Sunday, 12 January 2020

18. उत्तर दीप्ति

                                'उत्तर दीप्ति'

मेरे परमपूज्य गुरुदेव; जिन्हें मैं "हुज़ूर महाराज" कह कर याद करता हूँ, और मेरे व उनके बीच के संबंधों का तार भी इसी एक छोटे - से शब्द विन्यास में निहित है। आप विश्वास कीजिये, व्याकरण के अंतर्गत, सम्बोधन के लिए एक आदरसूचक सर्वनाम, मात्र नहीं है - यह। उनकी सदा - सर्वदा विद्यमानता ही मेरे लिए "हुज़ूरी" है और वे मेरे हुज़ूर हैं। उन्होंने एक बार बड़े ही मार्मिक शब्दों में मुझसे फ़रमाया था - "बेटे! जैसे और जिस तरह भी हो, बुज़ुर्गाने - सिलसिला के इस मिशन को दुनियाँ के लोगों तक पहुँचा देना, जिससे दीन - दुखी व कमज़ोर लोगों के लिए भी रिफ़अत [उच्चता या उन्नति] और राहेनजात [मुक्तिपथ, मोक्षमार्ग] नसीब होती रहे।" हुज़ूर महाराज ने गुरुदक्षिणा - स्वरुप यह वचन भी लिया था "मालिक के नाम पर, जिस प्रकार उनकी ओर से निष्काम प्रेम और निःस्वार्थ भाव से जो क्रिया, छिपे तौर पर मेरे साथ की गयी थी, उसी चलन को मुझे भी बिना किसी भेद - भाव के दोहराना होगा। मैं अपने दैहिक जीवन काल के अब उत्तरार्ध में हूँ। इस पूरे काल में यह बात मुझे लगातार कचोटती रही है कि इस दिशा में मैं अभी कुछ भी नहीं कर पाया हूँ। इसका बहुत बड़ा कारण मेरी नौकरी व घर - गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहना भी है। मैं मानता हूँ कि ये क्षमायोग्य नहीं है।

मैं पहले भी निवेदन कर चुका हूँ कि अभी तक मात्र ब्रह्मविद्या की शिक्षा-दीक्षा तक ही मैंने अपने आप को सीमित रखा हुआ था। जैसा कि दूसरे पंथ व सम्प्रदायों में होता है की सामाजिकता भी उससे जुड़ती चली जाती है और पन्थाइयों के आचार - व्यवहार व अनुशासन के निर्माण के कार्यक्रम भी साथ साथ चलते हैं। मैं अभी तक उस ओर अग्रसर नहीं हो पाया हूँ। बहुत देर से मुझे अनुभव हुआ कि जो कुछ भी मै कर पाया, उसके अतिरिक्त, कुछ और भी मुझे करना चाहिए था किन्तु जो मुझसे छूटता चला गया।

मेरे साथ चलने वालों की संख्या, बिना विराम बढ़ती चली गयी। इस बीच जब भी समय मिलता, लोग आते और यहां फतेहगढ़ में मेरे आवास पर इकट्ठा होते रहे। धीरे धीरे इन शिविरों की संख्या और उनका आकार बढ़ने लगा। वर्ष 1923 [ईस्वी] के आते आते लोगों के ये जमावड़े, बढ़ते बढ़ते उत्सवों का रूप ग्रहण करने लगे और इस प्रकार वर्ष 1925 [ईस्वी] के ईस्टर अवकाश में चार दिन का, पहला बड़ा और व्यवस्थित शिविर हुआ। सबसे आश्चर्य की बात यह रही कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे इस आयोजन का नाम 'भण्डारा' पड़ गया। एक ऐसा अवसर था कि मुझे अब इस समाज को व्यवस्थित स्वरुप प्रदान करने की चिंता सताने लगी। वर्ष 1927 [ईस्वी] में कुछ नियम बनाये गए जिन्हे उसी वर्ष के भंडारे में 'सत्संगियों के कर्तव्य' शीर्षक से विधिवत प्रकाशित किया गया - परिशिष्ट [ख]। इन नियमों का अनुपालन अथवा कार्यान्वयन किस सीमा तक हो पाया, यह अलग बात रही। किन्तु यह चर्चा का विषय अवश्य बने और लोगों ने इन्हे पर्याप्त सीमा तक अपने जीवन में उतारने की कोशिश भी की। लोगों में इसके परिणामस्वरुप, क्या कुछ परिवर्तन दृष्टिगत हुए और क्या अपेक्षित थे, यह बात पीछे रह गयी; मेरे अंतर में एक बड़ा तूफ़ान उठकर खड़ा हो गया। वह यह था कि मेरे मालिक के भेजे हुए लोग जो मेरे सुपुर्द हैं, इनके आचरण और रहनी - सहनी में यदि थोड़ी सी भी त्रुटि या कमी रह गयी तो मुझे क्षमा नहीं किया जाएगा। मेरी करी-करायी साधना निष्फल हो जाएगी।

इसी क्रम में, वर्ष 1928 ईस्वी में सत्संग की व्यवस्था को पुनर्गठित करने के लिए एक फॉर्म का निर्माण किया गया, जिसको प्रत्येक सत्संगी भाई/बहन को आवश्यक रूप से भरना था। मैं स्वभाव से जहाँ एक ओर संकोची हूँ, वहीँ दूसरी ऒर प्रयोग-वादी भी। अपनी स्वभावगत इस कमी के कारण मैं बार - बार असफल भी हुआ हूँ और कई बार अपने ही लोगों द्वारा अस्वीकृत भी किया गया हूँ। अब तो इस सब का आदी भी हो गया हूँ। संकोची होना कोई अवगुण नहीं है, किन्तु बहुधा अपने आप को, मैंने दब्बू और डरपोंक भी पाया है। हो सकता है यह मेरे स्वभाव का अनुवांशिक दोष हो। पूर्वलिखित रूप-रेखा को स्वयं प्रस्तुत करने के बजाय मैंने बाबू बलदेव प्रसाद दलेला 'वैद्य' के छोटे भाई चिरंजीव 'राम प्रसाद' नामक एक सत्संगी लड़के द्वारा उसको पढ़वाया; बग़ैर इस खुलासे के, कि मेरी ओर से था, जनसमुदाय के बीच इस आलेख को पढ़ा गया। उसके बाद, उस पर लोगों की जो प्रक्रिया सामने आयी, उसके लिए मैं सर्वथा तैयार न था। मेरे आशचर्य की सीमा उस समय छोटी पड़ गयी जब मैंने देखा कि मेरे सबसे अधिक, आगे-पीछे चलने वाले, जिनसे मुझे अनेक आशाएं थीं, और जिन्हें मैं ‘मुरीद’ के स्थान पर "मुराद" कह कर उनका अभिवादन किया करता था, वे ही विरोध - स्वरुप उठ कर खड़े हो गए। कहने लगे - "हम तो शुद्ध आध्यात्मिकता के लिए आते हैं, यह सब क्या तमाशा है। पहले से ही इतने अधिक धर्म और संप्रदाय हैं, एक नया खेल, एक नया धार्मिक संगठन और खड़ा कर देने का क्या अर्थ है?"

