निशा नीड़
जन्म से ही घुट्टी के रूप में मिले संस्कारों में से कुछ के प्रभाव ऐसे हैं जो सोते-जागते मेरा पीछा करते हैं। मैं उनमें खोया, अनेकों कल्पनाएँ करता हूँ, क्रीड़ा मग्न सा। उन्हीं में से भक्तों की अनेक गाथाएँ हैं। महान भक्त काकभुशुण्डि जी के चरित्र की बहुत कुछ छाप मेरे अपने जीवन पर पड़ी है। सम्भवतः यही हो आधार मेरे जीवन के पारस-पक्ष का। कथा के विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। मानस की चौपाइयाँ जो मेरे चिंतन में निरन्तर बिराजतीं रहीं हैं, उनका वर्णन यहाँ आपके समक्ष करूँगा।
"गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुण्डा। मति अकुण्ठ हरि भगति अखण्डा।।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयउ।।"
गरुड़ जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काक-भुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देख कर उनका मन प्रसन्न हो गया और [उसके दर्शन से ही] सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा।
वहाँ के आश्रम के बारे में भगवान शंकर, महासती भगवती जी को बताते हैं कि -
"गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी।।
तासु कनक मय शिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाये।।"
सुमेर पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुन्दर नील पर्वत है। उसके सुन्दर सुवर्णमय शिखर हैं। उसमें से चार सुन्दर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे।
"तिन्हँ पर एक एक विपट बिसाला। बट, पीपर, पाकरी, रसाला।।
सैलो परि सर सुन्दर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।"
उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल बृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है, जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देख कर मन मोहित हो जाता है।
"सीतल अमल मधुर जल जलज विपुल बहु रँग।
कूजत कलरव हंस गन गुंजत मंजुल भ्रंग।।"
उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है। उसमें रँग-बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं। हंस गण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुँजार कर रहे हैं।
"तेहि गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
मायाकृत गन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अविवेका।।
रहे व्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।"
उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी [काकभुशुण्डि] बसता है उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। माया रचित अनेकों गुण, दोष मोह काम आदि अविवेक, जो सारे जगत में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास कभी नहीं फ़टकते। वहाँ रह कर जिस प्रकार वह काक हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो।
"पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ।।
आंब छांह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काजु नहिं दूजा।।"
वह पीपल के बृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जप-यज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़ कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।
"बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
राम चरित विचित्र विधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।"
बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। विचित्र राम चरित्र का अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदर पूर्वक गान करता है।
मेरे चिन्तन का बिंदु था कि जिनके स्मरण मात्र से जन्म-जन्म के बन्धन कट जाते हैं व जीव, माया-मोह व भ्रम इत्यादि के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं, उन्हीं भगवान का सम्पर्क प्राप्त कर गरुड़ जी भ्रम का शिकार कैसे हो गए ? उपर्युक्त कहानी के अन्तर्गत ही भगवान शंकर, महासती उमा से कहते हैं कि - "अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल के ध्वज गरुड़ जी उस काक के पास गए थे।" वह आगे कहते हैं कि - "जब श्री रघुनाथ जी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है - मेघनाथ के हाथों अपने को बंधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा -
"बन्धन काटि गयो उरगादा। उपजा ह्रदय प्रचण्ड विषादा।।
प्रभु बन्धन समुझत बहुँ भाँती। करत विचार उरग आराती।।"
सर्पों के भक्षक गरुड़ जी जब बन्धन काट कर गए, तब उनके ह्रदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़ जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे।
गरुड़ जी ने, मानों रघुनाथ जी को तो बन्धन-मुक्त कर दिया किन्तु स्वयं कुतर्कों के जाल में ऐसे बन्ध गए, जहाँ से निकलना उनके लिए अत्यन्त ही दुर्लभ सा प्रतीत होता था। वह निरन्तर विचार करते हैं कि - "मैंने सुना था कि व्यापक विकार रहित, माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, उन्होंने ही जगत में अवतार लिया है पर मैंने उनके प्रभाव को कुछ नहीं देखा।"
गरुड़ जी के मन में भ्रम या अहँकार की भावना उठना स्वाभाविक थी या अस्वाभाविक, यह एक अलग विषय है। मेरे चिंतन में आश्चर्य का जो अंकुर जागा वह था कागभुशुण्ड जी का आश्रम, जहाँ की परिधि में प्रवेश पाते ही सारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं, सारे माया के बन्धन भ्रम व अज्ञान के आवरण कट जाते हैं। कैसी है प्रभु की लीला ! उनका यह आश्रम मेरे लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण बन गया। वह तप एवं साधना, जिसके फ़लस्वरूप भूमा की सम्बद्ध परिधि में एक अभूतपूर्व दिव्यधारा निरन्तर प्रवाहित होती हो जिसके आवेग के समक्ष समस्त प्रकार के मल या आवरण टिक न सकें, मेरा अभीष्ट बन गए।
जिज्ञासा, जो मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, मेरे अन्तर में भी प्रवेश पा गयी। जिज्ञासा के जग जाने पर वह विकलता होती है कि रहा नहीं जाता, उसका समाधान खोजे बिना। 'तू चिन्मयी माँ है कि पत्थर की मूरत ? मेरी प्रार्थना से तो अब तक पत्थर भी पसीज जाता पर तेरे कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। तो ले तेरी ही तलवार से मैं उड़ा देता हूँ, अपनी गर्दन। क्यों नहीं दर्शन देती तू मुझे।' रामकृष्ण तलवार चलाने ही जा रहे थे अपनी गर्दन पर, तभी चारों ओर से एक दिव्य-प्रकाश फ़ूट पड़ा ! कहते हैं माँ ने बेटे का हाँथ पकड़ कर उसकी जिज्ञासा का समाधान कर दिया।
मेरे कानों में किसी ने ईसा का महावाक्य दोहराया - "दरवाज़ा खटखटाओ वह खुल जाएगा।"
इस कार्य में दयामय भगवान हमें पूर्ण सहायता देने को तैयार हैं। वह हमें आश्वासन देते हैं -
"तेषामेवानुकम्पार्थमहम ज्ञानजं तमः।
नाशयाभ्यात्मभावस्थो ज्ञान दीपेन भास्वता ।।"
[गीता 10/11]
हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अँधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
जीवन के अविस्मरणीय दिन जो भूले से भी नहीं भूलते। एक लहर सी आयी हुयी थी। जिस दिव्यज्योति की छटा का आभास मेरे अन्तर में होता, उसकी एक अभूतपूर्व चेष्टा, एक अन्तःप्रेरणा से निरंतर ओतप्रोत रहता कि इस जीवन-मधु को भू-पटल पर ऐसा बिखेर दूँ कि कोई भी प्राणी उससे अछूता न रह जाय। इसी प्रयास में मैं उद्विग्न सा रहता। जिस मन्दाकिनी में मैं स्नान कर रहा था उसी के प्रेमावेग से मेरी सारे जगत को ओतप्रोत कर देने की इच्छा होती।
मेरे एक बेटे और भी हैं, चि0 डॉ श्याम लाल। आध्यात्मिक पुत्र, किन्तु सम्बन्ध रक्त से भी निकट का। इन दिनों वह शासकीय सेवारत हैं। स्वास्थ्य-अधिकारी के पद पर स्थानान्तरित हो कर अभी कुछ दिन पूर्व ही वह दिलदारनगर [ग़ाज़ीपुर उ0 प्र0] पहँचे थे। उनके आग्रह पर मुझे भी वहाँ जाना पड़ा। वहाँ के प्रवास का यह मेरा प्रथम दिन ही था। मैं वहाँ पर इन्हीं डॉ श्याम लाल के निवास पर ठहरा हुआ था। सायंकाल जब वह अपने कार्य से वापस आये तो सत्संग प्रारम्भ हुआ। सद्गुरु नाम व रूप की चर्चा चल निकली। प्रेम विभोर हो चित्त हिलोरें लेने लगा। ईश्वर की कृपा जो निरन्तर प्रवाहित होती, उस क्षण भी उसी में हम डुबकियाँ लगाने लगे। कुछ समाधि जैसी चेतना जाग्रत होने लगी। प्रभु की जैसी इच्छा। उन्हीं के आह्वान पर मैंने चि0 श्याम लाल से प्रश्न किया - "आज सत्संग में यहाँ तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं दीखता।" उन्होंने उत्तर दिया - "अभी हम यहाँ कुछ सप्ताह पूर्व ही आये हैं। अतः नयी जान-पह्चान किसी से नहीं हो पायी है। इसके अतिरिक्त इस बस्ती में जहाँ हम रहते हैं अन्य कोई सत्संगी-बँधु नहीं हैं, न ही ऐसी अभिरुचि वाले किसी से अभी तक मेरा सम्पर्क हो पाया है।" प्रभु के उस अभूतपूर्व कृपा के आवेग में मुझे उनके उत्तर से सन्तुष्टि नहीं हुयी। मैंने तीन बार अपने प्रश्न की पुनरावृत्ति की। उनका उत्तर भी हर बार वही था। प्रभु की जिस लीलासार के उस क्षण हम दर्शन कर रहे थे, मैं चाहता था कि सब उसका अनुभव करें। किन्तु ऐसा न हो सका। वहाँ हम दो ही थे, और अन्य भक्त वहाँ न थे। उनकी यह कमी मुझे खल रही थी। आनन्द ह्रदय में समाता न था, मानों मधु-रस ही बरस रहा हो। इसे बाँटने की इच्छा होती, पर वाणी स्वयं उस अमृत में छकी हुयी थी। समस्त चराचर मानों अपने प्राणेश्वर थे। किसी से कोई क्या कहे, क्या सुने ? वह प्रकाश, वह शोभा, वह मञ्जुल आनन्द। नवीन आवेग ने पुनः हिलोर ली। मेरे जी में आया, उड़ेल दूँ इस अमृत को यहीं भू-पटल पर। बिखर जाय सारी धरा पर यह जीवन-पराग, यह मञ्जुल प्रवाह। कौन जानता था यही कल्याणकुंज बन जायगा किन्तु हुआ ऐसा ही। मैंने वहाँ उसी स्थान पर उस समस्त बस्ती की सम्पूर्ण परिधि पर शक्तिपात किया। एक परम रहस्य की अद्भुत लीला चरित्रार्थ होने लगी। इसी आत्मानन्द के व्यतिरेक में बेसुध हो जीवन और मृत्यु से ऊपर उठ कर आनन्दमयी उस दिव्य-शब्द की ध्वनि वहाँ कण-कण से प्रवाहित होने लगी। अब क्या ? मेरे जन्म-जन्म की लालसा पूरी हुयी। प्रभु ने स्वयं दया कर अपने दर्शन और स्पर्श से मुझे निहाल कर दिया। ह्रदय हिलोरें ले रहा था। प्राण बेसुध से थे। रोम-रोम नहा रहा था उस अमृत-वर्षा में। सभी मानों दिव्यधारा के प्रवाह के सुख से बेहाल हो कर मतवाले से नाच रहे थे।
"चर्चा करी कैसे जाय।
बात जानत कछुक हम, सो कहत जिय थहराय।"
प्रकृति व वातावरण के सत्संग में यह मेरा प्रथम प्रयोग था, जिसके परिणाम बड़े ही संतोषजनक रहे। मैं कुछ दिन के प्रवास के बाद वहाँ से वापस आ गया। डॉ श्याम लाल वहाँ कुछ समय और रहे। उनका कहना है कि जो अमृत-वर्षा उस दिन वहाँ हुयी थी, आज भी उस छटा के दर्शन होते हैं। मेरे एक और प्रेमी - डॉ चतुर्भुज सहाय भी कुछ दिन के लिए वहाँ गए। उन्होंने खुल कर वहाँ की स्थिति का वर्णन किया कि उस स्थान की भी स्थिति काकभुशुण्डि जी के आश्रम जैसी ही जान पड़ती है। वहाँ के स्त्री-पुरुषों की आन्तरिक स्थिति में स्वतः ही परिवर्तन हो रहा है और अनेकों भाई-बहन सत्संग में भी आने लगे हैं।
मैंने अंतर में अनुभव किया - यही प्रकृति-पुरुष का लीला विलास है, यही माया और माया-पति का अलौकिक महामिलन है। जगत का सारा आनन्द, सारा श्रृंगार, सारा माधुर्य, सारी शोभा और सारा लावण्य उस मूल संयोग की एक लहर का लीला-विस्तार ही है। सब कुछ वहीं से आ रहा है। वही मूल स्रोत है, वही सत्य-सनातन है। काकभुशुण्डि जी की साधना का फ़ल भी वही है और मुझ दास पर उस अलौकिक कृपा का आधार भी वही है।
आत्म-सुख की जो दिव्य एवं सुखद अनुभूति साधक को होती है, उसका प्रत्यक्ष प्रतिफल उसके आचार-विचार में होता है। वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर मानव-मात्र का जन्मजात प्रेमी बन जाता है। उसे प्रत्येक मानव में अपने आराध्य के दर्शन होते हैं और वह गदगद हो उठता है - "सियाराम मय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जग पानी।"
ब्रह्मविद्या युगों युगों तक परम गोपनीय तथा व्यक्तिगत रहस्य की स्थिति में अवस्थित रही है। अधिकारी पात्रों की कमी रही तथा इन-गिने ही लाभान्वित हुए। किन्तु क्षमा करें इस सम्बन्ध में मेरा किंचित भिन्न मत है। मैं ब्रह्मविद्या को मात्र 'विद्या' की कोटि में रखने का पक्षधर नहीं। विद्या कहाँ, वह तो जीवन ही है। उसे जिया जाय। प्रभु चन्दन के वृक्ष हैं और हम [उनके अनुचर] मानों वायु हैं। उनकी सुगन्ध को दिगदिगन्त में फ़ैला देना ही हमारी जीवन चेष्टा है, हमारा जीवन-लक्ष्य है।
रिआसत मुल्क़ मालवा [Princely state of Malwa], में प्राकृतिक छटाओं [splendorous] से भरा-पूरा एक आदिवासी [tribal] क्षेत्र है, ‘रावटी’ [वर्त्तमान ज़िला रतलाम, मध्य प्रदेश। इसी ग्राम में अपने कुछ प्रेमी-भाइयों के निमित्त, मार्च 1930 में मुझे वहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ चिकित्साधिकारी के पद पर मेरे एक अनुज [मेरे चाचाजी - चौधरी उल्फत राय अधोलिया के बेटे] डॉ कृष्ण स्वरुप तैनात थे, इनके अतिरक्त और भी दो प्रेमी हैं - सर्वश्री हीरा लाल जोशी व रेवा शंकर जी, जो कि वहीं पर चिकित्सालय के कर्मचारी हैं और मुझे अतिप्रिय हैं । इन्हीं सब के अनेकानेक प्रेमाग्रह पर मुझे रावटी जाना पड़ा। यहाँ की प्राकृतिक छटा, अनुपम सौंदर्य और अत्यन्त ही भोले-भाले ग्रामवासी इत्यादि कुछ ऐसे आकर्षण थे कि यह भूमि मुझे बड़ी भली लगी। लगता था इस स्थान को छोड़ कर अब कहीं न जाऊँ। मेरे जीवन का अब उत्तरार्ध है। व्यक्तिओं में शक्तिपात के माध्यम से भगवतकृपा व प्रभु-प्रेम का सञ्चार करने की प्रक्रिया के स्थान पर इस चेष्टा को प्रकृति की ओर उन्मुख कर दिया है जिसमें बनस्पतियाँ, पेड़-पौधे, भूमि, जल इत्यादि हैं। काक्भुशुण्डि के आश्रम बनाने के स्वप्न साकार करने को तत्पर हो गया हूँ। किसी भावना एवं शक्ति-संचार को खींचने की शक्ति व्यक्तियों की अपेक्षा इनमें अधिक होती है और उस सत-तत्व को अपने में अपेक्षतया अधिक समय तक सुरक्षित रख सकने की सामर्थ्य भी इनमें होती है। फलतः जब भी इनके संसर्ग में व्यक्ति आते हैं, इनके प्रभाव से अछूते नहीं रहते। यही कारण है कि इस स्थान में आज भी 'बृज' के दर्शन होते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो भी अभीष्ट प्रयोग, साधना की विकसित अपेक्षा सिद्ध होगी।
जड़ और चेतन श्रृष्टि के दो भाग हैं। पुरुष व प्रकृति इन्हीं के रूप हैं। पुरुष चेतन है, प्रकृति जड़ [inert] है। पुरुष भोक्ता है, प्रकृति भोग्या है। ये दोनों ही पदार्थ सर्वत्र प्रत्यक्ष हैं। "ईश्वर अंश, जीव अविनाशी" - जितने भी जीव हैं सभी परमात्मा के अंश हैं। जिस प्रकार अग्नि की चिंगारियाँ, अग्नि से भिन्न नहीं, दोनों वस्तुतः एक अग्नि हैं, उसी प्रकार जीव भी परमात्मा से भिन्न नहीं है।
"कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः पृकृति रुच्यते।" [गीता - 13/20]
कार्य और कारण के उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही गयी है। आकाश आदि पञ्च भूत [तत्व] तथा शब्द आदि पाँच विषय [गुण] इन दस का नाम, कार्य है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि व अहँकार इन तेरह का नाम, करण है। प्रकृति इन सभी का कारण है। अतः प्रकृति इनकी जननी होने के कारण सारा दृश्य-जगत प्रकृति का ही स्वरुप है।
प्रकृति, पुरुष का अंश नहीं है, वह उसकी शक्ति है। शक्ति, शक्तिमान से भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार प्रकृति व पुरुष निरन्तर एक-दूसरे में लय हैं। जब महाप्रलय होती है, उस समय सारा ही दृश्य-जगत लोप हो जाता है। जब यह क्रिया-रूप में होती है तब यह दृष्टिगोचर हो जाती है और जब अक्रिया रूप में होती है तब वह अव्यक्त रूप में रहती है।
मूल प्रकृति से समष्टि-बुद्धि की उत्पत्ति हुयी। इससे समष्टि अहँकार व समष्टि अहँकार से मन की उत्पत्ति होती है। इसी अहँकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाँच सूक्ष्म तन्मात्राओं की उत्पत्ति हुयी। समष्टि बुद्धि, समष्टि अहंकार और समष्टि मन ये तीनों, एक ही अंतःकरण की विभिन्न अवस्थाओं के तीन नाम हैं। इन्हीं तन्मात्राओं से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और आकाशादि पाँच स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। यही दृश्य जगत है। अब स्पष्ट है कि इस दृश्य जगत की कारण प्रकृति ही है। चूँकि वाणी, मन और बुद्धि प्रकृति के कार्य हैं। अतः इनके माध्यम से उसका वर्णन न तो किया जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। अतः वह अनिवर्चनीय, अचिन्त्य और अतर्क्य है।
प्रकृति व पुरुष दोनों ही अपने कार्य के माध्यम से सर्वव्यायक हैं । बर्फ़ में जल की व्यापकता की भाँति प्रकृति की व्यापकता तो समझ में स्पष्ट आ जाती है किन्तु अति सूक्ष्म होने के कारण पुरुष की व्यापकता उतनी शीघ्र व स्पष्ट रूप से समझ में यद्यपि नहीं भी आती फ़िर भी प्रकृति की अपेक्षा पुरुष की विशेष व्यापकता प्रतीत होती ही है। सृष्टि की रचना में प्रकृति यदि कारण है तो पुरुष [ईश्वर] उसका महा कारण। आकाश से वायु की उत्पत्ति, वायु से तेज की उत्पत्ति, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति, इत्यादि इत्यादि इन सभी की कारण रूपा प्रकृति इन सब में व्यापक है, यह समझ में आ जाता है। उस शक्तिमान पुरुष की यह प्रकृति, शक्ति-मात्र है। अतः सबका महा कारण वह चेतन पुरुष इस जड़ प्रकृति और उसके कार्य-रूप इस समस्त दृश्य सँसार में व्याप्त हो रहा है। चेतन पुरुष को स्वामी बना कर, उसकी अध्यक्षता में जब प्रकृति सृष्टि की रचना करती है, तब वास्तव में उसका रचयिता ईश्वर ही हुआ। प्रकृति तो निमित्त मात्र है। अतएव वस्तुतः ईश्वर ही इस सृष्टि का निमित्त कारण है।
मेरे इस वक्तव्य को ज्ञानी कृपया इस प्रकार समझें कि जैसे स्वप्न-द्रष्टा पुरुष अपने अंदर अपनी ही कल्पना से आप ही संसार बन जाता है और आप ही उसे देखता है, वहाँ उस चेतन दृष्टि के अतिरिक्त उस स्वप्न-जगत का दूसरा कोई भी उपादान कारण नहीं हैं, इसी प्रकार अज्ञान के कारण जहाँ गुणों सहित प्रकृति की प्रतीति होती है वहाँ वस्तुतः परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है और जो भक्त हैं उनसे मेरा निवेदन है कि - प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और शक्ति कभी शक्तिमान से भिन्न नहीं होती। यह दृश्य जो कुछ भी है, सब कुछ तो परमात्मा की ही शक्तिरूपा प्रकृति का ही विस्तार है। यह परमात्मा का ही स्वरुप है, परमात्मा ही इसका उपादान कारण है।
पुरुष से तात्पर्य है - आत्मा। उसके दो भेद हैं - जीवात्मा व परमात्मा। जीवात्मा अनेक हैं व परमात्मा एक। इन्हीं के मिलन को योग की संज्ञा दी गयी है। विषय को सीधा व सरल बनाने लिए इस प्रकार समझना चाहिए कि परमात्मा के भी दो भेद मान लिए गए हैं - सगुण व निर्गुण। सत, रज व तम - तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति के सहित जो परमात्मा का स्वरुप है वह सगुण है, इसके अतिरिक्त जो गुणरहित है वह निर्गुण है। सगुण व निर्गुण दो मान्यताएँ या मार्ग अवश्य हैं किन्तु वस्तुतः परमात्मा एक ही है।
मैं कोई 'दर्शन' का ज्ञाता नहीं। मैं तो मात्र एक साधक हूँ। उन दिनों विचार में कुछ इसी प्रकार के दर्शन उठते व विचार-मग्न अन्दर ही अन्दर उन पर प्रश्नोत्तर होते। कभी-कभी, इनसे सम्बन्धित जो पुस्तकें हैं, उनका स्वाध्याय व अनुशीलन भी करता। जब-जब में कुछ ढूँढता हूँ और उसे नहीं पाता तो तुरन्त ही मां के पास दौड़ा जाता हूँ। उसकी महान अनुकम्पा है। गँगा से भी विशाल व पवित्र अंतःकरण है उसका। महान दात्री है वह। प्रेमावेश में मग्न मैं उसके अन्तर से सारा ज्ञान, सारी शक्ति, सभी कुछ मानों स्तनों से दुग्ध के रूप में खींच लेने का मन ही मन प्रयास करता हूँ और यह प्रेमिल प्रयास मेरे अधरों पर स्मित का सञ्चार कर देता है। और उल्ल्हास में भर कर माँ के वक्षस्थल का आँचल खींचते हुए अपना मुख उसमें छिपा लेता हूँ। ज्ञान-गंगा का प्रवाह अविरल बहता है, कहाँ समेटूँ, कैसे सँवारुं उसे ?
