है।
हाँ! तो मैं कह रहा था कि आँतरिक अभ्यास के मध्य बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता है। यदि थोड़ा भी भारी-पन, पीड़ा या चक्कर आना अथवा दवाव अनुभूत हो तो अभ्यास की क्रिया को रोक देना चाहिये क्योंकि यह इस बात की चेतावनी है कि स्थूल व सूक्ष्म शरीर इसे सहन नहीं कर पा रहे हैं - बीमार हो जानें की संभावना है। कभी कभी ऐसा भी देखने में आता है कि अभ्यासी के कुछ दुर्गुण, सुषुप्तावस्था में या किसी अन्य कारण से जो अभी तक दबे पड़े थे, वे अभ्यास के परिणाम स्वरुप उत्तेजित व उत्कृष्ट हो कर प्रगट होने लगते हैं। अतः यम और नियम योगी [अभ्यासी] को प्रारम्भ में एवं अनिवार्य रूप से अनुपालन करते रहना चाहिए। 'यम' का अर्थ है - जो नहीं करना है और 'नियम' का अर्थ है - जो करना है। अहिंसा [किसी को दुःख न पहुँचाना] सत्य, अस्तेय [दूसरे की वस्तु बिना उसके मालिक के दिए न लेना] ब्रह्मचर्य और अपरिगृह अर्थात - वस्तुओं का संग्रह न करना, ये 'यम' हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय [जप और सद्ग्रन्थों का अध्यन] और ईश्वर की भक्ति ये सब 'नियम' हैं।
उपरोक्त सभी बातें वे पहले तो घण्टों तक मौखिक-रूप से समझाते, अगले दिन लिख कर लाने को कहते, फिर पुनः उन लेखों का गहन निरीक्षण करते। त्रुटि या कमी रह जाती तो उसका स्वयं सुधार करते। उसका नोट आप अपने पास भी सुरक्षित रखते और हम सबके आचरण पर चौकसी रखते और देखते कि अभी भी कहीं चूक तो नहीं रह गयी है।
मेरे हज़रत क़िब्ला की हर बात निराली थी। उनके रोम रोम से उपदेश स्पफुटित होते थे। उनका हर कृत्य शिक्षाप्रद होता। जिस प्रकार अपने 'प्रियतम' के घर जाते समय सहेलियाँ अपनी उस 'सजनी के साज-श्रृंगार' में कहीं कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं, उनकी भी यही ललक रहती। बड़े ही गज़ब की रहबरी थी मेरे सरताज की। मेरी तैयारी में उन्होंने कोई रँग बाकी नहीं छोड़ा।
जो अणु-अणु में व्याप्त है, जो हर समय हमें भीतर-बाहर, दोनों ओर देख रहा है, उससे मिलने के किये क्या श्रृंगार किया जाय? फ़िर भी भक्त का मन तो मानता नहीं और इस हेतु "उस" के निमन्त्रण पर "तन, मन, जीवन साजि के, दई चली लेइ भेंट"। समागम की उतकण्ठा व अभिलाषा इतनी तीव्र है कि अपने शरीर, मन और यौवन को सजा कर भेंट में देने के लिए भक्त चलता है। लेकिन तुरन्त ही अपनी कम-अकली पर दृष्टि जाती है और वह सोचता है - श्रृंगार करके "उस" के पास क्या जाऊँ? उसे ही सर्वत्र देख रही हूँ। "पिय" तो प्राणो में बसा हुआ है। वह शरीर और मन से भिन्न हो भी कैसे सकता है? आँखों में वही समाया हुआ है; जहाँ भी दृष्टि जाती है, उस के अतिरिक्त अन्य कुछ दीखता ही नहीं है। उसी के वाणों से समस्त सँसार बिंधा हुआ है। कोई स्थान उससे खाली नहीं है।
जिस प्रकार हिन्दू - शास्त्रों के अनुसार कर्म-काण्ड, उपासना-काण्ड, ज्ञान-काण्ड तथा सिद्धावस्था हैं, उसी प्रकार सूफ़ी-संत मत में भी साधक की चार अवस्थाएँ बतायीं गयीं हैं। शरीयत, तरीक़त, हक़ीक़त और मार्फ़त। हिन्दू भक्त भी ब्रह्म की भावना, अनंत सौंदर्य एवं अनंत गुणों से संपन्न प्रियतम के रूप में करते हैं। सूफ़ियों का 'अनलहक़' हिन्दू दर्शन में वर्णित, 'अहँब्रह्मास्मि' का ही बोधक है। सर्वात्म समर्पण के अनन्तर, भक्त अपने भगवान में लय हो जाता है; वह तद्रूप, तदाकार, एक और अभिन्न हो जाता है। इस प्रलयावस्था का सूफ़ी मत में पर्याप्त विस्तार से वर्णन मिलता है।
'फना' - वह स्थिति है, जिसमें साधक अपनी अलग-अलग सत्ता की प्रतीति से परे हो जाता है। इसके बाद 'फ़क़द' की अवस्था है, जिसमें अहंभाव का सर्वथा “नफ़ी” = 'नेस्ति' [लोप] हो जाता है। 'सुक्र' [प्रेममद] की स्थिति वह है जिसमें साधक अपनी निजी सत्ता की चेतना को खो कर सर्वत्र और सर्वदा अपने प्रियतम को ही देखता है और उसी अमर दिव्य-प्रेम में मारा मारा फिरता है। यह त्याग-पक्ष की साधन प्रणाली है। प्राप्ति-पक्ष में इसी बात को दूसरे ढंग से व्यक्त किया जाता है। इसमें 'बक़ा' है। यह वह स्थिति है जिसमें साधक, परमात्मा में ही अखण्ड विश्वास और शृद्धा रखते हुए उसी 'एक' में निवास करने लगता है। इसके बाद उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है, जिसे सूफ़ी संतों ने ‘वज़्द ‘ [आनन्दाधिक्य से आत्मविस्मृति], कहा और अंत में 'शव्ह' अर्थात 'पूर्ण शान्ति' ।"
प्रेम में यह पक्ष देखने सुनने में जितना ही सरल प्रतीत होता है, वास्तव में है, उतना ही कठिन। यहाँ तो 'सिर' का सौदा है। कहा भी है - 'सीस उतारे भुहिं धरै, तापर रक्खै बाँध'। इसमें 'मैं' और 'हरि' एक साथ नहीं रह सकते। 'हरि' को पाने के लिए, ‘मैं’ का लोप करना ही होगा।
मैनें अपने प्रभु की एक और लीला देखी। बात उस समय की है जब हुज़ूर महाराज, जनाब मौलवी साहिब गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। फर्रुखाबाद में उपचार से जब कोई लाभ देखने में नहीं आया तो उन्हें कानपुर ले जाना पड़ा। वहीं ठहर कर आपका उपचार चल रहा था। प्रत्येक शनिवार को शाम की गाड़ी से मेरा वहाँ जाना होता। श्री चरणों में हाज़री होती और अगले दिन रविवार की सायं पुनः फर्रुखाबाद के लिए वापसी। बस। उन दिनों यही कार्यक्रम चल रहा था। फर्रुखाबाद नगर में रेलवे रोड पर, मोहल्ला पण्डाबाग़ में एक 'शाह साहिब' रहा करते थे। शाह साहिब, मशहूर तो थे एक चमत्कारी संत के रूप में। किन्तु थे बहुत ही संकीर्ण विचारों वाले। हुज़ूर महाराज से इस कारण अप्रसन्न रहा करते थे कि सूफ़ी संतों के सिलसिले में जो आध्यात्मिक विद्या उन्हें प्राप्त हुयी थी, क्यों बिना सँकोच वे हिन्दुओं को लुटाये दे रहे थे और उन जैसे मुसलमान दोस्तों को क्यों नहीं देते थे; बल्कि [उनकी धार्मिक संकीर्णता व पक्षपात के कारण] कई बार अपनी महफ़िल से निकाल कर सोहबत से च्युत कर दिया करते थे। मुझ नाचीज़ पर शाह साहिब की नज़र विशेष रूप से थी। हुज़ूर महाराज की पवित्र बुज़ुर्गाना - ममता व प्रेम तथा उपकार व कल्याण भाव की वारिश, मुझ नाचीज़ के ऊपर होते देख कर संभवतः वह [शाह साहिब] कुढ़ते रहते थे।"