हो सकता है कि विचाराधीन आलेख की अंतर्वस्तु के बारे में, उन महानुभावों को कुछ सम्भ्रम हो अथवा उसके बारे में उनको कोई बुनियादी जानकारी न हो, उसकी पृष्ठभूमि क्या है - उन्हें पता न हो अथवा उसको पढ़ने वाले से उनका कोई द्वेष हो या किसी अन्य पूर्वाग्रह से वे ग्रसित हों। सच्चाई क्या थी, उसकी तह में जाने के बजाय, विधाता की वैसी ही इच्छा समझ कर मैं शान्त हो गया और उन फॉर्म्स को, अपनी क्षमता के अनुसार, लगभग सभी साधको में वितरित करवा दिया गया । उन पर कृत कार्यवाही के अनुशीलन पर ज्ञात हुआ कि पूर्वोक्त बवण्डर में उक्त फॉर्म्स की वास्तविक रूप-रेखा अधिकतर व्यक्तियों की या तो उनकी समझ में नहीं आयी अथवा उसमें उनकी रूचि ही नहीं थी अतः अधिकतर फॉर्म्स या तो अधूरे पाए गए या  उनमें दिए गए उत्तर ठीक-ठीक नहीं दिए गए थे। अपने संकोची-स्वभावगत अनेक कमियों के बावजूद भी मैंने अपने इरादे में किंचितमात्र भी बदलाव नहीं किया। उसी वर्ष 1928 ईस्वी के भण्डारे पर मैंने स्वयं एक लेख के माध्यम से इस [पूर्वलिखित] फॉर्म की मद-वार [item-wise] व्याख्या सभी उपस्थित जन-समुदाय के मध्य प्रस्तुत करके अपने कार्यक्रम को मूर्त-रूप देने का एक और प्रयास किया  [परिशिष्ट-ग]।

इस सम्बन्ध में मेरा निवेदन है कि किसी भी धर्म का कोई संगठन न आज तक कभी हुआ है और न ही, हो सकना संभव है। किसी भी धर्म के संगठन को बनाने का मतलब है - धर्म को नष्ट करना। 'धर्म' तो नितांत वैयक्तिक बात है। संगठन या भीड़ से उसका कोई सम्बन्ध नहीं। मेरे इस वक्तव्य का तात्पर्य है कि धर्म के अतिरिक्त सामाजिक, शैक्षणिक, नैतिक, सांस्कृतिक और दूसरे अनेक संगठन हो सकते हैं, किन्तु धर्म के नहीं। यह बात जान लेना आवश्यक है कि यदि किसी संगठन की बात चलती है तो  वह धार्मिक नहीं होगा। उस संगठन में सम्मिलित हो जाने से कोई धार्मिक नहीं हो जाएगा।

दूसरे अन्य संगठन भी हो सकते हैं। मैं जिस रूप को सामने रखना चाहता हूँ वह जाग्रति का आह्वान है, किसी धर्म-विशेष का संगठन नहीं है। मैं किसी अन्य समाज या दूसरों की बात नहीं करता। मेरे चारों ओर एक छोटी सी जमात है, उसी समाज को केंद्र मान कर मैं यह बात कह सकता हूँ कि उसमे इतनी बीमारियाँ हैं, इतना उपद्रव है, इतनी कुरूपता है कि जो थोड़ा सा भी धार्मिक है, वह चुप-चाप इस कुरूपता, इस गन्दगी, इस मूर्खता और छिछोड़ेपन को सहन करने को तैयार नहीं हो सकता। जो धार्मिक है वह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होगा कि यह बेसुरापन और कुरूपता जीवित रहे और समाज गतिशील रहे। जिस किसी के जीवन में धर्म की थोड़ी सी भी किरण आयी है वह तो आमूल परिवर्तन चाहेगा।

आमूल परिवर्तन का अर्थ है - क्रान्ति। 'क्रान्ति' तो अकेले नहीं हो सकती। क्रान्ति के लिए तो संगठन चाहिए; क्योंकि जब हम कुछ करने चलते हैं, तो उसे रोकने वाली शक्तियाँ, संगठित हो कर सामने आती हैं। उनके ख़िलाफ़ एक व्यक्ति या विचारक का क्या अर्थ हो सकता है; जो अशिष्ट है, ग़लत है, दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाला है; सब के सब संगठित हैं और अच्छा व्यक्ति यह सोच कर कि 'संगठन' की क्या आवश्यकता है, वह चुपचाप बैठा रहे; मैं तो कहूँगा कि वह भी बुरे आदमियों का साथी है, गन्दगी को बढ़ावा देनें में वह भी सहयोगी है। अच्छे आदमी के पिछड़ जानें अथवा बुराई के दिन दूना, रात चार गुना पनपते जानें का यही मूल कारण है कि अच्छा आदमी, भाँति भाँति के बहाने बना कर, संगठित होने से कतराता रहता है।

किसी भी धार्मिक संगठन का मैं भी विरोध करता हूँ, किन्तु संगठन और उससे सम्बद्ध अनुशासन का मैं पक्षधर हूँ - इस भेद को समझ लेना आवश्यक है।

मैं यह कदापि नहीं कहता कि मैं जो कुछ भी कहता हूँ, उसे वैसा का वैसा करना प्रारम्भ कर दो। मैं अपने इस लेख के माध्यम से केवल इतना स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरी बात को सुनो, समझो और उस पर मनन करो, ध्यान दो। मेरी बात समझ लेने के लिए उसको मानना आवश्यक नहीं है। जहां तक बात विकास की है; मेरी बात को मानने से न तो आपका विकास होगा और न ही वह उससे रुकेगा। किन्तु किसी की भी बात को समझ लेने से विकास की संभावनाएं अवश्य बनतीं हैं। क्योंकि जितना आप समझने की कोशिश करते हैं, उतनी ही आपकी समझ विकसित होती है। किन्तु हम उत्सुक हैं - "मानने" अथवा "न मानने" को। क्योंकि समझने में श्रम करना पड़ता है जबकि मानने अथवा न मानने में श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती।

सामान्यतः हमारा हाल यह है कि हम मानसिक रूप से इतने आलसी हो गए हैं कि मन लगा कर या मन से कोई भी श्रम करना ही नहीं चाहते। यही कारण है कि आज "इज़्म" और वाद की भरमार है। भरमार दिखाई पड़ती है - 'गुरुओं' की और नित्य नयी आस्थाओं की। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जिस दिन लोग मानसिक श्रम भी करने को तैयार हो जायेंगे उस दिन तमाम प्रकार के वाद, अनेकों प्रकार के 'गुरू' और उनसे जुडी हुई मोहकता सिकुड़ कर अपने अपने दरबों में क़ैद हो जायँगे। मैं देख रहा हूँ कि आज संसार में आर्थिक शोषण इतना प्रभावी नहीं है जितना कि मानसिक और आध्यात्मिक शोषण।

मेरे मित्रों ! मानसिक या आध्यात्मिक शोषण वह है कि जिसमें मैं सोचूँ और आप मान लें अथवा आप को ज़बरदस्ती मनवा दूँ। पहले मे, आप ने मेरा शोषण किया जब कि दूसरे मामले में मैंने आपका शोषण किया। धन का शोषण इतना भयावह नहीं है जितना  कि मानसिक या आत्मिक। धन छीन लेने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, वोह और अधिक धन कमा लेगा। किन्तु जब किसी व्यक्ति की आत्मा या सोंच छिन जाती है तब उसका सब कुछ छिन जाता है। आज सारा संसार जो आध्यात्मिक व मानसिक रूप से गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है, उसका मूल कारण यह ही है कि आज का व्यक्ति मानसिक आलस्य अथवा 'मेन्टल लेथारजी' से बुरी तरह घिरा  हुआ  है।

एक नए समाज की संभावना की खोज के क्रम में मेरे द्वारा प्रस्तुत, आलेख, जो प्रिय राम प्रसाद से पढ़वाने और उसके प्रवर्तक [author] का नाम गुप्त रखने के परोक्ष में मेरा आशय केवल इतना ही था कि उसकी अंतर्वस्तु पर राजी होने अथवा उस पर सक्रिय व प्रभावी होने से पूर्व, उसको सुनने वाला, उस पर विचार करे और समझे, उसकी आत्मा व  छिपे हुए सन्देश को पहचाने। वस्तुतः एक नए संगठन या आंदोलन को जन्म देने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैंने तो एक विचार-क्रांति  की बात सामने रक्खी थी। 

मैं देख रहा हूँ - समाज व्यवस्था, एक सिरे से दूसरे छोर तक बीमार है। उसमें आमूल - परिवर्तन की आवश्यकता है। यहाँ की व्यवस्था ही अनीति की जन्मदात्री है। मैं "धर्म" की बात नहीं कहता, मूल आवश्यकता तो नैतिकता और नैतिक - जीवन की है और यदि नैतिक -जीवन विकसित करना है तो हमें समाज की समस्त और मूलभूत - धारणा के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। समाज में आमूल - क्रान्ति की आवश्यकता इस लिए है, कि अभी तक व्यक्ति को हम जिस ढाँचे में ढालते रहे हैं, वह ढांचा ही त्रुटिपूर्ण है, वह स्वयं ही अनेकों प्रकार की बीमारियाँ पैदा कर रहा है।  बीमारियाँ, वह ढाँचा पैदा कर कर रहा है और हम किसी न किसी व्यक्ति  को उसका कारण या हेतु बताते हैं। जब कि वह व्यक्ति स्वयं ही, वास्तव में, उस बीमारी का शिकार होता है अतः वह कैसे और क्यों उत्तरदायी हो सकता है। किन्तु विडम्बना इस बात की है कि गत कई हज़ार वर्षों से ऐसा ही होता चला आ रहा है।