अह्मब्रह्मः की स्थिति में पदार्पण करने की पहली शर्त है - अहँकार का सर्वदा परित्याग। भक्ति के प्रतीक स्वयं 'हनुमान' से तात्पर्य है; ’हनु’ अर्थात, मारना और मान अर्थात प्रतिष्ठा का, स्पष्ट है अपने अहंकार को मार कर समाप्त कर चुकना। जो 'अह्मब्रह्म' की स्थिति में प्रवेश करना चाहता है वह सर्वप्रथम 'हनुमान' को समझे और अपने अहँकार का त्याग व नाश करे। भक्ति का परम तत्व यही है।
“औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।”
[मानस 07 - 45]
अर्थात ; "और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सब से हाँथ जोड़ कर कहता हूँ कि शंकर जी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।"
चूँकि स्वयं श्री हनुमानजी भगवान शिव के अवतार हैं , जो कि प्रभु श्री राम के चरणों में सदा-सदैव उपस्थित हैं, अतः यहाँ पर 'गुप्त मत' के अनुसार संकेत हनुमानजी के लिए ही है। जो साधक आगे के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं उनको मेरा परामर्श है कि इस स्थिति को प्राप्त करें क्योंकि मात्र यही स्थिति है जहाँ पूर्ण सुरक्षा की आशा की जा सकती है। यहाँ माया या भ्रान्ति का वास नहीं होता। परिधि में वास करने वाले साधक के मन में विकार या अज्ञान की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। यही स्थिति काकभुशुण्डि का पावन आश्रम है। यही निशा-नीड़ है।
माँ गीता की वाणी है कि इस 'निशा-नीड़' में प्रवेश कर वास करने के निमित्त - सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी तीन प्रकार की माया का सामना करना पड़ता है। महान भक्त, साधक एवं योगी हनुमान को अपने अभीष्ट के मार्ग में जो मायाएँ मिलीं, वे थीं सतोगुणी - देवलोक से आयी हुयी 'सुरसा', तमोगुणी - अधोवाहिनी 'सिंहिका', जो उड़ते हुए पक्षियों की छाया को पकड़ कर उन्हें खींच लेती थी, तथा रजोगुणी - 'मध्यलोकस्थ लंकानिवासिनी लंकिनी' ।
"ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।
[गीता 14/18]"
सतोगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को प्राप्त होते हैं। रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य-लोकों में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनिओं को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।
इस देववाणी के साथ ही ध्यान की कुछ अवस्थाएँ अवतीर्ण होतीं हैं जिनके द्योतक साधक के रूप में स्वयं हनुमान जी ही हैं। उन्हीं की कृपा से मुझ मुमुक्ष को भी अह्मब्रह्म की परिधि या काकभुशुण्डि जी के आश्रम में प्रवेश पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
"जात पवन सुत देवन्ह देखा। जानै कहु बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहि बाता।।
आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा ।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कई सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
तब तव बदन पैठिहउँ आयी। सत्य कहौं मोहि जान दे माई।।
कवनेहू जतन देह नहिं जाना। ग्रससि न मोहिं कहेउ हनुमाना।।"
[मानस 05 -01-01-05]
देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनके विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए [परीक्षार्थ] उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। उसने जा कर हनुमान जी से यह बात कही - "आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है, यह वचन सुन कर पवनकुमार हनुमान जी ने कहा श्री राम जी का कार्य करके लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ, तब मैं तुम्हारे मुहँ में स्वयं प्रवेश कर जाऊँगा, तुम मुझे खा लेना। हे माता ! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे।" जब किसी भी उपाय से जाने नहीं दिया तब हनुमान जी ने कहा - "तो फ़िर मुझे खा ले ।"
इतना सुनते ही उसने एक योजन मुहँ फैलाया। हनुमान जी 'रा' 'म' राम रुपी दो अक्षरों के बल से दुगने बढ़ गए।
"जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप दिखावा।।" तब सुरसा ने नारी प्रकृति के अनुसार उससे आठ गुना अर्थात सोलह योजन में मुख का विस्तार किया। मारुति जी को तो दो अक्षरों का ही भरोसा था - "प्रीति प्रतीत है आखर 'दू' की, तुलसी हुलसी बल आखर 'दू' को " इस लिए वह फिर दुगुने अर्थात बत्तीस योजन बढ़ गए। तब तो सुरसा ने किसी नियम को न मान कर सौ योजन का मुहँ फैलाया। हनुमान जी ने सोंचा कि सौ योजन समुद्र पार करने की बात थी, अवधि आ पहुँची, अतएव इसे भी पार करना ही चाहिए। तब "अति लघु रूप पवनसुत लीन्हां।" छोटा सा रूप बना कर उसके मुहँ में घुस गए और झट से बाहर निकल कर आज्ञा माँगने लगे - "बदन पैठि पुनि बाहर आवा। माँगी विदा ताहि सिर नावा।" [मानस 05-01-11]
यह जीव भक्ति की खोज में परमार्थ-पथ पर चलता है, तब उसके लिए तीन प्रकार की गुणमयी मायाएँ बाधक होती हैं। इन तीनों के साथ हनुमान जी के सदृश्य हो ब्यवहार करना चाहिए। सत्वगुणी का विशेष विरोध न करें, क्योंकि शुभ कर्मों की प्रवृत्ति से विरोध करना उचित नहीं। प्रत्युत उन्हें तो निष्काम भाव से करते रहना चाहिए और निवृत्ति के लिए भजन के हेतु उसके संग निर्वाह भी असंभव है। अतः उसके अनुकूल होते हुए भी अपने को छोटा बना कर उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करें। उसमे प्रवृत्त न हों क्योंकि दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तिओं का त्याग करना भगवत प्रेमियों के लिए श्रेयस्कर है। "त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहिं सुर नर मुनि नायक।" किन्तु तमोगुणी माया को सिंघिका की भाँति जान से मार डालें क्योंकि पाप-कर्मों का लेश भी परमार्थ के लिए अत्यंत घातक है। रजोगुणी माया को अधमरा करके छोड़ दें, क्योकि इसका सर्वथा निराकरण कर देने से अवलम्बहीन जान पड़ने लगेगा।
ज्ञातव्य है कि सर्प अहंकार का उपमेय है। यहाँ पर साधक की परीक्षा के लिए सर्पों की माता ["सुरसा नाम अहिन्ह कै माता"] को भेजा गया, यह देखने के लिए कि उसका अपने अहँकार पर किस सीमा तक अधिकार है। किन्तु हनुमान जी तो इस विषय के मानों आचार्य ही हैं। दीनता और विनय तो कोई उनसे सीखे। बार-बार वह अपने को लघु से लघुतम रूप में अवस्थित कर लेते हैं। बड़ा ही अच्छा अभ्यास है उनका।
अपने प्रभु के प्रेम की साधना का अपना अलग ही आनन्द है, जहाँ एक बार लौ लगी सो लगी। उनके प्रेम की एक नन्ही सी चिंगारी सब कुछ आत्मसात करा देने के लिए पर्याप्त है। हृदय के भीतर मात्र एक बार अपने स्वामी के दर्शन की एक झलक मिलते ही बाहर-भीतर, सर्वत्र, कण-कण में उन्हीं के दर्शन होते हैं।
जहाँ भी दृष्टि जाती है वहीं मुस्कराते हुए दृश्टिगोचर होते हैं। मुझ दास पर कैसी-कैसी अनुकम्पा की गयी है ? क्या यही था मेरी साधना का उद्देश्य, यही था मेरी पूजा का प्रसाद ? जिस घूँघट में से अपने प्रियतम के कभी हाँथ, कभी पैर, कभी आँख, कभी कान कठिनाई से दिखते थे, जी भर कर उस प्यारे का आलिंगन प्राप्त हुआ है।
आत्मसाक्षात्कार की गति ऐसी ही थी और थी उस घड़ी की सुखानुभूति भी कुछ ऐसी ही। अपने ध्यान के मध्य अंतर्मुखी हो कर मेरा प्राण क्रीड़ाएँ करता भीतर-भीतर जा पहुँचा। ऐसा लगा मानों इस शरीर की कोई अन्तिम सीमा न हो वरन समस्त सृष्टि की व्यापकता हो। अन्दर ही अन्दर भीतर की जो दीवारें थीं, वे सारी सृष्टि की ही परिधियाँ जान पड़ीं। प्राण उनमें निर्द्वन्द विचरने लगा। वहाँ अन्यत्र कोई न था। मैं ही मैं था। एक ऐसी स्थिति थी जो वाणी से परे थी। न वहाँ राग था न द्वेष, न प्रेम था न घृणा, न इच्छा थी न अनिच्छा इत्यादि कोई भाव ही न था, कोई द्वन्द्व न था। यही ब्रह्मपद था। यही काकभुशुण्डि जी का आश्रम था। यही था मेरा निशा-नीड़। मैं यहीं वास करता हूँ। मैं यहीं वास करूँगा। अब यह शरीर मेरे लिए बन्धन नहीं है। सारी सृष्टि की परिधियाँ ही मेरा शरीर हैं एवं मात्र मैं ही उसमें वास करता हूँ।
साधारणतयः हमारी अपनी गति कैसी है ? सुनें। एक ओर विषय-समूह की उत्ताल तरंगों से युक्त भोग-सागर और दूसरी ओर स्थिर शान्त सत्पुरुष ज्योतिर्मय ब्रह्म, एक ओर अनेकानेक काम-वासनाओं से ओतप्रोत चञ्चल मन और काम, क्रोधादि उसकी सेना तथा दूसरी ओर आनन्द-घन-शान्त आत्मा। ये दोनों चञ्चल और शान्त भाव बाहर संसार में तथा अंदर अपने मानस-मंदिर में सदा-सदा से वास करते हैं, परमानन्द को प्राप्त आत्मा अर्थात शान्त एवं प्रकाश स्वरूप चेतना तथा आनन्दमयी एवं अविनाशिनी और इसके अतिरिक्त सब जगत जो भी दृष्टिगोचर है, दुखमय और अनश्वर। इधर बाहर संसार की स्थिति है -
"पुरइन सघन ओट जल, बेगि न पाइय मर्म।
मायाछन्न न देखिए जैसे निर्गुन ब्रह्म।।
[मानस 03 /39 क]
और दूसरी ओर अन्तर की स्थिति है -
"भूमि परत भा डाबर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी।।
[मानस 04/13/06]
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहस सुख रासी।।
सो माया बस भयउ गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाईं।।
जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।”
[मानस 07/116/02 - 04]
आन्तरिक स्थिति के सम्बन्ध में 'कठ' की वाणी भी अवलोकनीय है -
"पराञ्चि खानि व्यतृणत स्वयंभू स्तस्मात्परांगव्पश्यति नान्तरात्मन।
[कठ 02/01/01]
स्वम्भू [परमात्मा] ने इन्दिर्यों को बहिर्मुख इस लिए किया है कि स्वास्थकर, सुबुद्धिदायक विशुद्ध विषयों को ग्रहण करें किन्तु अविविवेकी विषयासक्त हो जाते हैं जिससे जीव वाह्य विषयों को ही देखता है, अंतरात्मा को नहीं। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य भौतिक सुख को ही सुख मान कर उसके ही प्रयत्न में लगा हुआ है और उसके भोग में ही सुख है, ऐसा उसको विश्वास हो गया है। परन्तु वास्तव में वह भ्रम में ही है, क्योंकि सुख या आनन्द आत्मा के अतिरिक्त और कहीं है ही नहीं। यह वैषयिक सुख भी आत्मा के सम्बन्ध से ही प्राप्त होता है -
"अस्थि पुरान क्षुधित स्वान अति ज्यों भरि मुख पकरै।
निज तालू गत रुधिर पान करि मन संतोष धरै।।
[विनय पत्रिका 92/04]
जैसे बड़ा भूखा कुत्ता पुरानी हड्डी को मुख में भर कर पकड़ता है और अपने तालू ,में अड़ जाने से जो रक्त निकलता है उसे पी कर मन में संतोष करता है।
जिस साधक को वास्तविक आनन्द की इच्छा होती है, वह फिर उसके उदगम स्थान को ही ढूँढता है -
कश्चिद्वीरः प्रत्यगात्मानमैक्षडावृत्त चक्षुरमृतत्वमिच्छन्न।
[कठ 02/01/01]
जिसने अमृत्व की इच्छा करते हुए अपनी इन्द्रियों को रोक लिया है - वाह्य विषयों से समेट लिया है, ऐसा कोई धीर पुरुष ही अंर्तात्मा को देख पाता है। भगवान कृष्ण ने गीता में भी यही कहा है -
यदा संहरते चायं कूर्मोsङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणींन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
[गीता 02/58]
जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है वैसे ही जब पुरुष सब ओर से इन्द्रियों के विषयों से अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। योग की दृष्टि से यह प्रत्याहार है। क्योंकि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्बन्ध न रख कर चित्त के स्वरुप हो जाना ही प्रत्याहार है।
साधना के फलस्वरूप एक और बात सामने आती है कि जब इन्द्रियों को विषयों से हटा कर अन्तर्मुखी किया जाता है तब मन में संकल्प-विकल्प अत्यन्त ही गतिशील हो जाते हैं। सामान्य स्थिति की अपेक्षा मन की उछल-कूद की गति अत्यन्त बढ़ जाती है और इन्द्रियद्वारों से बाहर निकल कर भोग की प्राप्ति के निमित्त [देखने-सुनने को] व्याकुल हो उठता है। ऐसी स्थिति में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। इस स्थिति में सद्गुरु नाम व रूप के आधार पर उनके कृपा-सागर स्वरुप का आव्हान करना ही श्रेयस्कर है। इससे वाह्य विषय-समूहों की व्याकुलता धीरे-धीरे छूट जाने की आशा सकती है।
यह योग का मार्ग है। साधक को अपने इष्ट के स्वरुप में चित्त लगाना, ध्यान करना, विभिन्न चक्रों के स्थान पर जिस शब्द की दिव्य-ध्वनि को, यदि ज्ञात हो, सुनने का अभ्यास करना चाहिए।व्यर्थ चक्करों में नहीं पड़ना है। योगी-भाव तथा भक्त-रूप की भावना करना है। आवश्यकता मात्र ईश्वरीय भावना की है।
यही ज्ञान है। इसकी एकाकार तैलधारावत अविच्छिन्न वृत्ति का प्रवाह ही ध्यान है, ध्येय के अतिरिक्त और कोई ज्ञान या संकल्प बीच में न आने पावे, एकाकार प्रवाह होता रहे, यही ध्यान है। इसके प्रवाह से वृत्ति अंतर्मुखी होगी। तब आत्मानुभव करना चाहिए। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म वृत्त्ति को भी लय करते-करते जब एकमात्र ज्ञान ही शेष रह जाय और ज्ञान ही नहीं अपितु उस अवस्था का जो दृष्टा या साक्षी है, उसी को अपना स्वरुप समझें। अन्त में साक्षी-साक्ष्य भाव भी नहीं रहेगा।
कठ0 का सन्देश भी यही है -
"एष सर्वेषु भूतेषु गुढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।।
[कठ0 01/03/12 ]
"यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।”
[कठ0 02/03/10]
पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के सहित आत्मा में स्थिर हो जातीं हैं और बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती, वह परमगति है। उस अतीन्द्रिय और केवल शुद्ध बुद्धि ग्राह्य आनन्द को [यहाँ पर बुद्धि ग्राह्य भी कहना ठीक नहीं बनता केवल लक्ष्य निर्देश के लिए ही ऐसा कहा जाता है।] अपनी आत्मा में स्वयं ही अनुभव करता है तथा उससे बढ़ कर और कोई सुख न मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी विचलित न हो कर उस आत्यान्तिक आत्म-सुख को ही सर्वोपरि सुख समझ कर उसमें ही सन्तुष्ट रहता है।
योगमार्ग से आत्मानुभव-रूप उपासना होती है।मूँज के अन्दर से सींक [the jointed stalk of the grasses] के अनुसंधान की भाँति ह्रदय एवं बुद्धि रूप गुहा में ही आत्मदर्शानुभूति होती है। भक्ति मार्ग में सगुण-ध्यान में भी यही बात है, कोई भेद नहीं है। केवल कहने मात्र के लिए साधन भेद है। साध्य-तत्व एक ही है। उसमें भी हृदय-कमल में भगवान् के रूप का ध्यान करता हुआ सम्पूर्ण छवि का ध्यान करता है और फ़िर केवल मुख-कमल की भावना करते हुए भगवान के शुद्धस्वरूप में आरूढ़ हो जाता है और कुछ भी चिंतन नहीं करता। इस प्रकार तीव्र ध्यान-योग से वह भक्त भगवान के शुद्ध स्वरुप में तदाकार हो जाता है और अपने में परमात्मा को प्राप्त करता है।
"सो तै तोहि तोहि नहिं भेदा, वारि बीच इव गावहिं वेदा।"
अतः अपने ह्रदय गुहा में अपना ही अनुसन्धान करना, अपने ही अधिष्ठान का अनुभव करना, उसी तत्व की ही उपलब्धि करना है, जो सबमें है।
आने वाले कल की यह पूर्वसन्ध्या है। चलते चलते हम पर्याप्त आगे निकल आये थे। आइये चलें। मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ जहाँ मेरे जीवन की सम्पूर्ण आयु बीती है। मेरा बचपन, मेरी युवावस्था और अब यों मेरे जीवन का उत्तरार्ध आ पहुँचा।