उन्हीं दिनों जब मैं एक शनिवार की सायं, कानपुर की गाड़ी पकड़ने की नियत से फर्रुखाबाद रेलवे स्टेशन की ओर जा रहा था, अचानक ही, एक गली से निकल कर, शाह साहिब अपने कुछ मुरीदों को साथ ले कर सड़क तक आ गए। लौकिक शिष्टाचार के अन्तर्गत मैंने उन्हें प्रणाम इत्यादि किया व जल्दी जल्दी में, आगे बढ़ना ही चाहता था कि शाह साहिब ने बरबस रोक कर मुझे अपनी छाती से चिपटा लिया और बार-बार अपने सीने से मेरा सीना दबाते रहे। तब अपने शिष्यों से यह कहते हुए मुझे मुक्त किया - “यही हज़रत मौलाना शाह फ़ज़्ल अहमद खां साहिब नक़्शबन्दी मुजद्दिदी मज़हरी के मुरीद व ख़लीफ़ा [Caliph] हैं और इन्हीं का नाम राम चन्द्र है”। मुझे बाद में पता चला; इन शाह साहिब के बारे में यह मशहूर था कि इन्होंने ऐसी शक्ति प्राप्त कर रक्खी थी कि यह दूसरों की आध्यात्मिक शक्ति [रूहानी निस्बत] खींच [सल्व] कर लेते थे और खाली करके छोड़ दिया करते थे। शाह साहिब ने संभवतः अपने सीने से मेरा सीना दबा कर यही क्रिया की थी। इस बात को मैंने, उस समय कोई विशेष महत्व नहीं दिया और आगे बढ़ गया। बाद में पता चला कि उसके कुछ क्षणोपरान्त ही शाह साहिब के सीने में ऐसी त्तीव्र पीड़ा उठी कि जो अनेकानेक उपचार के बाद भी, ठीक या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही गयी। अंततः अगले दिन प्रातः लगभग चार - पाँच बजे, शाह साहब ने अत्यन्त दीन भाव से अपने बहुत ही निकटस्थ शिष्य से फ़रमाया - “मुझे कानपुर, मौलाना साहिब [हुज़ूर महाराज] के पास फ़ौरन ले चलो वरना इसी दर्द में मेरी मौत हो जाएगी। यह दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त है। जिन बुजुर्ग़ के मुरीद इस पैमाने के पहुँचे हुए हैं वह बुजुर्ग़ साहिब खुद तो कुतुबे वक़्त ही हैं। उन्ही हज़रत का वह मुरीद राम चन्द्र है जिसे सीने से सीना लगा कर मैंने यह हिम्मत की थी कि उसकी सारी की सारी निस्बत सल्ब कर लूँ। हुआ लेकिन उलटा ही, वह हमारी ही निस्बत सल्ब कर के ले गया और चलता बना। यह दर्द इसी वजह से है। यदि मुझे ज़िंदा देखना चाहते हो तो अब देर मत करो और फ़ौरन कानपुर ले चलो।”
प्रातःकाल कानपुर पहुँचने वाली गाड़ी से, शाहसाहिब, हुज़ूर महाराज की सेवा में लाये गये। औपचारिक प्रणाम इत्यादि के उपरांत शाहसाहिब, हुज़ूर महाराज के घुटनों पर सर रख कर रोने लगे। शाहसाहिब की यह हालत व जानलेवा दर्द की परेशानी देख कर तुरन्त एक चारपाई मंगवा कर उन्हें लिटा दिया गया। इसी बीच यह नाचीज़ भी बाज़ार से हुज़ूर महाराज के लिए अनार व अन्य फ़ल इत्यादि ले कर वहाँ पहुँच गया। अपनी पीड़ा से बेहाल हुए शाहसाहिब पर मेरी दृष्टि पड़ी। शाहसाहिब मुझे देख कर पुनः तड़प उठे और हुज़ूर माहराज को सम्बोधित करके कहने लगे - "हज़रत! फनाफिल शेख़ मुरीद तो बहुत देखने में आये लेकिन ऐसे कहीं-कहीं ही और कभी-कभी ही देखने में आते हैं जिनमें उनका पीर, खुद फ़ना हो और फिर माशाअल्लाह क्यों न हो कि जब हज़रत की ऐसी नूरानी आला हस्ती; जो फ़नाफ़िलमुरीदी का खेल, खेल सके, जो अज़ीज़ राम चन्द्र को नसीब हुयी है। उन्हें भी मुबारक।" क्या कहने हमारे हज़रत क़िब्ला का भी और उनकी दरियादिली का। दर्द से बेहाल व कराहते हुए शाह साहिब अभी अपना पूरा हाल निवेदन भी न कर पाए थे कि हमारे सरकार ने फ़रमाया - "जनाब शाह साहिब ! आप ज़रा भी दिल छोटा न करें। आप निहायत इत्मीनान से रहें। यह रही आप की अमानत। तकिये के नीचे हिफाज़त से मैनें अपने पास रक्खी हुयी है।" और, शब्दों के आवेग के साथ ही अपना ताक़िआ उठा कर उसे अपनी गोद में रख कर बड़ी ही मनमोहिनी अदा के साथ, सीधे हो कर बैठ गए। फ़रमानें लगे - "मालिके कुल से मुआफ़ी माँगिये। तौबा कीजिए। यह अहद कीजिये कि अब आयन्दा किसी परमात्मा की राह चलने वाले से कभी ऐसी हरकत नहीं करेंगे।" शाह साहिब ने उठ कर उनके आगे तोबा की, कान पकड़े, मुआफी माँगी। हुज़ूर महाराज पुनः उनकी ओर मुखातिब हुए - "शाह साहिब ! आँखे बंद करके अंदर, बातिन की तरफ़ मुतवज्जोः हो जाइये।" और, इधर मेरे सरकार ने मेरा सम्मान बढ़ाने के लिए मुझे आदेश दिया - "इन्हें तवज्जोः दो। अपनी मुहब्बत से इन्हें मालामाल कर दो। मैं तुम्हारी पुश्त पर हूँ।" लगभग आधा घण्टा - समय हो जानें के बाद हुज़ूर महाराज की कड़कती हुयी आवाज़ ने खामोशी भंग की - "अब बस करो।" सभी ने आँखे खोलीं। मैंने देखा, शाह साहिब अभी भी उनके आगे गिड़गिड़ा रहे थे, फ़ूट फ़ूट कर रो रहे थे। किन्तु इस बार मुझे उनकी आँखों में चमक व चहरे पर प्रेम की झलक और संतोष के पुट भी देखने को मिले। उनकी वाणी जो मेरे कानों में पड़ी - "जनाब ! आपने तो कमाल कर दिया। मुझे मेरी खोयी हुयी दौलत, वापस ही नहीं मिली बल्कि उससे कई गुनी हो कर आयी है .... ।" और उसी प्रेम व कृतज्ञता के मिले जुले भावों के मध्य बड़ी देर तक मेरे सिर पर हाँथ फेरते रहे और न जानें कितनी ही दुआएँ दीं, बलाएँ लीं।
इस घटना के बाद हुज़ूर महाराज बहुत ही गंभीर व चुपचाप रहनें लगे। अब वह अकेले ही रहना पसंद करते थे। जब भी उनकी सेवा में उपस्थित होता, हर बार ही, ढेर - सारी हिदायतें देते, 'तरीक़त' से सम्बंधित, न-जानें-क्या-क्या रहस्यमयी बातें समझाते। मुराक़बः पर विशेष बल दिया जाता। मुझसे, अधिक से अधिक समय देने की अपेक्षा की जाती। वे अब अक्सर ही फ़रमाया करते - "काम बहुत बड़ा है और वक़्त बहुत कम है।" उनकी आँखोँ से समग्र - क्रान्ति और आमूल परिवर्तन की चिंगारियाँ निकलतीं थीं। ऐसा लगता मानों वह सम्पूर्ण - समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे। वह किसी को भी, यहाँ तक कि जानवरों को भी दुखी नहीं देखना चाहते थे। वह कहते तो कुछ न थे किन्तु उनके हाव - भाव से ऐसा लगता था कि न-जानें क्या - क्या और किन-किन कल्याणकारी योजनाओं को कार्य-रूप देना चाहते हों।