सच्चाई यह भी है कि, चोर के पीछे, उसके चोर बनने का कारण उसकी निर्धनता है। पापी के पीछे उसके पापों का कारण उसकी दीन - हीनता है। मैं तो कहूँगा कि जब तक सँसार में दरिद्रता है, दीन-हीनता है, सच्चे अर्थों में किसी को भी नैतिक अथवा नीति संगत बनाये जाने की संभावना ही सरासर निराधार है; उस पर हमेशा अंकुश लगा रहेगा। सारे समाज का धन, एक छोटे से दायरे में इकट्ठा हो और शेष दायरों से हम यह अपेक्षा करें कि लोग लोभी न हों, मोह से रहित हों, प्रतिस्पर्धा न करें, लालच न करें - कितना हास्यास्पद है यह सब? यह कैसे संभव हो सकता है? यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि घर के एक कोने में अच्छे-अच्छे पकवानों व अन्य स्वादिष्ट व्यंजनों की नुमाइश लगी हो और असंख्य भूखे लोग इस घर के चारो ओर उपस्थित हों, उनकी नाक तक उन व्यंजनों की खुशबू पहुँच रही हो, उनकी आँखों तक भोजन की झलक पहुँच रही हो, वे अभी भी उसके लिए उतावले हों, भूख असह्य हो और हम उन्हें उपदेश दें - देखो ! भूल कर भी कभी भोजन की चेष्टा मत करना, उसका विचार भी अपने लोभी मन में न लाना, दूसरे के भोजन की तरफ देखना भी मत। वह पाप है, धर्म-विरुद्ध है।

इतना ही नहीं। मैं तो यह भी देख रहा हूँ कि परिवार सड़-गल रहे हैं। हम उसमें इतने दिनों से रह रहे हैं, हमें पता ही नहीं चला। वह सारा का सारा सड़ गया है। कोई दंपत्ति, कोई भी जोड़ा सुखी नहीं है। कोई पिता सुखी नहीं है, कोई बेटा सुखी नहीं है। कोई माँ, कोई गुरु, कोई शिष्य अथवा संबंधों की कोई भी इकाई, सुखी नहीं है, कोई भी पक्ष अपने प्रतिपक्ष से संतुष्ट व राजी नहीं है। क्यों? क्यों कि हमने कभी इन सम्बन्धो के बारे में अथवा उनकी अहमियत के बारे में सोंचा या विचारा ही नहीं।

ब्रह्मविद्या और अध्यात्म मेरा क्षेत्र है। धर्म पर मेरी दृष्टि है। इसका यह अर्थ नहीं कि जीवन के अन्य पहलुओं पर मैं नहीं सोचता। मैं सर्वप्रथम एक आदमी हूँ, एक गृहस्थ पुरुष हूँ। जिस समाज में मैं रहता हूँ, जिस देश में मैंने जन्म लिया, उसके प्रति क्या मेरा कोई दायित्व नहीं? मेरे परमपूज्य [अध्यात्म] दीक्षागुरु, हज़रत मौलाना शाह फ़ज़्ल अहमद खां साहिब [रहमत उल्ला अलैहि] नक़्शबन्दी मुजद्ददी मज़हरी [निवासी - रायपुर, कायमगंज जिला  फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश] द्वारा दिया गया मेरे लिए यह आदेश "मिशन को दुनियाँ के लोगों तक पहुँचा देना" ही अब मेरा धर्म है। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं कि दुनियां के लोगों के नाम पर मैं 'भीड़' जमा कर लूँ और उस  भीड़ की व्यवस्था का बहाना ले कर, पहले संस्था और उसके बाद एक नया 'गुट' व सम्प्रदाय, एक नया पंथ, मैं अस्तित्व में ले आऊं। उनके उद्देश्यों को आधार बना कर स्वयं उनकी पैरवी करूँ और शीघ्र ही उस समुदाय का मठाधीश बन बैठूँ और इसी क्रम में अपने बाद, अपने उत्तराधिकारी का चुनाव करके उसके नाम की घोषणा, अपने इसी पार्थिव शरीर के चलते, कर जाऊँ। मेरे आस पास एकत्रित अधिकाँश व्यक्ति इसी सब की अपेक्षा मुझसे रखते हैं। नहीं, हरगिज़ नहीं।

मेरी तो अपनी, अभी तक, यही सोच जीवित रही है कि जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म और अध्यात्म के प्रकाश की एक छोटी सी भी किरण आयी है वह उस प्रकाश के सहारे, जीवन के समस्त  और समूचे पहलुओं को देखने में समर्थ हो जाता है। धर्म व ब्रह्मविद्या का दीपक हाँथ में हो तो हम जीवन की समस्त समस्याओं को देखने में समर्थ हो जाते हैं। अतः जीवन के प्रत्येक पहलू पर मेरी दृष्टि है। अब तक का समाज जिस प्रतिमान पर निर्मित हुआ है, वह नितांत अचेतन, ऐतिहासिक प्रक्रिया के सहारे निर्मित हुआ है, सचेष्ट रूप से, विचार करके समाज के किसी भी अंग का निर्माण अभी तक नहीं हो पाया है। अब आवश्यकता इस बात की है की हम सचेष्ट हो कर जीवन के एक एक पहलू पर पुनर्विचार करने की सोचें। सब कुछ बदला जा सकता है।

लाओत्से नामक एक विचारक को पढ़ने का मुझे अवसर मिला। उसने एक स्थान पर लिखा है कि लगभग ढाई हज़ार वर्ष के बारे में उसने अपने पूर्वजों से सुना था कि एक ऐसा समय था कि एक स्थान के दो गाँव के मध्य एक नदी बहती थी। नदी के दोनों और आबादी थी। दोनों ही गाँव के लोगों को परस्पर अस्तित्व में होने की जानकारी मात्र, कुत्ते ही स्रोत थे, जो रात के समय भौंकते थे। अर्थात दोनों ही ओर से कभी, नदी पार करके उस ओर जानें की, किसी ने भी कोशिश नहीं की थी। बड़े ही आश्चर्य की बात थी कि वे किस प्रकार के लोग थे कि पता लगाने नहीं गए। उस ओर के गाँव का। उनका कहना था - इसकी आवश्यकता ही कहाँ थी? वे तो अन्य न जानें कितनी ही बड़ी-बड़ी यात्रायें कर चुके थे। इतनी छोटी-छोटी यात्राओं और इन जगहों को देखने का क्या महत्व था? उनका तर्क था जिनको हीरे - जवाहरात मिल गए हैं, वे कंकड़ - पत्थर बीनते नहीं फिरते। अंत में उन गाँव वालो के लिए लाओत्से की ही प्रतिक्रिया अंकित की थी कि "यदि हीरे - जवाहरात न मिले तो वह जो बीनने की कमी रह जाती है वह कंकड़ - पत्थर भी बिनवा देती है।"

जैसा कि मैं समझ पाया हूँ कि यहाँ पर एक विमित्तीय [dimensional] अंतर आ गया है। एक जो यात्रा होती है, उसे हम ऊर्ध्वाधर [vertical] कह सकते हैं, जो ऊपर की ओर जाती है। दूसरी यात्रा है - समस्तरीय [horizontal] जो मुझसे आप की ओर ले जाती है, आप से मेरी ओर आती है। तल वही है, चाहें कानपुर में रहूँ या मुम्बई में अथवा हिमालय पर चला जाऊं, मैं वही रहूँगा और उसी तल पर रहूँगा। ऊंचाई लाने वाली यात्राएँ - संगीत या साहित्य के अंतर्गत कही जा सकती हैं, क्योँ कि ये बिलकुल ऊर्ध्वाधर यात्रायें हैं। ऐसी यात्राएँ आपको नहीं कहतीं कि आप, यहाँ जाओ, वहाँ जाओ। आप जहाँ हो, वहीं से ऊपर की ओर जाने का रास्ता है। वह रास्ता तो बंद हो गया, क्योंकि आप कहते हैं कि हम वहीं सुन लेंगे। मेरी बात अब संभवतः समझ गए होंगे।