एक छोटा सा, सुन्दर व सौम्य नगर, फतेहगढ़ [फर्रुखाबाद-फतेहगढ़ युगमनगर], और गंगा का यह पावन तट अति ही प्रिय है मुझे। हरी-भरी वृक्षावलि से सुसज्जित पावन तटों के सहारे कलकल-वाहिनी यह अमृत सरिता, अनन्त तक फैलीं पुण्य-स्थलियाँ, इन्हीं के झुरमुटों में सजी, सँवरी सी यह पवित्र भू-स्थली सदा-सदा से संतों, ऋषियों, महर्षियों की साधना भूमि रही है। अनेकानेक चोटी के ऋषी, तत्वदर्शी, ज्ञानी, कवि, प्रियजन इस क्षेत्र में जन्म लेते आये हैं। और ऐसे पवित्र वातावरण में चारों ओर प्रकृति सुंदरी अपनी सम्पूर्ण सुषमा पसारे बैठी है - ऊषा-संध्या, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत की बहारें हैं, आकाश के तारे, धरती के पुष्प चारों ओर अपनी चमक, अपना सौरभ, अपना निराला सौंदर्य प्रदर्शित कर रहे हैं। और इसकी निशा तो मानों साधना का स्वर्णिम साधन रही है। "या निशा सर्वभूतानां तस्य जाग्रति संयमी" का उदघोष ऐसे ही किसी साधक का रहा होगा।
चक्षु देखते हैं, सारी प्रकृति, सारे दृश्य एवं सौंदर्य किन्तु इस आदिसौंदर्य की रानी विभावरी पर तो ऋषि भी लट्टू ही हो गए। अनेकानेक ऋचाएँ उपनीत कर न्योछावर कर डालीं हैं, उसकी प्रशस्ति में। परमप्रेरिका प्राणदायिनी ऊषा के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए ऋषि कहते हैं -
"आ घा योषेव सूनर्युंषा याति प्रभुञ्जति। जरयन्तीव्रजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः।।
[ऋग्वेद 01/48/05]
उषा सुन्दर युवती की भाँति आती है, सबको आनन्दित करती हुयी सारे प्राणि-जगत को वह जगाती है। मनुष्यों को वह काम पर भेजती है और पक्षियों को गगन में बिहार करने की प्रेरणा देती है।
यह है वैदिक दृष्टिकोण की आभा की एक झलक।काव्यचेतना की जागृति के फ़लस्वरूप उन्होंने प्राकृतिक पदार्थों को ऐसे प्रगाढ़ मनोभावों और कल्पनाशक्ति द्वारा देखा कि उन्हें वे आत्मा की भावना से परिपूर्ण प्रतीत होने लगे। उनके लिए प्रकृति [मात्र जड़ न हो कर] एक जीवित सत्ता थी जिसके साथ वे प्रेम जोड़ सकते थे। ऐसी ही ममतामयी प्रकृति मेरे लिए मेरी इस साधना-स्थली फतेहगढ़ की रही है।
यदि यह सम्पूर्ण जगत माया ही है तो ऋषिकृत ऐसे दृष्टिकोण हमें सतोगुणी चेतना में अवस्थित करते हैं, जहाँ हमें यह प्रकृति, यह सँसार अति सुन्दर प्रतीत होता है एवं स्वभावतः हम उसके आकर्षण में खो जाते हैं व उसके रचैता की मनोवैज्ञानिक कल्पना करते हैं, उसके हर कृत्य में हमें वह ही वह दृष्टिगोचर होने लगता है।
"रुशद्वस्ता रुशतीश्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः।
समानबन्धु अमृते अनूची द्यावा वणं चरत आमिनाने।।"
[ऋग्वेद 01/113/02]
श्वेतवसना उषा और कृष्णवसना रजनी के बीच में है प्रकाशमान बाल-रवि। उसे मानों दुलारती हुयी दो माताएँ एक दुसरे की ओर उछाल रही हैं। रात्रि उषा की ओर, उषा रात्रि की ओर। कैसी है छटा उत्प्रेक्षा की।
इसके अतिरिक्त साधना के अंतराल में माया का एक तमोगुणी रूप भी सक्रिय रहता है जो अत्यन्त ही घिनौना व क्लेशकर होता है।
प्रसंगवश निवेदन करूँ कि उन दिनों मेरे एक अज़ीज़ चिरंजीव राम चन्द्र [शाहजहाँपुर] ने मुझ से 'शग़ल-ए-राबितः' के बारे में जानकारी ली और मेरी इजाज़त ले कर उस पर अभ्यास करना प्रारम्भ कर दिया था। चूँकि यह एक महत्वपूर्ण विषय है अतः आम- जानकारी के लिए उसका उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है।
मुर्शिद और गुरु की मिस्ली शक़्ल, उसकी हरक़ात, सकूनत, अख़लाक़ और आदत की तरफ़ अंदर दिल में नज़र रखना या याद-दाश्त क़ाइम करना, उसका ध्यान बांधना, सूफ़ियों और संत-मत के शाग़िलों और साधकों के यही रायज़ हैं। इसको 'शग़ल-ए-राबितः' कहते हैं और बरज़ख़े-पीर भी इसका इस्तेलाही [परिभाषक] नाम है। चित्त को एकाग्र करने के लिए यह अमल [अनुष्ठान] ऐसा पुरतासीर है कि जादू की तरह अपना करिश्मा दिखलाता है। बल्कि और रास्तों से यह रास्ता क़रीब और काम को सहल कर देता है। लेकिन शर्त यह है कि जिस 'मुर्शिद' का ख्याल बाँधा जावे वह मुक़म्मिल हो और संतमत-गुरु की हैसियत रखता हो। जिसके बातिन का तस्फ़ियः [निर्णय] और तज़्कियः [शुद्ध करना] हो चुका हो और माया की हद के पार पहुँचा हो, वर्ना फ़िर साधक मायाजाल का बंधुआ हो कर और भी जकड़-बन्द हो जाएगा और शैतात-सिफ़त हो जाएगा। इसलिए निहायत एहतियात लाज़िमी है कि हर शख़्स का ध्यान न बाँधा जाय। बुज़ुर्गों ने इसीलिये इसकी क़तई मुमानियत कर दी है।
संतमत में शुरू-शुरू में सत्संग के वक़्त मुर्शिद के चेहरे पर दोनों भोंओं [eye-brows] के दरम्यान नज़र जमाने को इशारा किया जाता है। यह बाहरी शक्ल जमाली की तरफ़ इशारा है लेकिन अंदर की तरफ़ अभ्यास करने के लिए मुक़ाम और जगह और ख़ास हिदायत दी जाती है, जो ज़रूरत के वक़्त और मौका के साथ इसकी तरक़ीब साधक को बतायी जाती है। आमतौर पर खुले हुए तरीक़ से इश्तिहार करने की मुमानियत है और वजह मुमानियत की ज़ाहिर है कि बेसमझ लोग शौक़ में आ कर बिला मौका और मुनासिबत के इस अमल का बेजा इस्तेमाल न कर डाले। खुद मुसीबत में फ़सेँ और दूसरों को आफ़त में डालें।
बाज़ तरीक़ के गुरु इस शग़ल-ए-राबित: का उस वक़्त तक हुक़्म नहीं देते जब तक यह नहीं देख लेते हैं कि साधक में प्रेम का चश्म: [स्रोत] उबल पड़ा है या मोहब्बत का जज़्बा भड़क उठा है, उसको ऐसी उमंग आयी हुयी है कि बग़ैर कहे-सुने ख्वामख्वाः वह शक्ल को सामने रखने लगा। अगर ऐसा ग़लबः [प्राचुर्य] मोहब्बत का हो जाय कि शक्ल दूर करने से भी न हटे तो यह क़ुदरत का तक़ाज़ा है और लहर रुख़ बहाव की तरफ़ है वर्ना ज़बरदस्ती क़ाइम करना एक तरह का हठ है जो मूर्ति-पूजन की हद में आ जाता है। इस हठ और ज़बरदस्ती शग़ल करने का वही नतीज़ा होता है जैसा कि अक्सर तरीकों में 'अनहद' शब्द सुनने के लिए कानों में उँगलियाँ लगाना और 'ठड्डा' ठूँसने से जो नतीज़ा होता है कि 'शब्द' तो सुनायी दे जाता है, मगर आरिज़ी [लत] जिसमें बीमारी का भी शुबह रहता है।
इस शग़ल का असली मतलब और फ़लसफ़ः मुख़्तसर [संक्षेप] और इशारे के तौर पर इतना कह देना काफ़ी है 'बरज़ख़' - कहते है दर्मियानी चीज़ को जो एक-दुसरे के साथ जोड़ देने में ज़रिया या वास्ता हो। 'पीर' या 'गुरु' दर्मियानी-मीडियम है, परमात्मा से जोड़ने का। अगर यह समझ में न आये तो इस तरह ख्याल करना चाहिए कि 'आईना' [mirror] वास्ता है अपनी शक्ल देखने का ; किताब ज़रिया है इल्म का ; उस्ताद वास्ता है किसी फ़न [विद्या] के हाँसिल होने का ; धातु या पत्थर की मूर्ति परमात्मा की याद दिलाने का एक ख़ास जरिया है। इसी तरह ज़िंदा गुरु और भी मुक़म्मिल आदर्श है, ब्रह्म से नज़दीक़ी हाँसिल करने का। बिना शुबह गुरु की शक्ल-मिसाली साधक और ब्रह्म के दर्मियान एक जीता-जागता वास्ता है। उसके आदत अख़लाक़, तर्ज़े-अमल, दुनियाबी व्यवहार और रूहानियत का प्रभाव साधक में बिजली की तरह उसके दिल और दिमाग़ में दाख़िल हो कर सरायत [प्रभाव] करता है और हमदम रूह ताज़ा फूँकता रहता है।
यह अमल रस्ते की मुश्किलें दूर करने के लिए या दूसरे अभ्यासों की रूखी-फींकी रुकावटों [rough and tumble interruptions] को आसान बना देने में बड़े काम की चीज़ है। लेकिन जिस साधक को यह ख़्याल अज़ख़ुद पैदा हो जाय और सामने से न हटे और दूर करने पर भी अलहदा न हो और फिर इसके साथ इसकी वजह भी समझ में न आवे तो वाक़ई इस क़दर जल्द रास्ता आसानी से तय हो जाता है कि अपने को और दूसरे सीखने वालों को तब्दीली हालत पर एक ताज्जुब हो जाता है। एक साधक से यह इत्तिला मिली है कि चलती हुयी शक्ल का तसव्वर निहायत आसानी से हो जाता है। बैठी हुयी शक्ल का ज़रा ग़ौर [चिंतन-मनन के बाद] से होता है और लेटी हुयी शक्ल का बहुत ही मुश्किल से होता है। इसका क्या भेद है ? जवाब इसका बहुत साफ़ है। [01]चलती हुयी शक्ल जीती-जागती हुयी कर्मयोगी के आदर्श और उसके रूप को दिखलाती है। [02] बैठी हुयी हालत यह इशारा करती है कि उस शक्ल में कर्म की शान की झलक तो है और कर्म करने को मुस्तैद [तत्पर] है मगर कर्म करने को खड़ा हो गया है। उम्मीद है कि मुस्तैद और कर्मवीर हो जाय। [03] लेटी हुयी शक्ल सहज ज़िन्दग़ी की मूर्ती है ; इसमें हरक़त नहीं, यह जमूदी [तामसिक-अवस्था] क़ैफ़ियत है। यह सुषुप्ति [ख़्वाब ग़फ़लत] अंधकार, अज्ञान की हालत है।
अब साधक की तरफ़ से इन हालात को लीजिये और उनसे नतीजा बरामद कीजिये कि साधक ने जमूदी [तामसिक] कैफ़ियत से तरक़्क़ी की है और हालात दरम्यानी बैठी हुयी हालत को पार करके आख़िरी मुस्तैद और ज्ञान की क़ैफ़ियत पर आना शुरू किया है। शाग़िल की धारणा न अब तामसिक है न राजसिक। चलती-फ़िरती हुयी चीज़ में ध्यान का लग जाना धारणा की तेज मश्शाक़ी का सबूत है। मिसाल से इस तौर पर समझना चाहिए कि चित्त की धारणा ठहरी हुयी चीज़ पर भी न जम सके, लेकिन मश्शाक़ी के सिलसिले में हलके-हलके घुमते हुए चक्कर पर ठहरने लग जावे और फ़िर आख़िरकार निहायत तेज़ी के साथ घूमते हुए चक्कर या हल्क़ः [परिधि या मण्डल] पर जमने लगे, और ऐसी तवज्जः ठहर जाय कि चलती हुयी शक्ल पर आसानी से ध्यान लग जाने लगे तो फ़िर अब क्या नतीज़ा निकालना चाहिए।
चलती-फ़िरती हुयी शक्ल कर्मयोगी और कर्मवीर ज्ञानी की मूर्ती है और ज़िंदा तस्वीर है, जिस पर आसानी के साथ नज़र का ठहराव हो जाना इस बात की दलील है कि शाग़िल की नज़र इस असर के क़बूल करने को मुस्तैद है और मुनासिबत ने काफ़ी इस्तेदाद [किसी चीज़ से प्रभावित होने की योग्यता] को क़बूल कर लिया है। उपनिषद् यह सन्देश देती है कि 'उठो, जागो, चलो और चले चलो और कभी ठहरने का नाम न लो'।
साधक ज्यों-ज्यों अपने इष्ट के निकट आता जाता है जहाँ कि उसका उद्गम स्थान है वह तमोगुणी माया अत्यंत ही विकराल रूप धारण कर उसका पीछा करती है। मेरे उपरोक्त अज़ीज़,
बाबू राम चन्द्र [शाहजहाँपुर] के निम्नलिखित पत्र और उन्हें दिए गए मेरे उत्तर से पूरी बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जावेगी।
“शाहजहांपुर
31 अक्टूबर 1929 [AD]
“मेरे दोनों जहाँ के श्रद्धेय मालिक, ईश्वर आपको दीर्घायु करे।”
"अर्ज़ यह है कि मुझे जो हालात हाल में गुज़र चुके हैं और गुज़र रहे हैं, इनकी इत्तिला देना ज़रूरी है। 01 नवम्बर सं 1929 ईस्वी को 08 बजे रात के एक अंदरूनी हालत का उभार पैदा हुआ और इससे अपनी हालत का नक़शा पेश नज़र हो गया। यह हालत हमाँदम [तत्क्षण] और सरापा [नितान्त] थी। ख़याल उस हालत से मिल कर एक हो रहा था। या यूँ कहना चाहिए कि ग़र्क़ [निमग्न] हो गया था और वह हालत अनामूर्शिद अज़ सरतापा [सर से पाँव तक] का ख़याल पैदा कर रही थी मगर जोश के साथ, यानि हर बात उसमें लय हो कर असल हो गयी थी। हिम्मत बेशुमार थी और यह जज़्बात मौजूद थे कि हर काम कर सकता हूँ। और अपने आप को क़ादिर [समर्थ] व मालिक हर शै का समझता था। थोड़ी देर इस ख़्याल में मह्व [तन्मय] रहा। मगर हद से ज़्यादः बाहिम्मत होने और ऐसे जज़्बात उठने को मैंने अहंकार समझा, इसलिए जिस हालत में कि मैं घुसा हुआ था निकल कर हलके ख़्याल से कुछ देर इस हालत की तरफ़ रुज़ू रहा बाद को खाना खा कर लेटा, क़रीबन 10.00 बजे रात के मीराबाई का भजन गाने लगा - "मोरे मन राम राम दूसरा न कोई।" फ़िर वही समां बंध गया। हालत मज़कूर [उपरोक्त] दिन में अक्सर पैदा होती रहती है। मगर इस क़दर बेखुदी और गुमशुदग़ी नहीं होती, और न हालत खुल कर पेश-नज़र उस दर्ज़ा तक होती है। अलबत्ता जहां तक मेरा ख्याल नाक़िस पहुँचता है खुद-फ़रामोशी महसूस होती है। हालत ज़्यादःतर बेक़ैफ़ी और ए'तिदाल [संतुलन] की रहती है और फ़नाईयत का एहसास दिलाती है।”
"दूसरा पक्ष भी अति आवश्यक है जिससे मेरी चारित्रिक स्थिति पर प्रकाश पड़ेगा व इसकी सूचना आदरणीय श्रीमानजी की सेवा में भी हो जायेगी, वह यह है कि घर में इतना दुखी किया जाता हूँ कि कभी-कभी भाग जाने को और कभी सिर फोड़ लेने की इच्छा होती है, यद्यपि इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। घर पर पहुँचते ही कोई न कोई स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि अकारण ही क्रोधित हो उठता हूँ अथवा मैं स्वयं ही निर्लज्ज हो जाऊं। यही कारण है अनायास ही क्रोध में आ जाना अब मेरी आदत ही बन गयी है एवं इसके परिणामस्वरूप कई बार बड़ी हानियाँ भी उठानी पडीं हैं। तापर्य यह है कि आवेश में आ कर किसी वस्तु को तोड़ देना, इत्यादि इत्यादि। हाँ एक बात अवश्य है कि मेरा यह क्रोधी स्वभाव अपने परिवार तक ही सीमित है। एकान्त या जब ईश्वर कृपा के मध्य होता हूँ तो चित्त को थोड़ा विश्राम व शान्ति मिल जाती है। अन्यथा कोई न कोई बात ऐसी उत्पन्न कर दी जाती है कि जिसके साथ समझौता करना मेरी प्रकृति के विपरीत होता है एवं जिसको न करना ही श्रेयस्कर होता है। ये बातें अधिकतर ऐसे समय पर होतीं हैं कि जिस समय मैं कचहरी से वापस आया हुआ होता हूँ या किसी परिश्रम के फलस्वरूप थका हुआ होता हूँ।”
“बहुत शीघ्र ही व थोड़ी सी ही बात पर क्रोध में आ जाता हूँ किन्तु उसका आवेग धीमा होने पर ह्रदय में उसके चिन्ह शेष नहीं रह जाते और उस व्यक्ति के पैरों पड़ने की इच्छा होती है।स्वभाव ही अब क्रोधी बनता जा रहा है व उसके लिए कोई न कोई कारण ढूँढता रहता है। कुछ माह पूर्व यह स्थिति न थी जो अब है। चित्त में चिड़चिड़ापन पैदा हो गया है।"
मेरे द्वारा जो उत्तर उन्हें दिया गया था, उसका भी अवतरण यहाँ पर दिया जा रहा है। सम्भवतः उसके माध्यम से आपको भी दिशानिर्देश मिल सकें।
फतेहगढ़
27 नवम्बर 1929 [ईस्वी]
“जो हालत उरूज़ [प्रकट होना] और तरक़्क़ी मदारिज़ [पदों] की निःस्बत तहरीर किये हैं, वह अल्लाह मुबारक़ करें। वह 'अहंकार' नहीं है, बल्कि हिम्मत-अफ़ज़ां है। इसका शुक्राना अदा करना चाहिए, तो फ़िर 'अहंकार' नहीं रहेगा। अगर खुदा की तरफ़ मंसूबः [संकल्प] कर लिया जावे तो फिर ग़ुरूर कहाँ, क्योंकि वह तो खुदा की तरफ़ से है। अपना उसमें कुछ भी नहीं।”
"ई स आदत बज़ोर बाजू नेस्त ;
ग़र न बख़्शद खुदाए बख्शंदह।"
[बेक़ैफ़ी की हालत अच्छी है और देर पा होती।]
"परेशान किया जाना अच्छा है। घर
“इन्शाअल्लाह इसके बाद तस्लीम और रज़ा भी आ जावेगी।"
“दुआ गो, राम चन्द्र”
"मात्रास्पशॉन्तु कौन्तेयु शीतोष्ण सुख दुःखदाः।
आगमापायिनोsनित्यास्तांस्तितिक्षस्य भारत।।"
[गीता 02/14]
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति - विनाशशील और अनित्य हैं। इसलिए हे भारत, उनको तू सहन कर।
विषय और इन्द्रियों के संबंधों को "शीतोष्ण सुख दुःखदा" कह कर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वे समस्त विषय ही इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर शीत - उष्ण, राग - द्वेष, हर्ष - शोक, सुख-दुःख, अनुकूलता, प्रतिकूलता आदि समस्त द्वन्द्वों को उत्पन्न करने वाले हैं। उनमें नित्यत्व - बुद्धि होने से ही नाना प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, अतएव उनको अनित्य समझ कर उनके साथ तुम्हें किसी प्रकार भी विकारयुक्त नहीं होना चाहिए।