मुझसे उनका लगाव गुणात्मक अनुपात में बढ़ता जाता था। ऐसा लगता था, जिस समग्र क्रान्ति का स्वप्न उनकी आँखों में सुरक्षित था, उसका अग्रदूत मुझे ही बनाना चाहते थे। मैं दिन-रात अनुभव भी करता था कि मेरी राग-रग व समस्त धमनियों व शिराओं में, वे एक चिर यौवन शक्ति का सँचार निरंतर कर रहे थे।
एक बार जब मैं उनकी सेवा में उपस्थित हुआ तो देखा तो बड़ी ही गंभीर मुद्रा में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे और आस-पास कुछ पुरानी पुस्तकें व कापियाँ इत्यादि रक्खी थीं। मैं चुपचाप, इस खामोशी से कि मेरा वहाँ पहुँचना कहीं उनको बिघ्न न महसूस हो, एक कोनें में बैठ कर सतर्कता पूर्वक उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु तत्क्षण मुझे बोध हुआ कि वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। बैठते ही इशारे से मुझे बुला कर अपने अति निकट बैठा लिया व अपना कार्य बीच में रोक कर, अर्थात जितना लिख चुके थे, सुनाने लगे - "मेरे मुर्शदना जनाब अहमद अली खां साहिब [रहमत 0 ] ने जब बन्दे को इजाज़त और ख़िलाफ़त [जां-नशीनी = प्रतिनिधित्व] की इज़्ज़त बख्शी तो अव्वल मक़तूब [पत्र] फ़रमाया - पढ़ लो। चनाँचे ग़ुलाम ने पढ़ा। जब ख़त्म हो चुका तो फ़रमाया की फ़ज़्ल अहमद, यह बातें तो हम से कुछ न हुईं। मैंने अर्ज़ किया कि हज़रत अब इंशाअल्लाह [ईश्वर इच्छा से] हुज़ूर फ़रमाँ [प्रगट] होंगे। हज़रत ने फ़रमाया कि अब हम गोर किनारः हुए [अब हमारा अंत समय निकट आ गया है]। चन्द दिनों के मेहमान हैं। अब क्या होगा। बन्दा यह सुन कर रोने लगा। फ़रमाया - शाबाश, यह वक्त रोने का है। [तत्काल] मेरे क़ल्ब में बशाअत [आनन्द] व सुरूर [हल्का नशा] पैदा हुआ। सुन कर फ़रमाया - ये बातें खाली न जायँगी। इनका ज़हूर [प्रकाश] अब तुमसे होगा। हज़रत का यह इर्शाद [धर्मगुरु का उपदेश] सच हुआ। इस अहक़ [जो बहुत अधिक हक़दार हो] से अक्सर हिन्दुओं, ईसाइयों और शियाओं को फ़ायदा पहुंचा। क़लमा ‘अल्हम्दो लिल्लाह अला’ ... पढ़ा गया। इसके बाद हज़रत मुर्शदना ख़लीफ़ा जी साहब ने फ़रमाया कि अब तक तो तुम खूब आराम से रहे। अब मैं एक अज़ीम [महान बोझ, उत्तरदायित्व] और अमृ फरवीम [प्रतिष्ठापूर्ण कार्य] तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ। अगर बजा लाओगे तो अम्बिया और औलिया के साथ मशहुर होंगे [क़यामत के दिन अवतारों और संतों के साथ ज़िंदा किये जाओगे], वर्ना यही खिकी [वस्त्र] दोज़क [नर्क] को खींच ले जाएगा। कमतरीन बहुत रोया और अर्ज़ किया कि हज़रत! बन्दा को मुआफ़ फरमाइए। खलीफा जी साहिब ने फर्माया - खुदा आसान करेगा। और ग़ुलाम के वास्ते। फिर, हज़रत सैयदना की अतीया [उपहार] तवर्रूकात तलब फ़रमा कर उसमे से हज़रत की तस्बीह [माला] और कुर्ता शरीफ की आस्तीन मुबारक और एक टुकड़ा दस्तार [पगड़ी] शरीफ़ का और एक कुलाह [टोपी] और अपना कुर्ता मरहमत फ़रमाया [प्रदान किया] और यह फ़रमाया कि हर एक बुज़ुर्ग अपने ख़लीफ़ा को अपना तवर्रूक दिया करता है। ज़हे नसीब तुम्हारे [क्या खूब तुम्हारा भाग्य है] कि तुमको हज़रत सैयदना अबुल हसन साहिब [रहमत 0] के तवर्रूकात मिले। शुक्र इस अतीये [उपहार] का करना चाहिए। "
हुज़ूर महाराज की हर अदा निराली थी। उपरोक्त वक्तव्य जो स्वयं उन्होंने ने अपने मुखारबिंदु से पढ़ कर सुनाया, उसका कुछ भी अर्थ उस समय समझ में न आया कि क्यों सुनाया गया। अगले दिन मुझे ज्ञात हुआ कि शुक्रवार से रविवार दिनांक दिनांक 09, 10, 11 अक्टूबर 1896 को एक उर्स का आयोजन वह स्वयं कर रहे थे जिसमें सभी धर्म व सम्प्रदायों के संत व महात्मा पधारने वाले थे। कार्यक्रम के प्रथम दिन ही शुक्रवार दिनांक 09 अक्टूबर 1896 की सुबह से ही पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमानुसार, उर्स - शरीफ का शुभारम्भ हुआ जिसमें हुज़ूर महाराज ने मुझे अपना दाहिना हाथ बनाया हुआ था और इसी क्रम में उनकी अनेकानेक योजनाओं का कार्यान्वयन का दायित्व भी मुझे ही दिया गया था।
उर्स के अंतिम दिन, रविवार दिनांक 11 अक्टूबर 1896 की सायं एक अति विशिष्ट - व्यक्तिओं की सभा हुयी जिसमें दूर-दूर से आये हुए सभी धर्म व सम्प्रदायों के हिन्दू-मुसलमान, सिख, ईसाई, कबीरपंथी, जैन, बौद्ध इत्यादि तत्कालीन पीर मुर्शदना, प्रमुख संत सद्गुरु, मठाधीश इत्यादि की पदवियों से विभूषित व पदासीन महानुभाव सम्मिलित थे। सब के सामने मुझ अकिंचन को प्रस्तुत करते हुए हुज़ूर महाराज ने घोषणा की - "इस फ़क़ीर को बुज़ुर्गान-ए-सिलसिला आलिया नक़्शबंदिया-मुजद्दादिया-मज़ह्हरिया की तरफ से यह हुक्म हुआ है कि अज़ीज़ राम चंद्र को इजाज़त-ताम * [समग्र या कुल = इजाज़त ख़िलाफ़त] दे दी जाय। लिहाज़ा बुज़ुर्गान! बराहे मेहरबानी, बाद इम्तिहान इसकी तस्दीक़ [सत्य प्रमाणित] या तरदीद [रद्द करना या खंडन करना] फ़रमाँ देवें।" इसके बाद मेरे सरकार ने मुझे, मेरा घरेलू नाम ले कर अत्यंत ही स्नेहमयी भाव के साथ, सम्बोधन किया "बेटे पुत्तू लाल! इन्हें तवज्जोः [ध्यान कराओ / ईश्वरत्व का संचरण] दो और जो भी सवाल ये तुमसे पूछें उनका ठीक-ठीक [और उपयुक्त] उत्तर देना। मालिक तुम्हे कामयाबी दे।"
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* Khan Sahib Khaja Khan, in his elite book ‘Studies In Tasawwuf, writes - “The idea therefore is that a theurgist or ‘Mashshayikh’ who has selflessly practiced in this art, can bring about a particular desired effect, by the manipulation of the Arabic letters. He is supposed to have permission from his ‘Pir’ who grants him the same, after he is fully satisfied about the moral character or selflessness of his ‘murid’ ; the same precaution as is taken in the case of teaching ‘Hypnotism’ or ‘Mesmerism’.