हज़रत बहाउद्दीन नक़्शबन्द [रहमत उल्ला अलैहि] एक ऐसे सूफ़ी संत हुए हैं जिनके नाम पर मेरी गुरु परम्परा का नामकरण हुआ है। आप के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा - "मेरे पास सब कुछ है, धन है, दुनियाँ के एक से एक आराम पहुँचाने वाले साधन हैं, किन्तु उन सबके बावजूद आनन्द नहीं है। कृपया आप मुझे इस संसार का कोई ऐसा व्यक्ति बताइये जो सबसे अधिक आनन्द-सम्पन्न व संतुष्ट हो।" हज़रत ने फ़रमाया - "मैं एक आदमी को जानता हूँ, किन्तु वह बहुत दूर देश में रहता है। लम्बी यात्रा करनी होगी।" उस आदमी ने कहा - "सर्वसाधन मुझे सुलभ हैं, मैं कितनी भी लम्बी यात्रा पर जा सकता हूँ, दूरी की चिंता मुझे नहीं है।" प्रत्युत्तर में हज़रत ने फ़रमाया - "दूरी का प्रश्न नहीं है। ऊँचा जाना पड़ता है, ऊपर। दूर तो तुम जा सकते हो, ऊंचा जाना होगा।" अब वह आदमी कुछ चकराया - "दूर जाने का साधन मेरे पास उपलब्ध है। ऊंचा जाने का साधन, मेरे पास नहीं है। ऊंचा जाने से आपका क्या अभिप्राय है? बैलगाड़ी पर बैठ सकता हूँ, ऊँट पर बैठ सकता हूँ, घोड़े पर बैठ सकता हूँ, मेरे पास सब है, ये लम्बी से लम्बी दूरी तय करा सकते हैं। ऊंचा जाने का अर्थ मेरी समझ से बाहर की बात है।"

इस प्रकार जिज्ञासा करने पर तब हज़रत ने फ़रमाया - "दूरी तय कराने वाले प्रत्येक साधन में तुम सवार हो सकते हो। ऊंचाई पर ले जाने वाले के अंतर्गत तम्हे अपने आप को स्वयं से काटना पड़ेगा, क्यों कि तुम्हारा ही बहुत सा भार [अर्थात 'मैं'] तुम्हे  नहीं जाने देता। उसे तुमको काट - काट कर गिरा देना पड़ेगा। जबकि दूर जाने वाली यात्रा पर तुम अखण्ड व अभग्न रह सकते हो, ऊँचा जाने वाली यात्रा में तुम अखण्डित नहीं रह पाओगे, क्योंकि तुम स्वयं बाधा हो।"

देखो ! यदि गहराई से विचार  करो तो ऊँचे जानें में कोई अन्य बाधा नहीं है, "मैं" बाधा है और 'मैं" ने ही ईंट - पत्थर अपने चारों ओर बाँध रक्खे हैं, वे बाधा हैं। ये एक-एक करके काटने होते हैं। सच्ची बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में लगातार एक असामन्जस्यता बनी रहती है। असँख्य स्तर हैं, असँख्य विचार हैं, असँख्य तनाव हैं। प्रत्येक व्यक्ति चारों ओर से अराजकता और अनेक प्रकार की अव्यवस्था से घिरा हुआ है। जहाँ तक सामंजस्य या संगति और असामंजस्य का प्रश्न है; बाहर से आपको कुछ न कुछ ऐसा करना होगा कि बाहर की लय व संगति को पा कर भीतर की लयहीनता है वह शान्त हो जाय। बाहर आप ऐसी स्थिति उत्पन्न करें कि वहाँ जो भीतर [आदमी] है, वह स्थिर हो जाय, एक क्षण को ही सही, उसे विश्राम मिले। अर्थात हमारा प्रयत्न यह हो कि, समय की कितनी ही छोटी इकाई के लिए ही भले क्यों न हो, वह बाहर की लयबद्धता, भीतर की लयहीनता को तार-तार कर समाप्त कर दे। बस काम हो गया। प्रश्न, आपकी लयबद्धता का नहीं है, असली प्रश्न तो, जो सामने वाला है, उसके भीतर की लयहीनता का है। वह न जाने कितने वर्षों से खोज रहा था, हवा के एक ऐसे झोंके को जो भीतर की सारी उमस और समस्त उपद्रवों को शांत करा दे।

लाओत्से की बात से पूर्व बात चल रही थी - समाज की प्रत्येक इकाई के आमूल परिवर्तन की, नवनिर्माण की, सभी कुछ एक नए सिरे से। परिवर्तन लाना होगा, समाज की बीमार धारणाओं में बीमार धारणाएँ, जो समाज को अनेक वर्गों में विभाजित कराती हैं। आज जिस समाज में हमें रहना पड़ रहा है वह अनेकानेक वर्गों में बंटा हुआ है। आज कोई व्यक्ति जिस वर्ग से आता है वह उसके प्राणों में गहरे संस्कार बन कर बैठा हुआ है। उसके अन्तःकरण में बैठे उस वर्ग विशेष को निकालना होगा। वर्ग को निकालने की चेष्टा करनी होगी।

करना हो तो, भोग और सुख की बात करो। दुःख और दरिद्रता की बात किसी को भी नहीं सुहाती। पहला भाव, धनी या धनवान का है और बाद वाला - गरीब या गरीबी का है। गरीबी, जो चारों ओर व्याप्त है, दृष्टिगोचर है अर्थात साधनहीनता, उसे कोई नहीं चाहता। मैं भी नहीं चाहता। वह तो मिटनी ही चाहिए। लेकिन एक गरीबी और भी है, जो उन्हीं को मिलती है जो स्वेक्षा से उसका वरण करते हैं। किन्तु "ग़रीबी" को स्वेक्षा से कोई कब वरण करता है? जब वस्तुएँ अपने अनुभव से व्यर्थ और अनावश्यक समझ में आतीं हैं। धन की सच्चाई को जब कोई जान जाता है, धन व्यर्थ हो जाता है। यश की बावत कि उसका वास्तिविक अस्तित्व क्या है, जान लेने बाद, यश व्यर्थ प्रतीत होने लगता है। अर्थात जो भी जान लिया जाता है, जिस किसी की भी सच्चाई सामने आ जाती है वह ही व्यर्थ हो जाता है। उससे ऊपर उठ जाना चाहता है।

निर्धनता को लाँघ कर सम्पन्नता और पुनः एक और निर्धनता है। किन्तु इस बाद वाली निर्धनता की बात ही कुछ और है। ईशु ने कहा था - "धन्य है वे लोग जो सच में ग़रीब हैं।" इसका मतलब क्या है? जो ग़रीब या साधनहीन आज दिखाई पड़ते हैं, ईशु उन्हें ग़रीब नहीं मानते क्यों कि ये भीतर से अभी भी अमीर होने की कोशिश में हैं। उनकी आकाँक्षा अमीर बनने की है। उनका चित्त व उनकी लालसा रुपया पाने व उसके संचय की है। बड़े मकान के प्रति उनका आकर्षण है। वह भी वही करना चाहते हैं, जो दूसरे कर रहे हैं। नहीं कर पा रहे हैं इसलिए पीड़ित हैं, दुखी हैं सचमुच ग़रीब नहीं हैं। हम आज जिस समाज का निर्माण  करना चाहते हैं वह समाज धनी, और अधिक धनी होना चाहिए, इतना धनी कि कोई भी व्यक्ति स्वेक्षा से गरीबी का आनन्द उठा सके। गरीब आदमी यदि अमीरी से न गुज़रे तो गरीबी कभी इच्छा नहीं बन पाती, और जब तक गरीबी कभी सु-इच्छा न हो, तब तक सुख नहीं है। ऐसे समाज की स्थापना करनी होगी जहाँ व्यक्ति, स्वेच्छा से गरीबी को वरण करना चाहे।

समाज के अंतर्गत एक सबसे बड़ी धार्मिक प्रथा है; विवाह। इसके प्रति भी मैं कुछ कम चिंतित नहीं हूँ क्योंकि विवाह के नाम पर आज जो कुछ भी दिखाई पड़ रहा है, वह भारी कष्टों का पर्याय है। उसकी राह अनेक दुरूह दुःखों के दोराहे से संपन्न है। वह भोग नहीं दुःख है और सतत दुःख। हो सकता है जो व्यक्ति सुखी रहना चाहता है, इसी लिए विवाह नहीं करना चाहता। उसका यह बुद्धिमानी का लक्षण प्रतीत होता है।