सुख देने वाले जो इन्द्रियों के विषयों के साथ संयोग है, वे क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिए उनमें वास्तविक सुख का लेशमात्र नहीं है। अतः तुम उनको सहन करो अर्थात उनको अनित्य समझ कर उनके आने-जाने में राग-द्वेष और हर्ष-शोक मत करो। बंधु-बांधवों का संयोग भी इसी में आ जाता है। क्योंकि अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा ही अन्य विषयों की भाँति उनके साथ संयोग-वियोग होता है। अतः भगवान् का आदेश है कि सभी प्रकार के संयोग-वियोगों के परिणामस्वरुप सुख-दुःखों को सहन करो।
मेरा एक छोटा सा घरौंदा है, छोटी सी दुनियाँ है। मेरे यहाँ नित्य नए-नए व एक से एक उच्चकोटि के भक्त आ कर मुझे दर्शन दे कर निहाल करते हैं। मेरा अलग ही एक छोटा सा संसार है, जिसे बसा कर मानों मुझे इस विराट ब्रहाण्ड में कार्य करती हुयी सम्पूर्ण प्रतिक्रियाओं का एक संक्षिप्त प्रकरण ही मिल गया हो, एक ही परिवार में त्रिगुणात्मक प्रकृति के भिन्न-भिन्न खिलौने आ कर इकट्ठे हो गए हों। कोई आत्मायें पुत्ररूप में आ कर सत्वगुण की सुषमा बिखेर रहीं हों। कोई आत्मायें रजोगुण में लिपटी हुयी कन्याएँ बन कर आडम्बरप्रियता का प्रकाश बिखेर रहीं हों। कोई कोई आत्मा तमोगुण में समाच्छन्न हुयी आलस्य, प्रमाद, तन्द्रा, अज्ञान, अविवेक, गर्व, दम्भ, दर्प और अनास्था का तिमिरजाल फैलाने में प्रवीण हों। ऐसा लगता है कि मेरे प्रभु का यह प्रासाद मानों एक रंगमंच ही बन गया हो, जिसपर दसों रसों का आकर्षण अभिनय प्रतिक्षण चलता रहता हो।
जीवन में छः प्रकार के असुर या अंधकार हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और अहंकार। शान्त चित्त को ये अपने आक्रमण से अशान्त बना देते हैं। रस को बिगाड़ कर कुरस में बदल देते हैं। आनन्द को छीन कर दुःख का अनुभव कराते रहते हैं। असुरों का यह आक्रमण हमारे मन पर प्रायः होता ही रहता है। इनके आने का न कोई देश है न काल। ये तो हर समय सब जगह प्रगट हो जाते हैं।
भगवान के छः गुण ऐश्वर्य, वीर्य या कर्म-शक्ति, यश, श्रीलक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, जो विष्णुपुराण में बताये गए हैं, इन छः असुरों को जीतने में सफ़ल हो सकते हैं।
देखिये, एक नट है। वह कभी राजा का, कभी चपरासी का, कभी ब्राह्मण का, तो कभी चाण्डाल का, यों अनेक वेष धारण करके अभिनय करता है। तथापि किसी भी वेष का अभिनय करते समय उसको अपने नट-स्वरुप का निश्चय थोड़ा भी नहीं छूटता। वह सब प्रकार से अपने स्वरुप में अच्युत ही रहता है।
यह भी देखिये कि एक गृहस्थ कितने सम्न्धों का निर्वाह करता है और कितने अधिक स्वाँग धारण करता है। वह किसी का चाचा है, किसी का मामा है, किसी का पिता है तो किसी का पति है और अपने सम्बन्धों के अनुरूप ही दिनभर व्यवहार करता है।
मैं भी ऐसा ही एक साधारण सा गृहस्थ हूँ। बड़ा ही साधारण सा घर व परिवार है मेरा। मेरे घर में मुझ से छोटे, प्रेम से मुझे 'लालाजी' कहते हैं। कुछ भी तो नहीं है मुझ में जिसे देख कर मुझे संत या सद्गुरु की श्रेणी में गिना जाय। किन्तु न जाने क्यों भ्रमित हो कर लोग मुझे 'महात्मा' समझने लगे हैं। मैं यों किसी भी सत्य या असत्य की गहराई में नहीं जाना चाहता। लगता है भगवत-कृपा की ही कोई चाल है कि मुझे एक संत होने का नाटक करना पड़ रहा है। इसी अभिनय के अन्तर्गत नित्य ही नए-नए महान भक्त आकर दर्शन देते हैं और कृतार्थ करते हैं, न जानें किस धोखे में मुझ अपात्र पर सतत ऐसी प्रीति की वर्षा की जा रही है। अनजाने ही सही, मेरे प्रभु की ही कृपा, उन्हीं का अपार वात्सल्य व प्यार है जिसमें मैं स्नान कर रहा हूँ। इस उचित या अनुचित किन्तु निरे अप्रत्याशित से दुलार से मैं विमूढ़ सा हो रहा हूँ, जिसका कहीं ओर-छोर नहीं मिलता।
साधना की चरम ऊँचाइयों की ललक व ब्रह्मपद की चाह, इतना ही नहीं एक संत का बाना ले कर सँसार की हाट में उतरने के लिए भी मैं मचला एवं उसके लिए तुमसे हठ की, तो उसके लिए भी 'हाँ' कर दी उन्हीं प्रभु ने। अपने दुलार को दाँव पर लगा दिया कि दुनियाँ के आलोचक क्या कहेंगे, उन्होंने इस सम्बन्ध में भी कुछ सोचा होता ?
क्या ही अच्छा होता हमारी प्रीति को, हम दो ही जानते। हमारे प्यार का यह कोमल पौधा सँसार की तीक्ष्ण दृष्टि कैसे सहेगा ? मेरी ललक देख कर तुमने मुझे खुले बाज़ार में भेज ही दिया। अब सरे बाज़ार तालियाँ मिलेंगी या गालियाँ। खिलाड़ी का खेल तो तभी सराहा जाएगा जब गालियाँ उद्विग्न न करें व तालियाँ लुभा न सकें। प्रेम की चोट बड़ी करारी होती है। वही इसे जानता है जिसका ह्रदय प्रेम के वाणो से बिंधा हो। शब्दों में इसका वर्णन कोई करना भी चाहे तो क्या करे। मिलन की एक और झाँकी देखिये।
बुंदेलखण्ड से आये हुए व्यक्तियों में से एक हैं श्री भवानी शंकर जी, प्रेम की साकार मूर्ति। भक्ति व आराधना की श्रुतियाँ उनकी साधना से प्रवाहित होतीं हैं। बार-बार आना होता है उनका, और एक बार तो ऐसे आये कि मैं मोहित हो गया उनकी उस छटा पर, भावनाओं का स्वयं एक ज्वार बने हुए थे वह उस घड़ी।
उस सायँ फतेहगढ़ में तलैयालेन स्थित अपने निवास पर कुछ प्रेमी-भक्तों के मध्य बैठा मैं भगवत्-चर्चां में तल्लीन था। प्रभु-प्रेम सामीप्य का लाभ उठा रहा था। बड़ी ही विशेष सुखानुभूतियाँ थी उस क्षण की। प्रेम-मद का नशा अत्यन्त चढ़ा हुआ था। सौंदर्य की तेज ज्वाला भड़की हुयी थी। आनन्द का पारावार उमड़ रहा था। उसी दिव्य बेला में मुझे सूचना दी गयी कि श्री भवानीशंकर जी मुझ अकिंचन दास को कृतार्थ करने के लिए अपने कुछ प्रेमी भाइयों सहित झाँसी से उरई - कानपुर होते हुए फतेहगढ़ पद-यात्रा करते हुए आ रहे हैं। मेरे मन-प्राण जो अभी तक अन्तर की गहराइयों में डुबकियाँ लगा रहे थे, प्रेम-विभोर हो उठे, उनमें एक उफ़ान सा आने लगा। मुझे यों लगा मानों भक्तरूप में स्वयं भगवान आ रहे हैं। उनके रूप में जब स्वयं प्रभु आ रहे हैं तो रुका जाएगा मुझसे क्या ? नहीं। कभी नहीं। मैं भी उनके स्वागत के लिए जाऊँगा, जहाँ भी मिल जायँ वह मुझे। कुछ और दीवाने भी मेरे पीछे-पीछे हो लिए। जो जैसे थे वैसे ही उठ चले। पल झपकते हुए चल दिए। पता न चला कि कब फतेहगढ़ की बस्ती पीछे छूट गयी और मैं दीवानावार 'नवदिया' में आ गया। यहीं दो प्रेमी प्रेम-मग्न हो मिले। एक से अनेक मिले। नहीं अनेक से अनेक मिले। यहीं मिलन-स्थल था। प्रेमाश्रुओं की वृष्टि भी यहीं हुयी। मिलन तो सर्वत्र ही हो रहा है - "सब घट हौं बिहरोँ। सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय।" आत्मा की कोई भी सेज सूनी नहीं है। वह सब में बिहर रहा है, रमण कर रहा है। सर्वत्र 'रास' छिड़ा हुआ है।
"ऐसे पियै जान न दीजै हो।
चलो री सखी ! मिलि राखिये, नैनन रस पीजै हो।
स्याम सलोनो साँवरो मुख देखत जी जै हो।।
जोई जोई भेष सौ हरि मिलैं सोइ कीजै हो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बड़ भागन रीझै हो।।"
यह छटा तो कुछ घड़ी की ही थी। आयी-गयी हुयी। किन्तु न जानें क्यों वह घड़ी, वह दृश्य, वह स्थान, वह स्थिति, कुछ ऐसी भा गयी कि चित्त में बार-बार उसके दर्शन करता हूँ। मेरी हार्दिक कामना है कि दिव्य-मिलन, प्रेमाश्रुओं से सिंचित यह मेरी साधना-स्थली मेरा तीर्थ-स्थल बन जाय, ब्रह्मज्ञान की उर्वरा-भूमि बन कर काकभुशुण्डिजी का आश्रम सिद्ध हो, मेरा मन-मानस यहाँ सदा सदा के लिए रम जाय।
नित्य प्रातः व सायँ इसी मिलन स्थल [नवदिया] तक टहलने आता हूँ, घण्टों एकान्त में बैठा रहता हूँ। यहाँ आम्र व बेर के कुञ्ज व नागफ़नी के झुरमुट बड़े ही रम्य लगते हैं। इन पंक्तियों को गुनगुनाया करता हूँ। बड़ी प्यारी लगती हैं।
"दमे वापसी बर सरे राह है। अज़ीज़ों, अब अल्लाह ही अल्लाह।
वादये वस्ल चू सबद नज़दीक़। आतशे शौक़ तेजतर गरदद।।"
डॉ श्रीकृष्ण व श्याम लाल से, जो मेरे पुत्रवत निकट हैं व जिन पर बड़ा भरोसा है मुझे, मैंने कह रक्खा है कि वे मेरे लिए एक गाय का प्रबन्ध कर दें जिससे मैं अन्न इत्यादि छोड़ कर मात्र दूध को ही अपना आहार बना लूँ, गाय की सेवा करूँ और महामिलन के इस स्थल 'नवदिया' में ही अब वास करूँ। यही मेरा नीड़ बन [nest] जाय।
"रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो।
हम सुख़न कोई न हो और हमजवां कोई न हो।।
बे दरो-दीवार का एक घर बनाना चाहिए।
कोई हम साया न हो और पासवाँ कोई न हो।।" *
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* संयोग की बात है कि श्री लालाजी महाराज की महासमाधि महा-मिलन के इस स्थल [के आस-पास लबे-सड़क] नगर महापालिका के प्लाट संख्या 01/114 मोहल्ला 'नवदिया' फतेगढ़ [उ0 प्र0] 209601 में बनी हुयी है।
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पुनः स्मरण हो आती है वह बात कि अपने हज़रत क़िब्ला को मैं अपनी करुण कहानी सुना रहा था। वह काफ़ी देर तक बड़े ध्यान से भाव-विभोर हुए सुनते रहे और विकल हो कर कहने लगे "पुत्तूलाल ! बन्द करो अब नहीं सुनी जाती तुम्हारी यह कहानी" कह नहीं सकता वह मेरी अधूरी बात ही जो हज़रत क़िब्ला को सुना रहा था, सुनानी शेष रही और यह कहानी बन गयी। यों विचारों की उथल-पुथल में यह बात भी मन में आती है कि मेरी या अपनी कहानी कह कर मैं कोई भ्रान्ति तो उत्पन्न नहीं कर रहा हूँ। फ़िर यह भी ख़याल आता है कि मैं, मैं भी हूँ या नहीं। अपने हुज़ूर के जलाल में मेरी हस्ती की कोई सूरत बाक़ी है भी या नहीं, यह मेरी कहानी है, या किसी और की। जो कुछ भी हो जिसकी हो, वह जाने। हाँ मेरी एक तमन्ना ज़रूर है कि काश 'वह' इसे सुन लेते -
"कब वह सुनता है कहानी मेरी। और फ़िर वह भी जवानी मेरी।।
ख़लिश-ए-गम्ज़ा-ए-खूं-रेज़ न पूछ ; देख खूंनाबा-फ़िशानी मेरी।
क्या बयाँ कर के मिरा रोएगा यार ; मगर आशुफ़्ता-बयानी मेरी।
हूँ ज़-खुद रफ़्ता-ए-बैदा-ए-ख़याल ; भूल जाना है निशानी मेरी।
मुतकाबिल है मुक़ाबिल मेरा ; रूक गया देख रवानी मेरी।
क़द्र-ए-संग-ए-सर-ए-रह रखता हूँ ; सख़्त अर्ज़ा है गिरानी मेरी।
गर्द-बाद-ए-रह-ए-बेताबी हूँ ; सरसर-ए-शौक़ है बानी मेरी।
दहन उसका जो न मालूम हुआ ; खुल गयी हेच मदानी मेरी।
कर दिया ज़ोफ़ ने आजिज़ ग़ालिब ; नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी।"
जन्म से ही घुट्टी के रूप में मिले संस्कारों में से कुछ के प्रभाव ऐसे हैं जो सोते-जागते मेरा पीछा करते हैं। मैं उनमें खोया, अनेकों कल्पनाएँ करता हूँ, क्रीड़ा मग्न सा। उन्हीं में से भक्तों की अनेक गाथाएँ हैं। महान भक्त काकभुशुण्डि जी के चरित्र की बहुत कुछ छाप मेरे अपने जीवन पर पड़ी है। सम्भवतः यही हो आधार मेरे जीवन के पारस-पक्ष का। कथा के विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। मानस की चौपाइयाँ जो मेरे चिंतन में निरन्तर बिराजतीं रहीं हैं, उनका वर्णन यहाँ आपके समक्ष करूँगा।
"गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुण्डा। मति अकुण्ठ हरि भगति अखण्डा।।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयउ।।"
गरुड़ जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काक-भुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देख कर उनका मन प्रसन्न हो गया और [उसके दर्शन से ही] सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा।
वहाँ के आश्रम के बारे में भगवान शंकर, महासती भगवती जी को बताते हैं कि -
"गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी।।
तासु कनक मय शिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाये।।"
सुमेर पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुन्दर नील पर्वत है। उसके सुन्दर सुवर्णमय शिखर हैं। उसमें से चार सुन्दर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे।
"तिन्हँ पर एक एक विपट बिसाला। बट, पीपर, पाकरी, रसाला।।
सैलो परि सर सुन्दर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।"
उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल बृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है, जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देख कर मन मोहित हो जाता है।
"सीतल अमल मधुर जल जलज विपुल बहु रँग।
कूजत कलरव हंस गन गुंजत मंजुल भ्रंग।।"
उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है। उसमें रँग-बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं। हंस गण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुँजार कर रहे हैं।
"तेहि गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
मायाकृत गन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अविवेका।।
रहे व्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।"
उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी [काकभुशुण्डि] बसता है उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। माया रचित अनेकों गुण, दोष मोह काम आदि अविवेक, जो सारे जगत में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास कभी नहीं फ़टकते। वहाँ रह कर जिस प्रकार वह काक हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो।
"पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ।।
आंब छांह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काजु नहिं दूजा।।"
वह पीपल के बृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जप-यज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़ कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।
"बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
राम चरित विचित्र विधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।"
बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। विचित्र राम चरित्र का अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदर पूर्वक गान करता है।
मेरे चिन्तन का बिंदु था कि जिनके स्मरण मात्र से जन्म-जन्म के बन्धन कट जाते हैं व जीव, माया-मोह व भ्रम इत्यादि के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं, उन्हीं भगवान का सम्पर्क प्राप्त कर गरुड़ जी भ्रम का शिकार कैसे हो गए ? उपर्युक्त कहानी के अन्तर्गत ही भगवान शंकर, महासती उमा से कहते हैं कि - "अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल के ध्वज गरुड़ जी उस काक के पास गए थे।" वह आगे कहते हैं कि - "जब श्री रघुनाथ जी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है - मेघनाथ के हाथों अपने को बंधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा -
"बन्धन काटि गयो उरगादा। उपजा ह्रदय प्रचण्ड विषादा।।
प्रभु बन्धन समुझत बहुँ भाँती। करत विचार उरग आराती।।"
सर्पों के भक्षक गरुड़ जी जब बन्धन काट कर गए, तब उनके ह्रदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़ जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे।
गरुड़ जी ने, मानों रघुनाथ जी को तो बन्धन-मुक्त कर दिया किन्तु स्वयं कुतर्कों के जाल में ऐसे बन्ध गए, जहाँ से निकलना उनके लिए अत्यन्त ही दुर्लभ सा प्रतीत होता था। वह निरन्तर विचार करते हैं कि - "मैंने सुना था कि व्यापक विकार रहित, माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, उन्होंने ही जगत में अवतार लिया है पर मैंने उनके प्रभाव को कुछ नहीं देखा।"