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अपने हज़रत क़िब्ला की आज्ञाकारिता में, मैंने तनिक भी देर नहीं की। मेरी आँखें मानों स्वतः ही मुंद गयीं। तदन्तर धुएँ की मानिंद विचारों की श्रृंखला का एक सोता मेरे अंदर से फ़ूट निकला, सम्भतः गुरुदेव के प्रति, आभार प्रदर्शन का यह स्थूल रूप था। इतना ही बहुत था, तुमने मुझे अपने चरणों में आश्रय दिया। मुझ को अपनाया। मुझ अपात्र पर तुम्हारी प्रीति की वारिश जो प्रतिक्षण मुझे शीतलता देती है। तुम्हारे अपार वात्सल्य व प्यार में मैं डुबकियां लगा रहा हूँ - कहीं कुछ ओर छोर नहीं मिलता। आज तक जो भी मुझसे हुआ है अथवा जब से तुम मेरी बात-बात पर अपार - अहैतुकी कृपा की वृष्टि सी करने लगते हो, इसमें मेरा कुछ भी तो नहीं, नहीं प्रयास भी मेरा नहीं। जो कुछ भी है, तुम्हारी ही तो प्रेरणा की अमर बेलि के पत्र पुष्प हैं - शायद तुमने पहचाना नहीं होगा। तुम्हारे प्यार ने जैसा चाहा, वैसा ही मुझ से हुआ। मेरे सर्वस्व के मालिक! मेरी दृष्टि तो एक मात्र बस तुम्हारी ही ओर है। तुम्हारी ही इच्छा पूर्ण हो।
इसके बाद स्थूलता के बादल स्वतः ही छटने लगे और कुछ क्षणोपरान्त मानो पौ सी फ़टी। गुनगुना प्रकाश दृष्टिगत हुआ और उसी के पार, मैंने पहचान भी लिया, कि यह सद्गुरु कृपा का सूक्ष्म रूप था जो भावों की स्थूलता से वापस आ कर अब इस पार झाँक रहा था। गुरुकृपा के ऐसे मनोहारी और ताण्डव नृत्य से यह मेरी पहली पहचान थी। मुझे क्या पता था कि ये ही प्रलय से साक्षात्कार के क्षण थे; गज़ब हो गया। विचारशून्यता अब बढ़ते-बढ़ते, तम के स्तर पर पहुँच रही थी। मुझे स्वयँ का स्वरुप और शनैः शनैः उसका अहसास भी समाप्त प्राय सा प्रतीत होने लगा व बीच में जब ध्यान, के बिंदु पर वापस आता तो वहाँ भी अपने प्रीतम गुरुदेव के अतिरिक्त कुछ न पाता था। धीरे धीरे इसी [ उन्हीं का अस्तित्व] का विस्तार प्रतीत हुआ और, इस सीमा तक कि, मानो सारी सृष्टि ही उसमें समाहित हो जाएगी। एक अपूर्व - अलौकिक आनंद की स्थिति थी। अपनी वंश-परम्परा के सभी गुरुजन, एक पारदर्शी प्रकाशपुँज के उस पार, गुपचुप, लुकाछिपी के मध्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होते रहे। ऐसा लगता था मानो प्रकृति स्वयं पूर्ण गरिमामयी नृत्य अवस्था में हो और आनंद ही आनंद छितरा हुआ था। कुछ समय तक सतनाम की गूँज उसी दृश्य में अवस्थित रह कर बड़ी ही मनोहारी - संगीतमयी आभा के मध्य अपना विश्राम देती रही। बाद में वह भी न रही। जो भी था; न वहाँ प्रकाश था, न अन्धकार। कोई रंग न था, कोई ध्वनि न थी। रंगहीन प्रकाश पिघल पिघल कर समस्त सृष्टि को अपने अस्तित्व में समेत लेना चाहता था। ऐसा जगमग वातावरण जिसमे असंख्य सूर्यों का प्रकाश व कांति कम पड़ रही हो। प्रेम व आनंद से सराबोर इसी सोते में वे सभी भीगते रहे, डूबते रहे, उतराते रहे। लगभग एक घंटे के बाद ऐसा लगा कि हम पुनः अपनी सामान्य चेतना में वापस लौट रहे थे। उसी बीच मैंने अनुभव किया कि हुज़ूर महाराज भी वहाँ पर लीलारत थे व उनके आदेश ने मेरी चेतना को छुआ - "अब बस करो।"
धीरे धीरे सभी ने आँखे खोल दीं। सभी के चेहरों पर एक अभूतपूर्व प्रसन्नता और तुष्टि भाव की स्वीकारोक्ति की झलक थी। अब बधाईओं की बौछार हो रही थी, मेरे हज़रत क़िब्ला पर। शब्द कम पड़ रहे थे जिनकी पूर्ति नाम आँखे करतीं - कभी उनकी तो कभी तीसरे या चौथे अथवा अन्य किसी की। पूरे वातावरण में एक होली जैसा माहौल था। सभी का मिला-जुला निर्णय था : "इन्होने [यह अकिंचन दास] कमाल हाँसिल किया है। सतपद तक रसाई ही नहीं, उसमे लय अवस्था प्राप्त की, स्थिरता और वहाँ का अधिकार प्राप्त किया है।" उस सब से निवृत्त हो कर, अब 'प्रश्न और उत्तरों' का क्रम प्रारम्भ किया गया। प्रथम प्रश्नकरता द्वारा पूँछा गया : "बेटे यह बताओ शुक्र किसे कहते हैं?" मेरा उत्तर था : "परमात्मा की देन का उचित प्रयोग धर्मशास्त्र के अनुसार करना ही शुक्र है।" अगला प्रश्न था : "याफ़्त किसे कहते हैं?" सेवक ने पहले तो याफ़्त के शब्दकोशीय अर्थों की चर्चा की : "याफ़्त = पाया हुआ। अधिकतर इस शब्द का प्रयोग किसी दूसरे शब्द के साथ मिला कर किया जाता है, अकेला नहीं बोला जाता। व्याकरण के अनुसार 'याफ़्त' शब्द स्त्रीलिंग है; जिसका अर्थ है - लाभ, प्राप्ति इत्यादि।" प्रश्नकर्ता के पूंछने के ढंग से मैं समझ चुका था कि, अभी अभी जो मुराकबः [ध्यान] का दौर चला था, प्रश्न उसी से सम्बंधित था। अतः मैंने निवेदन किया : "इसका हिंदी [संस्कृत] रूपांतर है - संयुक्त। इसी से निकला शब्द है - संयोजिता। संयोजिता उस आध्यात्मिक दशा या अवस्था को कहते हैं जिसमे प्रेमी और जिससे वोह प्रेम करता है, दोनों का अस्तित्व एक हो जाय और दोनों में कोई अंतर न हो और कोई अलग पहचान शेष न रह जाय। यहाँ [याफ़्त या संयोजिता] की स्थिति पर पहुंच कर पुनः वापसी [गिरावट] का डर समाप्त हो जाता है। सत्य का वास्तविक साक्षात्कार इसी अवस्था में होता है।" प्रश्न-उत्तरों के क्रम में, अब बारी थी : 'तजल्लिए ज़ात' की। तजल्ली के शब्दकोशीय अर्थ हैं - प्रकाश, आभा या प्रताप। किन्तु जिस विषय विशेष पर चर्चा गर्म थी उसके अनुसार इस शब्द का अर्थ होगा 'आध्यात्म ज्योति' या 'नूरे हक़'। यह वोह प्रकाश या ज्योति है, जहाँ मायावी प्रकाश की झलक नहीं जाती। ऐसा लगाव तभी होता है जब आत्मीय प्रेम में लयता प्राप्त हो जाय। 'समाधि' अथवा मराक़बः [सँसार से हट कर ईश्वर में ध्यान लगाना] की यह एक प्रणाली है और आशय यह है कि जौकिया प्रेम का आविर्भाव हो। 'जौक' एक प्रकार की क़ैफ़ियत [स्थिति विशेष] का नाम है जो स्वाद या आनन्द प्राप्त कर लेने के बाद आती है। अर्थात किसी वस्तु के रसास्वादन के पश्चात उसकी ऐसी याद रहे कि कभी भूले नहीं और उसकी लौ लग जाय। इस प्रकार का ध्यान [मुराकबः] वास्तविक लक्ष्य तक पहुँचाने वाला होता है।