मेरी गुरुपरम्परा के एक आधारभूत स्तम्भ संत हज़रत ख्वाज़ा बाक़ी बिल्ला साहिब [रहमत उल्ला अलैहि] जिनके माध्यम से नक्शबंदिया [सूफी] सिलसिले का भारत में प्रवेश हुआ। उनके संसमरणो के मध्य मुझे एक स्थान पर पढ़ने को मिला कि उनके अनुसार विवाह कर लेने के परिणामस्वरूप ब्रह्मविद्या की साधना में तीन प्रकार के अवरोध आते हैं - पहला कुप्रभाव मन पर जिसमे कामेच्छारूपी अनेक संकल्पों का जन्म होने लगता है, दूसरे कुप्रभाव के अंतर्गत ह्रदय व अंतःकरण की निर्मलता आहत होती है, अनेकों प्रकार के भ्रम उदय होते हैं और तीसरी हानि आत्मिक पटल पर होती है - आकर्षणशक्ति क्षीर्ण व हीन हो जाती है। मेरी अपनी निजी मान्यता भी यही है कि विवाह, सुख का पर्याय नहीं है। अभी तक तो विवाह, निश्चित तौर पर दुःख ही है। मैं चाहता हूँ कि एक ऐसे सँसार का निर्माण किया जाय, जहाँ विवाह निश्चित तौर पर सुख का साधन हो। किन्तु तब विवाह के सामाजिक रूप का, विवाह के संस्कार का ‘पूरा-का-पूरा’ रूपान्तरण कर देना होगा। रीति-रिवाज़, सामजिक भावनाएँ, उनके प्रति अभी तक की सोंच, सभी कुछ जड़ से खोद कर, बदल देना होगा, नयी पौध लगानी होगी।

मैं इस निष्कर्ष पर भी पहुँचा हूँ कि शादी की अनिवार्यता भी बदल देनी चाहिए। ब्रह्मचर्य की बात हो। उसका प्रचार हो, उसको बढ़ावा दिया जाय। इसके लिए यदि संभव हो तो 'ब्रह्मचारी' की परिभाषा ही बदल दी जाय। मेरे मानस में 'तन' से ब्रह्मचारी' नहीं, मन और आचरण से 'ब्रह्मचारी' विराजता है। और यदि ब्रह्मचारी हमारे समाज का अभिन्न और उपयोगी सदस्य बनता है तो उसे आजन्म ब्रह्मचारी रहने की शर्त से मुक्त भी करना होगा। वस्तुतः मैं जिस ब्रह्मचारी का पक्षधर हूँ वह एकान्तवासी हो। अपनी साधना के परिणामस्वरुप वह ऐसा शक्तिसम्पन्न हो जाय कि 'सेक्स' [कामवासना व रत्यात्मकता] की भावना से ऊपर उठ चुका हो। एकांतवासियों से मेरा आशय 'हरमिट्स' से है जो हरमिटेज में ही रहें। अपनी अध्यात्म साधना के अतिरिक्त "धर्म के अनुसार नियोजन" भी उस संगठन का ही दायित्व हो जिसको मैं संस्थापित करना चाहता हूँ। यदि वे निरंतर साधना में लीन रहते हों तो उनकी दैनिक आवश्यकताओं का दायित्व भी उस संगठन का ही होगा। जिसकी बात चल रही है। ये एकांतवासी अखण्ड ब्रह्मचारी न रह कर जितेंद्रीय होना चाइये। आद्यतः मैंने इस योजना का श्रीगणेश, फतेहगढ़ स्थित उस मकान में ही जहाँ मैं रहता हूँ, प्रयोग के तौर पर व गुप्त रूप से कुछ उत्साही  युवक - युवतिओं को साथ ले कर प्रारंभ भी कर दिया है। कुछ क्रांतिकारी स्वतंत्राता संग्राम सेनानी और अन्य हिन्दू, जैन, मुस्लमान सन्यासी व सन्यासिनें छुप-छुप कर मुझसे मिलते रहते हैं और उन्होंने मुझे आश्वस्त भी किया है कि जिस दिन उन्हें आवाज़ दे दूँ अपने-अपने पंथ छोड़ कर आ जायेंगे जो मेरी योजनाओं को अंगीकार कर उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक ही नहीं उसके एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में कार्यरत होने को राजी हो गए हैं। सन्यास व ब्रह्मचर्य की अवधि पर भी कोई बाध्यता नहीं होगी। इसी प्रकार बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें मैं आमने - सामने प्रस्तुत कर पाने में, अपने आनुवांशिक संकोची स्वभाव के कारण असमर्थ था और, वैसे भी भाषण व व्याख्यान या मौखिक बयान के सीमाबन्धन की समस्या भी थी अतः यही कारण बने की मैंने लिख कर एक आलेख के माध्यम से वर्ष 1928 [ई0] में सत्संग के वार्षिक सम्मलेन में प्रस्तुत किया था। उसका जो परिणाम निकला, वह निवेदन कर ही चुका हूँ। लेकिन मैं आप को यह भी निवेदन कर दूँ कि 'क्रान्ति' का दूसरा नाम 'आग' है, जिसे एक अथवा कुछेक व्यक्तिओं द्वारा रोक पाना न कभी संभव हुआ है और न कभी आगे होगा। किन्तु पुनर्गठन का कार्य, जैसा कि मैं चाहता हूँ, वह मेरे दैहिक-जीवनकाल में संपन्न हो पाना तो दूर की बात है, मुझे उसका श्रीगणेश भी हो पाने में संदेह है। किन्तु निराश लेशमात्र भी नहीं हूँ और मैं पूर्णरूप से आश्वस्त हूँ कि आने वाले दो-तीन पीढ़ियों में ही मेरे पोतों-दर-पोतों में से कोई न कोई ऐसा अवश्य सामने आएगा जो इस अद्भुत क्रांति का अग्रदूत और कर्ता बनेगा। अपने श्री श्री गुरुदेव की क्षमता व उनकी अनुकम्पा पर मुझे भरोसा है वे ही उसे यथायोग्य शक्ति देंगे और उसके सर पर अपना वरद-हस्त रख कर उसे पूर्ण भी करेंगे।

मैं निराश नहीं हूँ। मेरी कोशिश जारी है और जारी रहेगी। मैं थक कर बैठे रहने का भी आदी नहीं हूँ। मैं नए से नया सोचता हूँ पर मेरी नज़र लक्ष्य से कभी नहीं हटती। मैं पुनः घोषणा करता हूँ अभी मैं हार नहीं गया हूँ। मानना यह भी नहीं चाहता कि आप या आप में से कोई दीवार हैं। मानने का अभी भी यह मन होता है कि आप मनुष्य हैं। और आपके भीतर भी एक विचारशील आत्मा है। आपकी सारी कोशिश के बावजूद भी आशा को जगाये रखता हूँ और यह कोशिश करता हूँ कि शायद किसी दिन बात सुनायी पड़ जाय। लेकिन अभी तो उल्टा ही मालूम पड़ता है।

अब मुझे वह विचारक सच प्रतीत होता है जिसने लिखा है - "जीसस की हत्या उन लोगों ने नहीं की जिन्होंने उन्हें सूली पर लटकाया। जीसस की हत्या उन ईसाईओं ने की जो उनके अनुयायी हैं।" इसी क्रम में दूसरा विचारक कहता है - "सुकरात को उन्होंने नहीं मारा जिन लोगों ने सुकरात को जहर पिलाया था। सुकरात को वे लोग मार सकते हैं जो सुकरात के शिष्य होने का दावा करते हैं।"
सुकरात जब मरने के निकट था तो उसके एक मित्र क्रेटो ने उससे पूँछा - "हम आपको दफ़्नायेंगे कैसे? क्यों कि साँझ में आपको ज़ह्र [विष] दे दिया जाएगा।" उस पर सुकरात ने हँस कर कहा था - "देखो कैसी हास्यास्पद बात है; वे मेरे दुश्मन हैं जो मुझे मारने की कोशिश कर रहे हैं और ये मेरे मित्र हैं जो मुझे दफ़्नाने की कोशिश कर रहे हैं। ये मेरे कैसे मित्र हैं जो मुझसे पूँछते हैं, दफ़्नायेंगे कैसे।" बाद में सुकरात ने क्रेटो से बड़ी मज़ेदार बात कही थी, पता नहीं वह समझ पाया या नहीं। उसने कहा था "पागल क्रेटो, तुम दफ़्नाने की कोशिश करना, लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ, तुम सब दफ़्न हो जाओगे फ़िर भी मैं ज़िंदा रहूँगा। और अगर कोई तुम्हे याद भी रक्खेगा तो केवल इस लिए कि तुमने सुकरात से प्रश्न पूँछा था कि दफ़्नायेंगे कैसे।" और आज क्रेटो की बावत मात्र इतनी जानकारी मिलाती है कि उसने सुकरात से अमुक प्रश्न पूँछा था।