गरुड़ जी के मन में भ्रम या अहँकार की भावना उठना स्वाभाविक थी या अस्वाभाविक, यह एक अलग विषय है। मेरे चिंतन में आश्चर्य का जो अंकुर जागा वह था कागभुशुण्ड जी का आश्रम, जहाँ की परिधि में प्रवेश पाते ही सारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं, सारे माया के बन्धन भ्रम व अज्ञान के आवरण कट जाते हैं। कैसी है प्रभु की लीला ! उनका यह आश्रम मेरे लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण बन गया। वह तप एवं साधना, जिसके फ़लस्वरूप भूमा की सम्बद्ध परिधि में एक अभूतपूर्व दिव्यधारा निरन्तर प्रवाहित होती हो जिसके आवेग के समक्ष समस्त प्रकार के मल या आवरण टिक न सकें, मेरा अभीष्ट बन गए।
जिज्ञासा, जो मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, मेरे अन्तर में भी प्रवेश पा गयी। जिज्ञासा के जग जाने पर वह विकलता होती है कि रहा नहीं जाता, उसका समाधान खोजे बिना। 'तू चिन्मयी माँ है कि पत्थर की मूरत ? मेरी प्रार्थना से तो अब तक पत्थर भी पसीज जाता पर तेरे कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। तो ले तेरी ही तलवार से मैं उड़ा देता हूँ, अपनी गर्दन। क्यों नहीं दर्शन देती तू मुझे।' रामकृष्ण तलवार चलाने ही जा रहे थे अपनी गर्दन पर, तभी चारों ओर से एक दिव्य-प्रकाश फ़ूट पड़ा ! कहते हैं माँ ने बेटे का हाँथ पकड़ कर उसकी जिज्ञासा का समाधान कर दिया।
मेरे कानों में किसी ने ईसा का महावाक्य दोहराया - "दरवाज़ा खटखटाओ वह खुल जाएगा।"
इस कार्य में दयामय भगवान हमें पूर्ण सहायता देने को तैयार हैं। वह हमें आश्वासन देते हैं -
"तेषामेवानुकम्पार्थमहम ज्ञानजं तमः।
नाशयाभ्यात्मभावस्थो ज्ञान दीपेन भास्वता ।।"
[गीता 10/11]
हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अँधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
जीवन के अविस्मरणीय दिन जो भूले से भी नहीं भूलते। एक लहर सी आयी हुयी थी। जिस दिव्यज्योति की छटा का आभास मेरे अन्तर में होता, उसकी एक अभूतपूर्व चेष्टा, एक अन्तःप्रेरणा से निरंतर ओतप्रोत रहता कि इस जीवन-मधु को भू-पटल पर ऐसा बिखेर दूँ कि कोई भी प्राणी उससे अछूता न रह जाय। इसी प्रयास में मैं उद्विग्न सा रहता। जिस मन्दाकिनी में मैं स्नान कर रहा था उसी के प्रेमावेग से मेरी सारे जगत को ओतप्रोत कर देने की इच्छा होती।
मेरे एक बेटे और भी हैं, चि0 डॉ श्याम लाल। आध्यात्मिक पुत्र, किन्तु सम्बन्ध रक्त से भी निकट का। इन दिनों वह शासकीय सेवारत हैं। स्वास्थ्य-अधिकारी के पद पर स्थानान्तरित हो कर अभी कुछ दिन पूर्व ही वह दिलदारनगर [ग़ाज़ीपुर उ0 प्र0] पहँचे थे। उनके आग्रह पर मुझे भी वहाँ जाना पड़ा। वहाँ के प्रवास का यह मेरा प्रथम दिन ही था। मैं वहाँ पर इन्हीं डॉ श्याम लाल के निवास पर ठहरा हुआ था। सायंकाल जब वह अपने कार्य से वापस आये तो सत्संग प्रारम्भ हुआ। सद्गुरु नाम व रूप की चर्चा चल निकली। प्रेम विभोर हो चित्त हिलोरें लेने लगा। ईश्वर की कृपा जो निरन्तर प्रवाहित होती, उस क्षण भी उसी में हम डुबकियाँ लगाने लगे। कुछ समाधि जैसी चेतना जाग्रत होने लगी। प्रभु की जैसी इच्छा। उन्हीं के आह्वान पर मैंने चि0 श्याम लाल से प्रश्न किया - "आज सत्संग में यहाँ तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं दीखता।" उन्होंने उत्तर दिया - "अभी हम यहाँ कुछ सप्ताह पूर्व ही आये हैं। अतः नयी जान-पह्चान किसी से नहीं हो पायी है। इसके अतिरिक्त इस बस्ती में जहाँ हम रहते हैं अन्य कोई सत्संगी-बँधु नहीं हैं, न ही ऐसी अभिरुचि वाले किसी से अभी तक मेरा सम्पर्क हो पाया है।" प्रभु के उस अभूतपूर्व कृपा के आवेग में मुझे उनके उत्तर से सन्तुष्टि नहीं हुयी। मैंने तीन बार अपने प्रश्न की पुनरावृत्ति की। उनका उत्तर भी हर बार वही था। प्रभु की जिस लीलासार के उस क्षण हम दर्शन कर रहे थे, मैं चाहता था कि सब उसका अनुभव करें। किन्तु ऐसा न हो सका। वहाँ हम दो ही थे, और अन्य भक्त वहाँ न थे। उनकी यह कमी मुझे खल रही थी। आनन्द ह्रदय में समाता न था, मानों मधु-रस ही बरस रहा हो। इसे बाँटने की इच्छा होती, पर वाणी स्वयं उस अमृत में छकी हुयी थी। समस्त चराचर मानों अपने प्राणेश्वर थे। किसी से कोई क्या कहे, क्या सुने ? वह प्रकाश, वह शोभा, वह मञ्जुल आनन्द। नवीन आवेग ने पुनः हिलोर ली। मेरे जी में आया, उड़ेल दूँ इस अमृत को यहीं भू-पटल पर। बिखर जाय सारी धरा पर यह जीवन-पराग, यह मञ्जुल प्रवाह। कौन जानता था यही कल्याणकुंज बन जायगा किन्तु हुआ ऐसा ही। मैंने वहाँ उसी स्थान पर उस समस्त बस्ती की सम्पूर्ण परिधि पर शक्तिपात किया। एक परम रहस्य की अद्भुत लीला चरित्रार्थ होने लगी। इसी आत्मानन्द के व्यतिरेक में बेसुध हो जीवन और मृत्यु से ऊपर उठ कर आनन्दमयी उस दिव्य-शब्द की ध्वनि वहाँ कण-कण से प्रवाहित होने लगी। अब क्या ? मेरे जन्म-जन्म की लालसा पूरी हुयी। प्रभु ने स्वयं दया कर अपने दर्शन और स्पर्श से मुझे निहाल कर दिया। ह्रदय हिलोरें ले रहा था। प्राण बेसुध से थे। रोम-रोम नहा रहा था उस अमृत-वर्षा में। सभी मानों दिव्यधारा के प्रवाह के सुख से बेहाल हो कर मतवाले से नाच रहे थे।
"चर्चा करी कैसे जाय।
बात जानत कछुक हम, सो कहत जिय थहराय।"
प्रकृति व वातावरण के सत्संग में यह मेरा प्रथम प्रयोग था, जिसके परिणाम बड़े ही संतोषजनक रहे। मैं कुछ दिन के प्रवास के बाद वहाँ से वापस आ गया। डॉ श्याम लाल वहाँ कुछ समय और रहे। उनका कहना है कि जो अमृत-वर्षा उस दिन वहाँ हुयी थी, आज भी उस छटा के दर्शन होते हैं। मेरे एक और प्रेमी - डॉ चतुर्भुज सहाय भी कुछ दिन के लिए वहाँ गए। उन्होंने खुल कर वहाँ की स्थिति का वर्णन किया कि उस स्थान की भी स्थिति काकभुशुण्डि जी के आश्रम जैसी ही जान पड़ती है। वहाँ के स्त्री-पुरुषों की आन्तरिक स्थिति में स्वतः ही परिवर्तन हो रहा है और अनेकों भाई-बहन सत्संग में भी आने लगे हैं।
मैंने अंतर में अनुभव किया - यही प्रकृति-पुरुष का लीला विलास है, यही माया और माया-पति का अलौकिक महामिलन है। जगत का सारा आनन्द, सारा श्रृंगार, सारा माधुर्य, सारी शोभा और सारा लावण्य उस मूल संयोग की एक लहर का लीला-विस्तार ही है। सब कुछ वहीं से आ रहा है। वही मूल स्रोत है, वही सत्य-सनातन है। काकभुशुण्डि जी की साधना का फ़ल भी वही है और मुझ दास पर उस अलौकिक कृपा का आधार भी वही है।
आत्म-सुख की जो दिव्य एवं सुखद अनुभूति साधक को होती है, उसका प्रत्यक्ष प्रतिफल उसके आचार-विचार में होता है। वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर मानव-मात्र का जन्मजात प्रेमी बन जाता है। उसे प्रत्येक मानव में अपने आराध्य के दर्शन होते हैं और वह गदगद हो उठता है - "सियाराम मय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जग पानी।"
ब्रह्मविद्या युगों युगों तक परम गोपनीय तथा व्यक्तिगत रहस्य की स्थिति में अवस्थित रही है। अधिकारी पात्रों की कमी रही तथा इन-गिने ही लाभान्वित हुए। किन्तु क्षमा करें इस सम्बन्ध में मेरा किंचित भिन्न मत है। मैं ब्रह्मविद्या को मात्र 'विद्या' की कोटि में रखने का पक्षधर नहीं। विद्या कहाँ, वह तो जीवन ही है। उसे जिया जाय। प्रभु चन्दन के वृक्ष हैं और हम [उनके अनुचर] मानों वायु हैं। उनकी सुगन्ध को दिगदिगन्त में फ़ैला देना ही हमारी जीवन चेष्टा है, हमारा जीवन-लक्ष्य है।
रिआसत मुल्क़ मालवा [Princely state of Malwa], में प्राकृतिक छटाओं [splendorous] से भरा-पूरा एक आदिवासी [tribal] क्षेत्र है, ‘रावटी’ [वर्त्तमान ज़िला रतलाम, मध्य प्रदेश। इसी ग्राम में अपने कुछ प्रेमी-भाइयों के निमित्त, मार्च 1930 में मुझे वहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ चिकित्साधिकारी के पद पर मेरे एक अनुज [मेरे चाचाजी - चौधरी उल्फत राय अधोलिया के बेटे] डॉ कृष्ण स्वरुप तैनात थे, इनके अतिरक्त और भी दो प्रेमी हैं - सर्वश्री हीरा लाल जोशी व रेवा शंकर जी, जो कि वहीं पर चिकित्सालय के कर्मचारी हैं और मुझे अतिप्रिय हैं । इन्हीं सब के अनेकानेक प्रेमाग्रह पर मुझे रावटी जाना पड़ा। यहाँ की प्राकृतिक छटा, अनुपम सौंदर्य और अत्यन्त ही भोले-भाले ग्रामवासी इत्यादि कुछ ऐसे आकर्षण थे कि यह भूमि मुझे बड़ी भली लगी। लगता था इस स्थान को छोड़ कर अब कहीं न जाऊँ। मेरे जीवन का अब उत्तरार्ध है। व्यक्तिओं में शक्तिपात के माध्यम से भगवतकृपा व प्रभु-प्रेम का सञ्चार करने की प्रक्रिया के स्थान पर इस चेष्टा को प्रकृति की ओर उन्मुख कर दिया है जिसमें बनस्पतियाँ, पेड़-पौधे, भूमि, जल इत्यादि हैं। काक्भुशुण्डि के आश्रम बनाने के स्वप्न साकार करने को तत्पर हो गया हूँ। किसी भावना एवं शक्ति-संचार को खींचने की शक्ति व्यक्तियों की अपेक्षा इनमें अधिक होती है और उस सत-तत्व को अपने में अपेक्षतया अधिक समय तक सुरक्षित रख सकने की सामर्थ्य भी इनमें होती है। फलतः जब भी इनके संसर्ग में व्यक्ति आते हैं, इनके प्रभाव से अछूते नहीं रहते। यही कारण है कि इस स्थान में आज भी 'बृज' के दर्शन होते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो भी अभीष्ट प्रयोग, साधना की विकसित अपेक्षा सिद्ध होगी।
जड़ और चेतन श्रृष्टि के दो भाग हैं। पुरुष व प्रकृति इन्हीं के रूप हैं। पुरुष चेतन है, प्रकृति जड़ [inert] है। पुरुष भोक्ता है, प्रकृति भोग्या है। ये दोनों ही पदार्थ सर्वत्र प्रत्यक्ष हैं। "ईश्वर अंश, जीव अविनाशी" - जितने भी जीव हैं सभी परमात्मा के अंश हैं। जिस प्रकार अग्नि की चिंगारियाँ, अग्नि से भिन्न नहीं, दोनों वस्तुतः एक अग्नि हैं, उसी प्रकार जीव भी परमात्मा से भिन्न नहीं है।
"कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः पृकृति रुच्यते।" [गीता - 13/20]
कार्य और कारण के उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही गयी है। आकाश आदि पञ्च भूत [तत्व] तथा शब्द आदि पाँच विषय [गुण] इन दस का नाम, कार्य है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि व अहँकार इन तेरह का नाम, करण है। प्रकृति इन सभी का कारण है। अतः प्रकृति इनकी जननी होने के कारण सारा दृश्य-जगत प्रकृति का ही स्वरुप है।
प्रकृति, पुरुष का अंश नहीं है, वह उसकी शक्ति है। शक्ति, शक्तिमान से भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार प्रकृति व पुरुष निरन्तर एक-दूसरे में लय हैं। जब महाप्रलय होती है, उस समय सारा ही दृश्य-जगत लोप हो जाता है। जब यह क्रिया-रूप में होती है तब यह दृष्टिगोचर हो जाती है और जब अक्रिया रूप में होती है तब वह अव्यक्त रूप में रहती है।
मूल प्रकृति से समष्टि-बुद्धि की उत्पत्ति हुयी। इससे समष्टि अहँकार व समष्टि अहँकार से मन की उत्पत्ति होती है। इसी अहँकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाँच सूक्ष्म तन्मात्राओं की उत्पत्ति हुयी। समष्टि बुद्धि, समष्टि अहंकार और समष्टि मन ये तीनों, एक ही अंतःकरण की विभिन्न अवस्थाओं के तीन नाम हैं। इन्हीं तन्मात्राओं से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और आकाशादि पाँच स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। यही दृश्य जगत है। अब स्पष्ट है कि इस दृश्य जगत की कारण प्रकृति ही है। चूँकि वाणी, मन और बुद्धि प्रकृति के कार्य हैं। अतः इनके माध्यम से उसका वर्णन न तो किया जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। अतः वह अनिवर्चनीय, अचिन्त्य और अतर्क्य है।
प्रकृति व पुरुष दोनों ही अपने कार्य के माध्यम से सर्वव्यायक हैं । बर्फ़ में जल की व्यापकता की भाँति प्रकृति की व्यापकता तो समझ में स्पष्ट आ जाती है किन्तु अति सूक्ष्म होने के कारण पुरुष की व्यापकता उतनी शीघ्र व स्पष्ट रूप से समझ में यद्यपि नहीं भी आती फ़िर भी प्रकृति की अपेक्षा पुरुष की विशेष व्यापकता प्रतीत होती ही है। सृष्टि की रचना में प्रकृति यदि कारण है तो पुरुष [ईश्वर] उसका महा कारण। आकाश से वायु की उत्पत्ति, वायु से तेज की उत्पत्ति, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति, इत्यादि इत्यादि इन सभी की कारण रूपा प्रकृति इन सब में व्यापक है, यह समझ में आ जाता है। उस शक्तिमान पुरुष की यह प्रकृति, शक्ति-मात्र है। अतः सबका महा कारण वह चेतन पुरुष इस जड़ प्रकृति और उसके कार्य-रूप इस समस्त दृश्य सँसार में व्याप्त हो रहा है। चेतन पुरुष को स्वामी बना कर, उसकी अध्यक्षता में जब प्रकृति सृष्टि की रचना करती है, तब वास्तव में उसका रचयिता ईश्वर ही हुआ। प्रकृति तो निमित्त मात्र है। अतएव वस्तुतः ईश्वर ही इस सृष्टि का निमित्त कारण है।
मेरे इस वक्तव्य को ज्ञानी कृपया इस प्रकार समझें कि जैसे स्वप्न-द्रष्टा पुरुष अपने अंदर अपनी ही कल्पना से आप ही संसार बन जाता है और आप ही उसे देखता है, वहाँ उस चेतन दृष्टि के अतिरिक्त उस स्वप्न-जगत का दूसरा कोई भी उपादान कारण नहीं हैं, इसी प्रकार अज्ञान के कारण जहाँ गुणों सहित प्रकृति की प्रतीति होती है वहाँ वस्तुतः परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है और जो भक्त हैं उनसे मेरा निवेदन है कि - प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और शक्ति कभी शक्तिमान से भिन्न नहीं होती। यह दृश्य जो कुछ भी है, सब कुछ तो परमात्मा की ही शक्तिरूपा प्रकृति का ही विस्तार है। यह परमात्मा का ही स्वरुप है, परमात्मा ही इसका उपादान कारण है।
पुरुष से तात्पर्य है - आत्मा। उसके दो भेद हैं - जीवात्मा व परमात्मा। जीवात्मा अनेक हैं व परमात्मा एक। इन्हीं के मिलन को योग की संज्ञा दी गयी है। विषय को सीधा व सरल बनाने लिए इस प्रकार समझना चाहिए कि परमात्मा के भी दो भेद मान लिए गए हैं - सगुण व निर्गुण। सत, रज व तम - तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति के सहित जो परमात्मा का स्वरुप है वह सगुण है, इसके अतिरिक्त जो गुणरहित है वह निर्गुण है। सगुण व निर्गुण दो मान्यताएँ या मार्ग अवश्य हैं किन्तु वस्तुतः परमात्मा एक ही है।
मैं कोई 'दर्शन' का ज्ञाता नहीं। मैं तो मात्र एक साधक हूँ। उन दिनों विचार में कुछ इसी प्रकार के दर्शन उठते व विचार-मग्न अन्दर ही अन्दर उन पर प्रश्नोत्तर होते। कभी-कभी, इनसे सम्बन्धित जो पुस्तकें हैं, उनका स्वाध्याय व अनुशीलन भी करता। जब-जब में कुछ ढूँढता हूँ और उसे नहीं पाता तो तुरन्त ही मां के पास दौड़ा जाता हूँ। उसकी महान अनुकम्पा है। गँगा से भी विशाल व पवित्र अंतःकरण है उसका। महान दात्री है वह। प्रेमावेश में मग्न मैं उसके अन्तर से सारा ज्ञान, सारी शक्ति, सभी कुछ मानों स्तनों से दुग्ध के रूप में खींच लेने का मन ही मन प्रयास करता हूँ और यह प्रेमिल प्रयास मेरे अधरों पर स्मित का सञ्चार कर देता है। और उल्ल्हास में भर कर माँ के वक्षस्थल का आँचल खींचते हुए अपना मुख उसमें छिपा लेता हूँ। ज्ञान-गंगा का प्रवाह अविरल बहता है, कहाँ समेटूँ, कैसे सँवारुं उसे ?