छोटे-छोटे प्रश्नों से बारी जा पहुँची बड़े-बड़े और ऐसे कठिन प्रश्नों की, कि जिनकी मूल-जानकारी या साक्ष्य, की साधारणतयः मुझ जैसे किसी से आशा नहीं की जा सकती थी। प्रश्न जो मेरे सामने रक्खा गया था वह यह था कि - मृत्यु क्या है? उसके बाद की स्थिति क्या है? मेरे हज़रत क़िब्ला ने मेरी पीठ थपथपायी और वहीँ पीछे एक ओर बैठ गए। आँखों ही आँखों में इशारा हुआ और मैं यन्त्रवत शुरू हो गया। वे मेरे जीवन के सबसे कीमती क्षण थे और मैं महसूस कर रहा था कि मेरी वाणी के परोक्ष में वह चमत्कार, हुज़ूर महाराज के अतिरिक्त अन्य किसी का नहीं हो सकता। मेरे सर्वस्व, मेरे हज़रत क़ब्ला की वाणी अनायास ही मुझ अकिंचन में उनकी कृपा-धार बन कर इस नाचीज़ की जिह्वा से मुखरित होने लगी और इस प्रकार जारी ब्यान का सार-संक्षेप निम्नलिखित था -
महाभारत में, हिंदुओं के सबसे प्राचीन महाकाव्य में, हमने एक उत्कृट प्रश्न पढ़ा जो प्राचीन काल के विभिन्न महापुरुषों से पूछा गया था। 'दुनियाँ में सबसे अद्भुत चीज क्या है?' विभिन्न उत्तर दिए गए थे, लेकिन वे संतोषजनक नहीं थे। युधिष्ठिर ने जो उत्तर दिया, वह स्वीकार किया गया, और उनका उत्तर यह था: “हर दिन, और दिन-प्रतिदिन, जानवर और मनुष्य जीवन से गुजर रहे हैं, लेकिन हम नहीं सोचते हैं मौत के बारे में, हम सोचते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे। इससे ज्यादा अद्भुत और क्या हो सकता है?” यह उत्तर लगभग पैंतीस शताब्दियों पहले दिया गया था, और आज भी यही सच है। हम मृत्यु के बारे में नहीं सोचते हैं, हालाँकि हम स्पष्ट देखते हैं कि हमारी आँखों के सामने शवों को दफ़नाया जा रहा है।मौत का रहस्य प्राचीन पौराणिक मान्यताओं में उपलब्ध नहीं है, जो हमें पीढ़ियों के माध्यम से सौंप दिया गया है। यहूदियों [Jews], ईसाइयों [Christians], पारसी और मुसलामानों की पटकथा यह नहीं बताती है कि मृत्यु क्या है। लेकिन इनमें से कुछ शास्त्रों में, हम पाते हैं कि परमेश्वर ने पहले मनुष्य [स्त्री-पुरुष] को आज्ञा दी थी कि वह कुछ चीजों को करे और ज्ञान [Knowledge] के वृक्ष का फल न खाए, लेकिन जब उन्होंने ने अच्छे-बुरे के ज्ञान [लिंग चेतना का ज्ञान] = knowledge of gender consciousness] के वृक्ष का फल खाया, प्रभु ने उसे श्राप दिया और वे उसके श्राप से संसार में मृत्यु को प्राप्त हुए। बेशक, उस दिन 'आदम' की मृत्यु नहीं हुई थी जिस समय वह बहकाया गया था और उसने वहाँ फल खाया था; किन्तु उसने अपने किये की सज़ा पायी और नतीज़तन बाद में उनकी मृत्यु हो गई। इस वक्तव्य से पता चलता है कि पहले 'भगवान' का इरादा यह नहीं था कि आदमी को मर जाना चाहिए, लेकिन 'शैतान' के बुरे प्रभाव से दुनियाँ में 'मौत' का प्रवेश हुआ। यह 'शैतान’ ही था, जिसने इस दुनियाँ में मौत को जन्म दिया। वास्तव में, मौत का कारण अभिशाप ही था। लेकिन 'अभिशाप' शैतान के बुरे प्रभाव के बारे में लाया गया था। जो लोग इस बात पर विश्वास करते हैं कि मृत्यु 'शैतान' के कारण हुई या लाई गई, इसके बारे में आगे सोचने की परवाह नहीं करते है। वे इस प्रश्न पर आगे विचार करना बंद कर देते हैं और समस्या को हल करने की कोशिश नहीं करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि यह ईश्वर का अभिशाप है, तो यह जीवन का एक अनिवार्य अंत है, और हमें इससे संतुष्ट होना चाहिए।
परम वैज्ञानिक सत्य यह है कि किसी चीज़ का कारण स्वयं चीज़ के बाहर नहीं है, बल्कि चीज़ के अंतर में है। एक पेड़ का कारण पेड़ के बाहर नहीं है, बल्कि पेड़ के अंतर में ही निहित है। इंसान का कारण भी इंसान के बाहर नहीं है, बल्कि इंसान के अंतर में ही निहित है। संपूर्ण वृक्ष बीज में अदृश्य अवस्था में या संभावित रूप में अवस्थित रहता है। वातावरण केवल अनुकूल परिस्थितियों को देता है, जिसके तहत बीज में जो अव्यक्त होता है, वह वास्तविक और प्रकट होता है। वातावरण बीज को कोई भी शक्तियां नहीं देता है जो पहले से नहीं थे। वातावरण बस उचित स्थिति देते हैं। अगर हम इसे स्पष्ट रूप से समझते हैं, तो हम पाते हैं कि वातावरण नहीं बनाते हैं, लेकिन रचनात्मक शक्ति बीज में ही होती है, और यह बीज का कारण नहीं प्रकट करता है, जब तक कि यह पेड़ का रूप नहीं ले लेता। मनुष्य के ‘कारण-शरीर’ की दशा भविष्य में प्रकट होगी और यह अवस्था अदृश्य है, बस हम एक बीज में नहीं देख सकते जो उसके अंदर पहले से मौजूद है। उदाहरण के लिए, एक बरगद के पेड़ का बीज, सरसों के बीज जितना छोटा होता है, और यह आपको दिया जाता है, आपको नहीं पता होगा कि यह क्या है, लेकिन इसमें एक विशाल बरगद का पेड़ है जो परिधि में एक मील के दायरे को कवर करेगा और होगा एक वृक्ष के पचहत्तर या सौ कुंडों का निर्माण। इसी तरह अदृश्य कीटाणु जिन्हें आप अमीबा या बायोप्लाज्म या प्रोटोप्लाज्म कह सकते हैं और जो बाद में एक इंसान के रूप में दिखाई देंगे, उस इंसान की सभी क्षमताएँ अदृश्य अवस्था में होती हैं। यह सूक्ष्म शरीर वास्तव में मनुष्य ही है। जो कि एक मानव शरीर के रूप में प्रकट होता है और उसके अंदर रहता है। जीवन का मानव-जीवाणु एक मानव शरीर का निर्माण करेगा, और यदि यह किसी विशेष जानवर के रूप में रहना चाहता है, तो यह उस रूप का निर्माण करता है। इसका अपना कोई विशेष रूप नहीं है, लेकिन यह कोई भी रूप ले सकता है। वास्तव में, माता-पिता अपनी इच्छा के अनुसार बच्चे को जन्म नहीं दे सकते। यह एक पूर्ण अक्षमता होगी जब तक कि आत्मा उनके पास नहीं आती है और मानव-जीवाणु का पोषण करती है। आत्मा या बुद्धि या चेतना का निर्माण कभी नहीं हुआ, बल्कि शरीर का निर्माण, विकास की प्रक्रिया के माध्यम से किया गया था।