मेरे हज़रत क़िब्ला एक कहानी सुनाया करते थे। एक बार एक व्यक्ति को सत्य से साक्षात्कार हो गया। शैतान के शिष्यों को यह बात पता चल गयी। वे भागे-भागे अपने गुरु शैतान के पास गए और कहने लगे - "तुम यहाँ सो रहे हो, वहाँ एक व्यक्ति को सत्य के दर्शन हो चुके हैं। हमारी मुश्किल बढ़ जाएगी।" शैतान ने कहा - "घबड़ाओ मत, जा कर गाँव में यह समाचार सब को सुना दो कि अमुक व्यक्ति को सत्य से साक्षात्कार हो गया है, किसी को उसका अनुयायी बनना हो तो शीघ्रता करे।" शैतान के उन शिष्यों ने कहा - "इससे क्या लाभ होगा?  उसका प्रचार क्यों करें?" शैतान ने कहा - "अरे मूर्खों! मेरा हज़ारों साल का अनुभव है कि यदि किसी को उसकी उपलब्धियों से विरत करना हो, उसे नीचे लाना हो, तो उसके आगे-पीछे अनुयायिओं की भीड़ इखट्टा कर दो। तुम जाओ और आस-पास के गाँव में डुगडुगी पिटवा दो कि जिस किसी को भी यदि गुरु चाहिए हो तो अमुक व्यक्ति सत्य को पा गया है। जितने मूर्ख होंगे वे भाग कर आस-पास इकठ्ठा हो जाएँगे और तुम जानते ही हो, एक बुद्धिमान व्यक्ति हज़ार मूढ़ों के मध्य क्या कर सकता है।" और यही हुआ भी। जितने भी भुद्धिहीन थे, वे सब इकट्ठा हो गए। वह आदमी बचाव के लिए भागने लगा। लेकिन उसे कौन बचाता? उसके उन शिष्यों ने उसे कस कर पकड़ लिया। दुश्मन से आप बच सकते हैं, शिष्यों से कैसे बचेंगे? अतः आप फ़रमाते थे, अगर  किसी को सत्य से साक्षात्कार हो जाय तो अनुयायिओं से सावधान रहना, शिष्यों से बचना। वे हमेशा तैयार रहते हैं, शैतान उन्हें सिखा पढ़ा कर भेजता है।   

इस्लाम धर्म की बावत भी हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि किसी भी व्यक्ति के पीर [गुरु] की हैसियत से शिष्य समुदाय अथवा अनुसरण के लिए क़ुरआन पाक अधिकृत नहीं करती। वस्तुतः इस्लाम की प्रजातान्त्रिक प्रवृत्ति सभी प्रकार पाप स्वीकार-पीठिका [confessional] और गुरु [व्यक्ति] पूजा के विरुद्ध है। किन्तु क़ुरआन पाक के कुछ उद्धरण प्रस्तुत  किये जाते हैं जिनमें शिष्यत्त्व सम्बन्धी धर्मानुष्ठानओँ के संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ "ऐ मेरे सन्देशवाहक ! जो कोई भी तुम्हारे हाँथ में अपना हाँथ दे कर बैअत [Oath of allegiance] करे वह बैअत मेरे [परमात्मा के] हाँथ पर [लिए] होगी।"

किन्तु यहाँ जो मैं देख रहा हूँ वह कुछ और ही है। मेरे चारों ऒर जो जमात इकट्ठी है, उसके बारे में अब मैं क्या कहूँ। मुझे हँसी आती है कि वहाँ सुकरात का तो एक ही मित्र था - क्रेटो, जो उससे पूँछने गया था कि  दफ़्नायेंगे कैसे। यहाँ तो मेरे आगे पीछे, मेरे दर्जनों मित्र हैं जो अपने-अपनें ढँग से स्वयं को प्रस्तुत करते हैं और एकांत पा कर पूँछते हैं - "आप के बाद आपका उत्तराधिकारी कौन होगा?" अरे मेरे मूढ़ मित्रों मेरे पास ऐसा है ही क्या जो तुम्हें उत्तराधिकार में दे जाऊंगा। पितरों की जमीन - जायदाद कुछ मुझे दिखाई नहीं देती। और यदि हो भी तो उस पर पहला और क़ानूनी अधिकार बनाता है मेरे एक मात्र पुत्र - जगमोहन नारायण का। किन्तु उसके लिए भी अपनी कुल सम्पदा के तौर पर केवल 'इल्लत' [बीमारी], 'क़िल्लत' [गऱीबी] और ज़िल्लत [बे-इज़्ज़ती], बस इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि माल-मथा के नाम पर मेरे पास एक झीनी कौड़ी भी नहीं है। हाँ, अचल संपत्ति के नाम पर मेरा एक मकान है। अभी तो मैं स्वयं अपने परिवार, जिसमें मेरी पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ व आने - जाने वाले सत्संगी मित्र व भाई बहनेँ रहते हैं। बाद में, यदि वह बना रहा, तो इस में मेरी अगली पीढ़ी की संतानें, मेरे पोते-परपोते रहेंगे।