अह्मब्रह्मः की स्थिति में पदार्पण करने की पहली शर्त है - अहँकार का सर्वदा परित्याग। भक्ति के प्रतीक स्वयं 'हनुमान' से तात्पर्य है; ’हनु’ अर्थात, मारना और मान अर्थात प्रतिष्ठा का, स्पष्ट है अपने अहंकार को मार कर समाप्त कर चुकना। जो 'अह्मब्रह्म' की स्थिति में प्रवेश करना चाहता है वह सर्वप्रथम 'हनुमान' को समझे और अपने अहँकार का त्याग व नाश करे। भक्ति का परम तत्व यही है।
“औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।”
[मानस 07 - 45]
अर्थात ; "और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सब से हाँथ जोड़ कर कहता हूँ कि शंकर जी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।"
चूँकि स्वयं श्री हनुमानजी भगवान शिव के अवतार हैं , जो कि प्रभु श्री राम के चरणों में सदा-सदैव उपस्थित हैं, अतः यहाँ पर 'गुप्त मत' के अनुसार संकेत हनुमानजी के लिए ही है। जो साधक आगे के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं उनको मेरा परामर्श है कि इस स्थिति को प्राप्त करें क्योंकि मात्र यही स्थिति है जहाँ पूर्ण सुरक्षा की आशा की जा सकती है। यहाँ माया या भ्रान्ति का वास नहीं होता। परिधि में वास करने वाले साधक के मन में विकार या अज्ञान की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। यही स्थिति काकभुशुण्डि का पावन आश्रम है। यही निशा-नीड़ है।
माँ गीता की वाणी है कि इस 'निशा-नीड़' में प्रवेश कर वास करने के निमित्त - सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी तीन प्रकार की माया का सामना करना पड़ता है। महान भक्त, साधक एवं योगी हनुमान को अपने अभीष्ट के मार्ग में जो मायाएँ मिलीं, वे थीं सतोगुणी - देवलोक से आयी हुयी 'सुरसा', तमोगुणी - अधोवाहिनी 'सिंहिका', जो उड़ते हुए पक्षियों की छाया को पकड़ कर उन्हें खींच लेती थी, तथा रजोगुणी - 'मध्यलोकस्थ लंकानिवासिनी लंकिनी' ।
"ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।
[गीता 14/18]"
सतोगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को प्राप्त होते हैं। रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य-लोकों में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनिओं को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।
इस देववाणी के साथ ही ध्यान की कुछ अवस्थाएँ अवतीर्ण होतीं हैं जिनके द्योतक साधक के रूप में स्वयं हनुमान जी ही हैं। उन्हीं की कृपा से मुझ मुमुक्ष को भी अह्मब्रह्म की परिधि या काकभुशुण्डि जी के आश्रम में प्रवेश पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
"जात पवन सुत देवन्ह देखा। जानै कहु बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहि बाता।।
आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा ।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कई सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
तब तव बदन पैठिहउँ आयी। सत्य कहौं मोहि जान दे माई।।
कवनेहू जतन देह नहिं जाना। ग्रससि न मोहिं कहेउ हनुमाना।।"
[मानस 05 -01-01-05]
देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनके विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए [परीक्षार्थ] उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। उसने जा कर हनुमान जी से यह बात कही - "आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है, यह वचन सुन कर पवनकुमार हनुमान जी ने कहा श्री राम जी का कार्य करके लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ, तब मैं तुम्हारे मुहँ में स्वयं प्रवेश कर जाऊँगा, तुम मुझे खा लेना। हे माता ! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे।" जब किसी भी उपाय से जाने नहीं दिया तब हनुमान जी ने कहा - "तो फ़िर मुझे खा ले ।"
इतना सुनते ही उसने एक योजन मुहँ फैलाया। हनुमान जी 'रा' 'म' राम रुपी दो अक्षरों के बल से दुगने बढ़ गए।
"जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप दिखावा।।" तब सुरसा ने नारी प्रकृति के अनुसार उससे आठ गुना अर्थात सोलह योजन में मुख का विस्तार किया। मारुति जी को तो दो अक्षरों का ही भरोसा था - "प्रीति प्रतीत है आखर 'दू' की, तुलसी हुलसी बल आखर 'दू' को " इस लिए वह फिर दुगुने अर्थात बत्तीस योजन बढ़ गए। तब तो सुरसा ने किसी नियम को न मान कर सौ योजन का मुहँ फैलाया। हनुमान जी ने सोंचा कि सौ योजन समुद्र पार करने की बात थी, अवधि आ पहुँची, अतएव इसे भी पार करना ही चाहिए। तब "अति लघु रूप पवनसुत लीन्हां।" छोटा सा रूप बना कर उसके मुहँ में घुस गए और झट से बाहर निकल कर आज्ञा माँगने लगे - "बदन पैठि पुनि बाहर आवा। माँगी विदा ताहि सिर नावा।" [मानस 05-01-11]
यह जीव भक्ति की खोज में परमार्थ-पथ पर चलता है, तब उसके लिए तीन प्रकार की गुणमयी मायाएँ बाधक होती हैं। इन तीनों के साथ हनुमान जी के सदृश्य हो ब्यवहार करना चाहिए। सत्वगुणी का विशेष विरोध न करें, क्योंकि शुभ कर्मों की प्रवृत्ति से विरोध करना उचित नहीं। प्रत्युत उन्हें तो निष्काम भाव से करते रहना चाहिए और निवृत्ति के लिए भजन के हेतु उसके संग निर्वाह भी असंभव है। अतः उसके अनुकूल होते हुए भी अपने को छोटा बना कर उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करें। उसमे प्रवृत्त न हों क्योंकि दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तिओं का त्याग करना भगवत प्रेमियों के लिए श्रेयस्कर है। "त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहिं सुर नर मुनि नायक।" किन्तु तमोगुणी माया को सिंघिका की भाँति जान से मार डालें क्योंकि पाप-कर्मों का लेश भी परमार्थ के लिए अत्यंत घातक है। रजोगुणी माया को अधमरा करके छोड़ दें, क्योकि इसका सर्वथा निराकरण कर देने से अवलम्बहीन जान पड़ने लगेगा।
ज्ञातव्य है कि सर्प अहंकार का उपमेय है। यहाँ पर साधक की परीक्षा के लिए सर्पों की माता ["सुरसा नाम अहिन्ह कै माता"] को भेजा गया, यह देखने के लिए कि उसका अपने अहँकार पर किस सीमा तक अधिकार है। किन्तु हनुमान जी तो इस विषय के मानों आचार्य ही हैं। दीनता और विनय तो कोई उनसे सीखे। बार-बार वह अपने को लघु से लघुतम रूप में अवस्थित कर लेते हैं। बड़ा ही अच्छा अभ्यास है उनका।
अपने प्रभु के प्रेम की साधना का अपना अलग ही आनन्द है, जहाँ एक बार लौ लगी सो लगी। उनके प्रेम की एक नन्ही सी चिंगारी सब कुछ आत्मसात करा देने के लिए पर्याप्त है। हृदय के भीतर मात्र एक बार अपने स्वामी के दर्शन की एक झलक मिलते ही बाहर-भीतर, सर्वत्र, कण-कण में उन्हीं के दर्शन होते हैं।
जहाँ भी दृष्टि जाती है वहीं मुस्कराते हुए दृश्टिगोचर होते हैं। मुझ दास पर कैसी-कैसी अनुकम्पा की गयी है ? क्या यही था मेरी साधना का उद्देश्य, यही था मेरी पूजा का प्रसाद ? जिस घूँघट में से अपने प्रियतम के कभी हाँथ, कभी पैर, कभी आँख, कभी कान कठिनाई से दिखते थे, जी भर कर उस प्यारे का आलिंगन प्राप्त हुआ है।
आत्मसाक्षात्कार की गति ऐसी ही थी और थी उस घड़ी की सुखानुभूति भी कुछ ऐसी ही। अपने ध्यान के मध्य अंतर्मुखी हो कर मेरा प्राण क्रीड़ाएँ करता भीतर-भीतर जा पहुँचा। ऐसा लगा मानों इस शरीर की कोई अन्तिम सीमा न हो वरन समस्त सृष्टि की व्यापकता हो। अन्दर ही अन्दर भीतर की जो दीवारें थीं, वे सारी सृष्टि की ही परिधियाँ जान पड़ीं। प्राण उनमें निर्द्वन्द विचरने लगा। वहाँ अन्यत्र कोई न था। मैं ही मैं था। एक ऐसी स्थिति थी जो वाणी से परे थी। न वहाँ राग था न द्वेष, न प्रेम था न घृणा, न इच्छा थी न अनिच्छा इत्यादि कोई भाव ही न था, कोई द्वन्द्व न था। यही ब्रह्मपद था। यही काकभुशुण्डि जी का आश्रम था। यही था मेरा निशा-नीड़। मैं यहीं वास करता हूँ। मैं यहीं वास करूँगा। अब यह शरीर मेरे लिए बन्धन नहीं है। सारी सृष्टि की परिधियाँ ही मेरा शरीर हैं एवं मात्र मैं ही उसमें वास करता हूँ।
साधारणतयः हमारी अपनी गति कैसी है ? सुनें। एक ओर विषय-समूह की उत्ताल तरंगों से युक्त भोग-सागर और दूसरी ओर स्थिर शान्त सत्पुरुष ज्योतिर्मय ब्रह्म, एक ओर अनेकानेक काम-वासनाओं से ओतप्रोत चञ्चल मन और काम, क्रोधादि उसकी सेना तथा दूसरी ओर आनन्द-घन-शान्त आत्मा। ये दोनों चञ्चल और शान्त भाव बाहर संसार में तथा अंदर अपने मानस-मंदिर में सदा-सदा से वास करते हैं, परमानन्द को प्राप्त आत्मा अर्थात शान्त एवं प्रकाश स्वरूप चेतना तथा आनन्दमयी एवं अविनाशिनी और इसके अतिरिक्त सब जगत जो भी दृष्टिगोचर है, दुखमय और अनश्वर। इधर बाहर संसार की स्थिति है -
"पुरइन सघन ओट जल, बेगि न पाइय मर्म।
मायाछन्न न देखिए जैसे निर्गुन ब्रह्म।।
[मानस 03 /39 क]
और दूसरी ओर अन्तर की स्थिति है -
"भूमि परत भा डाबर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी।।
[मानस 04/13/06]
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहस सुख रासी।।
सो माया बस भयउ गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाईं।।
जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।”
[मानस 07/116/02 - 04]
आन्तरिक स्थिति के सम्बन्ध में 'कठ' की वाणी भी अवलोकनीय है -
"पराञ्चि खानि व्यतृणत स्वयंभू स्तस्मात्परांगव्पश्यति नान्तरात्मन।
[कठ 02/01/01]
स्वम्भू [परमात्मा] ने इन्दिर्यों को बहिर्मुख इस लिए किया है कि स्वास्थकर, सुबुद्धिदायक विशुद्ध विषयों को ग्रहण करें किन्तु अविविवेकी विषयासक्त हो जाते हैं जिससे जीव वाह्य विषयों को ही देखता है, अंतरात्मा को नहीं। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य भौतिक सुख को ही सुख मान कर उसके ही प्रयत्न में लगा हुआ है और उसके भोग में ही सुख है, ऐसा उसको विश्वास हो गया है। परन्तु वास्तव में वह भ्रम में ही है, क्योंकि सुख या आनन्द आत्मा के अतिरिक्त और कहीं है ही नहीं। यह वैषयिक सुख भी आत्मा के सम्बन्ध से ही प्राप्त होता है -
"अस्थि पुरान क्षुधित स्वान अति ज्यों भरि मुख पकरै।
निज तालू गत रुधिर पान करि मन संतोष धरै।।
[विनय पत्रिका 92/04]
जैसे बड़ा भूखा कुत्ता पुरानी हड्डी को मुख में भर कर पकड़ता है और अपने तालू ,में अड़ जाने से जो रक्त निकलता है उसे पी कर मन में संतोष करता है।
जिस साधक को वास्तविक आनन्द की इच्छा होती है, वह फिर उसके उदगम स्थान को ही ढूँढता है -
कश्चिद्वीरः प्रत्यगात्मानमैक्षडावृत्त चक्षुरमृतत्वमिच्छन्न।
[कठ 02/01/01]
जिसने अमृत्व की इच्छा करते हुए अपनी इन्द्रियों को रोक लिया है - वाह्य विषयों से समेट लिया है, ऐसा कोई धीर पुरुष ही अंर्तात्मा को देख पाता है। भगवान कृष्ण ने गीता में भी यही कहा है -
यदा संहरते चायं कूर्मोsङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणींन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
[गीता 02/58]
जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है वैसे ही जब पुरुष सब ओर से इन्द्रियों के विषयों से अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। योग की दृष्टि से यह प्रत्याहार है। क्योंकि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्बन्ध न रख कर चित्त के स्वरुप हो जाना ही प्रत्याहार है।
साधना के फलस्वरूप एक और बात सामने आती है कि जब इन्द्रियों को विषयों से हटा कर अन्तर्मुखी किया जाता है तब मन में संकल्प-विकल्प अत्यन्त ही गतिशील हो जाते हैं। सामान्य स्थिति की अपेक्षा मन की उछल-कूद की गति अत्यन्त बढ़ जाती है और इन्द्रियद्वारों से बाहर निकल कर भोग की प्राप्ति के निमित्त [देखने-सुनने को] व्याकुल हो उठता है। ऐसी स्थिति में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। इस स्थिति में सद्गुरु नाम व रूप के आधार पर उनके कृपा-सागर स्वरुप का आव्हान करना ही श्रेयस्कर है। इससे वाह्य विषय-समूहों की व्याकुलता धीरे-धीरे छूट जाने की आशा सकती है।
यह योग का मार्ग है। साधक को अपने इष्ट के स्वरुप में चित्त लगाना, ध्यान करना, विभिन्न चक्रों के स्थान पर जिस शब्द की दिव्य-ध्वनि को, यदि ज्ञात हो, सुनने का अभ्यास करना चाहिए।व्यर्थ चक्करों में नहीं पड़ना है। योगी-भाव तथा भक्त-रूप की भावना करना है। आवश्यकता मात्र ईश्वरीय भावना की है।
यही ज्ञान है। इसकी एकाकार तैलधारावत अविच्छिन्न वृत्ति का प्रवाह ही ध्यान है, ध्येय के अतिरिक्त और कोई ज्ञान या संकल्प बीच में न आने पावे, एकाकार प्रवाह होता रहे, यही ध्यान है। इसके प्रवाह से वृत्ति अंतर्मुखी होगी। तब आत्मानुभव करना चाहिए। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म वृत्त्ति को भी लय करते-करते जब एकमात्र ज्ञान ही शेष रह जाय और ज्ञान ही नहीं अपितु उस अवस्था का जो दृष्टा या साक्षी है, उसी को अपना स्वरुप समझें। अन्त में साक्षी-साक्ष्य भाव भी नहीं रहेगा।
कठ0 का सन्देश भी यही है -
"एष सर्वेषु भूतेषु गुढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।।
[कठ0 01/03/12 ]
"यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।”
[कठ0 02/03/10]
पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के सहित आत्मा में स्थिर हो जातीं हैं और बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती, वह परमगति है। उस अतीन्द्रिय और केवल शुद्ध बुद्धि ग्राह्य आनन्द को [यहाँ पर बुद्धि ग्राह्य भी कहना ठीक नहीं बनता केवल लक्ष्य निर्देश के लिए ही ऐसा कहा जाता है।] अपनी आत्मा में स्वयं ही अनुभव करता है तथा उससे बढ़ कर और कोई सुख न मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी विचलित न हो कर उस आत्यान्तिक आत्म-सुख को ही सर्वोपरि सुख समझ कर उसमें ही सन्तुष्ट रहता है।