जैसा कि श्वास [प्राण] का सृजन कभी नहीं किया गया था, इसी प्रकार मन और आत्मा भी कभी भी स्रष्ट नहीं किए गए थे, यही कारण है कि आत्मा, प्रभु या सर्वोच्च-आत्मा की छवि को अपने अंतर में बनाए रखती है। जैसा कि वेदांत समझाता है, जीवन की सांस [प्राण] में सर्वोच्च-आत्मा का प्रतिबिंब है। हम किसी एक जन्म के सिद्धांत से, कुछ भी नहीं समझा सकते हैं क्योंकि अगर भगवान आत्मा को कुछ भी नहीं देता है, तो वह पात्रों की इतनी सारी किस्में क्यों बनाता है? कुछ आनंद लेने और अपनी अद्भुत प्रतिभा दिखाने के लिए पैदा हुए हैं। दूसरों को अज्ञानता और अन्य कमजोरियों के अलावा कुछ भी नहीं रखने के लिए सामने लाया जाता है। यदि हम इस पर ध्यान से अध्ययन करें, तो हम देखते हैं कि पूर्व-अस्तित्व और पुनर्जन्म, साथ-साथ चलते हैं और वे जीवन और मृत्यु की सभी कठिनाइयों और समस्याओं के साथ-साथ अस्तित्व की व्याख्या करते हैं और यह भी कि हम अपने भाग्य के निर्माता हैं। हमारा वर्तमान जीवन हमारे अतीत का परिणाम है और हमारा भविष्य हमारे वर्तमान का परिणाम होगा। चाहे हमें याद हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम इस शाश्वत नियम के अधीन हैं। लेकिन आत्माएं हैं जो याद रख सकती हैं। यदि हम अपनी आध्यात्मिक चेतना की ऊँचाई पर उठते हैं, तो हम अपने अतीत और भविष्य को ऐसे देख सकते हैं जैसे कि यह अनंत काल से मौजूद थे। इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा है - "ओह अर्जुन, तुम और मैं दोनों कई जन्मों से गुजरे हैं। तुम उन्हें नहीं जानते हो, लेकिन मुझे सब कुछ याद है।"
सूफ़ी संतों के अनुसार तीन 'दिल' बताये गए हैं - जिस्मानी, ह्यूलानी और रूहानी। जिस्मानी का सम्बन्ध शरीर से है। ह्यूलानी का सम्बन्ध सूक्ष्म-सृष्टि से और रूहानी का सम्बन्ध केवल 'आत्मा' से है।
[01] 'जिस्मानी-दिल' चूँकि स्थूल माद्दा और उसके अंतर्गत अवस्थाओं से सम्बन्ध रखता है इसलिए इसके व्यवहार का क्षेत्र, 'माद्दा' के पाँच मण्डलों से है और उनके ऊपर छटा स्थान है जिससे वह शक्ति लिया करता है। हिन्दुओं के यहाँ ”माद्दा” [substance of human body] के पाँच रूप हैं - [01] आकाश, [02] वायु, [03] अग्नि, [04] जल और [05] मिट्टी। सूफियों ने भूल-वश केवल चार ही तत्व माने हैं, इसलिए वे धोखे में पड़ गए और तरीक़त का सम्पूर्ण रूप न समझ सके। 'आकाश' का विशेषण उनकी समझ में नहीं आया। शरीर के भीतर उनके रहने के पाँच स्थान हैं, उनकी व्याख्या निम्नलिखित है - [01] गला, जो खाली है और 'आकाश' का स्थान है, [02] जिस्मानी क़ल्ब, जिसको हिन्दू 'ह्रदय' कहते हैं और दोनों वक्षोजों के मध्य में स्थित है, वायु के रहने का स्थान है। यहाँ ही 'हरक़ात तनफ़्फ़ुस' [साँस की आमदरफ़्त] का दिल की हरकत से विकास होता है और फेफड़े पंखों का कार्य करते हैं, [03] नाभि [Navel], जो अग्नि का स्थान है यहाँ हरारत अज़ीज़ी [जठराग्नि] रहती है, [04] आला तनासुल [इन्द्री] - यह जल का स्थान है। यहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। [05] मक़ाद [गुदा] जो मिट्टी का स्थान है और यह स्थूल माद्दा की अंतिम सीमा है। यहाँ से दूषित और घृणित मल निकलता है। यह पाँचों स्थान हमारे शरीर में मौजूद हैं। इनके ऊपर छटा स्थान जिस्मानी और अंश-रूप से आत्मा का है जिसके सहारे 'शरीर' का यह खेल होता रहता है और वह इन आँखों के ठीक पीछे दोनों 'भोंहों' [eye-brows] के बीच में स्थित है और जिसको 'नुक़्तए-ज़ुवैदा' [काला तिल] बोलते हैं। यह शारीरिक मण्डल है और इनमें 'नासूत', मलकूत, जब्रूत, लाहूत और हूत भी हैं। जो पाँच माद्दी [भौतिक] से सम्बन्ध रखते हैं।
[02] ह्यूलानी दिल का मस्कन [रहने का स्थान] चूँकि आलमे-आ'ला [सर्वोच्च-जगत] में है इसलिए उसके कार्य के मण्डल के भीतर छः बड़े चक्र हैं। शरीर स्थूल-माद्दा का बना हुआ है और 'आलमे-आ'आला', सूक्ष्म माद्दा का है ; उसके पाँच चक्र - [01] सूक्ष्म-आकाश, [02] सूक्ष्म-वायु, [03] सूक्ष्म-अग्नि, [04] सूक्ष्म-जल और [05] सूक्ष्म-मिट्टी के हैं। जो यहाँ हैं, वही वहाँ भी हैं ; केवल माद्दा की सूक्ष्मता और स्थूलता का अंतर है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं और इनकी चोटी [peak] पर जो 'नुक़्तए-जुवैदा' के समान है, आत्मिक सृष्टि का स्थान है। जिससे सृष्टि के कारोबार को पुष्टता मिलती है।
[03] रूहानी ; जो जिस्मानी और ह्यूलानी और दोनों से ऊँचा है। वह शुद्ध आत्मा के कारोबार का मण्डल है। आदिकाल में जिस प्रकार आत्मा की धार फूटने से उस मण्डल के भीतर पाँच या छः स्थान बन गए, उन्ही का सूक्ष्म प्रतिबिम्ब रूप सृष्टि [ब्रह्माण्ड] है और सृष्टि से जो स्थूल-धार फूटी तो उसका स्थूल-रूप यह शरीर अर्थात 'पिण्ड' बन गया। असल तो आत्मिक-मण्डल है और ये दोनों उसके प्रतिबिम्ब रूप हैं। प्रतिबिम्ब-पूजकों को असली ज्ञान नहीं होता। इसके नासूत, मलकूत, जब्रूत,लाहूत और हूत की अवस्थाएँ इन पिछले दो मण्डलों की अवस्थाओं से भिन्न हैं।
सूफ़ी विद्वानों के अनुसार ‘मृत्यु’ प्रेयसी [शिष्य] और प्रियतम [इष्ट या गुरु] के बीच का सेतु है। एक सूफ़ी, प्राकृतिक मृत्यु से पूर्व तीन बार मरता है। प्रथम मृत्यु 'मौत-ए-अस्वद' [ब्लैक डेथ] - इसे दूसरों के हाथों भुगतना पड़ता है। इसके बाद ; 'मौत-ए-अहमर' [रेड डेथ] ; यह कामनाओं के विपरीत काम करना है। तब मौत-ए-अख्ज़र [हरी मृत्यु] ; जो कि चीर-फाड़ वाले कपड़े पहनना है। चौथा, मौत-ए-अब्यद [श्वेत मृत्यु] है, जिसमें कोई भुखमरी से पीड़ित होता है, जैसा कि कहा जाता है कि यह हृदय में ज्ञान का प्रकाश पैदा करता है। दैहिक मृत्यु शरीर की मृत्यु है, जिसमें अहंकार [नफ़्स-ए-नातिक़ः] खुद को आलम-ए-मिथल में स्थानांतरित करता है।