मेरे पूर्वजों की रईसी और उनकी ज़मीन-ज़ायदाद की बड़ी चर्चा है। हाँ यह सच भी है कि मुग़लकालीन युग में मेरे पूर्वजों को ज़मीदारी में सैकड़ों गांव व चौधरी की उपाधि मिली थी। मेरा बचपन राजकुमारों जैसा रईसी ठाठ-बाट में बीता था। इस सब का सच भी किसी से छुपा नहीं है, बचपन बीत गया और युवा होते होते हम कहाँ से कहाँ आ गए, वह भी निवेदन कर चूका हूँ। मेरे पूज्यनीय पिताजी ने स्वर्गवासी होने से कुछ दिन पूर्व मुझे बताया था कि जो धन-संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त हुयी थी वह भोग-विलास के साधनों में, लड़ाई झगड़ों में व मुक़दमेबाज़ी में समाप्त हो गयी। अंत में उन्होंने बताया था कि खज़ाना [सोना, चांदी, हीरे, जवाहिरात इत्यादि] अकूत संपत्ति अभी भी शेष थी। किन्तु चूँकि उसका 'तिलिस्म' बनाया जा चुका था अतः वह उसमें अंकित हक़दार को ही मिलेगी। अतः उन्होंने उसके बारे में आवश्यक जानकारी विस्तार से दी थी कि कैसे उसको खोला जा सकेगा। और किस प्रकार उस संपत्ति के वास्तविक उत्तराधिकारी का नाम उद्घोषित हो पायेगा। उन्होंने यह भी बताया था कि हमारे पूर्वज श्री मंतोख राय, जो हमारे खानदान की वंशावली में मेरे पूज्य पिताजी [चौधरी हरबक़्श राय] से सात पीढ़ी ऊपर थे, उनके समय में इस तिलिस्म की रचना की गयी थी। मैं यह निवेदन कर चुका हूँ कि हम दोनों भाइयों का सँयुक्त परिवार है, सदस्यों की संख्या अधिक है और आय के स्रोत अति सीमित व न्यून हैं, अंततः जब गृहस्थी की गाड़ी के सुचारु रूप से चलने में कठिनाई आने लगी तब उस तिलिस्म और उसमें दफीनाः [गढ़ा हुआ खज़ाना] की सुधि आयी। पिताजी द्वारा दी गयी आवश्यक जानकारी और मित्रों के सहयोग से भोगावँ [जिला मैनपुरी उत्तर प्रदेश] में उस स्थान को खोजा गया। इस विद्या का जानकार एक तांत्रिक भी हम साथ ले गए थे। पर्याप्त गहरी खुदाई हो जाने के बाद सात फ़िट का एक वर्गाकार चबूतरा मिला। उसको भी खोद कर खोला गया। पर्याप्त श्रम के बाद खोदते-खोदते एक डेस्क हाँथ आयी। उसमे ताला लगा था। उसको तोड़ा गया। डेस्क को खोलते ही ऊपरी खाने में एक लिफ़ाफ़ा मिला व उसमे एक पत्र दृष्टिगत हुआ। उसके साथ ही नीचे के खानों की चाबियाँ थीं और आगे की विधि जानने हेतु निर्देश पुस्तिका भी मिली। ख़ज़ानें की वास्तविक स्थिति अन्यत्र कहीं थी। उसकी जानकारी के लिए कोई तान्त्रिक पूजा इत्यादि की जानी आवश्यक थी। उस लिफ़ाफ़े से निकाल कर पत्र खोला गया जो फारसी भाषा में लिखा था। लिखावट स्पष्ट थी जिसे पढ़ने में  मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। मैं देख कर हैरान रह गया कि वह पत्र मुझे सम्बोधन किया गया था। उस समय के तान्त्रिकों की गणित कितनी अधिक उन्नत व विकसित थी तथा समय का गणन [calculation] की कैसी परिपक़्व  जानकारी उनको थी और अपने किये पर कितना दृढ़ विश्वास था, यह सब देख कर मैं अचम्भित भी था और  प्रभावित भी। उस पत्र में सबसे पहले उस तिलस्म की दौलत का व्योरा था। उसके अनुसार [जिसका वर्णन मन, सेर, छटाँक में था] अधिक तर सोने की गिन्नियां व हीरे - जवाहरात थे। अनेक वेश-कीमती पत्थर भी थे। पत्र में उसका वर्णन विशेष तौर पर अंकित था। जो कि उस ख़ज़ानें का वास्तविक उत्तराधिकारी था, नाम नहीं था, अनेक संकेत थे। उदाहरणार्थ वह मेरे बेटे का बेटा होगा, उसका जन्म बीसवीं शताब्दी के मध्य से छः वर्ष पहले, उस वर्ष के दसवें महीने में होगा और वह अपने पिता की मृत्यु के ठीक दो माह पश्चात् होगा। उसकी देहराशि के बारे में अनेक जानकारियाँ थी। किन्तु अंत में जो कुछ भी लिखा था उसे देख कर मैं काँप गया और सब अपने सामने जैसा का तैसा बन्द करा कर घर वापस आ गया और फिर दोबारा उस ख़ज़ाने की बावत कभी सोचा भी नहीं। उसी दिन स्वप्न में पूज्य गुरुदेव को देखा था। असामान्य रूप से वे मुझसे  प्रसन्न थे : कहते थे "पुत्तूलाल [मैं राम चन्द्र] मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद थी। अपने पोते को मिलने वाले जिस ख़ज़ानें को दुबारा दफ़्न करके छोड़ आये हो, उसकी कीमत का कई गुना तुम उसे दे जाओगे। तुम्हारी ज़ात से जो दौलत उसको मिलने वाली है, दुनियाँ उस पर रश्क़ करेगी। जो काम हम और तुम नहीं कर पाए वह काम उसकी ज़ात [वंश] से होगा। वह कभी किसी का मोहताज या कर्ज़दार नहीं होगा। ख्याल रहे कभी उसकी परवरिश में कमी न रखना। इन्शाअल्लाह; वह तुम्हारे खानदान का नाम रोशन करेगा। मेरी दुआएँ उसके लिए हमेशा ज़िंदा रहेंगी।"

बात जल्दी ही आयी गयी हुयी। मैं उसमे अटका नहीं। गुरुदेव के आशीर्वाद से मेरा काम कभी नहीं रुका। मैं चलता ही गया। पूज्य गुरुदेव हुज़ूर महाराज ने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा यही वजह थी कि मैं न तो कभी भटका और न ही दिशाहीनता ही कभी मार्ग में आयी। मिश्रित अथवा मिली-जुली सफ़लता पर मैंने कभी संतोष नहीं किया।  किन्तु न तो मैं कभी निराश हुआ और न ही कभी पीछे मुड़ कर देखा।

मैं तो वास्तव में अपनी साधना में लीन और लक्ष्य की ऒर बढ़ना चाहता था कि इसी बीच मेरे साथ, मेरे चारों ऒर भीड़नुमा एक जमात इकट्ठी हो गयी। ये लोग अपने-अपने ढंग से मेरा अभिवादन करते, बहुत से दण्डवत हो कर भी। समझने वाले इन्हें मेरा शिष्य-समुदाय समझने लगे हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में, अभी से ये स्वयं ही, गुरु तो कुछ महागुरु दिखाई पड़ते हैं। स्पष्ट है कि अपने-अपने काल व क्षेत्र में वे अपना मत चलाएंगे। बहुत सी संस्थाएं होंगी, अनेक सम्प्रदाय होंगे। सभी का नामकरण, मेरे नाम पर किया जाएगा। मुझे सब पता है। आप व्यर्थ ही चिंतित न हों क्योंकि मेरे निकट के शत-प्रति-शत व्यक्ति ऐसे नहीं हैं, उनमें से अनेक व्यक्ति निष्ठावान भी हैं, किन्तु बहुत कम संख्या में। वे भी इस महान क्रान्ति के अग्निपथ पर स्वयं [बिना सहारे के] चल पाने में असमर्थ हैं, कमज़ोर है।

समग्र क्रांति और समाज की प्रत्येक इकाई के आमूल परिवर्तन कर देने के उतावलेपन की आग मेरे सीने में धधक रही है। उसी का साक्षात स्वरुप मेरे हाथों में मशाल बन कर आया है और उसकी पराकाष्ठा मेरी आँखों से फ़ूट रही है। मुझे प्रतीक्षा है कतिपय उन हांथों की जिन्हे यह धधकती हुयी ज्वाला सौंप कर इस खामोशी से पर्दा कर जाऊँ कि आने वाले युग को इसकी भनक भी न हो कि 'राम चन्द्र' नाम का कोई व्यक्ति दुनियाँ में आया भी था।

परिवर्तन जो कि प्रकृति चाहती है - वह है आद्योपान्त नवीनीकरण। इस निमित्त मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूँ। एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न पुरुष जो कि कभी किसी जन्म में भारद्वाज ऋषि के नाम से लीलारत रहा है और वर्त्तमान समय में वह साधारण सूफ़ी के बाने में कार्यरत है। सच्चा मुसलमान है और उसका नाम 'नूरुलहुदा' है। अति गोपनीय तौर पर उसी कार्य में तल्लीन है जिसके लिए उसको धरती पर भेजा गया है और जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। हमारी सँयुक्ति की जानकारी बहुत थोड़े से कुछ विश्वासपात्र व्यक्तियों के अतरिक्त किसी को भी नहीं है। पिछले जितने भी जन्मों की जानकारी मुझे है प्रत्येक जन्म में ही उनकी दो पत्नियाँ, चार बेटियाँ और एक ही बेटा होता रहा है और वे सभी परिवार के सदस्य उनके अति विश्वासपात्र गोपनीय सहायक के तौर पर उनके साथ रहते हैं। इस जन्म में भी ग़ज़ाला और शबाना नामक दो पत्नियाँ हैं जो अतिसुन्दर व आकर्षक क़द काँठी वाली हैं। ये स्त्रियाँ बड़ी ही शालीन, निपुण और अनेक भाषाओं एवं अभिव्यक्ति में दक्ष हैं। ये दोनों ही इन्हें अकेला नहीं छोड़तीं, कभी भी नहीं। ब्रह्मविद्या व अध्यात्म में भी इनकी समुचित पहुँच व ऊँचाई, कई बार मेरे अनुभव में उजागर हुयी है।

गत दो वर्षों में हज़रत ख्वाजा नूरुलहुदा साहिब से चार बार लम्बी-लम्बी मुलाक़ातें हो चुकीं हैं जिसमें दो बार वे सपरिवार फतेहगढ़ भी आ चुके हैं। हमारा फतेहगढ़ स्थित घर उन्हें  बहुत पसन्द आया। वे एक क्रान्तिकारी संत हैं और प्रकृति उनसे जो कार्य कराना चाहती है उसकी उन्हें भली भांति जानकारी है। उनका कहना है कि उनकी आध्यात्मिक उन्नति में, राम चन्द्र नामक यह सेवक बहुत ही कारगर तौर पर उनका सहायक ही नहीं, कई बार उनका पथप्रदर्शक भी सिद्ध हुआ है। वे इसका बहुत उपकार भी मानते हैं। मैं समझता हूँ यह उनका बड़प्पन और विनम्रता का प्रतीक है। यद्यपि वे एक सिद्ध पुरुष हैं, किन्तु स्वभाव से वे बहुत ही विनोदी और विनम्र हैं। अक्सर वे कहा करते हैं कि मरने में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। लगातार काम करते रहना ही उनकी अभीप्सा है। लगन और मेहनत वे कभी नहीं छोड़ते।