योगमार्ग से आत्मानुभव-रूप उपासना होती है।मूँज के अन्दर से सींक [the jointed stalk of the grasses] के अनुसंधान की भाँति ह्रदय एवं बुद्धि रूप गुहा में ही आत्मदर्शानुभूति होती है। भक्ति मार्ग में सगुण-ध्यान में भी यही बात है, कोई भेद नहीं है। केवल कहने मात्र के लिए साधन भेद है। साध्य-तत्व एक ही है। उसमें भी हृदय-कमल में भगवान् के रूप का ध्यान करता हुआ सम्पूर्ण छवि का ध्यान करता है और फ़िर केवल मुख-कमल की भावना करते हुए भगवान के शुद्धस्वरूप में आरूढ़ हो जाता है और कुछ भी चिंतन नहीं करता। इस प्रकार तीव्र ध्यान-योग से वह भक्त भगवान के शुद्ध स्वरुप में तदाकार हो जाता है और अपने में परमात्मा को प्राप्त करता है।
"सो तै तोहि तोहि नहिं भेदा, वारि बीच इव गावहिं वेदा।"
अतः अपने ह्रदय गुहा में अपना ही अनुसन्धान करना, अपने ही अधिष्ठान का अनुभव करना, उसी तत्व की ही उपलब्धि करना है, जो सबमें है।
आने वाले कल की यह पूर्वसन्ध्या है। चलते चलते हम पर्याप्त आगे निकल आये थे। आइये चलें। मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ जहाँ मेरे जीवन की सम्पूर्ण आयु बीती है। मेरा बचपन, मेरी युवावस्था और अब यों मेरे जीवन का उत्तरार्ध आ पहुँचा।
एक छोटा सा, सुन्दर व सौम्य नगर, फतेहगढ़ [फर्रुखाबाद-फतेहगढ़ युगमनगर], और गंगा का यह पावन तट अति ही प्रिय है मुझे। हरी-भरी वृक्षावलि से सुसज्जित पावन तटों के सहारे कलकल-वाहिनी यह अमृत सरिता, अनन्त तक फैलीं पुण्य-स्थलियाँ, इन्हीं के झुरमुटों में सजी, सँवरी सी यह पवित्र भू-स्थली सदा-सदा से संतों, ऋषियों, महर्षियों की साधना भूमि रही है। अनेकानेक चोटी के ऋषी, तत्वदर्शी, ज्ञानी, कवि, प्रियजन इस क्षेत्र में जन्म लेते आये हैं। और ऐसे पवित्र वातावरण में चारों ओर प्रकृति सुंदरी अपनी सम्पूर्ण सुषमा पसारे बैठी है - ऊषा-संध्या, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत की बहारें हैं, आकाश के तारे, धरती के पुष्प चारों ओर अपनी चमक, अपना सौरभ, अपना निराला सौंदर्य प्रदर्शित कर रहे हैं। और इसकी निशा तो मानों साधना का स्वर्णिम साधन रही है। "या निशा सर्वभूतानां तस्य जाग्रति संयमी" का उदघोष ऐसे ही किसी साधक का रहा होगा।
चक्षु देखते हैं, सारी प्रकृति, सारे दृश्य एवं सौंदर्य किन्तु इस आदिसौंदर्य की रानी विभावरी पर तो ऋषि भी लट्टू ही हो गए। अनेकानेक ऋचाएँ उपनीत कर न्योछावर कर डालीं हैं, उसकी प्रशस्ति में। परमप्रेरिका प्राणदायिनी ऊषा के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए ऋषि कहते हैं -
"आ घा योषेव सूनर्युंषा याति प्रभुञ्जति। जरयन्तीव्रजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः।।
[ऋग्वेद 01/48/05]
उषा सुन्दर युवती की भाँति आती है, सबको आनन्दित करती हुयी सारे प्राणि-जगत को वह जगाती है। मनुष्यों को वह काम पर भेजती है और पक्षियों को गगन में बिहार करने की प्रेरणा देती है।
यह है वैदिक दृष्टिकोण की आभा की एक झलक।काव्यचेतना की जागृति के फ़लस्वरूप उन्होंने प्राकृतिक पदार्थों को ऐसे प्रगाढ़ मनोभावों और कल्पनाशक्ति द्वारा देखा कि उन्हें वे आत्मा की भावना से परिपूर्ण प्रतीत होने लगे। उनके लिए प्रकृति [मात्र जड़ न हो कर] एक जीवित सत्ता थी जिसके साथ वे प्रेम जोड़ सकते थे। ऐसी ही ममतामयी प्रकृति मेरे लिए मेरी इस साधना-स्थली फतेहगढ़ की रही है।
यदि यह सम्पूर्ण जगत माया ही है तो ऋषिकृत ऐसे दृष्टिकोण हमें सतोगुणी चेतना में अवस्थित करते हैं, जहाँ हमें यह प्रकृति, यह सँसार अति सुन्दर प्रतीत होता है एवं स्वभावतः हम उसके आकर्षण में खो जाते हैं व उसके रचैता की मनोवैज्ञानिक कल्पना करते हैं, उसके हर कृत्य में हमें वह ही वह दृष्टिगोचर होने लगता है।
"रुशद्वस्ता रुशतीश्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः।
समानबन्धु अमृते अनूची द्यावा वणं चरत आमिनाने।।"
[ऋग्वेद 01/113/02]
श्वेतवसना उषा और कृष्णवसना रजनी के बीच में है प्रकाशमान बाल-रवि। उसे मानों दुलारती हुयी दो माताएँ एक दुसरे की ओर उछाल रही हैं। रात्रि उषा की ओर, उषा रात्रि की ओर। कैसी है छटा उत्प्रेक्षा की।
इसके अतिरिक्त साधना के अंतराल में माया का एक तमोगुणी रूप भी सक्रिय रहता है जो अत्यन्त ही घिनौना व क्लेशकर होता है।
प्रसंगवश निवेदन करूँ कि उन दिनों मेरे एक अज़ीज़ चिरंजीव राम चन्द्र [शाहजहाँपुर] ने मुझ से 'शग़ल-ए-राबितः' के बारे में जानकारी ली और मेरी इजाज़त ले कर उस पर अभ्यास करना प्रारम्भ कर दिया था। चूँकि यह एक महत्वपूर्ण विषय है अतः आम- जानकारी के लिए उसका उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है।
मुर्शिद और गुरु की मिस्ली शक़्ल, उसकी हरक़ात, सकूनत, अख़लाक़ और आदत की तरफ़ अंदर दिल में नज़र रखना या याद-दाश्त क़ाइम करना, उसका ध्यान बांधना, सूफ़ियों और संत-मत के शाग़िलों और साधकों के यही रायज़ हैं। इसको 'शग़ल-ए-राबितः' कहते हैं और बरज़ख़े-पीर भी इसका इस्तेलाही [परिभाषक] नाम है। चित्त को एकाग्र करने के लिए यह अमल [अनुष्ठान] ऐसा पुरतासीर है कि जादू की तरह अपना करिश्मा दिखलाता है। बल्कि और रास्तों से यह रास्ता क़रीब और काम को सहल कर देता है। लेकिन शर्त यह है कि जिस 'मुर्शिद' का ख्याल बाँधा जावे वह मुक़म्मिल हो और संतमत-गुरु की हैसियत रखता हो। जिसके बातिन का तस्फ़ियः [निर्णय] और तज़्कियः [शुद्ध करना] हो चुका हो और माया की हद के पार पहुँचा हो, वर्ना फ़िर साधक मायाजाल का बंधुआ हो कर और भी जकड़-बन्द हो जाएगा और शैतात-सिफ़त हो जाएगा। इसलिए निहायत एहतियात लाज़िमी है कि हर शख़्स का ध्यान न बाँधा जाय। बुज़ुर्गों ने इसीलिये इसकी क़तई मुमानियत कर दी है।
संतमत में शुरू-शुरू में सत्संग के वक़्त मुर्शिद के चेहरे पर दोनों भोंओं [eye-brows] के दरम्यान नज़र जमाने को इशारा किया जाता है। यह बाहरी शक्ल जमाली की तरफ़ इशारा है लेकिन अंदर की तरफ़ अभ्यास करने के लिए मुक़ाम और जगह और ख़ास हिदायत दी जाती है, जो ज़रूरत के वक़्त और मौका के साथ इसकी तरक़ीब साधक को बतायी जाती है। आमतौर पर खुले हुए तरीक़ से इश्तिहार करने की मुमानियत है और वजह मुमानियत की ज़ाहिर है कि बेसमझ लोग शौक़ में आ कर बिला मौका और मुनासिबत के इस अमल का बेजा इस्तेमाल न कर डाले। खुद मुसीबत में फ़सेँ और दूसरों को आफ़त में डालें।
बाज़ तरीक़ के गुरु इस शग़ल-ए-राबित: का उस वक़्त तक हुक़्म नहीं देते जब तक यह नहीं देख लेते हैं कि साधक में प्रेम का चश्म: [स्रोत] उबल पड़ा है या मोहब्बत का जज़्बा भड़क उठा है, उसको ऐसी उमंग आयी हुयी है कि बग़ैर कहे-सुने ख्वामख्वाः वह शक्ल को सामने रखने लगा। अगर ऐसा ग़लबः [प्राचुर्य] मोहब्बत का हो जाय कि शक्ल दूर करने से भी न हटे तो यह क़ुदरत का तक़ाज़ा है और लहर रुख़ बहाव की तरफ़ है वर्ना ज़बरदस्ती क़ाइम करना एक तरह का हठ है जो मूर्ति-पूजन की हद में आ जाता है। इस हठ और ज़बरदस्ती शग़ल करने का वही नतीज़ा होता है जैसा कि अक्सर तरीकों में 'अनहद' शब्द सुनने के लिए कानों में उँगलियाँ लगाना और 'ठड्डा' ठूँसने से जो नतीज़ा होता है कि 'शब्द' तो सुनायी दे जाता है, मगर आरिज़ी [लत] जिसमें बीमारी का भी शुबह रहता है।
इस शग़ल का असली मतलब और फ़लसफ़ः मुख़्तसर [संक्षेप] और इशारे के तौर पर इतना कह देना काफ़ी है 'बरज़ख़' - कहते है दर्मियानी चीज़ को जो एक-दुसरे के साथ जोड़ देने में ज़रिया या वास्ता हो। 'पीर' या 'गुरु' दर्मियानी-मीडियम है, परमात्मा से जोड़ने का। अगर यह समझ में न आये तो इस तरह ख्याल करना चाहिए कि 'आईना' [mirror] वास्ता है अपनी शक्ल देखने का ; किताब ज़रिया है इल्म का ; उस्ताद वास्ता है किसी फ़न [विद्या] के हाँसिल होने का ; धातु या पत्थर की मूर्ति परमात्मा की याद दिलाने का एक ख़ास जरिया है। इसी तरह ज़िंदा गुरु और भी मुक़म्मिल आदर्श है, ब्रह्म से नज़दीक़ी हाँसिल करने का। बिना शुबह गुरु की शक्ल-मिसाली साधक और ब्रह्म के दर्मियान एक जीता-जागता वास्ता है। उसके आदत अख़लाक़, तर्ज़े-अमल, दुनियाबी व्यवहार और रूहानियत का प्रभाव साधक में बिजली की तरह उसके दिल और दिमाग़ में दाख़िल हो कर सरायत [प्रभाव] करता है और हमदम रूह ताज़ा फूँकता रहता है।
यह अमल रस्ते की मुश्किलें दूर करने के लिए या दूसरे अभ्यासों की रूखी-फींकी रुकावटों [rough and tumble interruptions] को आसान बना देने में बड़े काम की चीज़ है। लेकिन जिस साधक को यह ख़्याल अज़ख़ुद पैदा हो जाय और सामने से न हटे और दूर करने पर भी अलहदा न हो और फिर इसके साथ इसकी वजह भी समझ में न आवे तो वाक़ई इस क़दर जल्द रास्ता आसानी से तय हो जाता है कि अपने को और दूसरे सीखने वालों को तब्दीली हालत पर एक ताज्जुब हो जाता है। एक साधक से यह इत्तिला मिली है कि चलती हुयी शक्ल का तसव्वर निहायत आसानी से हो जाता है। बैठी हुयी शक्ल का ज़रा ग़ौर [चिंतन-मनन के बाद] से होता है और लेटी हुयी शक्ल का बहुत ही मुश्किल से होता है। इसका क्या भेद है ? जवाब इसका बहुत साफ़ है। [01]चलती हुयी शक्ल जीती-जागती हुयी कर्मयोगी के आदर्श और उसके रूप को दिखलाती है। [02] बैठी हुयी हालत यह इशारा करती है कि उस शक्ल में कर्म की शान की झलक तो है और कर्म करने को मुस्तैद [तत्पर] है मगर कर्म करने को खड़ा हो गया है। उम्मीद है कि मुस्तैद और कर्मवीर हो जाय। [03] लेटी हुयी शक्ल सहज ज़िन्दग़ी की मूर्ती है ; इसमें हरक़त नहीं, यह जमूदी [तामसिक-अवस्था] क़ैफ़ियत है। यह सुषुप्ति [ख़्वाब ग़फ़लत] अंधकार, अज्ञान की हालत है।
अब साधक की तरफ़ से इन हालात को लीजिये और उनसे नतीजा बरामद कीजिये कि साधक ने जमूदी [तामसिक] कैफ़ियत से तरक़्क़ी की है और हालात दरम्यानी बैठी हुयी हालत को पार करके आख़िरी मुस्तैद और ज्ञान की क़ैफ़ियत पर आना शुरू किया है। शाग़िल की धारणा न अब तामसिक है न राजसिक। चलती-फ़िरती हुयी चीज़ में ध्यान का लग जाना धारणा की तेज मश्शाक़ी का सबूत है। मिसाल से इस तौर पर समझना चाहिए कि चित्त की धारणा ठहरी हुयी चीज़ पर भी न जम सके, लेकिन मश्शाक़ी के सिलसिले में हलके-हलके घुमते हुए चक्कर पर ठहरने लग जावे और फ़िर आख़िरकार निहायत तेज़ी के साथ घूमते हुए चक्कर या हल्क़ः [परिधि या मण्डल] पर जमने लगे, और ऐसी तवज्जः ठहर जाय कि चलती हुयी शक्ल पर आसानी से ध्यान लग जाने लगे तो फ़िर अब क्या नतीज़ा निकालना चाहिए।
चलती-फ़िरती हुयी शक्ल कर्मयोगी और कर्मवीर ज्ञानी की मूर्ती है और ज़िंदा तस्वीर है, जिस पर आसानी के साथ नज़र का ठहराव हो जाना इस बात की दलील है कि शाग़िल की नज़र इस असर के क़बूल करने को मुस्तैद है और मुनासिबत ने काफ़ी इस्तेदाद [किसी चीज़ से प्रभावित होने की योग्यता] को क़बूल कर लिया है। उपनिषद् यह सन्देश देती है कि 'उठो, जागो, चलो और चले चलो और कभी ठहरने का नाम न लो'।
साधक ज्यों-ज्यों अपने इष्ट के निकट आता जाता है जहाँ कि उसका उद्गम स्थान है वह तमोगुणी माया अत्यंत ही विकराल रूप धारण कर उसका पीछा करती है। मेरे उपरोक्त अज़ीज़,
बाबू राम चन्द्र [शाहजहाँपुर] के निम्नलिखित पत्र और उन्हें दिए गए मेरे उत्तर से पूरी बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जावेगी।
“शाहजहांपुर
31 अक्टूबर 1929 [AD]
“मेरे दोनों जहाँ के श्रद्धेय मालिक, ईश्वर आपको दीर्घायु करे।”
"अर्ज़ यह है कि मुझे जो हालात हाल में गुज़र चुके हैं और गुज़र रहे हैं, इनकी इत्तिला देना ज़रूरी है। 01 नवम्बर सं 1929 ईस्वी को 08 बजे रात के एक अंदरूनी हालत का उभार पैदा हुआ और इससे अपनी हालत का नक़शा पेश नज़र हो गया। यह हालत हमाँदम [तत्क्षण] और सरापा [नितान्त] थी। ख़याल उस हालत से मिल कर एक हो रहा था। या यूँ कहना चाहिए कि ग़र्क़ [निमग्न] हो गया था और वह हालत अनामूर्शिद अज़ सरतापा [सर से पाँव तक] का ख़याल पैदा कर रही थी मगर जोश के साथ, यानि हर बात उसमें लय हो कर असल हो गयी थी। हिम्मत बेशुमार थी और यह जज़्बात मौजूद थे कि हर काम कर सकता हूँ। और अपने आप को क़ादिर [समर्थ] व मालिक हर शै का समझता था। थोड़ी देर इस ख़्याल में मह्व [तन्मय] रहा। मगर हद से ज़्यादः बाहिम्मत होने और ऐसे जज़्बात उठने को मैंने अहंकार समझा, इसलिए जिस हालत में कि मैं घुसा हुआ था निकल कर हलके ख़्याल से कुछ देर इस हालत की तरफ़ रुज़ू रहा बाद को खाना खा कर लेटा, क़रीबन 10.00 बजे रात के मीराबाई का भजन गाने लगा - "मोरे मन राम राम दूसरा न कोई।" फ़िर वही समां बंध गया। हालत मज़कूर [उपरोक्त] दिन में अक्सर पैदा होती रहती है। मगर इस क़दर बेखुदी और गुमशुदग़ी नहीं होती, और न हालत खुल कर पेश-नज़र उस दर्ज़ा तक होती है। अलबत्ता जहां तक मेरा ख्याल नाक़िस पहुँचता है खुद-फ़रामोशी महसूस होती है। हालत ज़्यादःतर बेक़ैफ़ी और ए'तिदाल [संतुलन] की रहती है और फ़नाईयत का एहसास दिलाती है।”
Shri Ram Chandra [Baabuji] Shahjahanpur UP |
"दूसरा पक्ष भी अति आवश्यक है जिससे मेरी चारित्रिक स्थिति पर प्रकाश पड़ेगा व इसकी सूचना आदरणीय श्रीमानजी की सेवा में भी हो जायेगी, वह यह है कि घर में इतना दुखी किया जाता हूँ कि कभी-कभी भाग जाने को और कभी सिर फोड़ लेने की इच्छा होती है, यद्यपि इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। घर पर पहुँचते ही कोई न कोई स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि अकारण ही क्रोधित हो उठता हूँ अथवा मैं स्वयं ही निर्लज्ज हो जाऊं। यही कारण है अनायास ही क्रोध में आ जाना अब मेरी आदत ही बन गयी है एवं इसके परिणामस्वरूप कई बार बड़ी हानियाँ भी उठानी पडीं हैं। तापर्य यह है कि आवेश में आ कर किसी वस्तु को तोड़ देना, इत्यादि इत्यादि। हाँ एक बात अवश्य है कि मेरा यह क्रोधी स्वभाव अपने परिवार तक ही सीमित है। एकान्त या जब ईश्वर कृपा के मध्य होता हूँ तो चित्त को थोड़ा विश्राम व शान्ति मिल जाती है। अन्यथा कोई न कोई बात ऐसी उत्पन्न कर दी जाती है कि जिसके साथ समझौता करना मेरी प्रकृति के विपरीत होता है एवं जिसको न करना ही श्रेयस्कर होता है। ये बातें अधिकतर ऐसे समय पर होतीं हैं कि जिस समय मैं कचहरी से वापस आया हुआ होता हूँ या किसी परिश्रम के फलस्वरूप थका हुआ होता हूँ।”