सभी मन्त्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे और बोलते-बोलते लगभग एक घण्टे के पश्चात् जब मेरे पास शब्दों की कमी पड़ने लगी तो उनका स्थान भावावेग ने ले लिया और उसी के मध्य न जाने कैसे और किसके बलबूते पर मैंने घोषणा कर डाली - "ऐ मेरे अतिसम्माननीय विद्वानों और संतों! मौत के बारे में जानकारी शब्दों के माध्यम से जितनी कुछ भी संभव थी, मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत की। अब यह अकिंचन दास, मौत की वास्तविकता का आभास आप सबके अनुभव में उतारने की कोशिश करता है। ----- " और इसी मध्य यन्त्रवत ही सभी की आँखें, धीरे धीरे स्वतः ही मुँद गयीं और गहरे सन्नाटे के मध्य उन सबको मृत्यु की वास्तविकता के दर्शन हुए। आँखे खुली तो मेरे हज़रत क़िब्ला के चमत्कारी आदेश के अनुरूप। अभी भी वहाँ एक अनुपम दृश्य था। सभी की आँखों से प्रेमाश्रु झर रहे थे। यह कैसा पागलपन था, यह कौन सा जुनून [passion] था। इस अन्नमय भौतिक शरीर में जीवात्मा के 'कारण शरीर' का आभास और उससे साक्षात्कार, इसी जीवन में मृत्यु के दर्शन और उसके उस पार के दृश्यों का अवलोकन। सभी कुछ एक महान आश्चर्य ही नहीं, विश्व की आध्यात्मिकता के इतिहास में एक ऐसा अध्याय था जो नवीन तो था ही, विलक्षण और अविश्वसनीय भी। महफ़िल एक बार फिर गरम हो चुकी थी। गहमागहमी और कसरत बधाइयों की थी, जी हाँ, बधाइयाँ इस बार भी मेरे सरताज, मेरे गुरुदेव को ही दी जा रही थीं। मैं अवाक और किंकर्तव्यविमूढ़, उनके एक ओर बैठा इस प्रतीक्षा में था कि कुछ भी ऐसा हो और मैं सशरीर उनके अस्तित्व में विलीन हो जाऊँ। मैं नहीं जनता कितनी देर यही सब चलता रहा।
कुछ क्षणोपरांत रंग फिर बदला और उसी गुलाल के उरोजों के मध्य एक सामूहिक प्रश्न विकसित हो कर आया जो [अब] मेरे लिए न हो कर मेरे सरकार के लिए था। पूँछा जा रहा था, कैसा अनुराग है, यह कहाँ का दीवानापन है, ऊर्जा का यह कौन सा सम्वेग है कि एक नक़्शबन्द ‘सूफ़ी’ जिसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर रहा है वह वेदान्ती हो? यह कैसे हो सकता है? वेदान्ती भी वहाँ उपस्थित थे। उनकी जिज्ञासा थी वेद और उपनिषदों का ऐसा व्यावहारिक ज्ञान अभी तक सूफ़ियों के यहाँ क़ैद कैसे रह पाया और वह भी इतना शान्त और चुपचाप कि किसी को भनक भी न लग पाई कि इतनी बड़ी आवश्यकता अभी तक क्रान्ति क्यों नहीं बन पायी।
पूरे तीन दिन के इस अविस्मरणीय अधिवेशन की यह अन्तिम सभा थी और उसका उपसंहार भी। इस बीच जिस उमंग व प्रसन्नता के वे [पूज्य गुरुदेव] पर्याय बने हुए थे, सब कुछ, अब भावशुष्कता में बदल चुकी थी और उसी के मध्य वे अति सहज भाव से रूबरू [आमने सामने] हुए - "दुनियाँ के सभी इंसानों में तर्ज़े रूहानियत [आधात्मिकता के संचरण की पद्यति] एक है लेकिन तर्ज़े माशरत [सामजिक जीवन की पद्यति] अलग-अलग है।" आपने अपने संछिप्त से सम्भाषण में एक रहस्योद्घाटन भी वहां पर, उन सभी के मध्य किया ; “बात पुरानी है कि एक बार जब स्वामी दयानन्द जी महाराज, कायमगंज पधारे थे; उस समय एक अति विशाल जलसा हुआ था। उसमे आर्यसमाजियों के अतिरिक्त, अन्य धर्मों के संत व विद्वान भी सम्मिलित हुए थे और उसी क्रम में वे स्वयं [हुज़ूर महाराज] भी अपने पीरोमुर्शद [आध्यातिक गुरु] हज़रत मौलाना शाह अहमद अली ख़ाँ साहिब [रहमत 0] के साथ उनके भाषण को सुनने गए थे। उस आर्य सम्मलेन की अंतिम सभा के समापन से जब वे दोनों अपने- अपने घरों को वापस हो रहे थे तभी रास्ते में [मेरे दादागुरु] हज़रत खालीफ़ा जी साहिब ने पूज्य गुरुदेव को आदेश दिया था - ‘तुम भी इस सिलसिले आलिया के मिशन की तरक़्क़ी के वास्ते ऐसा ही कोई जवाँ मर्द तैयार करना।’ दादा गुरु का निर्देश था - ‘ठीक स्वामी दयानन्द जी जैसा’। प्रत्युत्तर में गुरुदेव ने, सर झुका कर, इतना ही कहा था - ‘खादिम ने तो एक बबूल का पेड़ लगाया है।’ पूज्य दादागुरुदेव खालीफ़ा जी साहिब ने आसमान की तरफ हाथ उठा कर दुआ पढ़ी थी और उसके बाद भविष्यवाणी भी की थी - ‘इंशाअल्लाह वही इतना फलेफ़ूलेगा कि दुनियाँ भर की तंगिओं दुःखों व तकलीफों को अपने रूहे क़ल्ब में उतार कर तमाम ज़मीन पर हरयाली और सुकून बरपा कर देगा।” इसके बाद हुज़ूर महाराज ने इस घटना के वर्णन के पश्चात् [एक बार पुनः] आमीन पढ़ा और लगभग दो मिनट के लिए मौन हो कर अतीत में खोए रहे। पूज्य गुरुदेव ने अपने दोनों हाथों को उलट पुलट कर देखा और बाद में अपने चेहरे पर खूब अच्छी तरह फिराया। कुछ बुदबुदाए और पुनः मुखातिब होने से पूर्व मुझे, नज़र भर कर निहारा, कुछ देर को पुनः आँखे बंद की और धीरे धीरे निहायत नपी-तुली भाषा में फ़रमाया - "उस दिन के बाद अज़ीज़ राम चन्द्र का रोज़ बिला नागा इंतज़ार ही मेरी इबादत बन गया था । वह दिन मेरे लिए निहायत तसल्लीबक़्श था जिस शाम आंधी-पानी ने घमासान अँधेरा कर रखा था। बादल गरज़ रहे थे और बिजली तड़क रही थी। जाड़े के दिन थे। उस दिन इन्हें [अकिंचन दास] कचहरी से वापस लौटने में देर हो गयी थी, शायद मौसम की खराबी की वजह से; इनकी हालत देखने लायक थी। क़ाबिले रहम थी। जब ये 'मदरसा-मुफ्ती साहिब' से सड़क की तरफ वाले फाटक से अन्दर आ कर अपनी कोठरी की तरफ बढ़े जा रहे थे, खूब भीगे हुए थे और सारा बदन सर्दी से काँप रहा था। यह फ़क़ीर [हुज़ूर महाराज] उसी तूफ़ान में इनका निहायत बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। मुझे अच्छी तरह से याद है - इनपर मेरी नज़र पड़ना, इनका घबरा कर नज़रें झुका लेना, कुछ रुकना, कुछ शर्माना, पहले निगाहें चुराना फिर बड़ी ही शहिस्तग़ी से सलाम पेश करना, सब कुछ आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। मेरी जुबान से बरबस निकल पड़ा था, अरे! इस तूफ़ान में और इस समय आना? मुझे सब याद है। मुझे यह भी याद है कि मुझे कितनी तसल्ली और सुकून मिला था जब यह पहली बार मेरी कोठरी में आये थे, मेरे ही कहने पर यह वापिस अपनी कोठरी में कपड़े बदलने को गए थे और मेरा दिल रखने को दूसरे कपड़े पहन कर, हाँ टोपी भी और पूरे सूफ़ी-अदब के साथ ये दूसरी बार मेरे पास आये थे। कितनी दीवानगी थी मुझमें भी। जल्दी-जल्दी में मैंने भी किस प्रकार अपनी बरोसी की आग ताज़ा की थी। कुछ भी तो नहीं उतरा मेरे ज़हन से कि किस जूनून भरे लहज़े में मैंने इन्हें अपनी रजाई उढ़ा दी थी - पता नहीं इनकी ठण्ड की वजह से कँपकपी दूर करने के लिए या अपने पीरोमुरशद की मुस्तदाम [नित्यता] इन्हें तस्लीम [सुपुर्द] करा देने के लिए थी।" इसी प्रकार मेरे और उनके बीच के रिश्ते वे अपने ज़हन में ताज़ा करते रहे। शायद अब वे भावुक भी हो रहे थे। मैंने हिम्मत करके उनकी नम-आँखे अपनी नज़रों में भरने की नाकामयाब कोशिश की थी।