जिस प्रकार नौकरियों में उत्तरदायी पदों पर कार्य करने वाले तब तक कार्यमुक्त नहीं किये जाते, जब तक कि उनके स्थान पर कार्य सम्पादन की समूचित व्यवस्था सुनिश्चित न हो जाय। ख्वाज़ा नूरुलहुदा साहिब ने पूरे पुरज़ोर लहज़े में मुझे भरोसा दिलाया हुआ है कि मैं [राम चन्द्र] कभी भी [कार्यमुक्त हो कर] वापस अपने प्रियतम की गोद में जा सकता हूँ और वे मेरे शेष बचे कार्य को पूरी तन्मयता और कर्तव्यपरायणता के साथ उसको अंजाम देंगे। उनके बयान पर मुझे लेशमात्र भी संदेह नहीं है।

मेरे परमपूज्य श्री गुरुदेव, मेरे हज़रत क़िब्ला द्वारा मुझे संकेत दिए गए हैं, मेरे इस नश्वर देह त्याग के लगभग तेरह वर्षों के बाद उस महामानव का जन्म होगा, जिसकी समस्त सृष्टि को प्रतीक्षा है। वे, जिनके पास आँखें हैं और अंतर्दृष्टि भी है, उसके कार्यविधान और उसके प्रभावों को देख व समझ सकेंगे। जैसा और जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ गौर वर्ण व आकार में अति सामान्य, बिलकुल मेरी ही क़द-काँठी व शक्लसूरत वाला और उसका कोई भी लक्षण ऐसा नहीं होगा जिससे किसी भी प्रकार का संदेह हो सके कि वह कोई विशिष्ट या असामान्य व्यक्ति हो सकता है। शारीरिक लक्षणों में से कुछ ही ऐसे होंगे जो यद्यपि ढँके रहेंगे और जिनको देख कर भी, अति उच्च कोटि के जानकार तान्त्रिक ही उसके अर्थों से परिचित हो पाएंगे। इन लक्षणों के अंतर्गत, पहला तो यह होगा कि उसके दोनों तलवों के अग्रभाग में अँगूठे के सन्निकट, स्पष्ट चक्र स्थित होंगे। ये चक्र इस बात के द्योतक होंगे कि व्यक्ति के पैरों तले लक्ष्मी का वास है। लक्ष्मी स्वयं उस पर आसक्त रहेंगी किन्तु वह उससे निर्लिप्त और अछूता रहेगा। उसका अपना जीवन-यापन कठिनाई से व निर्धनता में ही व्यतीत होगा किन्तु जिस किसी के भी पाले में वह चला जाएगा, वह उसे मालामाल कर देगा। इसी प्रकार उसके कुछ अन्य चिन्ह भी होंगे जिनकी जानकारी, उसकी सुरक्षा की दृष्टि से, यहाँ देना समीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि उनकी जानकारी उसके लिए खतरे की घंटी भी हो सकती है इसलिए उनको गुप्त रखना ही उचित होगा।

मेरे ही समस्त प्रजातिगत लक्षणों से युक्त स्वभाव वाला, मेरा वह प्रतिनिधि अपना समस्त जीवन गुमनामी में व्यतीत करेगा।  'इने-गिने' ['Numbered'] ही उसको समझ व पहचान पाएँगे। प्रकृति की व्यवस्था को समुचित कार्यगति में रखने के लिए ऐसे विशिष्ट पुरुष को शक्ति अपने केंद्र से सीधी प्राप्त होती है। योग में सर्वोच्च कोटि की अन्तरदृष्टि  से संपन्न संत, जिनके पास मुक्त आत्माओं से ध्यान लगा कर बात करने की सुविकसित क्षमता है, सीधे उससे अंतःसम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। जिस कार्य के हेतु उसका चुनाव किया गया है वह उसके उपयुक्त समस्त गुणों से संपन्न होगा और उसको पूरा करके वह चुपचाप निकल जाएगा। देखने वाले, कालान्तर में इन परिणामों को देखेंगे।

इस शताब्दी के अंत तक [संभवतः वर्ष 1999] कुछेक इसके सहायकों के अतिरिक्त किसी को कानोंकान यह भनक भी नहीं हो पाएगी कि ख्वाजा नूरुलहुदा नाम के सूफी संत का पुनर्जन्म हो चुका है किन्तु कुछ ही वर्षों में अर्थात मेरी गणना के अनुसार आगामी शताब्दी के प्रथम दशक के मध्य तक, संसार के चोटी के तांत्रिकों के मध्य, इस समाचार की पुष्टि हो चुकी होगी और परिणामतः उनके अधिष्ठाताओं में से कोई एक होगा जो अपनी योग माया के माध्यम से इस ज्ञानातीत महामानव के प्रति समस्त संदेहों का निवारण भी कर लेगा कि इस साधारण सी देहराशि के भीतर की आत्मा, उनके लिए कितनी अमुलीनिधि सिद्ध हो सकती है। प्रकृति द्वारा स्वचालित घटना क्रम के अंतर्गत यह भी घटित हो सकता है कि इस विशिष्ट पुरुष की आत्मा को, वश में करके, वे अपने ढंग से उसका दुरूपयोग भी करना चाहें।

आमूल परिवर्तन हेतु मेरा प्रतिनिधि-वंशज, जिसे मैं एक "विशिष्ट पुरुष" कह कर उसका प्रकाशन करना चाहता हूँ, वह अनेक पारलौकिक शक्तियों से संपन्न होगा अतः उन अविवेकी तांत्रिकों द्वारा, उस पर कितने भी प्रहार क्यों न किये जायँ वे कामयाब नहीं हो पाएंगे। गुरुजनों द्वारा निर्दिष्ट संकेत है कि माया रंजित इंद्रजाल व अन्य तंत्र विद्याओं में दीक्षित योगनियाँ, जो इस विशिष्ट पुरुष को पतित व क्षत कर देने हेतु भेजी जाएंगी, नाकामयाब और निराश हो कर, कालांतर में उसकी शिष्याएँ बन कर चौकीदारी करेंगी और ब्रह्मविद्या का अग्रवर्ती व उन्नत ज्ञान अर्जित करेंगी। क्योंकि यह विशिष्ट पुरुष, सिद्ध जितेन्द्रिय भी होगा। इसके अतिरिक्त इसकी दो पत्नियां व चार पुत्रियों में से एक पत्नी और दो पुत्रियां साधारण देहधारिणी न हो कर दिव्य व इक्षादेहधारी स्त्रियाँ होंगी जो हर हाल में निरंतर उसके साथ रहेंगी व प्रत्येक मुसीबत व परीक्षा की घड़ी में इसकी सहायक व रक्षक सिद्ध होंगी। अतः मुझे विश्वास है कि मेरे देह त्यागने के बाद, मेरे गुरुजनों का शेष कार्य जो मेरे जीवनकाल में मुझसे न हो पाया वह मेरे [उपरोक्त प्रकार से निर्दिष्ट] उत्तरसाधक के माध्यम से पूर्णता को प्राप्त होगा। इस दिशा में पुनः निवेदन है कि कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण स्वभाव का है और परिवर्तन अवश्यम्भावी है, इसके पश्चात् संसार अपने वांछित स्वरुप में निखर कर सामने आएगा। वह समय अब बहुत दूर नहीं है जब उसके आदेशांतर्गत प्रकृति की विविध शक्तियां, उसके भूमि तैयार कर लेने के पश्चात्, उसके पथप्रदर्शन में कार्य करना आरम्भ कर देंगीं। वे सभी प्रतीक्षरत हैं कि कब उन्हें आवाज़ दी जाय। 

2 comments:

  1. मुझे पढ़ते हुए बहुत ही आनंद महसूस हो रहा है और यह आपने बहुत अच्छा काम किया है भाई साहब मालिक हमेशा आप को स्वस्थ रखें और सामर्थ्य दे कि आप सबका भला करते रहें

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