“बहुत शीघ्र ही व थोड़ी सी ही बात पर क्रोध में आ जाता हूँ किन्तु उसका आवेग धीमा होने पर ह्रदय में उसके चिन्ह शेष नहीं रह जाते और उस व्यक्ति के पैरों पड़ने की इच्छा होती है।स्वभाव ही अब क्रोधी बनता जा रहा है व उसके लिए कोई न कोई कारण ढूँढता रहता है। कुछ माह पूर्व यह स्थिति न थी जो अब है। चित्त में चिड़चिड़ापन पैदा हो गया है।"
मेरे द्वारा जो उत्तर उन्हें दिया गया था, उसका भी अवतरण यहाँ पर दिया जा रहा है। सम्भवतः उसके माध्यम से आपको भी दिशानिर्देश मिल सकें।
फतेहगढ़
27 नवम्बर 1929 [ईस्वी]
“जो हालत उरूज़ [प्रकट होना] और तरक़्क़ी मदारिज़ [पदों] की निःस्बत तहरीर किये हैं, वह अल्लाह मुबारक़ करें। वह 'अहंकार' नहीं है, बल्कि हिम्मत-अफ़ज़ां है। इसका शुक्राना अदा करना चाहिए, तो फ़िर 'अहंकार' नहीं रहेगा। अगर खुदा की तरफ़ मंसूबः [संकल्प] कर लिया जावे तो फिर ग़ुरूर कहाँ, क्योंकि वह तो खुदा की तरफ़ से है। अपना उसमें कुछ भी नहीं।”
"ई स आदत बज़ोर बाजू नेस्त ;
ग़र न बख़्शद खुदाए बख्शंदह।"
[बेक़ैफ़ी की हालत अच्छी है और देर पा होती।]
"परेशान किया जाना अच्छा है। घर
हिल्म
hilm•حِلْم (सहनशीलता = Forbearance} और बर्दाश्त का स्कूल है। हमारे यहाँ इन्हीं बातों पर सब्र करना तप कहलाता है और जुमला अक्साम के तपों से यह बालातर है। बस बजाय गुस्सा या ग़म के ग़ैरत अख़्तियार करना चाहिए। ग़ैरत कहते है उस जज़्बा को, जिसमें दूसरों के कहने-सुनने और मलामत करने पर यह मालुम होता है, कि वाक़ई मेरा ही कसूर है और फ़िर ज़ब्त कर लेना पड़ता है औरों के वास्ते जंगल और तन्हाई गोशानशीनी तहम्मुल और बरदाश्त और दुनियाँ के चक-चक, बक-बक से रिहाई के अस्बाब हैं। और हमारे वास्ते, घर वालों, दोस्तों, दुनियाँ वालों की झिड़कियाँ, ताने, मलामतें, रियाज़त और चिल्लाकशी है। पस चिड़चिड़ापन दूर करें और सब्र अख़्तियार करें।”“इन्शाअल्लाह इसके बाद तस्लीम और रज़ा भी आ जावेगी।"
“दुआ गो, राम चन्द्र”
"मात्रास्पशॉन्तु कौन्तेयु शीतोष्ण सुख दुःखदाः।
आगमापायिनोsनित्यास्तांस्तितिक्षस्य भारत।।"
[गीता 02/14]
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति - विनाशशील और अनित्य हैं। इसलिए हे भारत, उनको तू सहन कर।
विषय और इन्द्रियों के संबंधों को "शीतोष्ण सुख दुःखदा" कह कर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वे समस्त विषय ही इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर शीत - उष्ण, राग - द्वेष, हर्ष - शोक, सुख-दुःख, अनुकूलता, प्रतिकूलता आदि समस्त द्वन्द्वों को उत्पन्न करने वाले हैं। उनमें नित्यत्व - बुद्धि होने से ही नाना प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, अतएव उनको अनित्य समझ कर उनके साथ तुम्हें किसी प्रकार भी विकारयुक्त नहीं होना चाहिए।
सुख देने वाले जो इन्द्रियों के विषयों के साथ संयोग है, वे क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिए उनमें वास्तविक सुख का लेशमात्र नहीं है। अतः तुम उनको सहन करो अर्थात उनको अनित्य समझ कर उनके आने-जाने में राग-द्वेष और हर्ष-शोक मत करो। बंधु-बांधवों का संयोग भी इसी में आ जाता है। क्योंकि अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा ही अन्य विषयों की भाँति उनके साथ संयोग-वियोग होता है। अतः भगवान् का आदेश है कि सभी प्रकार के संयोग-वियोगों के परिणामस्वरुप सुख-दुःखों को सहन करो।
मेरा एक छोटा सा घरौंदा है, छोटी सी दुनियाँ है। मेरे यहाँ नित्य नए-नए व एक से एक उच्चकोटि के भक्त आ कर मुझे दर्शन दे कर निहाल करते हैं। मेरा अलग ही एक छोटा सा संसार है, जिसे बसा कर मानों मुझे इस विराट ब्रहाण्ड में कार्य करती हुयी सम्पूर्ण प्रतिक्रियाओं का एक संक्षिप्त प्रकरण ही मिल गया हो, एक ही परिवार में त्रिगुणात्मक प्रकृति के भिन्न-भिन्न खिलौने आ कर इकट्ठे हो गए हों। कोई आत्मायें पुत्ररूप में आ कर सत्वगुण की सुषमा बिखेर रहीं हों। कोई आत्मायें रजोगुण में लिपटी हुयी कन्याएँ बन कर आडम्बरप्रियता का प्रकाश बिखेर रहीं हों। कोई कोई आत्मा तमोगुण में समाच्छन्न हुयी आलस्य, प्रमाद, तन्द्रा, अज्ञान, अविवेक, गर्व, दम्भ, दर्प और अनास्था का तिमिरजाल फैलाने में प्रवीण हों। ऐसा लगता है कि मेरे प्रभु का यह प्रासाद मानों एक रंगमंच ही बन गया हो, जिसपर दसों रसों का आकर्षण अभिनय प्रतिक्षण चलता रहता हो।
जीवन में छः प्रकार के असुर या अंधकार हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और अहंकार। शान्त चित्त को ये अपने आक्रमण से अशान्त बना देते हैं। रस को बिगाड़ कर कुरस में बदल देते हैं। आनन्द को छीन कर दुःख का अनुभव कराते रहते हैं। असुरों का यह आक्रमण हमारे मन पर प्रायः होता ही रहता है। इनके आने का न कोई देश है न काल। ये तो हर समय सब जगह प्रगट हो जाते हैं।
भगवान के छः गुण ऐश्वर्य, वीर्य या कर्म-शक्ति, यश, श्रीलक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, जो विष्णुपुराण में बताये गए हैं, इन छः असुरों को जीतने में सफ़ल हो सकते हैं।
देखिये, एक नट है। वह कभी राजा का, कभी चपरासी का, कभी ब्राह्मण का, तो कभी चाण्डाल का, यों अनेक वेष धारण करके अभिनय करता है। तथापि किसी भी वेष का अभिनय करते समय उसको अपने नट-स्वरुप का निश्चय थोड़ा भी नहीं छूटता। वह सब प्रकार से अपने स्वरुप में अच्युत ही रहता है।
यह भी देखिये कि एक गृहस्थ कितने सम्न्धों का निर्वाह करता है और कितने अधिक स्वाँग धारण करता है। वह किसी का चाचा है, किसी का मामा है, किसी का पिता है तो किसी का पति है और अपने सम्बन्धों के अनुरूप ही दिनभर व्यवहार करता है।
मैं भी ऐसा ही एक साधारण सा गृहस्थ हूँ। बड़ा ही साधारण सा घर व परिवार है मेरा। मेरे घर में मुझ से छोटे, प्रेम से मुझे 'लालाजी' कहते हैं। कुछ भी तो नहीं है मुझ में जिसे देख कर मुझे संत या सद्गुरु की श्रेणी में गिना जाय। किन्तु न जाने क्यों भ्रमित हो कर लोग मुझे 'महात्मा' समझने लगे हैं। मैं यों किसी भी सत्य या असत्य की गहराई में नहीं जाना चाहता। लगता है भगवत-कृपा की ही कोई चाल है कि मुझे एक संत होने का नाटक करना पड़ रहा है। इसी अभिनय के अन्तर्गत नित्य ही नए-नए महान भक्त आकर दर्शन देते हैं और कृतार्थ करते हैं, न जानें किस धोखे में मुझ अपात्र पर सतत ऐसी प्रीति की वर्षा की जा रही है। अनजाने ही सही, मेरे प्रभु की ही कृपा, उन्हीं का अपार वात्सल्य व प्यार है जिसमें मैं स्नान कर रहा हूँ। इस उचित या अनुचित किन्तु निरे अप्रत्याशित से दुलार से मैं विमूढ़ सा हो रहा हूँ, जिसका कहीं ओर-छोर नहीं मिलता।
साधना की चरम ऊँचाइयों की ललक व ब्रह्मपद की चाह, इतना ही नहीं एक संत का बाना ले कर सँसार की हाट में उतरने के लिए भी मैं मचला एवं उसके लिए तुमसे हठ की, तो उसके लिए भी 'हाँ' कर दी उन्हीं प्रभु ने। अपने दुलार को दाँव पर लगा दिया कि दुनियाँ के आलोचक क्या कहेंगे, उन्होंने इस सम्बन्ध में भी कुछ सोचा होता ?
क्या ही अच्छा होता हमारी प्रीति को, हम दो ही जानते। हमारे प्यार का यह कोमल पौधा सँसार की तीक्ष्ण दृष्टि कैसे सहेगा ? मेरी ललक देख कर तुमने मुझे खुले बाज़ार में भेज ही दिया। अब सरे बाज़ार तालियाँ मिलेंगी या गालियाँ। खिलाड़ी का खेल तो तभी सराहा जाएगा जब गालियाँ उद्विग्न न करें व तालियाँ लुभा न सकें। प्रेम की चोट बड़ी करारी होती है। वही इसे जानता है जिसका ह्रदय प्रेम के वाणो से बिंधा हो। शब्दों में इसका वर्णन कोई करना भी चाहे तो क्या करे। मिलन की एक और झाँकी देखिये।
बुंदेलखण्ड से आये हुए व्यक्तियों में से एक हैं श्री भवानी शंकर जी, प्रेम की साकार मूर्ति। भक्ति व आराधना की श्रुतियाँ उनकी साधना से प्रवाहित होतीं हैं। बार-बार आना होता है उनका, और एक बार तो ऐसे आये कि मैं मोहित हो गया उनकी उस छटा पर, भावनाओं का स्वयं एक ज्वार बने हुए थे वह उस घड़ी।
उस सायँ फतेहगढ़ में तलैयालेन स्थित अपने निवास पर कुछ प्रेमी-भक्तों के मध्य बैठा मैं भगवत्-चर्चां में तल्लीन था। प्रभु-प्रेम सामीप्य का लाभ उठा रहा था। बड़ी ही विशेष सुखानुभूतियाँ थी उस क्षण की। प्रेम-मद का नशा अत्यन्त चढ़ा हुआ था। सौंदर्य की तेज ज्वाला भड़की हुयी थी। आनन्द का पारावार उमड़ रहा था। उसी दिव्य बेला में मुझे सूचना दी गयी कि श्री भवानीशंकर जी मुझ अकिंचन दास को कृतार्थ करने के लिए अपने कुछ प्रेमी भाइयों सहित झाँसी से उरई - कानपुर होते हुए फतेहगढ़ पद-यात्रा करते हुए आ रहे हैं। मेरे मन-प्राण जो अभी तक अन्तर की गहराइयों में डुबकियाँ लगा रहे थे, प्रेम-विभोर हो उठे, उनमें एक उफ़ान सा आने लगा। मुझे यों लगा मानों भक्तरूप में स्वयं भगवान आ रहे हैं। उनके रूप में जब स्वयं प्रभु आ रहे हैं तो रुका जाएगा मुझसे क्या ? नहीं। कभी नहीं। मैं भी उनके स्वागत के लिए जाऊँगा, जहाँ भी मिल जायँ वह मुझे। कुछ और दीवाने भी मेरे पीछे-पीछे हो लिए। जो जैसे थे वैसे ही उठ चले। पल झपकते हुए चल दिए। पता न चला कि कब फतेहगढ़ की बस्ती पीछे छूट गयी और मैं दीवानावार 'नवदिया' में आ गया। यहीं दो प्रेमी प्रेम-मग्न हो मिले। एक से अनेक मिले। नहीं अनेक से अनेक मिले। यहीं मिलन-स्थल था। प्रेमाश्रुओं की वृष्टि भी यहीं हुयी। मिलन तो सर्वत्र ही हो रहा है - "सब घट हौं बिहरोँ। सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय।" आत्मा की कोई भी सेज सूनी नहीं है। वह सब में बिहर रहा है, रमण कर रहा है। सर्वत्र 'रास' छिड़ा हुआ है।
"ऐसे पियै जान न दीजै हो।
चलो री सखी ! मिलि राखिये, नैनन रस पीजै हो।
स्याम सलोनो साँवरो मुख देखत जी जै हो।।
जोई जोई भेष सौ हरि मिलैं सोइ कीजै हो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बड़ भागन रीझै हो।।"
यह छटा तो कुछ घड़ी की ही थी। आयी-गयी हुयी। किन्तु न जानें क्यों वह घड़ी, वह दृश्य, वह स्थान, वह स्थिति, कुछ ऐसी भा गयी कि चित्त में बार-बार उसके दर्शन करता हूँ। मेरी हार्दिक कामना है कि दिव्य-मिलन, प्रेमाश्रुओं से सिंचित यह मेरी साधना-स्थली मेरा तीर्थ-स्थल बन जाय, ब्रह्मज्ञान की उर्वरा-भूमि बन कर काकभुशुण्डिजी का आश्रम सिद्ध हो, मेरा मन-मानस यहाँ सदा सदा के लिए रम जाय।
नित्य प्रातः व सायँ इसी मिलन स्थल [नवदिया] तक टहलने आता हूँ, घण्टों एकान्त में बैठा रहता हूँ। यहाँ आम्र व बेर के कुञ्ज व नागफ़नी के झुरमुट बड़े ही रम्य लगते हैं। इन पंक्तियों को गुनगुनाया करता हूँ। बड़ी प्यारी लगती हैं।
"दमे वापसी बर सरे राह है। अज़ीज़ों, अब अल्लाह ही अल्लाह।
वादये वस्ल चू सबद नज़दीक़। आतशे शौक़ तेजतर गरदद।।"
डॉ श्रीकृष्ण व श्याम लाल से, जो मेरे पुत्रवत निकट हैं व जिन पर बड़ा भरोसा है मुझे, मैंने कह रक्खा है कि वे मेरे लिए एक गाय का प्रबन्ध कर दें जिससे मैं अन्न इत्यादि छोड़ कर मात्र दूध को ही अपना आहार बना लूँ, गाय की सेवा करूँ और महामिलन के इस स्थल 'नवदिया' में ही अब वास करूँ। यही मेरा नीड़ बन [nest] जाय।
"रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो।
हम सुख़न कोई न हो और हमजवां कोई न हो।।
बे दरो-दीवार का एक घर बनाना चाहिए।
कोई हम साया न हो और पासवाँ कोई न हो।।" *
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* संयोग की बात है कि श्री लालाजी महाराज की महासमाधि महा-मिलन के इस स्थल [के आस-पास लबे-सड़क] नगर महापालिका के प्लाट संख्या 01/114 मोहल्ला 'नवदिया' फतेगढ़ [उ0 प्र0] 209601 में बनी हुयी है।
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पुनः स्मरण हो आती है वह बात कि अपने हज़रत क़िब्ला को मैं अपनी करुण कहानी सुना रहा था। वह काफ़ी देर तक बड़े ध्यान से भाव-विभोर हुए सुनते रहे और विकल हो कर कहने लगे "पुत्तूलाल ! बन्द करो अब नहीं सुनी जाती तुम्हारी यह कहानी" कह नहीं सकता वह मेरी अधूरी बात ही जो हज़रत क़िब्ला को सुना रहा था, सुनानी शेष रही और यह कहानी बन गयी। यों विचारों की उथल-पुथल में यह बात भी मन में आती है कि मेरी या अपनी कहानी कह कर मैं कोई भ्रान्ति तो उत्पन्न नहीं कर रहा हूँ। फ़िर यह भी ख़याल आता है कि मैं, मैं भी हूँ या नहीं। अपने हुज़ूर के जलाल में मेरी हस्ती की कोई सूरत बाक़ी है भी या नहीं, यह मेरी कहानी है, या किसी और की। जो कुछ भी हो जिसकी हो, वह जाने। हाँ मेरी एक तमन्ना ज़रूर है कि काश 'वह' इसे सुन लेते -
"कब वह सुनता है कहानी मेरी। और फ़िर वह भी जवानी मेरी।।
ख़लिश-ए-गम्ज़ा-ए-खूं-रेज़ न पूछ ; देख खूंनाबा-फ़िशानी मेरी।
क्या बयाँ कर के मिरा रोएगा यार ; मगर आशुफ़्ता-बयानी मेरी।
हूँ ज़-खुद रफ़्ता-ए-बैदा-ए-ख़याल ; भूल जाना है निशानी मेरी।
मुतकाबिल है मुक़ाबिल मेरा ; रूक गया देख रवानी मेरी।
क़द्र-ए-संग-ए-सर-ए-रह रखता हूँ ; सख़्त अर्ज़ा है गिरानी मेरी।
गर्द-बाद-ए-रह-ए-बेताबी हूँ ; सरसर-ए-शौक़ है बानी मेरी।
दहन उसका जो न मालूम हुआ ; खुल गयी हेच मदानी मेरी।
कर दिया ज़ोफ़ ने आजिज़ ग़ालिब ; नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी।"
Dear Brother,
ReplyDeleteSadar Pranam. Thanks a lot for sharing this. May our Rev. Lalaji bless us all.
Shat Shat Naman 🙏🏼🌹🌹
ReplyDeleteHeart touching story with intense feeling.Gives spiritual joy. May Samarth Samarth Sadguru Lalaji Maharaj bless all of us with Love, Eternal bliss and peace
ReplyDeleteसादर कोटि प्रणाम।आप की इस कृपा के लिए हम सब हृदय से आभारी हैं।
ReplyDeleteThis is Narendra Nath in pursuit of spirituality. Research scholar at Department of Physics, University of Lucknow.
ReplyDeleteYour articles are mindblowing.
प्यारे अभ्यासी भाइयो और बहनों - लाला जी साहब ने कहीं चित की location का ब्यौरा दिया है - अपने लेखों में ?
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