इसी बीच, सभा में श्रोता वर्ग के अंतर में उठ रहे भाव भी मुझ से अनछुए नहीं रहे और 'सफ़ी लख़नवी' का यह शेर - की वह पँक्ति मेरे मन में बार बार आ रही थी जिसमे किसी प्रेमिका की ओर से उसने कहा था -"जनाज़ा रोक कर मेरा वो इस अंदाज़ से बोले ; गली हमने कही थी तुम तो दुनियाँ छोड़े जाते हो।"
मैं समझ सकता हूँ कि हुज़ूर महराज के सम्मुख उस सभा की सामूहिक जिज्ञासा के प्रति-उत्तर में उनके बयान से वातावरण इतना अधिक संवेदनशील हो जाएगा। किसी को भी ऐसी आशा न थी। मैं स्पष्ट अनुभव कर रहा था कि गुरुजनों की सम्पूर्ण श्रृंखला द्वारा आहूत आशीर्वाद ओस के मोतिओं की भाँति झर रहे थे, जिनसे एक ओर सम्पूर्ण वातावरण को एक स्वर्गीय चाँदनी ने ढक लिया था वहीँ दूसरी ओर सभी के अन्तर में एक अदभुत प्रेम का ज्वार अपनी हिलोरें ले रहा था। सभी उसमेँ कूक रहे थे, थकते न थे।
कुछ देर बाद सभा का समाँ और मौसम धीरे-धीरे बदलने लगा और अब सभी लोग शान्त और चुप-चाप बैठे थे। पूज्य गुरुदेव ने मुझे अपने अति निकट बुला कर बैठा लिया। उनके एक ओर एक फाइल रक्खी हुई थी जिसमें कुछ अत्यन्त अच्छी व आकर्षक लिखावट में पहले से लिखे हुए पत्र व दस्तावेज़ सुरक्षित रक्खे हुए थे। उन पत्र-प्रपत्रों में से उन्होंने दो को, जिनको उन्होंने अति महत्वपूर्ण समझा वे बाहर निकाले और उनमे से एक उन्ही के द्वारा पढ़ा गया। उसमे जो भी अन्तर्वस्तु थी वह इस अकिंचन दास के बारे में ही थी। उसमे यह स्पष्ट किया गया था कि पूज्य गुरुदेव के द्वारा मुझे ब्रह्मविद्या के किन किन विषयों की जानकारी व किन किन आध्यात्मिक केंद्रों तक पहुँच का स्थायित्व प्राप्त कराया गया है। उसमे यह भी अंकित किया गया था कि उनके इस मुरीद [शिष्य] ने दूसरे जिज्ञासु स्त्री, पुरुषों को किस किस केंद्र [चक्र या लातायफ़] तक की यात्रा व पहुँच करा देने की योग्यता व क्षमता प्राप्त कर ली है। दूसरा पत्र सेवक के पक्ष में, लिखा हुआ इज़ाज़तनामा था जो कि पहले सुनाये गए योग्यता प्रमाण-पत्र के आधार पर था। दोनों ही प्रमाणपत्रों पर, वहाँ उपस्थित संत महानुभावों द्वारा, आम राय से सहमति प्रदान की गयी और सेवक को अनेकानेक आशीर्वाद प्रदान किये गए। चूँकि वहां पर उपस्थित संत व गुरुजन अनेक धर्म, सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे अतः इस अकिंचन दास की पूरी पूरी जाँच व परीक्षा करने के बाद सभी ने अपनी -अपनी ओर से भी इजाज़तनामें लिख लिख कर, हुज़ूर महाराज के हाथों से दिलवाए गए। सभी में प्रमाणित किया गया था कि 'राम चन्द्र' नाम के सेवक को 'हिरण्यगर्भ' की स्थिति सुलभ व प्राप्त हुई है। उन सभी प्रमाणपत्रों को मेरे पूज्य फुरुदेव ने, एक एक शब्द पर अपनी उंगली रख- रख कर पढ़ा। उसके बाद उन्होंने वहां पर उपस्थित एक वेदांती संत से 'हिरण्यगर्भ' की स्थिति संक्षेप में बताने के लिए कहा। उन संत ने बताया "हिरण्यगर्भे अस्ति यस्य सह हिरण्यगर्भः। हिरण्य, जिसके गर्भ में है वह हिरण्यगर्भ है। हिरण्य एक तेज, वर्चस्य, प्रभुत्व की शक्ति है जिसे परमात्मा कहें, परम सत्ता कहें। यह शक्ति ही सूर्य में समाहित है, सूर्य के गर्भ में है, इस कारण यह हिरण्यगर्भ है।" इसे सुन कर पूज्य गुरुदेव की मुखाकृति व उनकी आभा, उनकी कान्ति अब देखने लायक थी। फर्मानें लगे - "राम चन्द्र! आज तुम्हारी ज़ात से तुम्हारे वालदैन और तमाम बुज़ुर्गीन सिलसिलएआलिया नक़्शबंदिया-मुजद्ददिया-मज़हरिया का रुतबा बढ़ा है। ग़र मै तुम्हें इस्लाम क़ुबूल करवाता तो महज़ एक आम मुसलमान बन कर रह जाते। लेकिन तुम्हारी निस्बत से आज जो बातें आसमान, आफताब और ज़मीन की, की जा रहीं हैँ, खुशी से मेरा सीना फटा जाता है। बेटे! वख्त आएगा। ज़रूर आएगा। तुम आफताब की तरह चमकोगे। तुम्हारी ज़ात से, इँशाअल्लाह आलम मुनव्वर होगा। तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारे पोते दर पोते 'वली' और 'पीर' व 'महात्मा' होते रहेंगे। बेटे! यह बहुत बड़ी बात है।" सभी उपस्थित जनों ने 'आमीन' पढ़ा। हुज़ूर महाराज एक आवेग के साथ उठ कर खड़े हो गए। मैं भी और तमाम वो लोग भी जो वहां बैठे थे, सभी उठ कर खड़े हो गए। मेरे हज़रत क़िब्ला ने मुझे सीने से लगाया और अपनी अति मधुर वाणी से, किन्तु गले को थोड़ा खखार कर फ़रमाया - "लो बेटे ! खुश रहो। बहुत मुबारक हो तुम्हें।" कहते हुए उन्होंने इज़ाज़तनामा मेरे हाथों में थमा दिया। वे सभी भावुक हो रहे थे - "बेटे ! आज तुम्हें यह फ़क़ीर अपनी तमाम उम्र की कमाई सौंप रहा है। तमाम बरक़तें तुम्हारी तवज्जोः के इंतज़ार में हैं।" उसके बाद वे थोड़ा गंभीर हो कर बोले - "बेटे ! आज के बाद और अभी इसी वक़्त से मुझमे और तुममें कोई फर्क नहीं रह गया है। मैं तुम्हारी ज़ात में और तुम्हारी ज़ात अब उस अज़ीम हस्ती में फ़ना हो चुकी है जहाँ पर मेरे क़िब्लाओकाबा एक लम्बे अर्से से तुम्हारी राह देख रहे थे।" कुछ ठहर कर कहने लगे - "देखो बेटे इन बातोँ का ख्याल रखना -
[01] मख्दूम [स्वामी] बनने से हमेशा बचना और दूर रहना,
[02] खादिम [सेवक] बन कर दूसरों की खिदमत करना,
[03] कभी किसी से ऐसा वादा न करना कि इतने दिनों में फलाँ मुक़ाम तक पहुँचा दूँगा। बल्कि खिदमत बेलौज़ हो कर करना और किसी बात का दावा कभी मत करना।
इसके बाद अपनी मनमोहिनी सूरत पर, चार चाँद लगाने वाली उनकी दाढ़ी, उस पर बड़ी तसल्ली से हाँथ फिराया और फ़रमाया - "बेटे ! जो शख्स, तालिबे दुनियाँ हो, उसको बाहर ही बाहर निबटा कर दरवाज़े से रुखसत कर देना। ज़ियादा मुँह मत लगाना न बैत करना; इंशाअल्लाह सिलसिला कभी रुकेगा नहीं।" चलते समय हुज़ूर महाराज ने वे सभी उपहार [टोपी, पगड़ी, कुर्ते की आस्तीन इत्यादि] जो उन्हें जनाब ख़लीफ़ा जी साहिब से प्राप्त हुए थे अपने इस सेवक को एक कीमती धरोहर के तौर पर दिए। मैं धन्य हुआ।
सादर नमन
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